सोमवार, 29 दिसंबर 2008

जंग तो खुद एक मसला है जंग क्या मसलों का हल होगी

जंग तो खुद एक मसला है जंग क्या मसलों का हल होगीnmumbai आतंकवादी हमले के तुरंत बाद अमरीकी विदेश मंत्री कोंडालिजा राइज भारत के साथ आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता दिखाने के लिए भारत आ पहुंचीं। अब यह तो पता नहीं कि अमरीका का साथ भारत को कितना मिलेगा परंतु इतना अवश्य है कि आतंकवादियों की नजर में भारत अब उतना ही बड़ा निशाना बन गया है जितना अमरीका।राइज का भारत के साथ खड़ा होना हमें महाभारत के युध्द की याद दिलाता है, जहां श्री कृष्ण स्वयं तो पांडवों के साथ थे और उनकी सेना कौरवों के लिए लड़ रही थी। ठीक उसी तरह अमरीका के हथियार और पैसा आई एस आई और पाकिस्तान के पास हैं और भारत के पास मनमोहन के मीत बुश हैं।
मुंबई हमले के बाद एक बहस समूचे देश में चल रही है कि अमरीका में 11/9 के बाद कोई आतंकी घटना नहीं हुई परंतु भारत में एक के बाद एक कई घटनाएं हो चुकी हैं, लिहाजा भारत को भी अमरीका से सबक लेकर पाकिस्तान पर हमला बोल देना चाहिए। सुनने में यह विचार बहुत अच्छा है, परंतु कूटनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के लिहाज से एकदम फूहड और बचकाना।
नि:संदेह मृत्यु कष्टकारी है और ऐसे संदर्भ में जब सामूहिक और हत्या के रूप में हो तो मौत विक्षोभ पैदा करती है। लेकिन 11/9 के बाद अमरीका के नेतृत्व में ‘आतंक के विरुध्द लड़ाई’ के नाम पर जो किया गया है, वह न केवल अमानवीय है बल्कि किसी भी हाल में 11 सितंबर से कम हिंसक और आतंकवादी नहीं है।
11 सितंबर के बाद कई सवाल उभरकर सामने आए हैं, जिनका उत्तर अमरीका की तरफ से आज तक नहीं आया है। विश्व में आतंक के लिए आज जिस इस्लामी फण्डामेंटलिज्म को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, वह अमरीका का ही पाला पोसा हुआ है। सोवियत संघ, अफगानिस्तान और पोलैण्ड जैसे साम्यवादी देशों में कम्युनिज्म की समाप्ति के लिए अमरीका ने इन इस्लामिक फण्डामेंटलिस्ट्स को हथियार, पैसा , प्रशिक्षण और गोला बारूद उपलब्ध कराया।
तो अब वे कौन से कारण हैं कि शीत युध्द की समाप्ति के बाद जब दुनिया एक ध्रुवीय हो गई थी और धुरी अमरीका बन गया था व सारी दुनिया पर अमरीका का आर्थिक व सामरिक साम्राज्य स्थापित हो चुका था, तब सारी दुनिया में आतंक पनप रहा है और अमरीका के ही दिए हथियार तबाही मचा रहे हैं?
गौरतलब है कि पश्चिमी सभ्यता और अमरीका ने अपना आर्थिक साम्राज्य सारी दुनिया पर कायम करने के लिए भूमण्डलीकरण और हथियारों को जरिया बनाया है। सही मायनों में अमरीका की आर्थिक नीतियों के असंतोष से आतंकवाद पनपा है। क्या इस आरोप के समर्थन में एक ही तर्क पर्याप्त नहीं है कि ग्यारह सितंबर को आतंकवादियों ने हमले के लिए ‘स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी’ को निशाना नहीं बनाया, बल्कि भूमण्डलीकरण के प्रतीक ‘विश्व व्यापार केंद्र’ एवं सारी दुनिया में आतंक, हत्या और तख्तापलट के लिए जिम्मेवार माने जाने वाले कुख्यात अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्र केंद्र- ‘पेंटागन’ को ही निशाना क्यों बनाया? क्या कारण है कि दूसरे मुल्कों में भी आतंकवादी हमलों का निशाना ‘अमरीकी वाणिज्य दूतावास’ ही बने है? क्या कारण है कि मुंबई में ताज होटल में हत्यारे आतंकवादी विदेशी पर्यटकों के पासपोर्ट देख देख कर अमरीकी और इसराइली नागरिकों को अपना निशाना बनाते हैं या नरीमन हाउस पर धावा बोलते हैं?
आतंकवाद के विरूध्द अमरीका की लड़ाई बेमानी है, चूंकि अमरीका का अब तक का इतिहास लगातार आतंकवादी जमातों को पालने पोसने और षडयंत्रों तथा हत्याओं के जरिए तख्तापलट का रहा है। शीत युध्द के दौरान समाजवादी देशों में अमरीका ने इस्लामिक फण्डामेंटलिस्ट्स को हथियार और धन मुहैया कराया ताकि वहां तख्ता पलट करके उसकी कठपुतली सरकारें बन सकें। अफगानी मुजाहिदीन और तालिबान भी अमरीका की ही देन हैं, जिन्हें हथियार और धन देकर उसने अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट शासन का तख्तापलट कराया था। स्वयं ओसामा बिन लादेन पहले अमरीकी एजेंट था और सद्दाम हुसैन ने भी अमरीका की शह पर तख्तापलट करके ही सत्ता हथियाई थी।
इसी प्रकार श्रीलंका के आतंकवादी संगठन लिट्टे को अमरीका समर्थित इजराइली खुफिया एजेंसी ‘मोसाद’ ने प्रशिक्षित किया है। क्या यह सच नहीं है कि कालांतर में भारत के खालिस्तानी आतंकवादियों को सी आई ए की मदद मिलती रही है और अमरीका में बैठकर ही खालिस्तान के नेता भारत में अपनी आतंकवादी कार्रवाइयां संचालित करते रहे हैं?
अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर बेगुनाह अफगान नागरिकों की हत्या करने के पीछे भी क्या अमरीका की मंशा सिर्फ तालिबान का तख्तापलट करना ही नहीं था? चूंकि अभी तक न तो ओसामा बिन लादेन पकड़ा गया है और न मारा गया है। मुल्ला उमर भी अमरीकी पकड़ से बाहर है, फिर अमरीका ने अफगानिस्तान में अपना अभियान रोक क्यों दिया है?
क्या इराक पर हमला करने के पीछे भी अमरीका की मंशा वहां सिर्फ सद्दाम का तख्तापलट करना नहीं थी?वरना बुश साहब अभी तक उन जैविक और रासयनिक हथियारों को खोज क्यों नहीं पाए जिनका आरोप सद्दाम के ऊपर मढ़ा गया था। बल्कि ऐसे बम अमरीका के पास मौजूद हैं। कुछ दिन पहले रिपोर्ट्स आई थीं कि ‘सुनामी’ अमरीका के द्वारा समुद्र के भीतर एक आणविक विस्फोट करने के कारण आई थी। फिलिस्तीन के प्रकरण पर भी अमरीका का रवैया आतंकवादी रहा है। इसराइल के विरूध्द जब जब यूएनओ में प्रस्ताव आए तब तब अमरीका ने अपने वीटो का प्रयोग किया और स्वतंत्रता की कामना संजोए फिलिस्तीनियों के दमन में सहयोगी बना। क्या यह सच नहीं है कि सत्तर के दशक में भारत पर हमला करने के लिए अमरीकी नौसेना का सातवां बेड़ा करांची तक आ गया था?
जिस मुल्क ने लगातार तीस वर्ष तक वियतनाम पर नापाम बम बरसाकर धरती लहुलुहान की हो , हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराए हों, इराक में पांच लाख बेगुनाह बच्चों का कत्ल किया हो, उसे यह अधिकार कैसे दिया जा सकता है कि वह तय करे कि कौन आतंकवादी है? और हमारे भद्रजन एक हत्यारे और आतंकवादी मुल्क से ‘आतंक के विरुध्द लड़ाई का सबक सीखना चाहते हैं!
अगर अमरीका, फिडेल कास्त्रो, पुष्प कमल दहल ‘प्रचण्ड’ और अहमदीनेजाद को आतंकवादी घोषित कर दे, तो हम अमरीकी फरमान कैसे मान लें? अमरीकी फरमान मनमोहन सिंह मान सकते हैं, चूंकि वह अभी अभी बुश को ‘आई लव यू’ बोलकर आए हैं, अडवाणी जी मान सकते हैं, क्योंकि उनके गुरु ने अमरीका को धार्मिक योध्दा घोषित किया था। लेकिन सारी दुनिया को गौतम, महावीर और गांधी की अहिंसा व ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का संदेश देने वाला ये भारतवर्ष कैसे किसी आतंकवादी और हत्यारे का हमराह बन जाए?
ग्यारह सितंबर से पहले भी ‘विश्व व्यापार केंद्र’ पर 1993 में आतंकवादी हमला हुआ था, उस समय भी अमरीका ने इस्लामी कट्टरवाद को दोषी ठहराया था।परंतु उसी समय स्वयं अमरीकी खुफिया तंत्र ने खुलासा किया था कि उस हमले के पीछे एक पूर्व अमरीकी सैन्य अधिकारी का हाथ था। उस समय भी एक बड़ा नरसंहार होते होते बच गया था। अफगानिस्तान और इराक में लंबा खूनी सफर तय करने के बाद भी आज तक अमरीका 11/9 के पीछे ओसामा या सद्दाम के हाथ होने का कोई प्रमाण नहीं दे पाया है।
आतंकवाद के विरुध्द युध्द संचालित करने का असल मकसद अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ उठ रहे विश्वव्यापी असंतोष को दबाना है। सारी दुनिया में और खासतौर पर विकासशील देशों में भूमण्डलीकरण (भारत में जिसके पैरोकार मनमोहन और अडवाणी दोनों हैं) और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट खसोट के खिलाफ जनमत तैयार हो रहा है। अगर यही स्थिति रही तो अमरीकी कंपनियों को दुनिया में कारोबार करना दुश्वार हो जाएगा। इसीलिए अमरीका आतंक के खिलाफ लड़ाई में भारत के साथ खड़ा होना दिखाना चाहता है, चूंकि डूबती अमरीकी अर्थव्यवस्था क लिए भारत एक बड़ा बाजार है।
जो लोग अमरीका के नक्शे कदम पर चलने की सलाह दे रहे हैं, क्या वे यह नहीं देख रहे हैं कि अमरीका की इन्हीं युध्दोन्मादी और सामा्रज्यवादी नीतियों और इराक में बुरी तरह घिर जाने के चलते ही उसका दिवाला निकल गया है। दुनिया का हेकड़ दादा आज विश्व का सबसे बड़ा कर्जदार मुल्क है।और जो भारत को अमरीका बनने की सलाह दे रहे हैं उन्हें यह भी तो बताना चाहिए कि अमरीका बनने पर मुंतजिर अल जैदी का जूता भी मुफ्त में मिलता है, इसे लेने को कौन सा हुक्मरां रजामंद है?
फैज अहमद ‘फैज’ की एक लंबी नज्म है, जिसका सारांश है कि जंग तो खुद एक मसला है, जंग क्या मसलों का हल होगी? इसलिए ए शरीफ इंसानों इंसानियत की बेहतरी के लिए जंग टलती रहे तो बेहतर है।
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और एक पत्रिका से जुड़े हुए हैं।)पता-द्वारा एस सी टी मिमिटेडसी-15, मेरठ रोड इण्डस्ट्रियल एरियागाजियाबादउ0प्र0पिन-201003

रविवार, 21 दिसंबर 2008

रामशरण दास: एक समाजवादी संत का अवसान




रामशरण दास: एक समाजवादी संत का अवसान


अपनी बेलाग और मुंहफट टिप्पणियों के लिए पहचाने जाने वाले खांटी समाजवादी नेता रामशरण दास अब नहीं रहे। विगत तीन वर्ष में लखनऊ प्रवास के दौरान उनसे लगभग रोज ही मुलाकात रहती थी। इधर लगभग एक वर्ष से वे अस्वस्थ थे और आखिर में तो संज्ञा शून्य से हो गए थे। स्व. राजनारायण और रामशरण दास के साथ एक लंबा वक्ता गुजारने वाले समाजवादी नेता उमाशंकर चौधरी ने काफी पहले बताया था कि अधयक्ष जी का मस्तिष्क सिकुड़ गया है। ?रामशरण दास उस सियासी जमात के आखरी लोगों में थे जिन्होंने देश और समाज की बेलौस खिदमत की लेकिन अपने लिए एक अदद आशियाना भी न बना सके। उनका निधन केवल समाजवादी पार्टी की क्षति नहीं है बल्कि मूल्यों की राजनीति करने वाले आंदोलन की अपूर्णीय क्षति है। रामशरण दास, रफी अहमद किदवई, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, राजनारायण, सीताराम केसरी जैसे नेताओं की कड़ी में थे जिनका नाम लेकर तो तमाम लोग सत्ताा और दौलत के शिखर पर पहुंच गए, परंतु जो स्वयं अपने या अपने परिवार के लिए कुछ नहीं कर पाए। 2006 में जब विधान परिषद सदस्यों का चुनाव होना था, किसी ने अधयक्ष जी से कह दिया कि बलराम यादव (पूर्वांचल के मिनी मुलायम) ने सुझाव दिया है कि अधयक्ष जी अब बुजुर्ग हो गए हैं और इस बार उनके पुत्र जगपाल को विधान परिषद भेज दिया जाए ताकि अधयक्ष जी के सामने ही उनका पुत्र स्थापित हो जाए। कोई और राजनेता होता तो बलराम के सुझाव पर जमकर गोटें बिछाता लेकिन अधयक्ष जी तो अधयक्ष जी थे सो उखड़ गए और कहने लगे कि बलराम तो मेरा दुश्मन निकला। मेरी जिंदगी भर की राजनीति पर पानी फेरना चाहता है। जगपाल को सदन में जाना है तो काम करे, चुनाव लड़े, रामशरण दास का लड़का होने की वजह से विधान परिषद में नहीं जाएंगे। ऐसा चरित्र कितने सियासी लोगों में है? अधयक्ष जी का लखनऊ का घर समाजवादी आंदोलन के पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं का स्थायी रैन बसेरा था। जिसे कहीं जगह नहीं उसका सहारा अधयक्ष जी। समाजवादी पार्टी के स्थापना के दिन से ही प्रदेश? अधयक्ष बने लेकिन मरते दम तक गाड़ी तो दूर साइकिल भी न खरीद पाए। सरकार में हुए तो सरकारी गाड़ी, नहीं हुए तो पार्टी ने गाड़ी दे दी वरना अपने किसी एक सेवक को साथ लिया और रिक्शे पर चल दिए। कोई बनावट नहीं, कोई दिखावा नहीं। जैसे हैं सामने हैं।? कब किसे क्या कह दें भरोसा नहीं। लेकिन जो कहेंगे सो सोलह आना सच। एक दिन अपने घर पर टिकटार्थ्ाियों और कार्यकर्ताओं से घिरे बैठे थे। एक कार्यकर्ता बोला- 'अधयक्ष जी आप देखिए न कार्यकर्ताओं के साथ टिकट में नाइंसाफी हो रही है, आप दखल दीजिए ना।' एक मिनट चुप रहे फिर बोले तो बेसुरा लेकिन कड़वा सच। बोले-'देखो किसी की नहीं चल रही है। सब अमर सिंह के यहां से तय हो रहा है। शिवपाल सबसे ज्यादा काम करते हैं, लेकिन उनके कंधे पर रखकर बंदूक चलाई जा रही है।' फिर समझाने लगे- ''हमारे देहात में 'टपका' कहलाता है, पका हुआ आम जो पेड़ से टपक जाता है। ये 'टपका' साबित होंगे और बाद में बदनाम शिवपाल को करेंगे।'' चुनाव बाद अधयक्ष जी का कहा सच साबित हुआ। सपा 'टपका' साबित हुई और हार का ठीकरा सबने शिवपाल के ऊपर ही फोड़ा। अधयक्ष जी जिसके खिलाफ हो जाएं, उसे कहीं न बख्शें। विधाान परिषद में नेता प्रतिपक्ष अहमद हसन से महज इसलिए नाराज क्योंकि? हसन पुलिस अफसर रहे थे और अधयक्ष जी जब मंत्री होते थे तब कहीं हसन ने बतौर पुलिस अफसर उन्हें सैल्यूट किया था। सो जब मौका लगे तो कहें हमारा नेता पॉलिटिकल नहीं है पुलिस वाला है। पर अधयक्ष जी जिसे चाहें दिलोजान से चाहें। विधान भवन में अपने दफ्तर पहुंचें तो सबसे पहले लल्लन प्रसाद यादव और नरेश उत्ताम (दोनों एमएलसी) को याद करें। विधान परिषद की बैठक चल रही थी। अधयक्ष जी अपने कमरे में आए तो राकेश सिंह राना पर खासे नाराज। कहें कि ये जो अपना विद्यार्थी नेता है एमएलसी राकेश राना इसे अकल नहीं है। मालूम पड़ा कि शिक्षा पर कोई बहस चल रही थी और भाजपा नेता नेपाल सिंह और राकेश राना बहस कर रहे थे। और अधयक्ष जी राना से कह रहे थे कि इनसे उर्दू पर इनके विचार पूछो। राना ने कहा कि अधयक्ष जी बहस तो दूसरे विषय पर थी। पर अधयक्ष जी की दलील देखें, बोले- 'तुम उसे उर्दू पर घेरते उसका संघी दिमाग घूम जाता और बहस की दिशा बदल जाती।' अब बताइए कितनी लंबी सोच! अधयक्ष जी आरएसएस के घनघोर विरोधी थे लेकिन शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जब वरिष्ठ पत्रकार जे.पी. शुक्ला (जो संघ की विचारधारा से प्रभावित बताए जाते हैं) से अपने दिल का हाल न बताते हों। व्यक्तिगत जीवन में अधयक्ष जी ने कभी राजनैतिक विचारधारा को संबंधों के बीच दीवार नहीं बनने दिया। पूर्व मंत्री अखिलेश दास के लिए उनके मन में हमेशा एक सॉफ्ट कार्नर रहा चूंकि श्री दास बनारसी दास के बेटे हैं। अधयक्ष जी खांटी समाजवादी थे सो सारे समाजवादियों वाले अवगुण भी मौजूद थे। जिंदगी भर व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष और जब किसी के खिलाफ संघर्ष न हो तो अपनों के खिलाफ ही संघर्ष। कभी मधुकर दिघे निशाने पर तो कभी रजनीकांत वर्मा निशाने पर। पिछले वर्ष ही मेरठ में सपा का प्रादेशिक सम्मेलन था। लोग सोच रहे थे कि अधयक्ष जी बीमार हैं सो नया अधयक्ष बनेगा। अधयक्ष जी ने मीडिया के लोगों से कह दिया कि कुछ लोगों ने नए कुर्ते सिलवा लिए हैं। सम्मेलन के बाद लगे बताने कि जनेश्वर मिश्रा ने भगवती सिंह के लिए नया कुर्ता सिलवाया था। अब अधयक्ष जी की बात का मतलब आप स्वयं समझ लें। महिलाओं से गजब का प्रेम रखते थे अधयक्ष जी। कितनी गंभीर चर्चा चल रही हो, आप कितने ही महत्तवपूर्ण और नाम वाले व्यक्ति हों लेकिन अगर कोई महिला अधयक्ष जी से मिलने आ जाए तो तुरंत अधयक्ष जी का हुक्म होता था- 'आप चलें फिर बात करेंगे।' बलवीर सिंह 'रंग' ने कभी कहा था- 'जिनको दोहराएगी महफिल/ऐसे अफसाने हैं हम।' रामशरण दास ऐसा ही अफसाना थे जिन्हें समाजवादी आंदोलन बार-बार दोहराएगा। मुलायम सिंह यादव के इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि रामशरण दास जैसा ईमानदार, निष्ठावान और कर्मठ नेता अब कहां मिलेगा जिसने के लिए अपना सारा जीवन लगा

शनिवार, 20 दिसंबर 2008

बाढ़ त्रासदी की अनकही सुनिए

बाढ़ त्रासदी की अनकही सुनिए
अमलेन्दु उपाध्याय
बिहार की बाढ़ त्रासदी पर पत्रकारों और समाजसेवियों की नई दृष्टि देती रिपोर्टिंग 'अनकही कहानी' हर संवेदनशील व्यक्ति को पढ़नी चाहिए। यह हमें मौतों पर होती घटिया राजनीति और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कार्यपालिका के नंगे यथार्थ से रूबरू कराती है
11 सितंबर को अमरीका में हवाई हमले में लगभग 5 हजार लोग मारे गए थे। आज भी उनकी याद में मोमबत्तिायां जलाई जाती हैं। भारतीय मीडिया भी इन तस्वीरों को प्रसारित करता है। क्या 18 अगस्त की याद में भी, जिसमें 50 हजार लोग मारे गए, मोमबत्तिायां जलाई जाएंगी?
यह सुलगता हुआ सवाल किया गया है 'बाढ़-2008' पर फ्री थिंकर्स की ओर से जारी 'अनकही कहानी' के मुखपृष्ठ पर ही। जाहिर है जवाब भी सवाल के माफिक सुलगता हुआ ही होगा - 'नहीं। कारण? हम-आप सब जानते हैं।'
बिहार की कोसी बाढ़ त्रासदी पर पत्रकारों और समाजसेवियों की नई दृष्टि देती रिपोर्टिंग हमें मौतों पर होती घटिया राजनीति और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कार्यपालिका के नंगे यथार्थ से रूबरू कराती है। 'बाढ़ की जाति' में प्रमोद रंजन बताते हैं कि किस प्रकार जदयू नेता शिवानंद तिवारी ने निहायत ही फूहड़ और घटिया बयान देकर 'भाई का दर्द भाई ही समझता है' साबित कर दिया है कि इस विकराल आपदा के समय बिहार में घृणित राजनीति ही नहीं चल रही है, बल्कि इसके पीछे एक कुत्सित जातिवाद भी चल रहा है, जो यह हुंकार भर रहा है कि 'यादवो, दलितो, अति पिछड़ो! तुम्हारे समर्थन का भी हमारे लिए कोई मोल नहीं है।'
प्रमोद रंजन की रिपोर्ट बताती है कि जाति बिहार की नस-नस में कूट-कूट कर भरी है। मेधा पाटकर के साथ आए 'घर बचाओ' आंदोलन के कार्यकर्ताओं के द्वारा लाई गई सहायता सामग्री को कैसे कैपिटल एक्सप्रेस के गार्ड उदयशंकर ने गालियां बकते हुए फिंकवा दिया, चूंकि ये कार्यकर्ता दलित थे।
रपट के अंत में प्रमोद कहते हैं कि सुशील मोदी बता रहे हैं कि केमिकल 'गुजरात' से आ रहा है (और शायद आइडिया भी)। राज्य सरकार की ओर से पहली बार व्यवस्थित ढंग से आदमियों के शवों को भी ठिकाने लगाया जाएगा। न बदबू आएगी, न आक्रोश फैलेगा.....मरे तो शूद्र हैं। भाजपा जिस मनुवाद में विश्वास करती है, उसके अनुसार शूद्र और पशु एक समान होते हैं।
अष्टावक्र कहते हैं कि ठीक उसी तरह जैसे प्रेमचंद के 'कफन' में घीसू और माधव कफन के लिए चंदा कर रहे हैं, उसी तर्ज पर नीतीश चंदा कर रहे हैं। वे कहते हैं कि सब कुछ समय से होगा। हिटलर जिंदाबाद का नारा है। भावी इतिहास हमारा है। नीतीश हिटलर के बिहारी अवतार हैं। दोनों समाजवादी। दोनों विकास-पुरुष। हिटलर ने कहा था- गर्व से कहो हम जर्मन हैं। नीतीश ने कहा है- गर्व से कहो हम बिहारी हैं। विकास की जो मिसाल हिटलर ने रखी थी, वही मिसाल नीतीश ने रखी है।
एक संवाददाता की डायरी में कितना मार्मिक चित्रण है कि दिल दहल जाए- 'बाढ़ पीढ़ितों द्वारा कहा गया हर वाक्य खबर है...अस्पतालों में गर्भवती महिलाओं की भीड़ थी। किसी के गर्भ से हाथ निकाले बच्चा चार दिनों से पड़ा था, तो कोई खून से लथपथ अस्पताल के फर्श पर पड़ी थी।....नवजात बच्चे दम तोड़ रहे थे।' आरएसएस के ऊपर टिप्पणी करते हुए यह संवाददाता कहता है- 'भाजपा के एक नेता कहते हैं कि यहां ईसाई मिशनरियों की दाल नहीं गलने दी जाएगी। बाबा रामदेव से बात हो गई है कि जितने बच्चे अनाथ हो गए हैं उन्हें गोद ले लिया जाएगा। आखिर आरएसएस जिंदा ही है इन्हीं हथकंडों के कारण। मेरा ध्यान तो रामदेव पर अटका है। बाबा रामदेव माने रामदेव यादव। वैसे ही जैसे लालू प्रसाद माने लालू यादव?' टिप्पणी बहुत गंभीर है।
कोसी के पीड़ितों की अनकही कहानी वहां से शुरू होती है, जहां से शब्द अभिव्यक्ति की सामर्थ्य खोने लगते हैं। अपने परिवार के छह सदस्यों को खोने वाले हशमत की व्यथा के लिए न 'व्यथा' शब्द पर्याप्त है न ही नाव पलटने के बाद गर्भवती पत्नी और बच्चों के लिए बिलखते हशमत को पीटकर कोसी की अथाह धारा में फेंक देने वाले सैनिकों की क्रूरता के लिए 'क्रूरता'। डायरी के अंत में संवाददाता कहता है- 'थोड़ी देर लेटता हूं। सोकर क्या करूंगा...सुबह की पहली ट्रेन से उस पटना नगरी में लौटना है, जहां सत्तााधीश बाढ़-पीढ़ितों के लिए राहत शिविर चलने नहीं देना चाहते।'
आखिरी रपट में सत्यकाम की उलाहना नीतीश के लिए काफी गंभीर है, लेकिन क्या नीतीश भी सीख लेने का समय निकालेंगे? - 'बांध 18 तारीख को टूटता है, नीतीश की खुमारी 24 को टूटती है। चिल्लाते हैं- जा रे यह तो प्रलय है।.....नीतीश कुमार!....हजारों लोग बाढ़ से निकलकर सुरक्षित स्थानों पर जा रहे हैं। आप भी उस जानलेवा बाढ़ से निकलिए, जिसमें गरदन तक डूब चुके हैं। आपके इर्द-गिर्द सांप, बिच्छुओं का और लाशों का ढेर लग गया है।'
'अनकही कहानी' को पढ़ते हुए आप सिर्फ बाढ़ की विभीषिका पर टिप्पणियां ही नहीं पढ़ते हैं, बल्कि उस संत्रास और दर्द से गुजरते हैं, जिसकी कल्पना मात्र से आप अपनी सुध-बुध खो बैठें। महाकवि धूमिल ने कहा था- 'शब्द मित्रों पर कारगर होते हैं।' इसलिए अगर आप में एक इनसान का दिल धड़कता है और आपका जमीर जिंदा है और शिराओं में खून अभी बाकी है तो इस अनकही कहानी को सुनते हुए आप के अंदर उबाल आ सकता है- सत्ताा के प्रति, धर्म के प्रति, सरकारी मशीनरी के प्रति और सबसे ज्यादा अपने बहैसियत एक इनसान होने पर हिंदुस्तान में जन्म लेने के प्रति। हर संवेदनशील व्यक्ति को अनकही कहानी अवश्य पढ़नी चाहिए। बाबा नागार्जुन के शब्दों में- अन्न पचीसी मुख्तसर, लोग करोड़-करोड़/ सचमुच ही लग जाएगी आंख कान में होड़।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

जरदारी से नहीं बुश से मांगो मसूद अजहर

जरदारी से नहीं बुश से मांगो मसूद
अज़हर

अमलेन्दु उपाध्याय -

अमलेन्‍दु उपाध्‍यायसुषमा स्वराज भाजपा की कोर ग्रुप की सदस्या हैं। यूं तो उनकी पृष्ठभूमि समाजवादी है, पर उन्होंने संघ की शाखा भले ही ज्वाइन न की हो पर झूठ को सच दिखाकर बोलने का संघी प्रशिक्षण उन्होंने जरूर ग्रहण किया है। लेकिन उनकी समाजवादी पृष्ठभूमि उनके संघी प्रशिक्षण पर यदा कदा हावी हो ही जाती है खासतौर पर तब वह झूठ बोलकर अपनी कुटिल मुस्कान से झूठ को सच दिखाने का प्रयास करती हैं।
जयपुर, बेंगलुरू और सूरत-अहमदाबाद की घटनाओं के बाद सुषमा जी ने कुटिल मुस्कान बिखरते हुए जो कहा था उसका लब्बो लुबाव था कि तीनों भाजपा शासित राज्यों में क्रमवार बम विस्फोटों के पीछे कांग्रेसी हाथ था। सुषमा जी राजग सरकार की महत्वपूर्ण नीति निर्धारकों में रही हैं और वे भली भांति जानती हैं कि सत्ता के खेल कैसे खेले जाते हैं। लिहाजा जो उनके अपनी सरकार के समय के अनुभव थे, वे उन्हीं के आधार पर ही बोल रही थीं। परंतु अब सुषमा जी क्या कहेंगी कि दिल्ली, फिर असम और अब मुंबई तीनों कांग्रेस शासित राज्य हैं, जहां आतंकी हमले हुए हैं और उनका राजनीतिक लाभ भाजपा को मिला है। अगर सुषमा जी का पहले दिया गया वक्तव्य सही था तो निश्चित रूप से दिलली, असम और मुंबई की घटनाओं के पीछे कौन है, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
सुषमा स्वराज हों या आडवाणी जी, ये सियासी वाचाल लोग हैं। लेकिन मनमोहन सिंह तो धीर गंभीर अधिकारी हैं ( माफ करें मनमोहन के लिए नेता शब्द प्रयोग नहीं किया जा सकता चूंकि नेता अपने फॉलोअर्स के कारण्ा बनता है भले ही वो शाहबुद्दीन हो या फिर पप्पू यादव लेकिन मनमोहन सिंह किसके नेता हैं ?) अगर वे चाहते तो इस समस्या का हमेशा के लिए खात्मा कर सकते थे चूंकि उनका कुछ भी दांव पर नहीं लगा था। अगर मान लिया जाए कि आम चुनाव के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो जाएगी तो भी कांग्रेस उन्हें दोबारा प्रधानमंत्री तो बनाने से रही! और अगर कांग्रेस की लुटिया डूब जाती है तो वैसे ही अ-सरदार प्रधानमंत्री का बिस्तरा गोल है। सो मनमोहन सिंह अगर चाहते तो इस समस्या का निदान कर सकते थे लेकिन वे ठहरे मुनीम सो विदेशी मोर्चे पर अमरीका की कठपुतली बन गए और घरेलू मोर्चे पर भाजपा के चक्रव्यूह में फंस गए ।मनमोहन सिंह की अमरीका और बुश से दोस्ती से फायदा यह हुआ कि जैसे ही मुंबई में शूट आउट रुका वैसे ही अमरीकी खुयिा एजेंसी एफबीआई और इसराइली खुयिा एजेंसियों के अधिकारी मुंबई पहुंच गए। लेकिन इसराइली खुफिया अधिकारियों ने पहुंचते ही जो बयान दिया उसमें हमारे सैन्य बलों को नाकारा साबित कर दिया आर पूरे शूट आउट को विफल घोषित कर दिया।
अब अगर पूछा जाए कि अमरीका और इसराइल भारत के इतने ही हमदर्द थे तो इनकी सेनाएं अफगानिस्तान और इराक में डेरा डाले बैठी हैं, उन्हे तुरंत मुंबई क्यों नहीं भेज दिया? कोंडालिजा राइज तुरंत भारत आ गईं लेकिन पाकिस्तान को दी जा रही अमरीकी आर्थिक सहायता आज तक बंद नहीं की गई है। ऐसा क्यों? अगर पाकिस्तान को अमरीकी आर्थिक सहायता और अमरीकी हथियार मिलना बंद हो जाएं तो पाकिस्तान की अकल तो 24 घंटे में दुरूस्त हो जाए।
जो सूचनाएं मिल रही हें, उनके अनुसार हमलावर आतंकवादियों ने ताज होटल और नरीमन हाउस में चुनचुनकर अमरीकी और इजराइली नागरिकों को मारा। इसके गूढ़ अर्थ हैं। 9/11 के बाद अमरीका में घुसना इन आतंकवादियों के लिए आसान नहीं रहा, लेकिन अमरीका के नए दोस्त मनमोहन के उस भारत पर हमला तो आसान है, जिसकी सेना में कर्नल पुरोहित जैसे लोग हैं। मुंबई पर हमला भारत सरकार की अमरीकापरस्त नई विदेश नीति और इजराइल अमरीका के साथ संयुक्त नौसैनिक अभ्यास को चुनाती है।
तमाशा यह है कि अमरीका, अडवाणी और मनमोहन सिंह तीनों कह रहे हैं कि आई एस आई ने हमला कराया, लेकिन तीनों में से कोई भी यह बताने को राजी नहीं है कि आई.एस.आई को प्रशिक्षण हथियार, पैसा और मादक द्रव्य सीआईए से मिल रहे हैं। क्यों नहीं मनमोहन सिंह और अडवाणी सीआईए के खिलाफ बोलते?
घरेलू राजनीति में भी मनमोहन सिंह भाजपा के चक्रव्यूह में फंस गए हैं। मनमोहन सिंह, मनमोहन से कड़क सिंह बनने के चक्कर में युध्दोन्मादी भाषा बोल रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि चुनाव से पहले अगर पाकिस्तान से जंग-जंग खेल लिया जाए तो कांग्रेस को वैसा ही फायदा होगा जैसा कारगिल के बाद भाजपा को हुआ था। यह आत्मघाती सोच है। अडवाणी जी भी मनमोहन के मन की बात ताड़ गए हैं, सो पहले सरकार को नाकारा तो कह रहे थे लेकिन नेकर वाले पिछले 61 वर्षों से जो भाषा ‘नक्शे में से नाम मिटा दो पापी पाकिस्तान का’ बोलते रहे हैं, अब उसे बोलने से परहेज कर रहे हैं।
मनमोहन सिंह पाकिस्तान से मसूद अजहर और दाउद को मांग रहे हैं, पाकिस्तान बदले में भारत से बाल ठाकरे मांग रहा है। ये एक्सचेंज बुरा तो नहीं है? अगर एक बाल ठाकरे पाकिस्तान को सौंपकर भारत में शांति आ जाए तो बुरा क्या है? वैसे भी ठाकरे को भारत में वोट का अधिकार समाप्त है। अगर चीन भारत से दलाई लामा, श्रीलंका प्रभाकरण और नेपाल योगी आदित्यनाथ मांगे तो भारत दे देगा? फिर पाकिस्तान से हम किस आधार पर उम्मीद कर रहे हैं कि वह उन आतंकवादियों को हमें सौंप देगा जिन्हें जसवंत सिंह सरकारी दामाद बनाकर कंधार छोड़कर आए थे।
परंतु मनमोहन की समस्या यह है कि वह हमला तो पाकिस्तान पर कर रहे होते हैं और दिमाग में उनके अडवाणी जी घुसे होते हैं। लेकिन मनमोहन यह क्यों भूल जाते हैं कि वो जिस पाकिस्तान से मसूद अजहर मांग रहे हैं वह अब जरदारी का है जिसकी बीबी काें इन्हीं आतंकवादियों ने मारा है और उसमें आईएसआई का हाथ है। जरदारी के सामने नई मुश्किलें खड़ी करके मनमोहन सिंह, अडवाणी के दबाव में ऐसा काम कर रहे हैं जो भारत के लिए हमेशा के लिए नासूर बन जाएगा। हम यह बात क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि सुरक्षित और शांत भारत के लिए पड़ोस में लोकतांत्रिक पाकिस्तान का होना बहुत जरूरी है।जब तक वहां सैन्य सरकार या सेना का हस्तक्षेप रहेगा तब तक भारत में शांति बहाल नहीं हो सकती।
भारत को अगर दबाव बनाना है तो जरदारी के बजाए उस जॉर्ज बुश पर बनाए जिसे मनमोहन सिंह अभी थोड़े समय पहले ही आई लव यू बोल कर आए है। और जिसके पिता सीनियर बुश ने माफियाओं और तस्करों को जोड़कर सीआईए बनाई थी। वैसे अडवाणी जी और मनमोहन के मीत बुश साहब अभी तक पाकिस्तान में मौजूद ओसामा, जवाहिरी और बैतुल्ला को ना मार पाए हैं और न पकड़ पाए हैं, फिर मनमोहन को कैसे मिलेगा मसूद अजहर? मांगा तो पाकिस्तान से बुश ने भी दाउद को था, पर मिला तो नहीं ! मतलब जो काम खुद नहीं कर पाए उसे मनमोहन से कराना चाहते हैं बुश??????

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

करकरे तुझे सलाम

करकरे तुझे सलाम
26/11 ब्लैक नवंबर, केवल मुंबई पर हमला नहीं था, बल्कि यह हमला धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक संविधान और समूचे भारतीय गणतंत्र के साथ साथ इंसानियत पर भी हमला था। इस हमले में मुंबई एटीएस के बहादुर महानिदेशक हेमंत करकरे और दो अन्य अधिकारियों समेत 20 सिपाहियों को अपनी जान गंवानी पड़ी। यूं तो हर मुठभेड़ में ( जो वास्तविक हो ) में किसी न किसी सैनिक को जान गंवानी पड़ती है लेकिन करकरे की पीठ पर वार किया गया और हत्यारे करकरे का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा सके।
जब जब मुंबई हादसे और करकरे का जिक्र आ रहा है तो बार बार ब्लैक नवंबर से महज दो या तीन दिन पहले करकरे का वह वक्तव्य याद आ जाता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि मालेगांव बमकांड में पकड़े गए आतंकवादियों के पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई से संबंध हैं। करकरे के इस बयान के बाद ही भगवा गिरोह के कई बड़े गददीदारों के बयान आए थे कि 'एटीएस की सक्रियता संदिग्ध है'। देखने में आया कि करकरे के इस बयान के तुरंत बाद ही मुंबई पर हमला हो गया।
क्या करकरे की शहादत एटीएस को चुनौती है कि अगर करकरे की बताई लाइन पर चले तो अंजाम समझ लो? करकरे की बात अब सही लग रही है , क्योंकि हमलावर आतंकवादी मोदिस्तान गुजरात के कच्छ के रास्ते ही बेरोक टोक और बेखौफ मुंबई तक पहुंचे थे। इससे पहले भी कई बार खुलासे हो चुके हैं कि देश में आरडीएक्स और विस्फोटकों की खेप गुजरात के रास्ते ही देश भर में पहुंची। भगवा गिरोह गुजरात को अपना रोल मॉडल मानता है और परम-पूज्य हिंदू हृदय समा्रट रणबांकुरे मोदी जी महाराज घोषणाएं कर चुके हैं कि गुजरात में आतंकचाद को कुचल देंगे।ष्लेकिन तमाशा यह है कि जो लोग 26 नवंबर की शाम तक करकरे को खलनायक साबित करने पर आमादा थे अचानक 27 नवंबर को उनका हृदय परिवर्तन हो गया और उन्हें अपने कर्मों पर इतना अधिक अपराधबोध होने लगा कि वो करकरे की विधवा को एक करोड़ रुपए की मदद देने पहुंच गए। लेकिन जितनी ईमानदारी और बहादुरी का परिचय करकरे ने दिया उससे दो हाथ आगे बढ़कर उनकी विधवा पत्नीष्ने एक करोड़ रुपए को लात मारकर करकरे की ईमानदारी और बहादुरी की मिसाल को कायम रखकर ऐसे लोगों के मुंह पर करारा तमाचा मारकर संदेश दे दिया कि जीते जी जिस बहादुर को खरीद नहीं पाए उसकी शहादत को भी एक करोड़ रुपए में खरीद नहीं सकते हो गुजरात में मंदिर गिराने वाले भगवा तालिबानों!
ब्लैक नवंबर से रतन टाटा को 4000 करोड़ रुपए का नुकसान हो सकता है, देश की आर्थिक राजधानी मुंबई को कई हजार करोड़ रुपए और सौ से अधिक जानों का नुकसान हो सकता है। करकरे समेत 20 जाबांज सिपाहियों की शहादत से सैन्य बलों को नुकसान हो सकता है, लेकिन इसका फायदा सिर्फ और केवल सिर्फ भगवा गिरोह को हुआ है और उसने यह फायदा उठाने का भरपूर प्रयास भी किया है। करकरे की शहादत के बाद अब लंबे समय तक मालेगांव की जांच ठंडे बस्ते में चली जाएगी और गिरफ्तार भगवा आतंकवादी ( कृपया हिंदू आतंकवादी न पढ़ें चूंकि हिंदू आतंकवादी हो ही नहीं सकता! ) न्यायिक प्रक्रिया में सेंध लगाकर बाहर भी आ जाएंगे और जो राज ,करकरे खोलने वाले थे, वह हमेशा के लिए दफन भी हो जाएंगे।
हमारे पीएम इन वेटिंग का दल लाशों की राजनीति करने में कितना माहिर है, इसका नमूना 27 नवंबर को ही मिल गया। 27 नवंबर को जब मुंबई बंधक थी, सैंकड़ों जाने जा चुकी थीं और एनकाउंटर चल रहा था, ठीक उसी समय टीवी चैनलों पर एक राजस्थानी हसीन चेहरा ( जो रैंप पर अपने जलवे बिखरने के कारण भी सुर्खियों में रहा है ) आतंकवाद पर विफल रहने के लिए कांग्रेस और केंद्र सरकार को कोस रहा था और ' भाजपा को वोट / आतंक को चोट ' का नारा दे रहा था। अगर आतंक पर चोट के लिए भाजपा को वोट देना जरुरी है तो 26 नवंबर की रात से लेकर 29 नवंबर तक आतंक को कुचल देने वाले मोदी जी महाराज, पीएम इन वेटिंग, दुनिया के नशे में से पापी पाकिस्तान का नामो निशान मिटा देने की हुकार भरने वाले हिंदू हृदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे किस दड़बे में छिपे थे? ये वीर योध्दा कमांडो के साथ क्यों लड़ाई में शामिल नहीं थे? भगवा गिरोह कहता है कि केंद्र सरकार नपुंसक है, हम भी मान लेते हैं कि केंद्र सरकार नपुंसक है। लेकिन 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद शहीद करने वाले और मुंबई, सूरत, अहमदाबाद की सड़कों पर कांच की बोतलों पर स्त्रियों को नग्न नचाने और सामूहिक बलात्कार करने वाले वो बहादुर भगवा शूरवीर किस खोह में छिपे थे? मुंबई के पुलिस महानिदेशक को, वर्दी उतारकर आने पर यह बताने कि मुबई किसके बाप की है ,चुनौती देने वाले मराठा वीर राज ठाकरे कहां दुबक गए थे ? पाक आतंकी तो वर्दी उतार कर आए थे। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रो0 गिलानी पर थूकने वाले वीर मुंबई में थूकने क्यों नहीं गए?
याद होगा कि बाटला हाउस एनकाउंटर के बाद भाजपा ने कांग्रेस से पूछा था कि वह इंसपैक्टर शर्मा को श्शहीद मानती है या नहीं ? ठीक यही सवाल आज हम अडवाणी जी और परम प्रतापी मोदी जी से पूछना चाहते हैं कि वे करकरे को शहीद मानते हैं कि नहीं ? अगर नहीं तो मोदी करकरे की विधवा को एक करोड़ रुपए देने क्यों गए थे ? यदि इसलिए गए थे कि करकरे शहीद हैं तो स्वीकार करो कि करकरे ने जो कहा था कि मालेगांव के आतंकवादियों के आईएसआई से संबंध हैं, सही है और मुंबई हमला आईएसआई ने इसी सत्य पर पर्दा पर डालने के लिए कराया है।
मुंबई हादसा एनडीए सरकार द्वारा देश के साथ किए गए उस विश्वासघात का परिणाम है, जब भाजपा सरकार ने आतंकवाद के मुख्य सा्रेत खूुखार आतंकवादियों को सरकारी मेहमान बनाकर कंधार तक पहुचाया था और आज तक उस विश्वासघात के लिए भाजपा ने देश से माफी नहीं मांगी है, जिसके चलते आतंकी घटनाओं से बारबार भारत का सीना चाक होता है और करकरे जैसे बहादुर जांबाज सिपाही शहीद होते हैं। आखिर वह कौन सा कारण है कि मोहनचंद शर्मा की अंत्येटि में पहुंचने वाले लोग करकरे को आखरी सलाम करने नहीं पहुंचते हैं और 20 सैनिकों की शहादत के बाद भी उन्हें ये देश नपुंसक नजर आता है ???????
करकरे भले ही आज नहीं है, लेकिन करकरे की शहादत आतंकवाद विरोधी लड़ाई को हमेशा ज्योतिपुंज बनकर रास्ता दिखाती रहेगी और उनका यह मंत्र कि 'आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता है' आतंकविरोधी मिशन को पूरा करने का हौसला देता रहेगा। करकरे तुझे लाख लाख सलाम।
( लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं।)