बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

एंडलेस वेटिंग लिस्ट को अभिशप्त अडवानी


एंडलैस वेटिंग लिस्ट को अभिशप्त अडवाणी
अमलेन्दु उपाधयाय

कभी 'डिफरेंट विद अदर्स' का घमंड करने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अब 'पार्टी विद डिफरेंसेस' बन कर रह गई है। पहले तो मनमोहन सिंह ही अभी पी एम की कुर्सी खाली करने वाले नहीं हैं जबकि भाजपा ने जिन लाल कृष्ण अडवाणी को स्वयं 'पी.एम. इन वेटिंग' तय किया था उनकी वेटिंग लिस्ट को एंडलैस (अंतहीन) बनाने के लिए स्वयं भाजपाई कर्णधार जुट गए हैं।

लोगों को याद होगा कि जब 1984 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 2 के आंकड़ें पर सिमट गई थी तब आरएसएस के चहेते और निष्ठावान संघ कार्यकर्ता लालकृष्ण अडवाणी को भाजपा की कमान बहुत ही हताशा और निराशा के माहौल में सौंपी गई थी। यह वह दौर था जब अपनी स्थापना (तकनीकी रूप से, हालांकि भाजपा का पुराना रूप जनसंघ है) के शुरूआती दौर में ही उसका गणित गड़बड़ाने लगा था। अटल बिहारी वाजपेयी निश्चित रूप से उस समय भी भाजपा के बड़े और सर्वमान्य नेता और स्टार प्रचारक थे, लेकिन जब कमान अडवाणी जी के हाथ आई तो उन्होंने कट्टर हिंदुत्व की राह पकड़ी और 'राम मंदिर/बाबरी मस्जिद' विवाद को हवा दी। संक्षेप में इतना ही कि भाजपा को 2 के स्कोर से सत्ताा तक पहुंचाने में जिस एक व्यक्ति का सर्वाधिक योगदान है वह शख्स लाल कृष्ण अडवाणी ही हैं।
लेकिन अडवाणी जी को भी याद होगा कि 90 के दशक के शुरूआती दौर में भाजपा के त्रिदेव 'अवाजो जी' समझे जाते थे। यानी अडवाणी, वाजपेयी और मुरली मनोहर जोशी। लेकिन 1996 आते आते यह 'अवाजो' की छवि बिखरने लगी और मुरली मनोहर जोशी भाजपा के पटल से ओझल होने लगे।
पहली बार जब भाजपा 'राजग' बनाकर सत्ताारूढ़ हुई तब तक तो मुरली मनोहर जोशी एकदम प्रभावहीन हो चुके थे और संगठन व सरकार पर अडवाणी का आधिपत्य हो चुका था। समझा जाता है कि जोशी को साइडलाइन करने में अडवाणी की ही मुख्य भूमिका थी। पूरे राजग शासन के दौरान विपक्ष यह आरोप लगाता रहा कि सरकार के मुखिया तो अटल जी हैं लेकिन अडवाणी जी समानांतर सरकार चला रहे हैं। यह आरोप काफी हद तक सही भी थे।सरकार में अडवाणी जी की तूती अटल जी से ज्यादा बोलती थी। लेकिन अडवाणी जी का रुतबा उनकी पाकिस्तान यात्रा के बाद समाप्त होने लगा जिसमें उन्होंने जिन्ना पर विवादित बयान दे दिया था।
'जिन्ना' पर अपने विवादित बयान के बाद अडवाणी जी ने 'संघ' से लगभग लट्ठमलट्ठा की स्थिति पैदा कर ली। यहीं से उनका रुतबा घटने लगा। आज अधिकारिक तौर पर भाजपा ने भले ही उन्हें 'पी एम इन वेटिंग' घोषित कर रखा है लेकिन अंदरूनी तौर पर भाजपा में आज सबसे ज्यादा संकटग्रस्त व्यक्ति अडवाणी ही हैं।
अडवाणी जी के लिए सबसे पहले मुश्किलें उमा भारती ने शुरू कीं। लेकिन बगावती तेवर अपना चुकीं उमा भारती को अडवाणी जी बाहर का रास्ता दिखलाने में कामयाब रहे। उमा भारती के साथ मदनलाल खुराना और प्रहलाद पटेल भी बाहर चले गए। हालांकि उमा भारती अभी तक भाजपा या अडवाणी के लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं बन पाई हैं, लेकिन अब पुराने स्वयंसेवक गोविंदाचार्य का उमा भारती के साथ जुड़ना अडवाणी और भाजपा दोनों के लिए शुभ संकेत नहीं है। गोविंदाचार्य कभी भाजपा के संकटमोचक होते थे लेकिन आज वे भाजपा के लिए संकट हैं। गोविंदाचार्य विचार और संगठन के व्यक्ति हैं और वे ठान चुके हैं कि अब भाजपा की जड़ों में मट्ठा डाल कर ही रहेंगे।
उमा भारती के बाद स्वयं पार्टी अधयक्ष और कभी अडवाणी जी की चेलाही करने वाले राजनाथ सिंह अडवाणी जी की राह में कांटे बिछाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। अडवाणी-राजनाथ विवाद के मीडिया में खूब उछलने के बाद संघ को मधयस्थता करने के लिए विवश होना पड़ा। बताया जाता है कि अडवाणी के निवास पर संघ और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की बैठक हुई और उसमें सुलहनामा कराया गया। संघ की तरफ से बैठक में मोहन भागवत, सुरेश सोनी और मदनदास देवी मौजूद थे जबकि भाजपा की तरफ से राजनाथ सिंह, वैंकेया नायडू, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, रामलाल और अरुण जैटली उपस्थित थे।
चर्चा है कि इस बैठक में संघ नेताओं ने साफ कहा कि अगर भाजपा में सिर फुटौव्वल यूं ही जारी रही और संघ से समन्वय बनाकर नहीं चला गया तो लोकसभा चुनाव के परिणाम भाजपा के लिए घातक होंगे। राजनाथ सिंह ने इस मौके का फायदा भी अडवाणी के खिलाफ एक हथियार के रूप में ही किया। उन्होंने पार्टी प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर से प्रेस ब्रीफिंग में एक सैध्दांतिक परंतु डिप्लोमैटिक बयान दिलवा दिया कि पार्टी में अधयक्ष से बड़ा कोई पद नहीं होता है। अंतिम वाक्य पार्टी अध्यक्ष का ही माना जाता है। इस बयान के बाद साफ हो गया कि पार्टी में राजनाथ सिंह ही सर्वेसर्वा हैं और अडवाणी केवल एक मोहरा।
पार्टी अधयक्ष राजनाथ सिंह वैसे भी भाजपा के 'नरसिंहाराव' समझे जाते हैं जो अपनी ही पार्टी को गर्त में धकेलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। राजनाथ सिंह हवा-हवाई नेता हैं और आज तक वे सिर्फ तीनों विधानसभा चुनाव ही जीत पाए हैं। पहला तब जब रामलहर थी और दूसरा व तीसरा तब जब वे मुख्यमंत्री थे। राजनाथ सिंह जब उत्तार प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार में शिक्षा मंत्री थे तो विधानसभा चुनाव में एक साधारण्ा से आदमी से बुरी तरह हार गए थे और चौथे नंबर पर रहे थे। एक समय में उन्होंने कल्याण सिंह के खिलाफ उत्तार प्रदेश में ऐसी हवा बनाई कि कल्याण न तो मुख्यमंत्री रह पाए और न भाजपा में ही रह पाए। लेकिन राजनाथ ने उत्तार प्रदेश में जो बीज बोए उसके दुष्परिणाम उत्तार प्रदेश में भाजपा भुगत रही है। आज उत्तार प्रदेश में नेता विरोधी दल का पद भी भाजपा के पास नहीं बचा है। राजनाथ और अडवाणी का विवाद ऊपरी तौर पर अभी शांत भी न हो पाया था कि पूर्व उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत ने अडवाणी जी के लिए नई मुश्किलें पैदा कर दीं। शेखावत ने लोकसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर नया पेंच डाल दिया। शेखावत की पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मुलाकात ने इस संकट को और गहरा कर दिया। शेखावत अडवाणी से भी ज्यादा सीनियर हैं। और आज की जो गठबंधन की राजनीति है उसमें गैर कांग्रेस विपक्ष के पास अटल बिहारी वाजपेयी के बाद सर्वाधिक स्वीकार्य नाम हैं। सूत्र बताते हैं कि सन् 1967 में जब राजस्थान में तकनीकी कारणों से जनसंघ की सरकार बनने से रह गई थी उस समय जनसंघ का राजस्थान में नेतृत्व शेखावत ही कर रहे थे जबकि अडवाणी उस समय सिर्फ दिल्ली म्युनिस्पिल कॉरपोरेशन के सभासद थे। इसके अतिरिक्त शेखावत की छवि आम जनता में एक ईमानदार और आम आदमी के नेता के रूप में है। ऐसे में अडवाणी जी को धक्का लगना ही था।
शेखावत प्रकरण समाप्त भी न हुआ था कि अनिल अंबानी ने नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री के रूप में उछालकर अडवाणी जी के लिए फिर संकट खड़ा कर दिया। मोदी ने भी अनिल अंबानी के बयान पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करके संकेत दे दिया कि वे भी पीएम की वेटिंग लिस्ट में शामिल हैं। वैसे भी हिंदू कट्टरवाद के लिए मोदी की रेटिंग अडवाणी से ऊपर चल रही है। गुजरात के मामलों में मोदी अडवाणी समेत किसी बड़े भाजपा नेता को बोलने नहीं देते हैं। ऐसे में अगर मोदी के मन में भी लड्डू फूटने लगे तो अडवाणी का नाम वेटिंग लिस्ट में और पीछे चला जाएगा।
भाजपा के एक अन्य क्षत्रप जसवंत सिंह भी अडवाणी के लिए कोई न कोई नया सिर दर्द पैदा कर ही देते हैं। अडवाणी जी ने आत्मकथा लिखी और कहा कि कंधार प्रकरण में उन्हें जानकारी नहीं थी। कोई विपक्षी कुछ कहता इससे पहले ही जसवंत सिंह ने कह दिया कि अडवाणी को सब मालूम था और जिस बैठक में निर्णय लिया गया उमसें अडवाणी थे। अब जसवंत सिंह को कौन समझाए कि उन्होंने पूरी आत्मकथा पर ही पानी फेर दिया।
ताजा मामला कल्याण सिंह का है जिसने अडवाणी और भाजपा की हवा निकाल दी है। कल्याण सिंह ने फिलहाल तो भाजपा को गुड-बाय कह दिया है। लेकिन गुडबाय कहने से पहले बाबरी मस्जिद धवंस के हीरो ने अडवाणी जी की स्वनिर्मित ''लौह पुरूष'' की छवि पर यह कहकर हमला बोल दिया कि देश को सरदार पटेल, इंदिरा गांधी और उनके (कल्याण) जैसे नेताओं की जरूरत है। कल्याण सिंह का सदमा भाजपा पचा नहीं पा रही है। कल्याण सिंह उत्तार प्रदेश की 22 सीटों पर भाजपा को जबर्दस्त नुकसान और समाजवादी पार्टी को फायदा पहुंचाने की स्थिति में हैं । बुलंदशहर, बदायूं, फर्रूखाबाद, आंवला, बरेली, शाहजहांपुर, घौरहरा, सीतापुर, लख्ीामपुर, एटा, हमीरपुर, जालौन, फतेहपुर, कानपुर, हरदोई, उन्नाव, ऐसी सीटें हैं, जो सीधो-सीधो कल्याण सिंह ने इशारे पर हैं। यहां कल्याण भले ही भाजपा को इतनी सफलता न दिला पाते लेकिन नुकसान तो पहुंचा ही देंगे।
कल्याण सिंह के पुत्र राजवीर सिंह सपा में शामिल हो गए हैं। कल्याण सिंह के बाद लगभग एक दर्जन और उपेक्षित क्षत्रप अडवाणी की वेटिंग लिस्ट को लंबा कर सकते हैं।
राजस्थान में भाजपा के कद्दावर मीणा नेता डॉ. किरोणीलाल पहले ही बगावत कर चुके हैं। झारखंड में बाबूलाल मरांडी अपनी ढपली अलग बजा रहे हैं। मदनलाल खुराना दिल्ली में कोप भवन में बैठे हैं। उत्ताराखंड में पूर्व मुख्मंत्री भगत सिंह कोश्यारी रूठे हुए हैं। वे ाुवन चंद्र खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाए जाने से नाराज हैं। उन्हें लगता है कि अडवाणी ही उनके साथ हुई नाइंसाफी के लिए एकमात्र जिम्मेदार हैं। गुजरात में पूर्व मुख्यमंत्री केशु भाई पटेल पहले भी बेसुरा राग गा चुके हैं। अभी भी उनके तेवर ठंडे नहीं पड़े हैं। हिमाचल में पूर्व मुख्यमंत्री शांताकुमार अपनी उपेक्षा और मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल की कार्यशैली से आहत हैं।
उधर मधयप्रदेश और छत्ताीसगढ़ में मिली विजय से उत्साहित राजनाथ खेमे ने रमन सिंह और शिवराज सिंह के नाम भी वेटिंग लिस्ट में उछाल दिए हैं। रमन और शिवराज के नाम के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि दोनों की छवि आम आदमी के नेता और विकास पुरूष की है। अगर सपा, जैसे दलों से गठबंधन करके सरकार बनाने की नौबत आई तो ये दल अडवाणी के मुकाबले रमन और शिवराज को तरजीह देंगे।
राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि भाजपा की इस सिर फुटौव्वल के पीछे मुख्य कारण भाजपा पर संघ का नियंत्रण कम होना है। अटल जी के नेतृत्व में जब भाजपा ने सरकार बनाई तब उसे सत्ताा के मोह में अपने बहुत से सिध्दांतों से समझौता करना पड़ा। पार्टी और सरकार में बड़ी संख्या में महत्वपूर्ण स्थानों पर ऐसे लोग पहुंच गए जिनका संघ से कोई लेना देना नहीं रहा।
सरकार के इसी घमंड में अडवाणी जी ने भी संघ को चुनौती देना शुरू कर दिया। उस समय से संघ की भाजपा पर जो पकड़ कमजोर हुई उसका नतीजा अब सामने आ रहा है और भुगतान भी अडवाणी जी को ही पड़ रहा है।
अडवाणी का संघ से पंगा लेने का प्रमुख कारण समझा जा रहा है कि संघ प्रमुख सुदर्शन जी को छोड़कर अन्य सभी संघ के प्रमुख पदाधिकारी अडवाणी जी से काफी कम उम्र के हैं। लेकिन अडवाणी जी यह भूल गए थे कि व्यक्ति संस्था से बड़ा नहीं होता है और जो व्यक्ति संस्था से बड़ा दिखता है, उसकी महामानव की छवि संस्था ही बनाती है। यह अडवाणी जी का दुर्भाग्य है कि उन्होंने स्वयं, संघ के निर्देश पर अटल जी को महामानव की और संस्था से बड़ी छवि बनाई लेकिन जब वे स्वयं अटल जी का स्थान लेना चाहते हैं तो उनके ही शिष्य रास्ते में कांटे बिछा देते हैं।
अडवाणी जी शायद बलराज मधोक से सबक लेना भूल गए। जो कल मधोक के साथ हुआ क्या अडवाणी जी के भाग्य में वैसा ही कुछ लिखा है या अडवाणी इस झंझावात को पार कर जाएंगे? इस समय अडवाणी के लिए प्रधानमंत्री बनने से ज्यादा जरूरी अपने घर को बचाना है। वरना अटल जी के समय में जिस एनडीए में 17 दल थे आज 4 अडवाणी के नेतृत्व में चार बचे हैं। अडवाणी जीे वेटिंग लिस्ट को कम करने के लिए अपना घर तो बचाना ही होगा।

[ यह समीक्षा हिन्दी पाक्षिक पत्रिका "प्रथम प्रवक्ता " में प्रकाशित हुयी ]






शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

पाक के हालात पर खुश होने की जरुरत नहीं -
अमलेन्दु उपाध्याय :
अभी खबर आई थी कि पाकिस्तान के कबायली इलाके की स्वात घाटी में तालिबान और पाक सरकार के बीच युद्ध विराम का समझौता हो गया है और पाक सरकार इस बात पर राजी हो गई है कि स्वात घाटी में तालिबान अब शरियत का कानून लागू करेंगे। ठीक इसी समय पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी का बयान आया कि पाकिस्तान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। दोनों खबरें भारत को परेशान करने वाली हैं। स्वात में तालिबान के सामने पाक हुकूमत का घुटने टेकना और जरदारी की स्वीकारोक्ति यह बताती है कि पाकिस्तान विघटन के कगार पर खड़ा है। इस खबर पर भारत में तथाकथित राष्ट्रवादी खुशी में झूम रहे हैं कि अब ‘नक्शे में से पापी पाकिस्तान का नाम मिट जाएगा’। लेकिन ऐसी खुशियाँ मनाने वाले उन लोगों में हैं जो पड़ोसी का घर जलते देखकर खुशियाँ मनाते वक्त यह भूल जाते हैं कि पड़ोसी के घर से उठी लपटें हमारा अपना घर भी स्वाहा कर देंगी। मान लिया जाए कि पाकिस्तान के हालात और खराब होते हैं और वहां की लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई जरदारी सरकार कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं रहती है तब वहां हुकूमत पर कौन काबिज होंगे? जाहिर है ऐसी परिस्थिति में या तो फौज की हुकूमत में वापसी होगी या फिर तालिबान और कट्टरपंथी कठमुल्ले काबिज होंगे। आजादी के बाद से भारत लगातार पाक प्रायोजित छद्म युद्ध का सामना इसलिए करता रहा है क्योंकि पाक में अधिकांश समय फौजी हुकूमत रही है और वहां की फौज को हुकूमत कायम रखने के लिए भारत से अदावत रखना लाजिमी था, ठीक उसी तरह से जैसे हमारे देश में कुछ सियासी जमातों को जिंदा रहने के लिए पाकिस्तान का नाम जपना जरूरी है। काबिले गौर बात यह है कि स्वात घाटी समेत समूचे कबायली इलाकों में अनेक बार अमेरिकी फौजों ने पाक सीमा में घुसकर बमबारी की है और पाक फौज को मदद भी पहुंचाई है। यह वही इलाका है जहां ओसामा बिन लादेन के छिपे होने का संदेह है। उधर पाकिस्तान में अमेरिकी चरणपादुकाएं लेकर शासन कर रहे अमेरिकी दूत हामिद करजई भी तालिबानों से सहयोग की अपील कर रहे हैं। खबर तो यहां तक है कि अफगानिस्तान के कुछ हिस्सें में तालिबान समानांतर सरकार चला रहे हैं। इसका संदेश साफ है कि भारतीय उपमहाद्वीप समेत पूरे एशिया में अमेरिकी नीति बुरी तरह विफल रही है। भारत के लिए सर्वाधिक चिंता का विषय यह है कि अगर जरदारी पाक में कमजोर पड़ते हैं तो तालिबान हावी होंगे जो भारत के लिए बड़ा खतरा है। अमेरीका को उसके घर में घुसकर न मार पाने की खुन्नस तालिबान अमरीका के नए दोस्त भारत से ही निकालेंगे। मुशर्रफ की फौज हो या अययूब खां की, पाकिस्तान के रूप में एक संप्रभु राष्ट्र से लड़ना भारत के लिए आसान था, चूंकि जंग के बावजूद कहीं न कहीं अंतर्राष्ट्रीय दबावों के आगे पाकिस्तान को झुकना ही पड़ता था। आज भी अजमल आमिर कस्साब के मसले पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव में ही सही पाकिस्तान यह मानने को तैयार तो हुआ कि मुंबई हमले की साजिश में उसकी जमीन का इस्तेमाल किया गया था। लेकिन अगर तालिबान पाकिस्तान में हुकूमत करेंगे तो क्या वे अंतर्राष्ट्रीय कानून और दबाव को मानेंगे? जिन तालिबानों से अमेरिकी नेतृत्व वाली नाटों सेनाएं पार नहीं पा रही हैं क्या उनसे भारत पार पा लेगा? पाक संकट में एक और खतरा नजर आ रहा है। ‘ पैन इस्लामिज्म’ ( अखिल इस्लाम) पिछली शताब्दी से ही दुनिया के लिए एक बड़ा खतरा रहा है। सोवियत संघ के विघटन के बाद उससे अलग हुए कई हिस्सों में कट्टरपंथी इस्लामिक गुट प्रभावशाली हो गए हैं और इराक में भी सद्दाम के बाद जो ताकते उभर रही हैं वे भी उसी रास्ते पर जा रही हैं। ऐसे में पाकिस्तान -अफगानिस्तान में तालिबानी उभार पैन इस्लामिज्म की एक कड़ी है जिस पर किसी भी समझदार हिंदुस्तानी को खुश होने की नहीं चिंता की जरूरत है। सवाल यह है कि क्या हमने अपनी अतीत की गलतियों और पड़ोसियों के तजुर्बे से कुछ सबक लिया है? वे जुल्फिकार अली भुट्टो जो जियाउलहक की फौजों के बल पर फूलकर हुंकार भर रहे थे कि ‘भारत से एक हजार साल तक लड़ेंगे’, उसी जिया के हाथों फांसी के फंदे तक पहुंचाए गए। अमरीका ने ओसामा को पाला बदले में 9/11 पाया। श्रीलंकाई छापामारों लिट्टे को भारत ने संरक्षण दिया नतीजे में क्या मिला? हमने राजीव गांधी को खोया! भिंडरवाला को कांग्रेस ने पैदा किया फलस्वरूप इंदिरा गांधी की शहादत हुई! अतिवादी ताकतें चाहे कोई हों, मुल्ला उमर हो या प्रमोद मुतालिक, नागफनी की फसल की तरह है । इसलिए जो तथाकथित राष्ट्रवादी पाकिस्तान की तबाही पर जश्न मना रहे हैं वे आने वाले दिनों में अपने घर की तबाही से बेखबर हैं । बेहतर है कि पाकिस्तान में हमारी दुश्मनी के बावजूद लोकतंत्र की शमां जलती रहे।
* लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और एक पाक्षिक पत्रिका से जुड़े हुए हैं।

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

कल्याण का रास्ता दिल्ली नहीं नागपुर जाता है

कल्याण का रास्ता दिल्ली नहीं नागपुर जाता है
- अमलेन्दु उपाध्याय
मेरे छात्र राजनीति के दौर के एक मित्र हैं जो मुलायम सिंह के उत्तर प्रदेश के प्रमुख 25 मैनेजरों में से एक हैं और 2 जून 1995 के लखनऊ के स्टेट गेस्ट हाउस कांड के प्रमुख अभियुक्तों में से भी एक हैं। 2007 के विधानसभा चुनाव के दौरान सपा के एक कर्णधार कुंवर नटवर सिंह का बयान आया जिसका लब्बो लुबाव था कि सरकार तो सपा की ही बनेगी भले ही भाजपा के सहयोग से बने। हालांकि न नौ मन तेल हुआ और न राधा नाचीं। न मुलायम सिंह सौ से ऊपर पहुंचे और न भाजपा के समर्थन से सरकार बनने की नौबत आई। मैंने अपने उक्त मित्र महोदय से ये पूछा कि नटवर सिंह ने यह क्या कह दिया? मेरे मित्र निजी बातचीत में भी बहुत सोच समझकर बोलते हैं, पर जो बोलते हैं उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि 5, विक्रमादित्य मार्ग लखनऊ में यह क्या चल रहा है। ( हालांकि इस निजी बातचीत का जिक्र करना सैद्धांतिक रूप से गलत है, परंतु जो बात हम आगे कहना चाह रहे हैं उसके लिए जरूरी भी है।)

मित्र ने जबाव दिया कि सही है, मायावती को रोकने के लिए अगर भाजपा से समझौता करना पड़े तो किया जाए। इन दाढ़ी वालों ( मुसलमानों ) की फिक्र नहीं करनी चाहिए। फिर एक भद्दी सी गाली देकर कहा कि मायावती, नरेंद्र मोदी का प्रचार करती है फिर भी ये उसे वोट देते हैं और जब पिटेंगे तो जाएंगे कहां लौटकर नेता जी की शरण में आएंगे।

मेरे मित्र के वक्तव्य से मुलायम सिंह यादव और उनकी मंडली की सोच समझी जा सकती है। कमोबेश विगत 5-6 वर्षों में सपा नेतृत्व की यह सोच बन गई है कि मुसलमान जब तक पिटेगा नही तब तक उन्हें ( सपा को ) मिलेगा नहीं । इसलिए सपा नेतृत्व कोई भी ऐसा अवसर छोड़ता नहीं जिसके चलते मुसलमान पिटे नहीं ।

फिलवक्त छह दिसम्बर 1992 के बाबरी मस्जिद के कातिल और भाजपा के बागी कल्याण सिंह सपा के झंडाबरदार हो गए हैं। लेकिन लगता है कि मुलायम सिंह मायावती के खौफ में जल्दबाजी कर गए हैं और -” चौबे जी छब्बे बनने गए, दुबे बनकर लौटे“ वाली कहावत उन पर फिट बैठ गई है। सपा के मुस्लिम नेता कल्याण को पचा नहीं पा रहे हैं और सपा में एक बड़ी बगावत होने वाली है जो मुलायम सिंह का राजनीतिक कैरियर चौपट कर देगी। हालांकि सपा ने सोचा था कि अगर कल्याण सिंह साथ आ जाएंगे तो लोध वोटों से उन्हें फायदा हो जाएगा और लोकसभा चुनाव में अपनी ताकत बढ़ाकर वह केन्द्र में बनने वाली नई सरकार से मायावती को जेल भिजवाने के लिए सौदेबाजी कर लेंगे। लेकिन लगता है यह दांव उल्टा पड़ गया है।

परमाणु करार पर अमरीका की दलाली करने से सपा मुखिया से नाराज चल रहे फायरब्रांड सपा नेता मौ0 आजम खां कल्याण सिंह की भर्ती से फट पड़े हैं और खुलकर उन्होंने कल्याण सिंह को पार्टी में लेने का विरोध किया है। आजम खां उन लोगों में शुमार किए जाते हैं, जो उसूलो की हिफाजत के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। याद रखना चाहिए कि आजम खां ने उस बुरे दौर में भी मुलायम का दामन नहीं छोड़ा था जब मुलायम सिंह का साया भी उनका साथ छोड़ गया था। 1991 का वह दौर भी मुलायम सिंह को शायद आज बाॅलीवुडी चकाचौंध और दलालों की रोशनी में याद न हो जब बहैसियत मुख्यमंत्री मुलायम सिंह हैलीकाॅप्टर से उतरते थे और उन्हे देखने और सुनने के लिए 100 लोग भी नहीं होते थे। ऐसे समय भी आजम खां मुलायम सिंह के लिए गला फाड़ रहे थे कि मुलायम सिंह मुजाहिद है, बाबरी मस्जिद का रखवाला है, जिसने मस्जिद की हिफाजत के लिए सरकार कुर्बान कर दी। लेकिन आजम को यह कहां पता था कि वही मुलायम सिंह एक दलित महिला से घबराकर उसी बाबरी मस्जिद के कातिल से समझौता कर लेगा?

आजम खां कल तक मुसलमानों से कह रहे थे कि छह दिसम्बर 1992 तुम्हारे माथे पर कलंक गोदा गया है, जब अजान देना तो बच्चों के दूसरे कान में छह दिसम्बर की जिल्लत की याद भी दिलाना। आजम भाई जिस जिल्ल्त को छह दिसम्बर 1992 से झेलते आ रहे थे उस जिल्लत का वाइस ( जिम्मेदार) तो अब उनकी छाती पर खड़ा है। बताया जाता है कि आजम खां ने कल्याण सिंह को लेकर अपनी नाराजगी का सार्वजनिक इजहार कर भी दिया है और मुलायम सिंह द्वारा कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद के कत्ल के इल्जाम से बरी करने पर तीखा प्रतिरोध दर्ज कराया है। आजम के जबाव में सपा के प्रदेश प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी ने बयान दे दिया कि कल्याण सिंह तो पहले भी सपा सरकार को समर्थन दे चुके हैं। जो लोग सपा की अंदरूनी गणित से वाकिफ हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि जब तक मुलायम सिंह की रजामंदी न हो राजेन्द्र चौधरी की औकात आजम खां के खिलाफ बयान देने की नहीं है।

कल्याण सिंह के मसले पर सपा सांसद शाफिकुर्रहमन वर्क और सलीम शेरवानी ने भी बहती गंगा में हाथ धो लिया। हालांकि दोनों इसलिए नाराज हैं कि उनके टिकट काटे गए हैं वरना तो परमाणु करार पर अमरीका के दुमछल्ले तो वर्क और शेरवानी दोनों ही थे। लेकिन जनता में संदेश तो गलत जा ही रहा है। हालांकि शेरवानी को तो उनके क्षेत्र बदायूॅ का मुसलमान, उन्हें मुसलमान मानने को तैयार ही नहीं है, चूंकि शेरवानी तो छह दिसम्बर 1992 को नरसिंहाराव के साथ बाबरी मस्जिद शहीद होते हुए देखते रहे थे और उस समय से लेकर आज तक वे इस मसले पर एक शब्द भी नहीं बोले हैं।

तमाशा यह है कि बाबरी मस्जिद के सारे कातिल आज मुलायम सिंह की बगल में खड़े हैं और मुलायम सिंह एक दलाल से उन्हें धर्मनिरपेक्ष होने का प्रमाणपत्र भी दिलवा रहे हैं। ब्रजभूषणशरण सिंह, अडवाणी की रथयात्रा के सारथी थे आज अमर सिंह के पायलट हैं। उमा भारती छह दिसम्बर 1992 को ‘एक धक्का और दो/बाबरी मस्जिद तोड़ दो’ का नारा लगाकर मुरली मनोहर जोशी के गले में झूल रही थीं, अब अमर सिंह को बचाने के लिए सीडी लिख रही हैं। कल्याण सिंह को छह दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद का कत्ल करने के लिए गर्व है लेकिन मुलायम ने उन्हें इस इल्जाम से बरी कर दिया है , अब अगर उच्चतम न्यायालय ने कल्याण को इस जुर्म में सजा दी तो इसमें मुलायम क्या करें?

जब परमाणु करार पर मुलायम सिंह ने अपने चालीस वर्ष पुराने उन वामपंथी मित्रों को गाली देते हुए , ( जिन्होंने न केवल मुलायम के राजनीतिक कैरियर की हिफाजत की थी बल्कि अनेक बार उनका जीवन भी बचाया था) कांग्रेस का दामन थामा था, उसी दिन तय हो गया था कि मुलायम सिंह ने जो रास्ता पकड़ा है वह एक दिन नागपुर ( संघ मुख्यालय ) तक जाएगा। और कल्याण सिंह की भर्ती से यह शक यकीन में बदल गया है।

संघ के विषय में एक कहावत मशहूर है कि वह जिसे हरा नहीं पाता उससे दोस्ती कर लेता है। 90 के दशक में स्थिति यही थी कि संघ मुलायम को हरा नहीं पा रहा था। इसीलिए उसने एक दलाल मुलायम के पीछे लगाया। बताया जाता है कि इस दलाल के पिता पक्के स्वयंसेवक थे और मरते दम तक खाकी नेकर पहने रहे थे। दलाल की मेहनत धीरे-धीरे रंग लाई। एक एक करके उसने मुलायम के सारे शुभचिंतक और नींव के पत्थर चुन-चुनकर किनारे लगाए। जनेश्वर मिश्रा निष्क्रिय होकर बुढ़ापा काट रहे हैं। राज बब्बर और बेनी प्रसाद वर्मा को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। मोहन सिंह को ठण्डा किया जा चुका है। केवल आजम खां रोड़ा थे सो कल्याण सिंह को लाकर ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गई हैं कि या तो जिल्लत के साथ रहें या दूर हो जाएं।

लेकिन मुलायम सिंह यह बात भूल गए कि 1992 के बाद महाराष्ट्र में शिवसेना की सरकार मुसलमान के वोट से बनी थी। चूंकि मुसलमान ने देखा कि कांग्रेस भी उसे मार रही थी और शिवसेना भी इसलिए उसने पीठ में खंजर भोंकने वालों के साथ न जाकर सीने पर वार करने वालों के साथ जाना पसंद किया। क्या उ0प्र0 में भी मुसलमान यह रुख नहीं अपना सकता? दिल्ली में आजमगढ़ी मुसलमानों के प्रदर्शन में कांग्रेस और भाजपा के साथ मुलायम और अमर सिंह का जिस तरह से कोसा गया उससे भविष्य की तस्वीर को पढ़ा जा सकता है।

हो सकता है मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह का छह दिसम्बर 1992 का गुनाह माफ कर दिया हो। लेकिन मुलायम सिंह को याद हो या न हो लेकिन मुझे भली भांति याद है कि कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और भदोही में पुलिस ने एक फर्जी एन्काउन्टर में समाजवादी पार्टी के चार पदाधिकारियों को माफिया सरगना धनंजय सिंह ( अब विधायक ) बताकर मार दिया था। मुलायम सिंह ने पूरे एक दिन संसद में हंगामा मचाया था और कल्याण सिंह को सपा कार्यकत्र्ताओं का हत्यारा बताया था। स्व0 चंद्रशेखर जी को उस समय खड़े होकर सरकार से कहना पड़ा था कि कल्याण सिंह कम से कम मुलायम से इस मसले पर बात करें और संवादहीनता टूटे। मुलायम सिंह का धर्मनिरपेक्षता का प्रमाणपत्र तो कल्याण को मिल गया है। क्या अपने कार्यकर्ताओं के हत्यारे को भी बरी करेंगे मुलायम? मुलायम को याद रखना चाहिए कि उनकी तरकत कोई दलाल या नचखइया नहीं बल्कि उनके कार्यकर्त्ता हैं, जो इस अवसरवादी राजनीति से त्रस्त हैं। उ0प्र0 का मुसलमान बस मुलायम सिंह से एक शेर में अपने दर्द को बयां कर रहा है-‘‘ जब भी पूछा किसी ने मेरी बर्बादियों का हाल / बेसाख्तां जुबां पे तेरा नाम आ गया।’’

(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और एक पाक्षिक पत्रिका से जुड़े हुए हैं।)