बुधवार, 18 मार्च 2009

अपना अपना तीसरा मोर्चा

अपना अपना तीसरा मोर्चा
अमलेन्दु उपाèयाय

चौदहवीं लोकसभा के नजारे को देखकर यह कयास नहीं लगाया जा सकता था कि पंद्रहवीं लोकसभा के लिए होने वाले चुनाव में तीसरा मोर्चा कोई मूर्त रूप ले पाएगा। लेकिन कर्नाटक के तुमकुर में पूर्व प्रèाानमंत्री एच.डी.देवगौड़ा के बुलावे पर जिस प्रकार 4 वामपंथी दलों समेत 8 क्षेत्रीय दल एक मंच पर आए और एकता का ऐलान किया उसने एक झटके में यूपीए और एनडीए की नींद हराम कर दी है। परमाणु करार पर यूपीए सरकार को आर-पार की चुनौती देने वाले माकपा महासचिव प्रकाश कारत की मेहनत ने असर दिखाना शुरू कर दिया है।
तुमकुर में भले ही बसपा प्रमुख मायावती और अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता न पहुंची हाें, परंतु उनके प्रतिनिधि के रूप में सतीशचंद्र मिश्रा और मैत्रेयन पहुंचे। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के पुत्र कुलदीप बिश्नोई की हरियाणा जनहित कांग्रेस के नुमाइंदे की उपस्थिति भी भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए बैचेनी पैदा करने वाली है। लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद भी इन सभी को एक जुट रखना टेढ़ी खीर है। लगता है प्रकाश कारत ने मेंढकों को एक तराजू में तौलने का दुष्कर कार्य हाथ में ले लिया है।
फिलहाल, तीसरे मोर्चे का जो स्वरूप उभर रहा है वह चुनाव बाद भी बरकरार रहेगा, कहना मुश्किल है। तीसरा मोर्चा किस करवट बैठेगा यह पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम तय करेंगे
आगामी लोकसभा चुनाव के परिणाम के विषय में अगर कोई भविष्यवाणी की जा सकती है तो सिर्फ यह कि केंद्र में सत्ताारूढ़ यूपीए और प्रमुख विपक्षी गठबंधन एनडीए में से किसी को भी चुनाव में स्पष्ट जनादेश की प्राप्ति नहीं होगी और सत्ताा का मुख्य नियंत्रण क्षेत्रीय दलों या तीसरे मोर्चे के हाथ में होगा। चुनाव से पहले बने गठबंधन चुनाव बाद टूटेंगे और नए सिरे से नए गठबंधन बनेंगे। ऐसे में जितने दल हैं उनसे ज्यादा मोर्चे हैं।
फिलहाल, वामपंथी दल पूरी ताकत के साथ भाजपा और कांग्रेस के विकल्प के रूप में तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद में जुटे हैं। लेकिन यह कवायद कितनी सफल होगी, भविष्य ही बताएगा। परमाणु करार के मुíे पर कांग्रेस से गलबहियां करने की पूर्व संèया तक समाजवादी पार्टी तीसरे मोर्चे की मुख्य पैरोकार थी और उसके अèयक्ष मुलायम सिंह यादव उत्तार प्रदेश में यूएनपीए की रैलियां कराकर जयललिता, चंद्रबाबू नायडू और वृंदावन गोस्वामी के हिंदी भाषणों द्वारा तीसरा मोर्चा मजबूत कर रहे थे।
लेकिन जैसे ही अमर सिंह की अमेरिका यात्रा के बाद सपा ने परमाणु करार पर मनमोहन सिंह के बगलगीर होने का ऐलान किया तो रात ही रात में सपा के लिए तीसरा मोर्चा बेकार की बात हो गई।
सपा द्वारा रिक्त की गई जगह को उसकी धुर विरोधी बसपा ने पूरा किया और वाम दलों ने बसपा को तीसरे मोर्चे का अगुआ बना दिया। लेकिन अपनी आदतों से लाचार बसपा प्रमुख मायावती इस मोर्चे की कब तक खेवनहार रहेंगी, यह तो स्वयं मायावती को भी नहीं पता है। उत्तार प्रदेश में तीसरे मोर्चे की टांग तोड़ने का काम मायावती ने प्रदेश की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा के साथ किया। अब उत्तार प्रदेश में एक तीसरा मोर्चा मायावती का है तो दूसरा वामपंथी दलों का और तीसरा नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी, भारतीय समाज पार्टी जैसे छोटे-छोटे जातीय दलों का। वहां चौथा तीसरा मोर्चा 'मिल्ली महाज' बन गया है, जिसने प्रदेश की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। देखना यह है कि चुनाव बाद इन मोचो± का क्या हश्र होता है।
उत्तार प्रदेश की तरह ही बिहार में भी कई तीसरे मोर्चे रोज बन-बिगड़ रहे हैं। यूं तो रामविलास पासवान की लोजपा और लालू प्रसाद यादव की राजद केंद्र की यूपीए का हिस्सा हैं, लेकिन आज तक के जो हालात हैं, उनमें लोजपा और राजद में से एक कांग्रेस के साथ रहेगा और एक तीसरा मोर्चा बनाएगा। बिहार में भाकपा माले और भाकपा ने एक साथ मिलकर लड़ने का ऐलान किया है और संभावना है कि माकपा भी इस मोर्चे में शामिल होगी। उधर चर्चा है कि बिहार के उपमुख्यमंत्री और भाजपा नेता सुशील मोदी, बिहार के कल्याण सिंह बनने वाले हैं और उनका भी अपना तीसरा मोर्चा होगा।
बिहार के पड़ोसी राज्य झारखंड में भी तीसरे मोर्चे ने कमर कस ली है। यहां कमान राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के विद्रोही नेता बाबूलाल मरांडी के हाथों में है। यूं तो गुरूजी के नाम से प्रसिध्द शिबू सोरेन का झारखंड मुक्ति मोर्चा यूपीए का हिस्सा है, लेकिन कब वह तीसरे मोर्चे में तब्दील हो जाए कहा नहीं जा सकता है।
उधर ताजा घटनाक्रम में उड़ीसा में एनडीए बिखर गया है और ग्यारह वषो± के बाद अचानक बीजू पटनायक के पुत्र और राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को धर्मनिरपेक्षता याद आ गई है। बिना कोई देर किए जेडी ¼,l½ नेता हरदनहल्ली डोड्डेगौड़ा देवगौड़ा ने बीजद को तीसरे मोर्चे में गोद लेने का नेह निमंत्रण भेज दिया है और माकपा नेता सीताराम येचुरी का दावा है कि वामदलों के साथ बीजद का सीटों पर तालमेल हो गया है। सो, अब उड़ीसा में भी तीसरा मोर्चा हुंकार भर रहा है। उड़ीसा में झारखंड मुक्ति मोर्चा हाल तक की सूचना के अनुसार तीसरे मोर्चे का हिस्सा होगा।
कर्नाटक में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना चुके और केंद्र में कांग्रेस के सहयोग से प्रधानमंत्री रह चुके एच.डी. देवगौड़ा तीसरे मोर्चे की नैया के खिवैया हैं। विधानसभा चुनाव में बुरी तरह मात खाए देवगौड़ा क्या गुल खिलाते हैं यह तो भविष्य ही बताएगा, लेकिन किसान नेता की छवि रखने वाले और हिंदी न जानने वाले देवगौड़ा चमत्कारी नेता हैं, जो रामकृष्ण हेगड़े और एस.आर. बोम्मई जैसे दिग्गज कन्नड़ नेताओं को पटखनी देकर उरूज तक पहुंचे। फिलहाल, देवगौड़ा को आशा है कि कर्नाटक की जनता उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए जिताएगी, और कांग्रेस भाजपा को रोकने के लिए, तो बसपा मुलायम सिंह को रोकने के लिए और भाकपा वाम-जनतांत्रिक गठबंèान के लिए उन्हें प्रधानमंत्री बनाएगी; और ऐसा नहीं हुआ तो देवगौड़ा किस करवट बैठेंगे यह समय तय करेगा। फिलवक्त तो वे तीसरी करवट बैठे हैं।
दक्षिणी भारत तो तीसरे मोर्चे की उर्वरा भूमि और प्रयोगशाला रहा है। सात दलों के सात घोड़ों के रथ 'राष्टªीय मोर्चा' की लगाम एक समय में तेलुगु फिल्मों के स्टार नंदमूरि तारक रामाराव के हाथ में रही थी। बाद में रामाराव का नाश करने वाले उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू के हाथों में संयुक्त मोर्चे की कमान रही। यह दीगर बात है कि बाद में यही नायडू राजग बनाने वाले प्रमुख आदमी थे। लेकिन भाजपा के साथ जाने के कारण मुस्लिम मतदाताओं द्वारा दुरियाए गए तेदेपा प्रमुख अब तीसरे मोर्चे के झंडे तले हैं। पहले नायडू की मुसीबत बने तेलंगाना राष्टª समिति ¼टीआरएस½ नेता चंद्रशेखर राव तो उनके तीसरे मोर्चे में आ गए हैं, लेकिन एक अन्य फिल्म स्टार चिरंजीवी की नवजात पार्टी 'प्रजाराज्यम' ने उनकी नींद हराम कर दी है। माकपा और भाकपा स्टªेटजी के तहत दोनों तीसरे मोर्चों के साथ हैं। हैदराबाद शहर में सलाहउíीन औबेसी के पुत्र सबाहउíीन औबेसी की एमआईएम का अपना अलग तीसरा मोर्चा है।
समंदर किनारे के एक अन्य राज्य तमिलनाडु में भी तीसरा मोर्चा तैर रहा है। अन्नाद्रमुक के नेतृत्व में यहां तीसरे मोर्चे की कमान जयललिता के हाथों में है। एनडीए गठबंधन में रहकर भाजपा नेतृत्व को खून के घूंट पिलाने वाली अम्मा तीसरे मोर्चे को कितना रुलाएंगी, पता नहीं। उधर अम्मा के दुश्मन नंबर-वन द्रमुक का भी श्रीलंका मसले को लेकर यूपीए के साथ संबंध दोस्ताना नहीं है। सो, हो सकता है कि चुनाव से ऐन पहले द्रमुक का भी अपना तीसरा मोर्चा हो।
अगर समंदर के ठीक विपरीत सरहदी जम्मू कश्मीर की बात की जाए तो वहां तीसरा मोर्चा बिखर चुका है। उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कांफ्रेंस यूएनपीए का हिस्सा थी, लेकिन परमाणु मसले पर कांग्रेस के साथ जाने के बाद उसने यूपीए का हिस्सा बनना स्वीकार किया है। लेकिन घाटी में कांग्रेस के साथ अगर सीटों का तालमेल नहीं हुआ तो उमर अब्दुल्ला का भी तीसरा मोर्चा होगा।
महाराष्टª में यों तो शरद पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी, यूपीए का हिस्सा है, लेकिन सीट बंटवारे पर कांग्रेस से खटपट के चलते हो सकता है कि एनसीपी का सपा और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के साथ तीसरा मोर्चा बन ही जाए।
अभी तक मèयप्रदेश साधारणत: द्विध्रुवीय राजनीति की डगर पर चलता रहा है, लेकिन भाजपा की विद्रोही नेता उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी मèय प्रदेश में तीसरी ताकत बन रही है। पार्टी मèयप्रदेश की सभी सीटों के साथ देश भर में लगभग 150 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
तीसरे मोर्चे के मुख्य पैरोकार वामदलों की रणनीति येन केन प्रकारेण कांग्रेस और भाजपा को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाने की है, ताकि क्षेत्रीय दल मजबूती के साथ उभरें और फिर चुनाव बाद तीसरा मोर्चा मूर्त रूप ले। फिलहाल, तीसरे मोर्चे का जो स्वरूप उभर रहा है वह चुनाव बाद भी बरकरार रहेगा, कहना मुश्किल है। तीसरा मोर्चा किस करवट बैठेगा यह पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम तय करेंगे।

[ यह रिपोर्ट "प्रथम प्रवक्ता" पाक्षिक में प्रकाशित हुयी ]

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

क्या कल्याण को माफ़ी जायज़ है ?

क्या कल्याण को माफी जायज है?
- अमलेन्दु उपाध्याय -भदोही उपचुनाव में बसपा के खाते से सीट झटककर समाजवादी पार्टी गदगद है और उसके बडे नेता अब फतवा जारी कर रहे हैं कि प्रदेश की जनता बसपा से छुटकारे के लिए सपा को वोट करेगी और कल्याण सिंह से दोस्ती का मुसलमान वोट पर कोई असर नहीं पडा है।
एकबारगी तो लगता है कि सपा का सोचना सही है। लेकिन इतिहास बताता है कि राजनीति के सवाल उतने सीधे होते नहीं जितने दिखाई देते हैं। अगर भदोही का उपचुनाव बैरोमीटर है तो बलिया संसदीय उपचुनाव बैरोमीटर साबित क्यों नहीं हुआ? बलिया चुनाव के बाद प्रदेश में दो बार उपचुनाव हुए और दोनों उपचुनाव में सपा का बहुत बुरा ही हाल हुआ केवल मुलायम द्वारा रिक्त की गई गुन्नौर सीट ही सपा बचा पाई और वहां भी उसका प्रत्याशी बहुत कम अन्तर से जीता।
इस सबसे परे लगता है कि उत्तर प्रदेश में दलित के बाद सबसे बडा वोट बैंक समझे जाने वाला मुसलमान पशोपेश में है कि लोकसभा चुनाव में किधर जाए! उसकी प्राथमिकता आज भी भाजपा को हराना है, लेकिन पिछले दह दशक से जिस तरह से उसे छला गया है उससे वह आहत है। इसका फायदा उठाकर मुस्लिम कट्टरपंथियों की तरफ से भी अपनी पार्टी का राग अलापा जा रहा है।
१९८४ के लोकसभा चुनाव तक मुसलमान उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करता था जिसके बल पर कई दशक तक कांग्रेस ने देश पर राज किया। लेकिन राजीव गांधी के शासनकाल में कांग्रेस ने हिंदू कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेकते हुए जब बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और अयोध्या में राममंदिर का शिलान्यास कराकर अयोध्या से अपने चुनाव अभियान की शुरुआत की तब यह वोट कांग्रेस से खिसकने लगा। बाद में जब नरसिंहाराव ने बाबरी मस्जिद गिरवाने में अप्रत्यक्ष सहयोग दिया तो मुसलमान पूरी तरह से उससे दूर हो गया और मुलायम सिंह के साथ १९९३ के विधानसभा चुनाव में चला गया।
छह फीसदी यादव मतदाताओं के बल पर समाजवादी पार्टी नाम की प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी चलाने वाले मुलायम सिंह ने पन्द्रह बरस तक मुसलमानों को भाजपा का खौफ और बाबरी मस्जिद की शहादत की याद दिलाकर छला। छह दिसम्बर १९९२ के बाद से लगातार मुलायम सिंह मुसलमानों के हीरो थे, भले ही उनकी कैबिनेट में मौ. आजम खां के अलावा किसी दूसरे मुसलमान को स्थान नहीं मिलता था। परंतु सपा में अमर सिंह का प्रकोप बढने के साथ मुलायम का ग्राफ विगत ५-६ वर्षों में गिरने लगा था, और अब बाबरी मस्जिद के कातिल कल्याण सिंह से हाथ मिला लेने के बाद मुसलमान स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहा है।
यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि १९९६ के आसपास वह समय था जब उत्तर प्रदेश के मुसलमान ने तमाम कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं के फतवे के बावजूद समाजवादी पार्टी को वोट दिया था। निश्चित रूप से इस स्थिति के लिए बहुत बडा श्रेय सपा के फारब्राण्ड नेता मौ. आजम खां को जाता है। यह आजम खां के सहारे का सम्बल था कि मुलायम सिंह ने एक समय में शाही इमाम को चुनौती के अंदाज में कहा था कि इमाम साहब इमामत कर और राजनीति हमें करने दें।
मुलायम की अवसरवादिता तब काफी कुछ खुली जब परमाणु करार पर वे अपने समाजवाद, लोहिया के सिद्धान्त और साम्राज्यवाद विरोध की नीतियों की ऐसी तैसी करके मनमोहन और अमरीका की बगल में खडे हो गए। करार पर ही मुलायम को लग गया था कि अब मुसलमान उनसे दूर हो गया है। इसीलिए ठीक डेढ दशक पहले जो मुलायम सिंह चुनौती के अंदाज में कह रहे थे कि इमाम साहब इमामत करें वही मुलायम सिंह करार पर उन्हीं इमाम के दरवाजे पर गिडगिडाने गए।
करार पर मुलायम सिंह की उलटबांसी से तय हो गया था कि उन्हें अब मुस्लिम वोटों की दरकार नहीं है और कल्याण सिंह से हाथ मिलाकर उन्होंने भविष्य की अपनी राजनीति का साफ संकेत दे दिया है। आज मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद के कत्ल के इल्जाम से बरी कर दिया है। लेकिन वो हिंदुस्तानी बाबरी मस्जिद के उस कातिल को कैसे माफ कर दे जिसके कारण ६ दिसम्बर १९९२ के बाद पूरे दो माह तक चले साम्प्रदायिक दंगों में देश भर में चुनचुनकर मुसलमानों का कत्ल किया गया हो, मुंबई, सूरत और अहमदाबाद की सडकों पर औरतों और लडकियों को निर्वस्त्र करके कांच की बोतलों पर नचाया गया हो और उनकी वीडियो रिकॉर्डिंग भी की गई हो, सडकों पर टायर जलाकर जिंदा आग में झोंक दिया गया हो। इन हादसात के लिए मुलायम सिंह तो कल्याण सिंह को माफ कर सकते हैं लेकिन उत्तर प्रदेश का मुसलमान कैसे करे?
तमाशा यह है कि मुलायम ने एक बार फिर दांव चला और कल्याण से माफीनामा जारी कराया। लेकिन इस माफीनामे में कहीं भी ’बाबरी मस्जिद‘ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया। कहीं भी बाबरी मस्जिद गिराने के लिए माफी नहीं मांगी गई। कल्याण ने कहा कि उन्होंने तो ६ दिसम्बर १९९२ को ही घटना की जिम्मेदारी लेनी थी। अगर ऐसा ही था तो कल्याण सिंह भाजपा में अब तक क्या कर रहे थे? ६ दिसम्बर १९९२ की जिम्मेदारी लेकर एक बार फिर से स्वयं को हिंदू आतंकवादियों का कर्णधार साबित करने का ही प्रयास किया है। लिब्रहान आयोग के समक्ष गवाही में भी उन्होंने कोई खेद प्रकट नहीं किया है, बल्कि हर साल ६ दिसम्बर को शौर्य दिवस मनाया है। क्या अगली ६ दिसम्बर को कल्याण फिर से शौर्य दिवस नहीं मनाएंगे?
उधर मुलायम सिंह ने यह कहकर कि अगर भाजपा ’यूनिफाइंग सिविल कोड‘ और धारा ३७० को छोड दे तो वे उससे भी समझौता करने को तैयार हैं, अपनी भविष्य की राजनीति तय कर ली है। अगर जरूरत पडी तो सत्ता के लिए भाजपा इन दो मुद्दों को तिलांजलि भी दे देगी और मुलायम भाजपा की गोद में बैठ जाएंगे! लेकिन यह याद रखना होगा कि जब नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में कत्ल-ए-आम कराया तब भाजपा के एजेंडे में ३७० और यूनिफाइं्रग सिविल कोड और राम मंदिर नहीं थे!् आखिर कहना क्या चाहते हैं मुलायम?
अगर मुलायम की कल्याण से दोस्ती हो सकती है, अपनी चालीस साल की कांग्रेस विरोध की राजनीति और डॉ. लोहिया के गैर कांग्रेसवाद को तिलांजलि देकर एक दलित महिला से घबराकर मुलायम कांग्रेस के साथ जा सकते हैं तो क्या लोकसभा चुनाव के बाद मुलायम सिंह के लिए भाजपा पाक साफ नहीं हो सकती?
( लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और पाक्षिक पत्रिका ’प्रथम प्रवक्ता‘ के संपादकीय विभाग में हैं)

यह लेख राजस्थान पत्रिका के सहयोगी प्रकाशन डेली न्यूज़ , www.mediakhabar.com, www.newswing.com, www.jansamachar.net, www.khabarexpress.com, में प्रकाशित हुआ