गुरुवार, 21 मई 2009

परिवार से हारे दल

परिवार से हारे दल
अमलेन्दु उपाध्याय
चाहे कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी हों या स्वयंभू पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी, सभी ने कार्यकर्ताओं को निराश किया और अपने चुनाव प्रचार की बागडोर भी अपने परिजनों को ही सौंपी
'राजनीति और विरोध की कविता' के कवि रघुवीर सहाय ने कहा था-्रू''दल का दल पाप छिपा रखने के लिए एकजुट होना/ जितना बड़ा दल होगा, उतना ही खाएगा देश को।'' अगर रघुवीर सहाय आज होते, तो उन्हें संशोधन करके दल के स्थान पर 'घर' कहना पड़ता।
पंद्रहवीं लोकसभा के लिए संपन्न हुए चुनाव में सभी दलों ने अपने कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर न केवल सारे टिकट घर में ही बांट लिए, बल्कि कार्यकर्ताओं से चुनाव प्रचार का अधिकार भी छीन लिया। फिर इस मामले में चाहे कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी हों या स्वयंभू पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी, सभी ने कार्यकर्ताओं को निराश किया और अपने चुनाव प्रचार की बागडोर भी अपने परिजनों को ही सौंपी।
रायबरेली में यूं तो चुनाव, कांग्रेस अघ्यक्षा सोनिया गांधी और अमेठी में उनके पुत्र राहुल गांधी लड़ रहे थे, लेकिन सारे देश में कांग्रेस का संगठन मजबूत होने का दावा करने वाली पार्टी ने प्रचार की कमान किसी कार्यकर्ता को देने से परहेज किया और दोनों जगह पर प्रचार की कमान सोनिया की पुत्री प्रियंका गांधी के हाथ रही। मामला जब कांग्रेस का हो तो उसकी प्रमुख प्रतिद्वंदी पार्टी भाजपा भला कहां पीछे रहने वाली है। 'मजबूत नेतृत्व/ निर्णायक सरकार' का नारा देने वाली भाजपा ने भी गांधीनगर सीट पर किसी कार्यकर्ता को प्रचार की जिम्मेदारी नहीं सौंपी। वहां सारी कमान अडवाणी की पुत्री प्रतिभा अडवाणी और पत्नी कमला अडवाणी ने संभाली।
आग उगलकर रातों रात सुपर स्टार बने वरुण गांधी भी इस मामले में अपनी ताई से होड़ करते नजर आए। पीलीभीत में वरुण के चुनाव की सारी कमान उनकी मां मेनका के हाथ रही, जबकि आंवला में अपनी मां को जिताने के लिए वरुण 'मां के आंसुओं' का हिसाब लगवाते नजर आए।
कभी इंदिरा गांधी को वंशवाद के लिए कोसने वाले, चौधरी देवीलाल के वंशज भी इंदिरा के नक्शे कदम पर चलते नजर आए। सोनीपत में पुत्र अजय चौटाला के चुनाव प्रचार की कमान ओमप्रकाश चौटाला ने खुद संभाल रखी थी। इसी तरह अजय चौटाला को चुनौती दे रही स्व. बंसीलाल की पौत्री श्रुति चौधरी के चुनाव प्रचार की कमान उनकी मां और हरियाणा की पर्यटन मंत्री किरन चौघरी ने संभाल रखी थी। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी पुत्र दीपेंद्र सिंह हुड्डा के लिए जी जान से लगे थे।
पंजाब में भी कुछ ऐसा ही नजारा रहा। अपनी पुत्रवधु के चुनाव की कमान स्वयं मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने संभाल रखी थी और जब वह कहीं बाहर होते तो उनके पुत्र सुखबीर सिंह बादल के हाथ में कमान होती। पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी अपने पुत्र के चुनाव की कमान स्वयं ही संभाले थे।
समंदर किनारे के राज्यों में भी परिवार ही प्रचार पर हावी थे, फिर चाहे वह आंध्र हो या तमिलनाडु। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के पुत्र स्टालिन पूरे प्रदेश में पार्टी के लिए प्रचार का जिम्मा संभाल रहे थे। जबकि पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदौस के चुनाव में प्रतिष्ठा उनके पिता एस. रामदौस की लगी हुई थी।
आंध्र प्रदेश में यूं तो चंद्रबाबू नायडू स्वयं स्टार प्रचारक हैं, लेकिन इस बार प्रचार की मुख्य कमान एन.टी. रामाराव के पौत्र जूनियर एनटीआर के हाथ में थी और लोग उनमें रामाराव का अक्स देख रहे थे।
पश्चिम में मराठा क्षत्रप शरद पवार की इज्जत अपनी सीट पर तो लगी ही थी, वह बेटी सुप्रिया सुले के चुनाव के भी मुख्य कर्ता धर्ता थे।
देश की राजधानी दिल्ली में भी परिवारों की हवा रही। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित वैसे तो दूसरी बार चुनाव लड़ रहे थे, लेकिन उनके प्रचार की सारी कमान शीला के हाथ में ही थी। यह बात दीगर है कि तनाव में शीला यह भी भूल जाती थीं कि उनके पुत्र का नाम क्या है और वह चुनाव भी लड़ रहे हैं।
एक पत्रकार के जूते के चलते टिकट से महरूम हुए पूर्व सांसद सज्जन कुमार ने भी अपने भाई रमेश कुमार के प्रचार की कमान स्वयं ही संभाली हुई थी।
दिल्ली से लगी हुई गाजियाबाद सीट पर हालांकि भाजपा अध्यक्ष, राजनाथ सिंह, स्वयं उम्मीदवार थे और बाहरी नेताओं की फौज के बावजूद उनके प्रचार की कमान उनके पुत्र, पंकज, के हाथ में थी। पंकज का सहयोग करने के लिए राजनाथ के दूसरे पुत्र, नीरज और राजनाथ की पत्नी, सावित्री सिंह, भी थीं और अमरीका से उनकी बेटी भी प्रचार करने आ गई थीं। लेकिन, हाय अफसोस! कार्यकर्ताओं पर भरोसा राजनाथ ने भी नहीं जताया। यहां तक कि झंडा और पोस्टर लगाने का ठेका भी, बताते हैं, एक एड एजेंसी को दिया गया।
अगर राजनाथ सिंह अपने चुनाव की बागडोर अपने पुत्रों और पुत्री को सौंप सकते हैं, तो भाजपा के उत्तार प्रदेश इकाई के अध्यक्ष, रमापतिराम त्रिपाठी भला क्यों पीछे रह जाएं? खलीलाबाद में रमापतिराम के बेटे शरद त्रिपाठी उम्मीदवार थे और वहां प्रतिष्ठा रमापति की दांव पर लगी थी, सो वहां प्रचार की सारी कमान पिताश्री के हाथ थी।
रमापतिराम अगर अपने पुत्र के चुनाव की बागडोर संभाल सकते हैं, तो उनके धुर विरोधी और भाजपा का उत्तार प्रदेश में इकलौता पिछड़ा चेहरा, ओमप्रकाश सिंह क्या ऐसे ही पिछड़ जाते? मिर्जापुर में पुत्र, अनुराग सिंह, के प्रचार की कमान पूरी मुस्तैदी के साथ ओमप्रकाश सिंह ने संभाल रखी थी।
उत्तार प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का वैसे अपना तो परिवार नहीं है, लेकिन वह मदर टेरेसा की तरह मां का दिल रखने का दावा करती हैं। इसलिए उन्होंने बेटों को दिल खोलकर टिकट भी दिए और पिताओं के हाथ में प्रचार की कमान भी। सबसे ज्यादा परेशान पूर्वांचल के माफिया सम्राट हरिशंकर तिवारी थे। उनके बूढ़े कंधों पर तीन- तीन सीटों की जिम्मेदारी थी। उनके एक बेटे, भीष्मशंकर तिवारी, खलीलाबाद से बसपा प्रत्याशी थे तो दूसरे बेटे, विनयशंकर तिवारी, गोरखपुर से बसपा की नैया के खिवैया थे। तिवारी जी को केवल इन दो बेटों की ही चिंता नहीं थी, बल्कि उनके भांजे, गणेशशंकर पांडेय, भी महराजगंज में हाथी पर सवार थे। अब खलीलाबाद, गोरखपुर और महराजगंज तीनों जगह हाथी के महावत हरिशंकर तिवारी ही थे।
वाराणसी में माफिया सरगना मुख्तार अंसारी, हाथी पर सवार थे और यहां उनका सारा चुनाव प्रबंधन बड़े भाई अफजाल अंसारी के हाथ था।
मधुमिता शुक्ला हत्याकंाड के सजायाफ्ता मुजरिम अमरमणि त्रिपाठी के भाई अजीतमणि त्रिपाठी महराजगंज में साइकिल पर चढ़कर भाई की खड़ाऊं उठा रहे थे। अब अमरमणि तो जेल में थे , इसलिए उनकी इज्जत की दुहाई, बेटा अमनमणि देता फिर रहा था और पापा के नाम पर चाचा के लिए वोट मांग रहा था।
पूर्वी उत्तार प्रदेश में सुल्तानपुर से कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. संजय सिंह की कथा भी कुछ अलग नहीं थी। उनके प्रचार की सारी बागडोर कभी अमिता मोदी नाम की बैडमिंटन खिलाड़ी से अमेठी की रानी बनीं उनकी पत्नी और विधायिका अमिता सिंह के हाथ में थी।
संगम के तट इलाहाबाद पर भी परिवारों की जंग कमाल की थी। सपा के प्रत्याशी कुंवर रेवतीरमण सिंह के चुनाव की कमान उनके पूर्वमंत्री- पुत्र उज्जवलरमण सिंह के हाथ में थी। तो कुंवर साहब के विरोधी, बसपा प्रत्याशी अशोक वाजपेयी के प्रचार की कमान उनके पुत्र हर्षवर्धन वाजपेयी के हाथ में थी। देवरिया में भी बसपा विधायक रामप्रसाद जायसवाल अपने पिता गोरखप्रसाद के चुनाव की बागडोर संभाले हुए थे।
अगर बात परिवारों को कमान की चले, तो भला डॉ. लोहिया के पूंजीवादी, आधुनिकतम समाजवादी चेले क्या किसी से कम हैं! समाजवादी पार्टी तो नेतापुत्रों के कूड़ेदान में तब्दील हो ही गई है। जिस किसी भी नेतापुत्र को कहीं जगह नहीं, उसके सहारा नेता जी। फिर चाहे वह नीरज शेखर हों या राजवीर।
कन्नौज और फिरोजाबाद में मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश यादव मैदान में थे और उनके चुनाव की कमान चाचा, शिवपाल के हाथ में थी। मैनपुरी में जहां मुलायम सिंह स्वयं मैदान में थे, वहां भी प्रचार की सारी कमान उनके भाई, शिवपाल के हाथ में थी। लेकिन इस मामले में मुलायम के भतीजे, धर्मेंद्र थोड़े बदनसीब रहे, कि उन्हें अपने घर का कोई सारथी नहीं मिला और सपा ने, बदायूं में, उनके चुनाव की कमान अपने मैनेजरों उमाशंकर चौधरी और अरविंद सिंह को सौंप दी।
कभी मुलायम सिंह के गनर रहे, सांसद एसपी सिंह बघेल भी अपने पूर्व नेता से इस मामले में होड़ में पीछे नहीं रहे। बघेल के चुनाव की बागडोर उनकी पत्नी, मधु बघेल के हाथ में रही।
एटा में उत्तार प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह मैदान में थे। बताते हैं, कि उनके पैर में चुनाव के ऐन मौके पर चोट आ गई। इसलिए उनके पुत्र, राजवीर उनकी बैसाखी बने हुए थे। कभी मुलायम सिंह की सरकार बचाने के लिए संसदीय मर्यादा ताक पर रखकर फैसला देने वाले पूर्व विधानसभा अध्यक्ष, धनीराम वर्मा भी कन्नौज में मुलायम सिंह के पुत्र के खिलाफ टाल ठोंक रहे, अपने पुत्र और बसपा प्रत्याशी के चुनाव संचालक थे।
बिहार में भी परिजनों ने ही प्रचार की बागडोर संभाली। लोकजनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान और उनके भाई रामचंद्र पासवान के चुनाव में प्रचार की कमान उनके अभिनेता पुत्र चिराग पासवान के हाथ में थी। जबकि सुपौल में पासवान को बायबाय कहकर गए पप्पू यादव की प्रतिष्ठा उनकी पत्नी रंजीता रंजन के चुनाव में लगी थी। यूं तो लालू प्रसाद यादव अपनी मसखरी के लिए विश्वविख्यात हैं, लेकिन पाटिलिपुत्र और सारण में उनकी स्थिति 'गाते-गाते चिल्लाने लगे हैं' वाली हो गई थी। यहां कमान उनकी पत्नी राबड़ी देवी के हाथ में थी।
बाहुबली शहाबुद्दीन और सूरजभान भले ही जेल में थे, लेकिन क्षेत्र में उनकी पत्नियां उनकी प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ रही थीं।
बात लोकतंत्र की हो और राजा रजवाड़े पीछे रह जाएं, ऐसा हो नहीं सकता। राजस्थान की झालावाड़ संसदीय सीट पर युवराज दुष्यंत सिंह, जनता के दरबार में शीश नवाए खड़े थे। लिहाजा उनकी मां, महारानी वसुंधरा राजे सिंधिया उनके लिए खून पसीना एक कर रही थीं। भले ही ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में हैं और दुष्यंत सिंह भाजपा में, लेकिन हैं तो दोनों भाई-भाई। सो, ज्योतिरादित्य के चुनाव की कमान उनकी पत्नी के हाथ में थी। जबकि छत्ताीसगढ़ में मूंछ ऐंठने वाले राजा साहब, दिलीप सिंह जूदेव का चुनाव प्रबंधन उनके विधायक पुत्र युध्दवीर सिंह के हाथ में था। छत्ताीसगढ़ में ही पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने पत्नी रेनू जोगी के चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया हुआ था और व्हील चेयर पर बैठकर ही पूरा चुनाव संचालित कर रहे थे।
उन्नाव से कांग्रेस प्रत्याशी अनु टंडन का चुनाव प्रबंधन तो और कमाल का था। अनु, उन्नाव में मुकेश अंबानी की प्रतिनिधि के तौर पर लड़ रही थीं। चूंकि मामला कॉरपोरेट जगत का था, इसलिए परिवार तो हावी था, लेकिन कॉरपोरेट स्टाइल में कंपनी बनाकर। बताते हैं, कि उन्नाव में अनु के कार्यकर्ता बनने के लिए बाकायदा कैटवॉक हुई और साक्षात्कार के बाद कार्यकर्ता भर्ती हुए।
इन सबमें कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह का नसीब थोड़ा खराब था। दिग्विजय के अनुज, लक्ष्मण सिंह तो भाजपा के टिकट पर मैदान में थे। जिन्हें हराने के लिए दिग्गी राजा को लोगों के हाथ पैर जोड़ने पड़ रहे थे। जबकि अर्जुन सिंह की पुत्री विद्रोह करके सीधी से निर्दलीय चुनाव लड़ गईं। सो, अर्जुन सिंह उनके प्रचार की कमान नहीं संभाल पाए।
लेकिन यह रुझान लोकतंत्र के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है, जो साबित करता है, कि पंद्रहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में दलीय व्यवस्था फेल हो गई है और जनता के सामने किसी एक राजा को चुनने का ही विकल्प है। अब यह आप पर निर्भर करता है, कि आप सोनिया मॉडल, आडवाणी मॉडल, मायावती मॉडल अथवा मुलायम मॉडल में से किसे चुनते हैं। हां, इस मामले में वामपंथी दल अभी भी बचे हुए हैं, जहां परिवार की नहीं, कैडर की ही चलती है। रघुवीर सहाय की पंक्तियों में थोड़ा सा हेर फेर कि - ''घर का घर पाप छिपा रखने के लिए एकजुट होना/ जितना बड़ा घर होगा, उतना ही खाएगा देश को।''

पंद्रहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में दलीय व्यवस्था फेल हो गई है और जनता के सामने किसी एक राजा को चुनने का ही विकल्प है। अब, यह आप पर निर्भर करता है, कि आप सोनिया मॉडल, आडवाणी मॉडल, मायावती मॉडल अथवा मुलायम मॉडल में से किसे चुनते हैं। हां, इस मामले में वामपंथी दल अभी भी बचे हुए हैं, जहां परिवार की नहीं कैडर की ही चलती है
[ यह लेख 'प्रथम प्रवक्ता ' में प्रकाशित हुआ ]

यह राहुल का कमाल नहीं है

यह राहुल का कमाल नहीं है
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की अनपेक्षित सफलता पर कांग्रेसजन तो अपने युवराज राहुल गांधी के महिमागान में जुट ही गए हैं, हमारे मीडिया के वे बड़े धुरंधर, जो पिछले एक वर्ष से भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी को पीएम इन वेटिंग कहते नहीं थक रहे थे, अब राहुल के गुणगान में उसी श्रध्दाभाव से लगे हुए हैं जैसे आडवाणी जी के लिए लगे हुए थे।यह सही है कि कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया है और उसे उसकी आशा से कहीं अधिक सीटें मिल गई हैं। लेकिन क्या यह सिर्फ राहुल गांधी का ही कमाल था कि उसे 200 सीटें मिल गईं। ऐसा कहना सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह का अपमान है। क्योंकि इस जीत में कुछ न कुछ योगदान तो मनमोहन और सोनिया का है ही! ईमानदारी की बात यह है कि कांग्रेस की इस जीत के पीछे इस देश के बड़े पूुजीपतियों ध्दारा चलाए गए सतत प्रचार अभियान और भाजपा का योगदान है।देश के बड़े पुंजीपतियों की पहली पसंद मनमोहन सिंह रहे हैं, क्योंकि जिस तेजी और ईमानदारी के साथ मनमोहन सिंह तथाकथित आर्थिक सुधारों के नाम पर देश को पूंजीपतियों के हाथों गिरवी रखने के कार्य को अंजाम दे सकते हैं, वह कार्य दूसरा राजनेता नहीं कर सकता था। इसलिए पूंजीपतियों के अखबारों ने भी अधिक मतदान का जो प्रचार छेड़ा, उसका मुख्य उद्देश्य लोकतंत्र के प्रति आस्था नहीं थी बल्कि उसका मुख्य उद्देश्य उस अमरीकापरस्त मध्यवर्ग को पोलिंग बूथ तक ले जाना था जो नेताओं को गाली तो बहुत शौक से देता है लेकिन वोट नहीं देता।एक अन्य कारण कांग्रेस के जीतने का यह रहा कि विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने जो प्रचार छेड़ा उसका आधार निजी आरोप थे। उन्होंने चुनाव को अमरीकी स्टाइल का चुनाव बनाने का प्रयास किया। लिहाजा लोगों को लगा कि आडवाणी तो स्वयं देश के गृह मंत्री रहे और उन मोर्चों पर बुरी तरह विफल रहे जिन पर विफल रहने का आरोप वह मनमोहन पर लगा रहे हैं। इस धारणा ने भी कांग्रेस को बढ़त दिलाने में सफलता दिलाई।मीडिया ने एक तरीके से कांग्रेस के पक्ष में इस तरह माहौल बनाया कि सारे क्षेत्रीय दल ब्लैकमेलर हैं और देश को भाजपा और कांग्रेस में से ही किसी एक को चुनना चाहिए। मीडिया का यह कमाल काम कर गया और क्षेत्रीय दलों को खासा नुकसान उठाना पड़ा। चुनाव प्रचार के बीच में तो भाजपा और कांग्रेस में एक तरह से आम सहमति बन गई थी कि किसी भी तरह क्षेत्रीय दलों को नुकसान पहुंचाओ। अब लोगों को जब मनमोहन और आडवाणी में से किसी एक को चुनना था तो लोगों को मनमोहन सिंह, आडवाणी की बनिस्बत कुछ भले लगे।यह जीत राहुल का करिश्मा नहीं है, के संदर्भ में एक और बहुत वजनदार तर्क है। अगर राहुल का कमाल ही था तो फिर राहुल बिहार में यह कमाल क्यों नहीं कर सके? राहुल यह कमाल छत्ताीसगढ़ में क्यों नहीं कर सके? यही कमाल राहुल उस बुंदेलखंड में क्यों नही कर पाए जहां उन्होंने सिर पर पला ढोने और भूख से हुई मौतों पर आंदोलन करने का स्वांग रचा था ? क्या राजस्थान में हुई कांग्रेस की जीत में अशोक गहलोत की जादूगरी और वसुंधरा की नाकामी का कोई रोल नहीं है? फिर यह राहुल का करिश्मा कैसे है?कांग्रेसियों को सही मायनों में सिर्फ और सिर्फ दो लोगों का शुक्रगुजार होना चाहिए एक वरुण गांधी और दूसरे अमर सिंह। ऐसा वेवजह नहीं है। अभी जो आंकड़े आए हैं उनमें कांग्रेस ने जिन सीटों पर विजय हासिल की है उनमें 85 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम मत 30 प्रतिशत हैं। अब समझा जा सकता है कि अमर सिंह और वरुण ने कैसे कांग्रेस की सरकार बनवाई? उत्तार प्रदेश में जिस समय अमर सिंह के प्रताप के चलते समाजवादी पार्टी ने कल्याण सिंह से हाथ मिलाया और सपा के फायरब्रांड नेता मौ. आजम खां ने कल्याण सिंह के खिलाफ मोर्चा खोला ठीक उसी समय वरुणोदय हुआ। उधर जब भाजपा की तरफ से नरेंद्र मोदी की ताजपोशी की खबरें आईं तो मुस्लिम समुदाय में जबर्दस्त निराशा भर गई। मुलायम कल्याण की दोस्ती से मुसलमान को लगा कि उसके साथ भयंकर धोखा हुआ है और अमर सिंह चुनाव के बाद सपा को भाजपा के खेमे में ले जाएंगे, सिर्फ इस एक भय ने मुसलमान को कांग्रेस के दर पर धकेल दिया और देश भर में एक फिजां बन गई। एक तरफ कांग्रेस और भाजपा के साथ मीडिया का दुष्प्रचार कि तीसरा मोर्चा बंदरबांट करेगा और दूसरी तरफ कल्याण - वरुण - मुलायम - अमर के खौफ ने क्षेत्रीय दलों को पीछे धकेल दिया और कांग्रेस को सत्ता दिलवाने में मदद की। क्योंकि पहले भी टीडीपी, अन्नाद्रमुक जैसे दल भाजपा के साथ रहे थे इसलिए अल्पसंख्यकों को इस बात पर भरोसा नहीं हुआ कि ये दल तीसरा मोर्चा बनाए रखेंगे। यह शुध्द रूप से भाजपा की विफलता और पूंजीपति-मीडिया गठजोड़ का करिश्मा है वरना इसमें राहुल का न कोई योगदान है और न कोई करिश्मा। और अगर है तो क्या जुलाई में जब उत्तार प्रदेश में 11 विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव होंगे तब राहुल का करिश्मा चलेगा? हम भी देखेंगे और आप भी।

रविवार, 3 मई 2009

क्यों बेचैन है मुसलमान
अमलेन्दु उपाध्याय
हर बार लोकसभा चुनाव से पहले कुछ मुस्लिम बुध्दिजीवी और राजनीतिज्ञ विधायिका में मुसलमानों के गिरते प्रतिनिधित्व पर चिंता जताते हुए अनुसूचित जातियों की तरह ही मुसलमानों को विधायिका में आबादी के आधार पर प्रतिनिधित्व देने की मांग करते हैं और यह विचार का सिलसिला जो शुरू हो जाता है तो मुसलमानों की अलग पार्टी बनाने पर समाप्त होता है। इसके परिणाम स्वरूप हर बार मुस्लिम प्रतिनिधित्व कम होता चला जाता है। अब 'वजूद मोर्चा' नाम के एक संगठन द्वारा अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर मुसलमानों सहित अन्य अल्पसंख्यकों को चुनाव लड़ने की छूट दिए जाने की मांग से राजनीतिक दल परेशान हैं।
जिस समय बहुजन समाज पार्टी ''जिसकी जितनी संख्या भारी/ उतनी उसकी हिस्सेदारी'' का नारा देकर जाति और धर्म के आधार पर सियासत और सत्ताा में हिस्सेदारी देने की बात करके और मुस्लिम-दलित गठजोड़ के जरिए 85 फीसदी बहुजन का नारा देकर देश की राजनीति में प्रवेश कर रही थी, ठीक उसी समय देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह, मुसलमानों का विधायिका में प्रतिनिधित्व घटना शुरू हुआ।
अगर देश में संपन्न हुए प्रथम आम चुनाव से लेकर अब तक के आंकड़ों पर निगाह डाली जाए, तो मुस्लिम प्रतिनिधित्व को लेकर बहुत से भ्रम दूर हो जाते हैं और यह बात भी खुलकर सामने आ जाती है कि जब सांप्रदयिक मुद्दे गौण होते हैं, तब मुस्लिम प्रतिनिधिात्व बढ़ता है और अधिकांश मुस्लिम सांसद उन इलाकों से चुनकर आते हैं, जहां मुस्लिम आबादी अपेक्षाकृत कम है।
आजादी के बाद सन् 1952 में संपन्न हुए प्रथम आम चुनाव में 489 सदस्यों में से 21 मुस्लिम सदस्य जीतकर आए। जबकि उस समय मुसलमानों की आबादी 9.91 प्रतिशत थी। संख्या बल के प्रतिनिधित्व के लिहाज से उन्हें 49 सीटें मिलनी चाहिए थीं। इस चुनाव में कांग्रेस ने अपने 479 उम्मीदवारों में से कुल 21 मुसलमानों को टिकट दिया, जो 4.29 प्रतिशत की हिस्सेदारी थी। जबकि सोशलिस्ट पार्टी ने अपने 254 प्रत्याशियों में कुल दो प्रतिशत यानी 8 मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे। गौरतलब है कि इस आम चुनाव में विजयी 21 मुस्लिम उम्मीदवारों में से 19 कांग्रेस के टिकट पर जीत कर आए। अधिकांश मुस्लिम सांसद उन क्षेत्रों से जीतकर आए जहां मुस्लिम आबादी दस प्रतिशत से कम भी थी।
चौथी लोकसभा के लिए जब चुनाव हुए तो कांग्रेस विरोध की हवा थी। इस चुनाव में कांग्रेस ने अपने 516 प्रत्याशियों में 5.62 प्रतिशत यानी 29 मुसलमान प्रत्याशी उतारे, जिनमें से कुल 13 ने जीत दर्ज कराई। जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने 106 प्रत्याशियों में से 7 मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया जिनमें से कुल दो ही जीत पाए। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने सिर्फ एक मुस्लिम प्रत्याशी, बंगाल की बैरकपुर संसदीय सीट से मैदान में उतारा। स्वतंत्र पार्टी ने अपने 178 उम्मीदवारों में से 8.43 प्रतिशत यानी 15 मुसलमान प्रत्याशी बनाए, जिनमें से कुल 3 ही जीत दर्ज करा पाए। इस चुनाव की खास बात यह रही कि चार निर्दलीय मुस्लिम प्रत्याशी भी जीते, जिनमें से एक तो तमिलनाडु की रामनाथपुरम सीट से जीते, जहां मुस्लिम आबादी दस प्रतिशत से भी कम थी। इसी तरह एक निर्दलीय प्रत्याशी हरियाणा की गुड़गांव सीट से जीते, जहां का प्रतिनिधित्व पूर्व में मौलाना अबुल कलाम आजाद करते रहे थे। इसी चुनाव में प्रो. हुमांयू कबीर एक क्षेत्रीय पार्टी, बंगला कांग्रेस के टिकट पर विजयी हुए।
1977 में जब छठी लोकसभा के लिए चुनाव हुआ तो मुस्लिम मतदाताओं ने एकजुट होकर इंदिरा गांधी के खिलाफ मतदान किया। आपातकाल के दौरान खासतौर पर मुसलमानों को संजय गांधी द्वारा निशाना बनाए जाने के खिलाफ देश भर में मुसलमान कांग्रेस के खिलाफ चले गए। मुसलमानों ने इस चुनाव में कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशियों के खिलाफ भी जमकर मतदान किया। जबकि इस चुनाव में कांग्रेस ने अपने 492 उम्मीदवारों में से 7.52 प्रतिशत यानी 37 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे। इनमें से कुल 13 ही जीत हासिल कर पाए। इस चुनाव में जनता पार्टी ने 5.43 प्रतिशत यानी 405 में से 22 मुसलमानों को प्रत्याशी बनाया, जिनमें से 16 जीत कर आए।
अब तक हुए 14 चुनावों में से आठवीं लोकसभा के लिए 1980 में हुए चुनाव में मुस्लिम सांसदों का स्कोर सर्वाधिक रहा। इस चुनाव में भी कांग्रेस ने सर्वाधिक 41 मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे, जबकि उसने कुल 492 प्रत्याशी खड़े किए थे। इस चुनाव में 31 मुस्लिम प्रत्याशी कांग्रेस के टिकट पर जीत कर आए, जिनमें से अकेले उत्तार प्रदेश से ग्यारह सांसद कांग्रेसी थे। जनता पार्टी के 7 मुस्लिम सांसद भी जीते।
इस चुनाव में जनता पार्टी ने अपने 432 प्रत्याशियों में से 21 मुसलमान चुने थे। इस चुनाव की खास बात यह थी कि उत्तार प्रदेश से कुल 18 मुस्लिम सांसद थे। यदि आबादी के आधार पर आरक्षण लागू होता तो कुल 13 मुस्लिम सांसद ही उत्तार प्रदेश से चुनकर आ सकते थे। इस चुनाव में सांप्रदायिक मुद्दे बिल्कुल गायब थे।
गौर करने की बात यह है कि अब तक केवल माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ही इकलौती ऐसी पार्टी है जिसने 1977 से लेकर 2004 तक सर्वाधिक दस प्रतिशत मुस्लिम प्रत्याशी उतारने का रिकॉर्ड बरकरार रखा है।
1984 में आठवीं लोकसभा के लिए संपन्न चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में इंदिरा गांधी की हत्या के कारण सहानुभूति की लहर चली और इस चुनाव में भी मुस्लिम सांसदों ने अपना स्कोर बरकरार रखा। इस चुनाव में कुल 45 मुस्लिम सांसद चुनकर पहुंचे, जिनमें से 31 कांग्रेस के टिकट पर चुने गए। इस चुनाव में अपने कुल 517 उम्मीदवारों में से कांग्रेस ने 41 मुसलमानों को मैदान में उतारा। हालांकि 1980 और 1984 दोनों में कांग्रेस के मुस्लिम सांसदों की संख्या बराबर थी।
1989 में नवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में मुस्लिम प्रतिनिधिात्व का ग्राफ नीचे आ गया, जो अब तक जारी है। 1989 में राजीव गांधाी के विरोध में जनता दल का उभार था तो शाहबानो प्रकरण भी उबाल पर था। उच्चतम न्यायालय के फैसले को मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव में राजीव गांधी सरकार ने संसद में कानून बनाकर पलट दिया था। जबकि भाजपा, विहिप का राम मंदिर अभियान शुरू हो चुका था और राजीव गांधी अपने चुनाव प्रचार अभियान की शुरूआत अयोधया से कर चुके थे। इस सांप्रदायिक विषाक्त माहौल में मुस्लिम प्रतिनिधिात्व घटकर 33 रह गया। कांग्रेस ने इस चुनाव में अपने 510 प्रत्याशियों में से 37 मुसलमान उम्मीदवार बनाए, जिनमें से कुल 12 ही जीत दर्ज करा पाए। जबकि जनतादल ने अपने 243 उम्मीदवारों में से 18 मुसलमान प्रत्याशी बनाए, जिनमें से 12 जीत कर आए। इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने 25 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे, जिनमें से 14 अकेले उत्तार प्रदेश से थे। हालांकि बसपा का एक भी मुस्लिम प्रत्याशी जीत दर्ज नहीं करा सका, लेकिन उत्तार प्रदेश की अमरोहा, बरेली, डुमरियागंज और कैराना तथा बिहार के सीवान में बसपा के मुस्लिम प्रत्याशी कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशियों की हार का सबब बने। 1989 में मुस्लिम प्रतिनिधित्व में जो गिरावट शुरू हुई वह आज तक जारी है।
यहां देखने वाली बात यह है कि सिर्फ अधिक संख्या में मुस्लिम प्रत्याशी उतारे जाने से ही मुस्लिम प्रतिनिधित्व नहीं बढ़ता। बल्कि मुस्लिम प्रतिनिधित्व तब-तब बढ़ा है, जब-जब सांप्रदायिक मुद्दे गायब रहे हैं और मुस्लिम मतदाताओं ने भी बिना किसी भेदभाव के मतदान किया। वरना 1998 में तो कई दलों ने बड़ी संख्या में मुस्लिम प्रत्याशी उतारे और अधिकांश हार गए। इस चुनाव में जनता दल ने 17, राष्ट्रीय जनता दल ने 17, सपा ने 25, बसपा ने 23 मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे, जिनमें से सपा के 3, राजद के 3 और बसपा के 2 जीते, जबकि जनता दल के सभी हार गए। देखने में आया है कि बसपा का रोल शुरु से ही मुस्लिम वोटों को डिस्टर्ब करने का रहा है।
अगर 2004 में संपन्न पिछले लोकसभा चुनाव के आंकड़ों पर ही नजर डालें, तो इस चुनाव में कुल 36 मुस्लिम सांसद चुनकर आए जिनमें से 9 उन क्षेत्रों से जीतकर आए जहां मुस्लिम आबादी 50 प्रतिशत से अधिक है, 14 उन क्षेत्रों से जीतकर आए जहां मुस्लिम आबादी 22 से 40 प्रतिशत के बीच थी, जबकि 9 उन क्षेत्रों से जीतकर आए जहां मुस्लिम आबादी 11 से 18 प्रतिशत के बीच थी। और महाराष्ट्र की कोलाबा व तमिलनाडु की पेरियाकुलम ऐसी सीटें थीं जहां मुस्लिम आबादी क्रमश: आठ व पांच प्रतिशत थी, परंतु वहां से मुस्लिम प्रत्याशी जीते। इस प्रकार कुल 36 मुस्लिम सांसदों में से 27 ऐसे थे, जो हिंदू मतदाताओं के बल पर जीतकर संसद में पहुंचे।
उत्तार प्रदेश की रामपुर ऐसी सीट रही है जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 51 प्रतिशत है और वहां का प्रतिनिधित्व सपा के टिकट पर जीती दक्षिण भारतीय हिंदू महिला जया प्रदा कर रही हैं। हालांकि इस सीट पर चौदह चुनावों में ग्यारह बार मुस्लिम प्रत्याशी विजयी रहा है, लेकिन तीन बार हिंदू प्रत्याशी भी विजयी रहे। हिंदू प्रत्याशी एक बार भारतीय लोकदल, एक बार भाजपा और एक बार सपा के टिकट पर जीता, जबकि 9 बार कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशी ने जीत दर्ज कराई।
इसके विपरीत पं. बंगाल की जंगीपुर ऐसी सीट है जहां 59 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं यहां 1977 में रिकार्ड बना। माकपा के एस सान्याल ने यहां भारी बहुमत से जीत दर्ज कराई, जबकि कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशी एल.हक को 0.7 प्रतिशत ही मत मिले और अन्य दो मुस्लिम उम्मीदवारों को कुल 3 प्रतिशत मत मिले।
इसी तरह रायगंज ऐसी सीट है जहां 55 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। परंतु 1977 (भारतीय लोकदल), 1980 (कांग्रेस), 1984 (कांग्रेस) और 1989 (कांगेस) को छोड़कर हमेशा हिंदू उम्मीदवार ही जीते जिनमें सिध्दार्थ शंकर राय और प्रियरंजन दास मुंशी (2004) प्रमुख हैं। जबकि 1991, 1996, 1998 में माकपा के गैर मुस्लिम प्रत्याशी जीते।
543 में से जिन 453 संसदीय क्षेत्रों के आंकड़े उपलब्ध हैं उनके अनुसार 219 सीटें ऐसी हैं जिन पर मुस्लिम मतदाता दस प्रतिशत से भी कम हैं, 160 सीटों पर ग्यारह से 20 प्रतिशत और 62 सीटों पर 21 से 50 प्रतिशत के बीच हैं। जबकि बारह क्षेत्र ऐसे हैं जहां मुस्लिम मतदाता पचास प्रतिशत से अधिक हैं।
उत्तार प्रदेश ऐसा राज्य है जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या लगभग 15.59 प्रतिशत है लेकिन 2004 के चुनाव में सर्वाधिक ग्यारह मुस्लिम सांसद उत्तार प्रदेश से ही जीत कर आए।
1967 से 2004 तक के जो आंकड़े उपलब्ध हैं उसके मुताबिक लद्दाख में 46 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं, लेकिन यहां से 11 में से तीन बार ही मुस्लिम सांसद चुने गए, जबकि उत्तार प्रदेश की अमरोहा भी ऐसी ही सीट है जहां 41.19 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। लेकिन 11 में से यहां भी सिर्फ 3 बार मुस्लिम सांसद चुने गए। इसी प्रकार मुरादाबाद में 41.49 प्रतिशत और माल्दा में 41 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता थे और दोनों ही जगह ग्यारह में से 8 बार मुस्लिम प्रत्याशी जीते, जबकि बरहामपुर में 44 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता थे परंतु 1967 से आज तक यहां एक भी बार मुस्लिम प्रत्याशी नहीं जीता।
इस संबंध में ऑल इंडिया मिल्ली कौंसिल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. मौलाना यासीन अली उस्मानी का मानना है कि चूंकि अब क्षेत्रीय दलों की तादात बढ़ रही है, जिसके फलस्वरूप मुस्लिम प्रत्याशियों की तादात तो बढ़ रही है, लेकिन संसद में प्रतिनिधित्व कम हो रहा है। वह कहते हैं कि जिस दौर में मुसलमान किसी एक राष्ट्रीय दल के साथ एकजुट रहे तो उनका प्रतिनिधित्व बढ़ा। लेकिन अफसोस की बात यह है कि जो लोग मुसलमानों के नाम पर जीत कर पहुंचते हैं, वे संसद में पहुंचकर अपनी पार्टी के नुमाइंदे बनकर रह जाते हैं, लेकिन मुसलमानों के मसाइल पर नहीं बोलते।
मौलाना यासीन उसमानी कहते हैं कि अब सलाहउद्दीन औबेसी, जी एम बनातवाला, सैयद शहाबुद्दीन और सुलेमान सेत जैसे मुस्लिम सांसद नहीं पहुंच रहे, जिन पर कौम ऐतबार कर सके और जो मुसलमानों के बुनियादी मसाइल को मुल्क के सामने रख सकें। उनका कहना है कि कहने को तो सलीम इकबाल शेरवानी, मुसलमान जैसा नाम है, लेकिन अपने बीस बरस के कार्यकाल में वह कभी भी मुसलमानों के मसाइल पर एक शब्द भी संसद में नहीं बोले। तो ऐसे मुसलमान सांसद से तो एक सेक्युलर हिंदू, मुसलमानों के लिए अच्छा है, जो कम से कम मुसलमानों के सवाल पर बोलता तो है।
जबकि वजूद मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक मोहम्मद यूसुफ अली खान का कहना है कि सवाल मुस्लिम प्रतिनिधित्व का तो बहुत बाद की चीज है, असल सवाल है कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही कुल दो प्रतिशत मुसलमान सरकारी नौकरियों में हैं और 17 प्रतिशत जेल में। मुस्लिम प्रतिनिधित्व घटने के लिए वह कारण दूसरा ही बताते हैं। वह बताते हैं कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण के बाद कुल सामान्य सीटें तो 325 ही रह जाती हैं और उसमें 15 प्रतिशत प्रतिनिधित्व 52 सांसदों का बैठता है। वह कहते हैं कि राजनीति में कभी एक और एक दो नहीं होते। चिंता का असली विषय यह है कि पांच राज्यों से प्रतिनिधित्व आ ही नहीं रहा है और जो प्रतिनिधित्व आ रहा है वह उत्तार प्रदेश, बिहार, पं बंगाल जैसे राज्यों से आ रहा है, जहां सेक्युलर राजनीतिक दलों की संख्या अच्छी है।
युसूफ अली खान प्रोपोर्शनल प्रतिनिधित्व को देश के लिए खतरनाक मानते हैं। उनका कहना है कि ऐसा होने पर देश पाकिस्तान के नक्शे कदम पर चला जाएगा और लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा, जिसका खमियाजा अंतत: मुसलमानों को ही उठाना पड़ेगा। चूंकि ऐसा होने पर कम्पटीशन समाप्त हो जाएगा और मिलजुलकर काम करने की भावना समाप्त हो जाएगी। उनकी मांग है कि इसके स्थान पर होना यह चाहिए कि जो रिजर्व सीटे हैं, उन पर मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को लड़ने की छूट मिले। उनका कहना है कि अनुसूचित जाति के लिए सीट रिजर्व करने के स्थान पर हर दल से कहा जाए कि अपने प्रत्याशियों में तयशुदा आरक्षण दे, इससे देश की 25 प्रतिशत सीटों पर लोगों की दिलचस्पी राजनीति में खत्म हो गई है, वह बहाल हो जाएगी।
( लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और पाक्षिक पत्रिका 'प्रथम प्रवक्ता' के संपादकीय विभाग में कार्यरत हैं।)