बुधवार, 17 जून 2009

सच न घटता है न बढ़ता है बृजेश जी

सच न घटता है न बढ़ता है, बृजेश जी
अमलेन्दु उपाध्याय
बी4एम पर प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोषी के एक अभियान, जिसमें उन्होंने चुनाव के दौरान कुछ समाचारपत्रों द्वारा धन लेकर खबरें छापने पर ऐतराज जताया है, पर कई नामी गिरामी पत्रकार अपनी भड़ास निकाल चुके हैं। यहां मैं अपनी बात प्रारंभ करने से पहले स्पष्ट कर दूं कि मैं ना तो प्रभाष जी का प्रवक्ता हूं और न कभी उनसे मिला हूं। रही बात आलोक तोमर और बृजेश कुमार सिंह की तो आलोक तोमर को भी बरसों से पढ़ता रहा हूं पर मिला कभी नहीं हूं। और यह बृजेश कुमार सिंह कौन हैं और कहां पाए जाते हैं, मैं नहीं जानता। अब यह मेरा अज्ञान हो सकता है या दुर्भाग्य कि मैंने इस देश की सवा अरब आबादी के नाम की तरह बृजेश जी का नाम इससे पहले कभी नहीं सुना। इसलिए मैं न तो आलोक तोमर के खेमे में हूं और न बृजेश सिंह के। दूसरी बात यह कि मैंने कभी जनसत्ता में नौकरी भी नहीं की है और वहां नौकरी मांगने जा भी नहीं रहा हूं। हां, बी4एम से ही मालूम पड़ा कि बृजेश जी एक लाला के पैम्फलेट में (क्षमा करें उसे 'अखबार' की संज्ञा देकर अखबार शब्द का अपमान नहीं किया जा सकता!) मुलाजिम हैं और चूंकि लाला की उस दुकान का आरएनआई में रजिस्ट्रेशन है इसलिए बृजेश जी तकनीकी रूप से पत्रकार कहलाए जाने के अधिकारी हैं। इसलिए मैं सिर्फ मुद्दे की बात करना चाहता हूं और हो सकता है उससे बृजेश जी मुझसे कुपित हो जाएं।
प्रभाष जी ने अखबारों के जिस कारनामे पर ध्यान खींचा है, अखबारों के वह कुकृत्य बृजेश जी जैसे लोगों के लिए, जो पत्रकारिता को सिर्फ लाला की नौकरी समझते हैं, सम्मान की बात हो सकते हैं। लेकिन जो लोग पत्रकारिता को मिशन बनाकर या आम आदमी की आवाज समझकर काम करते हैं उनके लिए अपमान की बात हैं। बृजेश जी ने प्रभाष जी से कुछ सवाल किए हैं और उनके उत्तार न मिलने पर दुख प्रकट किया है। बेहतर होता कि बृजेश जी ने यह सवाल एक पत्रकार की हैसियत से पूछे होते, लेकिन उन्होंने जिस अंदाज में अपनी बात कही है उससे तो लगता है कि उन्होंने यह सवाल अपने लाला की नजरों में अपने नंबर बढ़ाने के लिए किए हैं। बहरहाल बृजेश जी अगर प्रभाष जी से सवाल करने से पहले एक मुकम्मल पत्रकार बन पाए होते तो खुशी हुई होती। वह तो अपने लाला के माउथपीस बनकर रह गए। बता दिया जाए कि 'जागरण' पर सवाल प्रभाष जी ने तो बहुत बाद में उठाए हैं सबसे पहले तो जागरण के खिलाफ मोर्चा तो उन अटल बिहारी वाजपेयी, जिन्होंने नरेंद्र मोहन को राज्यसभा का सदस्य बनाया था, की खड़ाऊ लेकर चुनाव लड़ रहे लालजी टंडन ने खोला था। साथ में उन मोहन सिंह ने, जिनकी पार्टी ने महेंद्र मोहन को राज्यसभा का सदस्य बनाया था, खुला सवाल किया था कि महेंद्र मोहन बताएं कि राज्यसभा सदस्य बनने के लिए उन्होंने सपा को कितने रूपए दिए थे।
जहां तक जागरण का सवाल है तो उसने पत्रकारिता का अपमान पहली बार नहीं किया हैं इससे पहले भी बाबरी मस्जिद की शहादत के वक्त भी उसने पत्रकारिता को कलंकित किया था और उसके कृत्य पर उसे प्रेस कौंसिल से लताड़ भी पड़ी थी। बृजेश जी ने जनसत्ता के बाबत भी कुछ कमेंट किए हैं। अब बृजेश जी चूंकि एक बड़े लाला के नौकर हैं इसलिए बड़े पत्रकार भी हैं। लेकिन बृजेश जी ही स्वयं बता दें कि क्या जागरण अपने कर्मचारियों का भयंकर शोषण नहीं करता है? रही बात बिकने की तो 'हंस' कम बिकती है और 'मायापुरी' व 'मनोहर कहानियां' ज्यादा बिकती हैं। प्रेमचंद का 'गोदान' कम बिकता है लेकिन वेदप्रकाश शर्मा या ओमप्रकाश शर्मा नाम के किसी आदमी का 'वर्दी वाला गुंडा' ज्यादा बिकता है। लिहाजा बृजेश जी के नजरिए से प्रेमचंद छोटे साहित्यकार हैं।
प्रभाष जोशी होने का मतलब बृजेश जी नहीं समझ पाए हैं। प्रभाष जी ने रामबहादुर राय, आलोक तोमर, प्रदीप सिंह जैसे लोग दिए हैं जिन पर पत्रकारिता को नाज है। जबकि 'जागरण' जरनैल सिंह पैदा करता है। किसी का यह कहना कि खबर बेचने में बुराई क्या है, ठीक वैसा ही तर्क है कि एक भले घर की लड़की कॉलगर्ल बन जाए और कहे कि वह वेश्या नहीं है और शरीर तो उसका है, तो उसे बेचने में किसी को क्या आपत्ति है। अगर आलोक तोमर, प्रभाष जोशी के प्रवक्ता बनकर मैदान में उतरे तो बात समझ में आती है कि वे प्रभाष जी के शिष्य हैं और साथ में काम कर चुके हैं। लेकिन बृजेश जी तो 'जागरण' के बचाव में एक स्वामिभक्त मुलाजिम बनकर ही उतरे।
बृजेश जी को आलोक तोमर की भाषा से आपत्ति है। हर तथाकथित 'सभ्य' व्यक्ति को आम आदमी की भाषा से नफरत होती है उसकी नजर में 'हरामी' तो गाली है लेकिन 'बास्टर्ड' गीता के श्लोक की तरह है। और भिंड मुरैना की पुष्ठिभूमि से आना कोई अपराध नहीं है। जिस भिंड, मुरैना और चंबल की पुष्ठिभूमि पर बृजेश जी तंज कस रहे हैं, उस चंबल के डाकू बहुत मॉरल वाले लोग हुए हैं। बृजेश जी के लालाओं की तरह के नहीं। रही बात 'तिहाड़' की तो मेरा मानना है कि 'सच' बोलने की सजाओं में आलोक तोमर का तिहाड़ जाना और उमेश डोभाल का अंत, दोनों हो सकते हैं। लेकिन आलोक तोमर ने ना तो कभी चंद्रास्वामी से अपने संबंध छिपाए और न दाउद के भाई नूरा से। बृजेश जी ने शायद विनोद शुक्ला नाम के आदमी का नाम नहीं सुना है। अगर नहीं सुना है तो मालूम कर लें, वे जागरण के लखनऊ संस्करण के संपादक थे और क्या वे भी जेल गए थे? पर क्यों? इसी तरह बरेली में एक चंद्रकांत त्रिपाठी नाम के सज्जन हैं जो जागरण के सर्वेसर्वा हैं। उनकी जेब में कलम नहीं मिलेगी लेकिन दफ्तर में राइफल रखते हैं। बृजेश जी जरा भाषण देने से पहले अपने संस्थान की करतूतों पर एक सरसरी नजर ही डाल लेते।
अब अंत में मुद्दे की बात। चुनाव के दौरान कई बड़े अखबारों ने जैसा नंगई का नाच खेला और जनजागरण का अभियान भी चलाया, वह अमिताभ बच्चन के उस विज्ञापन की याद ताजा कर देता है जब निठारी कांड के बाद अमिताभ कह रहे थे कि -'यूपी में है दम/ चूंकि जुर्म यहां है कम'। क्या तमाशा है कि एक बड़ा अखबार चुनाव के दौरान अपील कर रहा है कि अपराधियों को वोट न दें और उसी पन्ने पर नक्सली नेता और कई संगीन वारदातों के आरोपी अब सांसद कामेश्वर बैठा का गुणगान कर रहा है कि वे बहुत भले आदमी हैं। वैसे भी प्रभाष जी ने किसी पत्रकार पर उंगली नहीं उठाई है, उन्होंने अखबार मालिकों को कठघरे में खड़ा किया है। फिर भी बृजेश जी जागरण के बचाव में खड़े हैं, तो सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि धूमिल ने जैसा कभी कहा था कि रामनामी बेचने से बेहतर रंडियों की दलाली करना है।
एक स्वामीभक्त मुलाजिम होने के नाते बृजेश जी का अपने लाला के बचाव में उतरना स्वाभाविक है। चूंकि ऐसा करने से उन्हें नौकरी में तरक्की भी मिल सकती है और पगार भी बढ़ सकती है। लेकिन इस देश में बहुत बड़ी संख्या उन पत्रकारों की है जो प्रभाष जोषी, कमलेश्वर,, राजेंद्र माथुर, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, उदयन शर्मा और एस पी सिंह जसे लोगों से प्रेरणा लेते रहे हैं लेकिन पूर्णचंद्र गुप्त, नरेंद्र मोहन या महेंद्र मोहन किस पत्रकार के आदर्श हैं, जरा प्रकाश डालें बृजेश जी!!!!

एक ओंकार से निरंकार तक

एक ओंकार से निरंकार तक
अमलेन्दु उपाध्याय
मिशन जिंदा गुरु की अवधारणा में भरोसा रखता है। उसका तर्क है कि जिसे आपने देखा नहीं, उसका रास्ता कैसा? यही सिख धर्म से उसके संघर्ष का मुख्य कारण है। निरंकारी मिशन के विरुध्द संत जनरैल सिंह भिंडरावाले ने आक्रामक रुख अपनाया था। दोनों धर्मावलंबियों के बीच कई बार हिंसक टकराव भी हुए
शमशेर की एक कविता का अंश है- ''जितना ही लाउडस्पीकर चीखा/ ईश्वर उतना दूर हुआ/ उतने ही दंगे फैले/ जितने दीन धार्म फैलाए गए''। शमशेर ये पंक्तियां पंजाब के संदर्भ में सटीक बैठती हैं। पंजाब की वह धरती जिस पर गुरु नानक देव ने 'एक नूर तें सब जग उपज्यां' का उदात्ता संदेश दिया, उस पंजाब की धरती पर लंबे समय से सिख धर्मावलंबी और वहां फैले विभिन्न डेरे आपस में झगड़ते आ रहे हैं। निरंकारी मिशन, डेरा सच्चा सौदा और डेरा सचखंड जैसे कुछ बड़े समुदायों से अकालियों का निरंतर संघर्ष होता रहा है।
गुरु नानकदेव जाति से क्षत्रिय (बेदी) थे। लेकिन, वह दलित पृष्ठिभूमि से आए हुए कवियों कबीर, रैदास और दादू से प्रभावित थे। वे निम्न जातियों के उत्थान के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने कहा भी- 'नीचां अंदर नीच जाति/ नीची हूं अति नीच/ नानक तिनके संग साथ/ वडियां सयों क्या रीत'। गुरु नानकदेव ने अपने बेटों को अपना स्थान नहीं दिया, बल्कि उन्होंने अपने एक शिष्य भाई 'लहणा' को अपना अंग मानकर 'अंगद' कहा। उन्हें अपना वारिस बनाया। बाद में वे गुरु अंगद देव कहलाए। उनकी सहिष्णुता का आलम यह था कि उन्होंने मक्का और मदीना की भी सैर की। इसी तरह पांचवे गुरू, गुरु अर्जनदेव ने प्रसिध्द 'हरमंदर साहब' की नींव एक मुस्लिम फकीर 'मियां मीर' से रखवाई और जाति प्रथा का विरोध किया।
जिस निराकार की उपासना सिख करते हैं, उसी निराकार की उपासना यह डेरे भी करते हैं। फिर क्या कारण है कि अकालियों का अन्य डेरों से संघर्ष होता रहता है। वैसे जो बात अब तक समझ में आई है, उसके अनुसार इस संघर्ष की जड़ में जातीय संघर्ष है। पंजाब में दलितों की आबादी लगभग 39 प्रतिशत है और गुरुद्वारों पर प्रभुत्व सवर्ण जाट सिखों का है। जितने भी डेरे और मिशन हैं, वह सभी अन्याय के खिलाफ, गैर बराबरी और जाति के आधार पर भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं। यह सभी जमींदारों के जुल्मों के खिलाफ शुरू किए गए थे। देखने में आया है कि इन संप्रदायों के अधिकांश अनुयायी दलित समुदाय से ही आते हैं।
पंजाब में निरंकारी मिशन के अनुयायी बहुत बड़ी संख्या में हैं। एक समय में लगभग सभी बड़े दल निरंकारी मिशन का समर्थन लेना चाहते थे। हालांकि, मिशन लगातार यह दावा करता रहा है कि उसका राजनीति से कुछ लेना देना नहीं हैं। लेकिन मिशन के गुरु बाबा गुरबचन सिंह की हत्या के पीछे पंजाब की राजनीति ही कारण मानी जाती रही है। इस पंथ की शुरुआत बाबा बूटा सिंह ने पेशावर (अब पाकिस्तान में) से अपने ज्ञान प्रसार से की। बाद में देश विभाजन के पश्चात बाबा बूटा सिंह के शिष्य बाबा अवतार सिंह ने दिल्ली आकर निरंकारी मंडल की नींव रखी। चूंकि बाबा अवतार सिंह के अधिकांश अनुयायी पाक अधिकृत पंजाब के निवासी थे जो विभाजन के बाद दिल्ली और पंजाब में आकर बस गए थे। इसलिए मिशन का प्रभाव दिल्ली और पंजाब में अधिक है।
मिशन का दावा है कि यह एक आध्यात्मिक मिशन है और आध्यात्मिकता में कई रास्ते नहीं होते। इसका एक ही रास्ता है सच्चाई को प्रकट करना। मिशन यह भी कहता है कि उसने कोई नया मार्ग नहीं अपनाया है। वह तो सनातन पुरातन मार्ग पर ही चल रहे हैं और जो लोग जाने-अनजाने इस सत्य के मार्ग से हटकर विभिन्न गुटों में बंट गए हैं, उन्हें सत्य मार्ग पर लाने के लिए प्रयत्नशील हैं, जैसा कि महापुरुष पूर्व में भी करते रहे हैं। मिशन को इस बात का अफसोस है कि गुटों पर चलने वाले लोग सत्यमार्ग पर चलने वाले महापुरुषों को नए गुटों का जन्मदाता समझने की भूल कर बैठते हैं और कमोबेश मिशन के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। उनका कहना है कि मिशन किसी नए मत का प्रचार नहीं कर रहा, बल्कि वेदों और शास्त्रों में जिसे निराकार कहकर पुकारा गया है, हम उसे ही 'निरंकार' के नाम से याद करते हैं।
सिख धर्म के अनुयायियों से निरंकारियों के संघर्ष का मुख्य कारण गुरु की अवघारणा को लेकर है। सिख घर्म में मान्यता है कि गुरु गोबिंद सिंह आखिरी गुरु हैं। जबकि, निरंकारी मिशन अपने गुरू के अमर होने और अवतार लेने में यकीन रखता है। मिशन का मानना है कि गुरु अमर होता है। गुरु की कीर्ति भी अमर होती है। जब तक सिध्दांत रहते हैं, तब तक वह भी रहते हैं। मिशन का कहना है कि संसार के लोग मौत का डर दिखाते हैं, लेकिन महापुरुष मौत से कभी नहीं घबराते क्योंकि सद्गुरु ने उन्हें पहले ही मुक्त कर दिया होता है। मिशन जिंदा गुरु की अवधारणा में भरोसा रखता है। उसका तर्क है कि जिसे आपने देखा नहीं उसका रास्ता कैसा। यही सिख धर्म से उसके संघर्ष का मुख्य कारण है। निरंकारी मिशन के विरुध्द संत जनरैल सिंह भिंडरावाले ने आक्रामक रुख अपनाया था। दोनों धर्मावलंबियों के बीच कई बार हिंसक टकराव भी हुआ। अप्रैल 1978 में अमृतसर के चौक मेहता इलाके में हुए हिंसक टकराव में 13 लोग मारे गए थे। बाद में 24 अप्रैल 1980 को मिशन के गुरु बाबा गुरबचन सिंह की सिख आतंकवादियों द्वारा हत्या कर दी गई थी।
निरंकारियों के गुरु बाबा अवतार सिंह रचित 'अवतारवाणी' को धर्मग्रंथ बताने पर भी सिखों से उनका विवाद रहता है। जबकि मिशन दावा करता है कि 'अवतारवाणी' में किसी भी धर्म के विरुध्द कोई भी आपत्तिाजनक बात नहीं कही गई है। इसी तरह एक अन्य पुस्तक 'युगपुरुष' पर भी सिखों से विवाद है। लेकिन निरंकारी मिशन का कहना है कि 'युगपुरुष' हमारा कोई धर्मग्रंथ नहीं है। यह तो एक श्रध्दालु भक्त द्वारा अपने सद्गुरु बाबा अवतार सिंह जी की लिखी गई जीवनी है। इसमें भी कोई आपत्तिाजनक बात नहीं है।
मिशन सफाई देता है कि वह सभी गुरु, पीर- पैगंबर का समान आदर करता है। उसके सत्संग में सभी मजहब और जाति के लोग आते हैं। सत्संग में किसी भी धर्मग्रंथ को नहीं रखा जाता और मिशन के अनुयायी किसी भी धर्मग्रंथ को रिवाजन नहीं पूजते हैं। क्योंकि, मिशन का विश्वास है कि सभी धर्मग्रंथों में लिखे आदेशों के अनुसार आचरण करना ही इनकी वास्तविक पूजा है।
राजनीतिक संबंधों पर भी मिशन का अपना तर्क है। उसका कहना है कि मिशन का कोई राजनीतिक मकसद नहीं है। मिशन यही चाहता है कि सारे इंसान आपस में जुड़ जाएं और करुणा व स्नेह के साथ पेश आएं। मिशन किसी एक धर्म में विश्वास नहीं रखता है। उसका मानना है कि सच्चाई किसी मजहब के साथ नहीं बंधी होती है। यह एक अटल सत्य है। इसलिए जो सत्य से वाकिफ नहीं होते हैं, वे बंटे रहते हैं और दूसरों को भी बांटते चले जाते हैं। उनके लिए अल्लाह कोई और होता है और राम कोई और।
मिशन का मत है कि मायाजाल को छोड़कर प्रभु नहीं मिलेंगे। प्रभु की प्राप्ति के लिए जंगलों में तपस्या करने की जरूरत नहीं है। कर्म और फर्ज से दूर भागकर ईश्वर की प्राप्ति नहीं की जा सकती। कर्म और फर्ज के रास्ते पर चलकर ही 'निरंकार' को जाना जा सकता है।
मिशन भले ही यह दावा करे कि वह कोई नया पंथ या संप्रदाय नहीं है। लेकिन जन्म, विवाह और मृत्यु जैसे अवसरों पर उसकी पृथक पूजा प्रणाली इस विषय में संशय तो पैदा करती ही है। निरंकारी समाज में शिशु जन्मोत्सव भी सत्संग द्वारा ही मनाया जाता है। विवाह की पध्दति भी अनूठी है। विवाह, संगत के मध्य चार हरिगीतिका छंद (लावा) सामूहिक रूप से बोलकर संपन्न किया जाता है। प्रत्येक छंद के पश्चात् सद्गुरु सहित सारी साध संगत पुष्प वर्षा करती है। उसके उपरांत सदगुरु के आशीर्वाद से विवाह संपन्न होता है। अंतिम संस्कार के लिए भी मिशन का रास्ता अलग है। किसी भी व्यक्ति का देहावसान हो जाने पर तुरंत सत्संग शुरू कर दिया जाता है। शव का दाह संस्कार किया जाता है। हालांकि मिशन कहता है कि उसकी तरफ से अपनी अपनी परंपरा के अनुसार अंतिम संस्कार करने की पूरी छूट है, लेकिन निरंकारी संत तो सत्संग ही कराते हैं।

विवाद के घेरे में और भी हैं डेरे
निरंकारी मिशन के अलावा पंजाब में लगभग
400 डेरे हैं। इनमें से अधिकांश कुछ गांवों तक ही मौजूद हैं। इन डेरों के
अनुयायियों में बड़ी संख्या दलितों की है। डेरा सच्चा सौदा, डेरा सचखंड, राधास्वामी
प्रमुख हैं। हालांकि यह सभी डेरे आध्यात्मिक होने का दावा करते हैं, लेकिन राजनीतिक
दल इन डेरों को अपने पक्ष में करने का प्रयास करते रहते हैं।

डेरा सच्चा सौदा- इसका मुख्यालय सिरसा
(हरियाणा) में है। इसके लगभग दो करोड़ अनुयायी हैं। इसकी स्थापना शाह मस्ताना ने
1948 में की थी। इसके मुखिया गुरुमीत राम रहीम के गुरु गोबिंद सिंह की तरह पोशाक
पहनने से सिखों से इनका टकराव हुआ। राम रहीम सिख आतंकवादियों की हिटलिस्ट में
हैं।
डेरा सचखंड- जालंधर के नजदीक बल्लां गांव में इनका
मुख्यालय है। इस डेरे के लोग संत रविदास को अपना आराध्य मानते हैं। इस डेरे के पास
अकूत संपत्तिा है। इनके डेरों में गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश होता है और गान भी
होता है। अंग्रेजों ने उसे अलग धर्म की मान्यता दी हुई थी।
राधास्वामी सत्संग-
अमृतसर के नजदीक व्यास कस्बे में इसका मुख्यालय है। इसके भी अनुयायी करोड़ों की
संख्या में हैं और देश भर में इसकी काफी बड़ी संपत्तिा है।
दिव्य ज्योति नारायण
संस्थान- 1983 में स्थापित इस डेरे का मुख्यालय जालंधर के निकट नूरमहल इलाके में
है। यह भी सिखों से टकराव करते रहते हैं। इसके प्रमुख आशुतोष महाराज सिख
आतंकवादियों की हिटलिस्ट में हैं।
बाबा बनिहारवाला संप्रदाय&
[ यह रिपोर्ट पाक्षिक पत्रिका "प्रथम प्रवक्ता" में प्रकाशित हुयी ]

गुरुवार, 11 जून 2009

अब चाहिए दलित प्रधानमंत्री, युवराज नहीं

अब चाहिए दलित प्रधानमंत्री, युवराज नहीं
- अमलेन्दु उपाध्याय,
'बधाई हो बधाई' के मंगलगान के बीच आखिरकार मीराकुमार ने लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी पा ही ली। देश भर में जश्न का माहौल है कि 'पहली बार' कोई दलित महिला लोकसभा अध्यक्ष बनी है। इस बार भी कांग्रेसजन हमेशा की तरह अपनी पीठ स्वयं थपथपाने में व्यस्त हैं, चूंकि 'पहली बार' करने का पुनीत कार्य इस देश में कांग्रेस ही करती आई है। जाहिर है कि पांच दशक तक आजाद हिंदुस्तान पर कांग्रेस का ही राज रहा है इसलिए 'पहली बार' पर उसका ही कॉपीराइट है। सवाल यह है कि मीरा के इस पद पर काबिज हो जाने से महिलाओं और दलितों की स्थिति पर क्या असर पड़ेगा? क्या इस 'पहली बार' से महिलाओं को अब घर और बाहर में बराबर का हक मिल जाएगा? क्या अब दलितों का सामाजिक स्तर ऊंचा उठ जाएगा और इस मुल्क में अब कोई बेलछी, पनवारी, कुम्हेर नहीं होगा? साफ है कि यह एक दिवास्वप्न के अलावा और कुछ नहीं है। इस कदम से न महिलाओं की दशा सुधरेगी और न दलितों की नियति बदलेगी। ठीक उसी तरह जैसे राहुल की यूथ पॉलीटिक्स से देश के नौजवानों का कुछ भला नहीं हुआ सिवाय इसके कि कुछ युवराजों को समय से काफी पहले वह सब हासिल हो गया जो उनके पिताओं ने उम्र के आखिरी पड़ाव में पाया था। कहने को तो रजिया सुल्तान के रूप में दुनिया को पहली महिला शासिका हिंदुस्तान ने ही दी। लेकिन उससे कितनी महिलाएं सुल्तान बन पाईं। इंदिरा गांधी भी 'पहली बार' महिला प्रधानमंत्री बनीं, लेकिन आपातकाल में नसबंदी के जरिए सबसे बड़ा शिकार महिलाएं ही बनीं। ठीक उसी तरह उ.प्र. में जब जब मायावती मुख्यमंत्री बनती हैं, दलितों पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ जाती हैं। फिर मीरा कुमार न तो घरेलू कामकाजी महिला हैं और न गांव देहात की पददलित, जो कोई नई क्रांति हो गई हो। यहां यह भी याद दिलाना जरूरी है कि मीरा कुमार विदेश सेवा की अधिकारी (आई एफ एस) रही हैं और उन बाबू जगजीवनराम की पुत्री हैं, जिन्हें जनता पार्टी की सरकार बनने पर जनसंघियों ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता के कारण प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था। अब यह साफ है कि मीरा को यह कुर्सी इसलिए नहीं मिली है कि वे महिला अथवा दलित हैं बल्कि उन्हें यह कुर्सी इसलिए मिली हैं कि वे 'मीरा कुमार' हैं और स्व. बाबू जगजीवनराम की पुत्री हैं। वरना न तो कांग्रेस में इस पद के लायक महिलाओं की कमी थी और न दलितों की। हां इतना जरूर हुआ है कि कांग्रेस के दलित प्रेम की पोल पट्टी खुल गई है। चुनाव से पहले कांग्रेसी युवराज राहुल दलितों के घर रोटी खाने और कलावती फूलवती का जो नाटक रच रहे थे, वह दलितों के साथ सबसे बड़ा छलावा था। लोगों को याद होगा कि जिस समय राहुल यह स्वांग रच रहे थे ठीक उसी समय कांग्रेसी वाक्योध्दाओं के बयान आ रहे थे कि कांग्रेस के सत्ताा में आने पर अबकी बार दलित प्रधानमंत्री बनाया जाएगा। इसलिए कांग्रेस को मीरा कुमार के 'पहली बार' दलित महिला स्पीकर बनाए जाने पर अपनी पीठ ठोंकना तुरंत बन्द कर देना चाहिए। अगर कांग्रेस पहली बार दलित महिला स्पीकर का श्रेय लेना चाहती है तो उसे 'पहली बार दलित प्रधानमंत्री' न बनने देने का दोष भी अपने सिर लेना होगा। ऐसा नाहक नहीं बल्कि इसलिए कि उसने स्वयं कहा था कि 'अबकी बार दलित प्रधानमंत्री'! इस सबसे परे जो बात गौर करने की है कि जिन खूबियों के कारण मीरा कुमार स्पीकर बन गईं उन्हीं खूबियों के कारण वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाईं। वरना जहां तक योग्यता का सवाल है तो मीरा कुमार मनमोहन सिंह से ज्यादा योग्य कही जा सकती हैं। मनमोहन सिंह तो विफल अर्थव्यवस्था के पैरोकार अर्थशास्त्री हैं जबकि मीरा भारतीय प्रशासनिक सेवा की सर्वोत्कृष्ट रैंक की अधिकारी रही हैं। लेकिन दलित होना और बाबू जगजीवनराम की पुत्री होना ही वह कारण है कि वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाईं। ऐसा आरोप वेवजह नहीं है और न खाली दिमाग की उपज है। मनमोहन सिंह तो सोनिया की खड़ाऊ लेकर राजगद्दी पर बैठे हैं और जब तक युवराज राहुल इस पर बैठने के लायक नहीं हो जाते तब तक बैठे रहेंगे। जब राहुल चाहेंगे तब मनमोहन आज्ञाकारी सेवक की भंति राजपाट त्याग देंगे। लेकिन अगर कांग्रेस मीरा को प्रधानमंत्री बनाने की गलती कर बैठती तो मीरा से राहुल के लिए कुर्सी खाली करा पाना गांधी परिवार के लिए टेढ़ी खीर होता। क्योंकि तब गांधी परिवार पर भी जनसंघियों की तरह दलितविरोधी होने का लेबल चस्पा हो जाता। वैसे भी मीरा, मृदुभाषी और योग्य भले ही हों लेकिन मनमोहन सिंह की तरह स्वामीभक्त तो नहीं ही हैं। वह पहले भी सोनिया से विवाद के चलते कांग्रेस छोड़ चुकी हैं। मीरा कुमार के बहाने भाजपा को अपने पाप का प्रायश्चित करने का दिखावा करने और कांग्रेस को 'सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे' कहावत चरितार्थ करने का अवसर मिल गया। अब भाजपाई सिर उठाकर कह सकेंगे कि उन्होंने बाबू जी को भले ही प्रधानमंत्री न बनने दिया हो लेकिन उनकी बेटी को स्पीकर बनाए जाने का विरोध नहीं किया है। उधर कांग्रेस को भी मीरा के बहाने मायावती के 'दलित प्रधानमंत्री' बनाए जाने के नारे की हवा निकालने का सुअवसर हाथ लग गया। अब मीरा कुमार की असल परीक्षा होनी है। उन्हें स्वयं को साबित करने का एक अवसर मिला है। स्पीकर के रूप में उनका कार्यकाल बहुत शानदार होना चाहिए। ताकि जब मनमोहन से कांग्रेस राजपाट छीने तब कांग्रेस की मजबूरी बन जाए कि वह रानी की कोख से पैदा हुए युवराज को राजगद्दी न सौंपने पाए और जिस तरह वह अब खुशियां मना रही है उसी तरह मीरा को प्रधानमंत्री बनाकर 'पहली बार दलित महिला प्रधानमंत्री' बनाने का तमगा अपने गले में लटकाने को विवश हो जाए। तभी बाबू जगजीवनराम और इस देश के करोड़ों दलितों के सपने सही मायनों में साकार होंगे। यह जिम्मेदारी अब मीरा को निभानी है। देखना यह है कि मीरा कुमार अपने को साबित कर पाती हैं या नहीं।
( लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और पाक्षिक पत्रिका 'प्रथम प्रवकता' के संपादकीय विभाग में कार्यरत हैं।)

बुधवार, 3 जून 2009

हारा नहीं सर्वहारा और सामाजिक न्याय

हारा नहीं सर्वहारा और सामाजिक न्याय
हारा नहीं सर्वहारा और सामाजिक न्याय
अमलेन्दु उपाध्याय

उत्तार प्रदेश-बिहार में लालू मुलायम की हार सामजिक न्याय की हार नहीं है और बंगाल-केरल में वाममोर्चा की हार वामपंथ की हार नहीं है। इस चुनाव में दल हारे हैं, विचारधाराएं नहीं
क्या संयोग है कि विगत बीस वर्षों से उत्तार प्रदेश और बिहार की धरती पर सामाजिक न्याय का डंका बजाने वाली ताकतें जिस समय हारी हैं ठीक उसी समय पिछले तीस वर्षों से सर्वहारा अधिनायकवाद की माला जपने वाले वामपंथी दल भी अपने गढ़ में धराशायी हो गए हैं। क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि सामाजिक न्याय और सर्वहारा की बात करने वालों के दिन अब लद गए हैं? लेकिन लालू-मुलायम और वाममोर्चा की हार पर इस तरह के निष्कर्ष निकालना न केवल जल्दबाजी होगी बल्कि सत्य से बचना भी होगा। सही बात तो यह है कि न सामाजिक न्याय पहले जीता था और न अब हारा है, ठीक उसी तरह बंगाल और केरल में हार वाममोर्चा की हुई है, सर्वहारा की विचारधारा वामपंथ की नहीं।
थोड़ा पीछे जाकर देखने पर मालूम पड़ता है कि लालू- मुलायम बात सामाजिक न्याय की जरूर करते रहे हैं, लेकिन उनकी जीत में मुख्य कारक एम-वाई समीकरण ही होता था। वैसे भी जिन पिछड़ी जातियों के लिए मंडल दिया गया था उनमें से अधिकांश हिंदी पट्टी में हिंदुत्व की प्रयोगशाला के साथ रही हैं। तेली, तमोली, कोरी, कोइरी, शाक्य, कुशवाहा, काछी, लोधा, कुर्मी, नाई, लोनिया, रजक आदि पिछड़ी जातियां उत्तार प्रदेश में तो पूरी निष्ठा के साथ भाजपा को ऊर्जा प्रदान करती रही हैं। जबकि बिहार में इनमें से कई अति पिछड़ी जातियां बेशक लालू यादव को संबल देती रही हैं। लेकिन उत्तार प्रदेश और बिहार में सामाजिक न्याय का पर्याय बने लालू- मुलायम की राजनीति सिर्फ यादव मतों के इर्द- गिर्द ही घूमती रही है।
उत्तार प्रदेश में तो बसपा ने अति पिछड़ों में सेंध लगाई। वे पिछड़ी जातियां जो मंडल की मलाई नहीं चख पा रही थीं उन्हें बसपा में स्थान मिला। जबकि बिहार में नीतीश कुमार ने कुर्मी मतों पर कब्जा करने के बाद अति पिछड़ों को लालू से झटक लिया। अब अगर लालू को बिहार में नुकसान हुआ है तो यह सामाजिक न्याय की हार कैसे है? जब लालू- मुलायम की जीत ही सामाजिक न्याय की जीत नहीं थी ऐसे में किस आधार पर कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय के दिन लद गए?
समाजवादी पार्टी की सीटें बेशक काफी कम हो गई हैं। लेकिन अब वह 'यादव-अमर एंड यादव कंपनी' नहीं रह गई है। कल्याण सिंह के साथ आने के बाद सपा से लोध वोट फिलहाल तो कुछ क्षेत्रों में जुड़ गया है, जो निश्चित रूप से सामाजिक न्याय के लिहाज से सपा की उपलब्धि है। भले ही उसका एम-वाई समीकरण बिगड़ गया है, लेकिन जिस सामाजिक न्याय के गीत सपा ऊपरी मन से गाती रही है, उसके लिए तो बढ़त ही है। उत्तार प्रदेश में सपा को नुकसान उसका मुस्लिम वोट खिसक जाने से हुआ है, जिसका सीधा फायदा कांग्रेस को मिला। इसी तरह मिर्जापुर में पूर्व दस्यु सरगना ददुआ के भाई बाल कुमार पटेल को चुनाव मैदान में उतारकर सपा ने बड़ी संख्या में कुर्मी मतों पर कब्जा कर लिया। इससे बसपा व भाजपा को करारा झटका लगा। यह बालकुमार का ही प्रभाव था कि सपा बुदेलखंड में नंबर एक की पार्टी बन गई और सारे देश में कांग्रेस का प्रभाव बढ़ाने के लिए जिन युवराज राहुल गांधी की स्तुति करते कांग्रेसी थक नहीं रहे है, वह राहुल गांधी भी बुंदेलखंड में बुरी तरह विफल हो गए। जबकि राहुल ने बुंदेलखंड में पला ढोने से लेकर धरना देने तक क्या- क्या जतन नहीं किए थे।
गौरतलब है कि कांग्रेस को उत्तार प्रदेश और बिहार में लालू मुलायम के कमजोर होने से पिछड़ा वोट नहीं मिला। बिहार में अन्य पिछड़ा वोट घूम फिरकर सामाजिक न्याय की बात करने वाले नीतीश कुमार के साथ ही गया है। जबकि उत्तार प्रदेश में यह वोट बड़ी संख्या में बसपा को भी मिला है।
'सर्वहारा अधिनायकवाद' और 'जो धरती को जोते- बोए वो धरती का मालिक है' का नारा लगाकर व भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करके पिछले तीन दशक से प. बंगाल की धरती पर एकछत्र राज कर रहे वामपंथी दलों की भी इस चुनाव में दुर्गति हो गई। केरल में भी वामपंथी दल काफी पिछड़ गए। बंगाल का मामला केरल से कुछ भिन्न है। केरल में तो वामदलों के अंदर मची गुटबाजी और घटक दलों में मतभेद के कारण वाममोर्चा की हार हुई। साथ ही मदनी की पीडीपी से गठजोड़ ने वामदलों के सांप्रदायिकता विरोध पर प्रश्नचिंह लगा दिया। यह कैसे हो सकता है कि तस्लीमा नसरीन को देश निकाला देने के लिए वामदल मुस्लिम कट्टर पंथियों के सामने घुटने टेक दे और मदनी से साझा भी कर ले और नरेंद्र मोदी को कोसते रहें। केरल में मदनी फैक्टर ने भी वाममोर्चा को हराने में अहम रोल अदा किया।
केरल में माकपा के राज्य सचिव विजयन और मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतानंदन के बीच झगड़े और सार्वजनिक बयानवाजी का भी वाममोर्चा के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ा।
जबकि बंगाल में वामदलों को अपनी विचारधारा से हटने और बड़े पूंजीपतियों के पिछलग्गू बनने का खमियाजा भुगतना पड़ा। नंदीग्राम और सिंगुर के प्रकरण से माकपा को खासतौर पर बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। इस आंदोलन के चलते कई बड़े वामपंथी बुध्दिजीवी वाममोर्चा के खिलाफ हो गए। यहां वाममोर्चा का वैचारिक दिवालियापन साफ उजागर हुआ जिसका तृणमूल कांग्रेस ने भरपूर फायदा उठाया। ऐसा नहीं है कि तृणमूल कांग्रेस सर्वहारा और मजदूर किसान को गाली देकर आगे बढ़ी बल्कि ममता बनर्जी ने उन्हीं सिध्दांतों और नारोें को अपनाया जिन्हें वाममोर्चा के लोग पिछले तीस वर्षों से लगाते आ रहे थे।
सुप्रसिध्द लेखिका महाश्वेता देवी ने तो ममता बनर्जी को अतिवामपंथी भी करार दे दिया था और स्वयं ममता ने भी चालाकी भरा वक्तव्य दिया था कि उनकी लड़ाई वामपंथ से नहीं बल्कि वाममोर्चा की किसान विरोधी नीतियों से है। ममता के पूरे आंदोलन के दौरान उसकी कमान माओवादियों ने ही संभाली और 'सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया' (एसयूसीआई) ने तो इस दौरान खुलकर ममता बनर्जी का साथ दिया।
एक और अन्य महत्वपूर्ण कारक माकपा की अपने सहयोगी वाम दलों से दादागिरी वाला व्यवहार रहा। वाममोर्चा की प्रमुख घटक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो ने तो दबे स्वर से माकपा पर इस तरह के आरोप लगाए भी हैं। माकपा ने अपने अंतर्विरोधों से जिन महत्वपूर्ण पुराने साथियों को बाहर का रास्ता दिखाया उनके लिए उसने सहयोगी वामदलों के भी रास्ते नहीं खुलने दिए। अगर सैफुद्दीन चौधरी जैसे लोग माकपा से निकाले जाने के बाद भाकपा या आरएसपी द्वारा आत्मसात कर लिए गए होते तो आज वाममोर्चा की जो दुर्गति हुई, संभवत: वह नहीं हुई होती। इसी तरह माकपा ने केरल में आरएसपी के साथ गठबंधन टूटने की परिस्थितियां पैदा कर दीं।
वामपंथी दलों की एक परिपाटी रही है कि वहां नेता महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि पोलित ब्यूरो में ही सामूहिक निर्णय लिया जाता है। लेकिन बंगाल के मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य का आचरण पूरी तरह कम्युनिस्ट नैतिकता के खिलाफ था। बुध्ददेव का टाटा के साथ दोस्ताना संबंध और उसके बाद नंदीग्राम और सिंगुर में पुलिस का उसी तरह इस्तेमाल जैसे खम्मम में वाई एस राजशेखर रेड्डी कर रहे थे, वाममोर्चा की हार का प्रमुख कारण रहा। नंदीग्राम और सिंगुर को बुध्ददेव ने अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा से जोड़ रखा था। इसलिए माकपा को बंगाल में जबर्दस्त नुकसान हुआ। बुध्द बाबू का औद्योगिकीकरण का नारा मिखाइल गोर्बाचौफ का 'पेरेस्त्रोइका' और 'ग्लास्नोस्त' साबित हुआ।
जाहिर है कि उत्तार प्रदेश-बिहार में लालू मुलायम की हार सामजिक न्याय की हार नहीं है और बंगाल-केरल में वाममोर्चा की हार वामपंथ की हार नहीं है। इस चुनाव में दल हारे हैं, विचारधाराएं नहीं।
( यह रिपोर्ट 'प्रथम प्रवक्ता' में प्रकाशित हुई)

सोमवार, 1 जून 2009

ऐसे तो राहुल के लिए दिल्ली बहुत दूर है


ऐसे तो राहुल के लिए दिल्ली दूर है

- अमलेन्दु उपाध्याय, 01-Jun-09
धूमिल ने कभी कहा था -‘भाषा में भदेस हूं/ कायर इतना कि उत्तर प्रदेश हूं’। धूमिल ने जिस कायरता की तरफ इशारा किया था उत्तर प्रदेश की वह कायरता मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल विस्तार में भी साफ साफ दिखी। देश में सर्वाधिक लोकसभा सदस्यों की ताकत रखने वाले उत्तर प्रदेश को एक ऐसे प्रधानमंत्री, जो स्वयं पिछले पांच वर्षों से राज्यसभा का सदस्य है वह भी अपने प्रदेश से नहीं सुदूर असम से, के मंत्रिमंडल में एक भी कैबिनेट मिनिस्टर नसीब नहीं हुआ। उस पर तुर्रा यह कि कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी की दूरदृष्टि के कारण कांग्रेस उत्तर प्रदेश में एक बड़ी ताकत बनकर उभरी है। कहा जाता रहा है कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। इस देश को उत्तर प्रदेश ने आठ प्रधानमंत्री दिए हैं। तमाशा यह है कि कांग्रेस जिन नेहरू गांधी के नाम की कमाई पिछले साठ वर्षों से खा रही है उन्हें भी उत्तर प्रदेश ने ही दिया है। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश का यह अपमान क्यों? ऐसा भी नहीं था कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास ऐसे योग्य लोगों की कोई कमी रही हो जिन्हें कैबिनेट मिनिस्टर नहीं बनाया जा सकता हो। सलमान खुर्शीद कांग्रेस के पुराने आदमी हैं और मनमोहन सिंह की तरह ही जनाधारविहीन स्वामीभक्त कांग्रेसी हैं, नरसिंहाराव सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं, और कहने के लिए कांग्रेस का मुस्लिम चेहरा भी हैं, उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया जा सकता था। श्रीप्रकाश जायसवाल तो मनमोहन सिंह के साथ भी काम कर चुके हैं और विषम परिस्थितियों में भी कानपुर से लगातार जीतते रहे हैं, भले आदमी भी हैं, उन्हें भी कैबिनेट मंत्री बनाया जा सकता था, लेकिन नहीं बनाया गया। इसी तरह बेनी प्रसाद वर्मा केंद्र में कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं और अवध के इलाके में कांग्रेस अगर अयोध्या/फैजाबाद जैसी सीट जीत सकी है तो वह युवराज के करिश्मे के कारण नहीं बल्कि बेनी प्रसाद के कारण जीती है। बेनी को भी कैबिनेट मंत्री बनाया जा सकता था लेकिन नहीं बनाया गया। मोहिसना किदवई तकनीकी रूप से तो छत्तीसगढ़ से राज्यसभा सदस्य हैं लेकिन हैं तो उत्तर प्रदेश से। मोहिसना को मंत्री बनाने से मुस्लिम कोटा, उत्तरप्रदेश कोटा और महिला कोटा तीनों भरे जा सकते थे, लेकिन नहीं भरे गए। यह नाइंसाफी नहीं तो और क्या है कि हिमाचल प्रदेश जैसे चार सांसदों वाले प्रदेश जहां से कांग्रेस सिर्फ एक सीट जीती है, दो कैबिनेट मिनिस्टर बनाए गए हैं। जम्मू कश्मीर जैसे छोटे प्रदेश से भी दो कैबिनेट मिनिस्टर बनाए गए हैं। सीपी जोशी पहली बार सांसद बने और कैबिनेट मंत्री बन गए। बंगाल से आठ मंत्री हैं। क्या उत्तर प्रदेश में कोई कांग्रेसी इस लायक नहीं था कि कैबिनेट मिनिस्टर बनता। उत्तर प्रदेश के साथ इस नाइंसाफी के कारण आम आदमी को भी समझ में आ रहे हैं, जिस कारण की तरफ सोनिया गांधी ने भी खुलकर इशारा कर दिया। मुख्य कारण है कि उत्तर प्रदेश से युवराज राहुल भी जीत कर आए हैं और उन्होंने मंत्री न बनने का महान त्याग किया है। इसलिए उत्तर प्रदेश से कोई कैबिनेट मिनिस्टर नहीं बनाया गया। कांग्रेस के मुंशी और मैनेजर असल में लगातार यह साबित करने का प्रयास कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को दो दहाई सीटें राहुल के करिश्माई नेतृत्व के चलते मिली है। यह मुंशीगण कांग्रेस की इस जीत के लिए न ‘मुलायम कल्याण’ की दोस्ती, न मायावती की विफलताओं और अशिष्टता, न अमर सिंह की कारस्तानियों, न वरुण गांधी के जहर उगलू कार्यक्रम को कारण मानना चाहते हैं, और न बेनी प्रसाद वर्मा को अवध में मिली कामयाबी का श्रेय देना चाहते हैं। यह मुंशी मैनेजर सिर्फ राहुल बाबा को बहुत दूरदृष्टि वाला समझदार नेता साबित करना चाहते है। अगर मान भी लिया जाए कि राहुल बाबा बहुत दूरदृष्टि संपन्न नेता हैं और उन्होंने युवाओं को कांग्रेस की तरफ आकर्षित किया है, तो राहुल बाबा का यह आकर्षण दिल्ली से सटी नौएडा सीट पर क्यों नहीं चला जहां अस्सी फीसदी युवा बसते हैं, इसी तरह दिल्ली से लगी उत्तर प्रदेश की गाजियाबाद, बागपत, अलीगढ़, मेरठ,आदि में भी यह करिश्मा नहीं चला। दरअसल कांग्रेस नेतृत्व कल्पित भय से ग्रस्त है। उत्तर प्रदेश की धरती बडी खतरनाक भी है। यह वही सरजमीन है, जहां से डॉ . राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा बुलंद किया। यहीं एक समाजवादी राजनारायण इंदिरा गांधी को हराकर जाइंटकिलर कहलाया, यह वही धरती है जहां एक विश्वनाथ प्रताप सिंह नाम का कांग्रेस का यसमैन जब विद्रोही बन गया तो उसने राजीव गांधी की सत्ता ही उखाड़ फेंकी। अब कांग्रेस नेतृत्व इस अंदेशे से घबराया हुआ है कि फिर उत्तर प्रदेश में कोई राजनारायण और विष्वनाथ प्रताप सिंह पैदा न हो जाए। लेकिन उत्तर प्रदेश के साथ नाइंसाफी करके कांग्रेस इस प्रदेश में राजनारायण और वीपी सिंह बनने से रोक पाएगी क्या? अगर यह कहावत सही है कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है तो कांग्रेस ने राहुल गांधी की मंजिल तय कर दी है और राहुल के लिए दिल्ली बहुत दूर है।
( लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं एवं पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादकीय विभाग में कार्यरत हैं। )