सोमवार, 30 नवंबर 2009

भाजपा को नहीं मिलेगा लिब्राहन की रिपोर्ट का लाभ

भाजपा को नहीं मिलेगा लिब्राहन की रिपोर्ट का लाभ




अमलेन्दु उपाध्याय



आखिरकार सरकार को लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट संसद के पटल पर रखने को विवश होना ही पड़ा। और यह रिपोर्ट पेश होते ही इसका फायदा उठाने के लिए सियासी कुश्ती शुरू भी हो गई है। समझा जा रहा है कि यह रिपोर्ट डूबती भाजपा के लिए संजीवनी का काम करेगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या भाजपा को इस रिपोर्ट के आने से कोई फायदा मिलेगा? लगता तो नहीं है।






प्रथम दृष्टया तो यह सरकार की तरफ से चला गया दांव ही लग रहा है। भले ही रिपोर्ट लीक मामले पर गृहमंत्री पी चिदंबरम यह आश्वासन दें कि गृह मंत्रालय से किसी ने भी इस बारे में किसी से बातचीत नहीं की है और इसकी एक ही प्रति है और वह पूरी हिफाजत से रखी गई है। लेकिन समझने वाले समझते हैं कि कहीं न कहीं इस रिपोर्ट लीक के पीछे हाथ कांग्रेस और केंद्र सरकार का ही है। क्योंकि बाबरी मस्जिद (ढांचा नहीं मस्जिद ही पढ़ा जाए) को शहीद किया जाना कोई छोटी मोटीे घटना नहीं थी। 6 दिसंबर 1992 स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा मोड़ था जिसने भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल दी। तब ऐसे मौके पर कांग्रेस भला क्यों भाजपा को इस रिपोर्ट का फायदा उठानें देना चाहेगी? वैसे भी सत्रह साल बाद लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट का कोई बहुत मतलब नहीं रह जाता.






जहां तक मस्जिद विध्वंस के दोषियों का सवाल है तो आज अपनी रिपोर्ट में अगर लिब्राहन ने किसी राजनीतिक व्यक्ति को इस ञ्टना के लिए षडयंत्र का दोषी माना भी है तो अब इससे क्या होगा? जितने लोगों की गवाही इस आयोग के सामने हुई है और जिन 68 को आयोग ने दोषी ठहराया है, उनमें से अधिकांश लोगों पर रायबरेली की कोर्ट में मुकदमा पहले से ही चल रहा है. फिर किसी एक ञ्टना में एक ही व्यक्ति पर दो मुकदमें नहीं चलाए जा सकते. रायबरेली की अदालत से कोई फैसला आने के बाद ही उस पर आगे की कार्रवाई तय होगी. जबकि इनमें से कई अब अल्लाह मियां को प्यारे हो चुके हैं।






इसलिए इस रिपोर्ट का कोई कानूनी मतलब नहीं रह गया है हां इसके राजनीतिक निहितार्थ जरूर हैं और उन्हें पूरा करने के लिए ही भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में युध्द छिड़ा है।


हां सवाल है कि लिब्राहन आयोग का प्रतिवेदन केंद्र सरकार और स्वयं आयोग के पास था। यह प्रतिवेदन कार्रवाई रिपोर्ट के साथ संसद में पेश किया जाना चाहिए था, लेकिन इससे पहले ही यह मीडिया को लीक कैसे हो गया? अब अगर चिदंबरम सच बोल रहे हैं कि सरकार ने यह रिपोर्ट लीक नहीं की है तो किसने की? क्या गश्ह मंत्री का इशारा जस्टिस लिब्राहन की तरफ है? तो सरकार उनके खिलाफ क्या कदम उठाएगी? यह मामला इसलिए भी गम्भीर है कि संसद का सत्र चल रहा है और जो रिपोर्ट इस सत्र में पेश की जानी थी उसका मीडिया में लीक हो जाना संसद की तौहीन है और जाहिर है कि इस तौहीन का इल्जाम सरकार पर ही आयद होता है। जस्टिस लिब्रहान के विषय में आम धाारण्ाा है कि वह बहुत ईमानदार हैं और रिपोर्ट लीक करने जैसा घटिया काम कतई नहीं कर सकते। अखबार ने भी 'गश्ह मंत्रालय के सूत्रों' का उल्लेख किया है। इसलिए संदेह के घेरे में तो चिदंबरम का मंत्रालय ही है।






फिर सवाल यह है कि इस रिपोर्ट के समय से पहले लीक होने से फायदा किसे है? जाहिर है कि जबर्दस्त अंदरूनी कलह से जूझ रही भाजपा इस रिपोर्ट का कुछ भी फायदा लेने की स्थिति में नहीं है। ऐसा नहीं है कि वह इसका फायदा लेना नहीं चाहती लेकिन ऐसा अवसर फिलहाल तो उसके पास नहीं है। हालांकि अडवाणी जी इसका व्यक्तिगत फायदा उठाना चाहते हैं जैसा उनके लोकसभा में भाषण से स्पष्ट भी हो गया लेकिन क्या भाजपा इसका फायदा उन्हें उठाने देगी? हालांकि उदार दिखने की चाहत में अडवाणी जी आयोग के सामने जो बयान दे बैठे थे वह उन्हें इसका लाभ लेने से रोकेगा, जिसमें उन्होंने कहा था कि बाबरी मस्जिद तोड़े जाने का दिन उनकी जिंदगी का सबसे दुखदाई दिन था। उन्होंने इस ञ्टना की तुलना 1984 के सिख विरोधी दंगों से करते हुए आयोग से कहा था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के दंगे में सिखों के खिलाफ भड़की हिंसा 6 दिसंबर से ज्यादा शर्मनाक थी। अब किस मुंह से अडवाणी इसका लाभ उठा पाएंगे?






वैसे यह रिपोर्ट भाजपा के लिए एक सुनहरा अवसर साबित हो सकती थी लेकिन सत्ताा के लालच में वह यह अवसर स्वयं गंवा चुकी है। उसकी राम मंदिर की काठ की हांडी एक नहीं तीन तीन बार आग पर चढ़ चुकी है और अब चढ़ने से रही। भाजपा अपनी असल सूरत छिपाने के चक्कर में लगातार ऊहापोह की शिकार रही है। एक तरफ अटल अडवाणी की मंडली लगातार 6 दिसंबर 1992 के लिए माफी भी माँगती रही है और दूसरी तरफ भाजपा 6 दिसंबर को शौर्य दिवस भी मनाती रही है। आखिर बाबरी मस्जिद शहीद किए जाने की जिम्मेदारी स्वीकार करने से भाजपा शरमाती क्यों रही है? और अगर यह काम उसने नहीं किया था तो हर 6 दिसंबर को शौर्य किस बात का?






भाजपा को इस प्रकरण का कोई लाभ न मिल पाने का एक महत्वपूर्ण कारण है। भाजपा अभी तक इसी उधोड़बुन में है कि अडवाणी जी को अपना नेता माने या न माने। पिछले एक वर्ष में जिस तरह से अडवाणी जी के ऊपर संघ परिवार ने हमले किए हैं वह भाजपा की अंदरूनी कलह को उजागर करते हैं। भाजपा को इस रिपोर्ट का फायदा मिल भी सकता था अगर उसके सेनापति अडवाणी जी बने रहें। लेकिन अडवाणी जी से तख्त-औ-ताज और उनका चैन-औ-करार छीनने को बेताब राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरूण जेटली वैंकेया नायडू और गडकरी की कंपनी क्या ऐसा होने देगी? भाजपा की सैकेण्ड लाइन लीडरशिप बहुत जल्दी में है। अगर अडवाणी जी दो चार साल ही और टिक गए तो उसके तो सारे अरमानों पर पानी फिर जाएगा। इसलिए यह मंडली कभी नहीं चाहेगी कि अडवाणी जी को इसका कोई फायदा व्यक्तिगत रूप से मिले और जब तक अडवाणी जी को इसका लाभ नहीं मिलेगा तब तक भाजपा को भी इसका कोई लाभ मिलने से रहा।






फिर भाजपा अटल और अडवाणी के बाद कोई भी गंभीर और हद दर्जे का चतुर नेता पैदा नहीं कर पाई है जो कारगिल में हुई अपनी थुक्का फजीहत को भी 'विजय' के रूप में कैश कर सके और खूंखार आतंकवादियों की दामाद की तरह खातिरदारी कर कंधाार छोड़ आने के बाद भी अडवाणी जी को 'लौह पुरूष' की तरह प्रोजेक्ट कर सके।






इसके अलावा भी भाजपा की समस्याएं कम नहीं है। हर सांप्रदायिक और कट्टर आंदोलन का उभार एक निश्चित समय के लिए होता है उसके बाद उसका पराभव होता है। राम मंदिर आंदोलन के बहाने भाजपा ने जिस सांप्रदायिक और फासीवादी उभार को पाला पोसा था उसका गुब्बारा 6 दिसंबर 1992 के साथ ही फूटा और उसकी सारी हवा उस दिन निकल गई जब भाजपा ने सत्ता में आने के लिए राम मंदिर, धाारा 370 और यूनिफॉर्म सिविल कोड जैसे मुद्दों को छोड़ा। उग्र हिंदू तबके में उसकी विश्वसनीयता उसके इस कृत्य से घट गई। अब अगर लिब्रहान के बहाने भाजपा ऊंगली कटाकर शहीद होने का नाटक करती भी है तो भी यह उग्र हिंदू तबका उसके हाथ आने से रहा।






दूसरे इन सत्रह सालों में गंगा में बहुत पानी बह चुका है। सबसे बड़ी बात यह है कि पिछले डेढ़ दशक में भारत का आर्थिक परिदृश्य बड़ी तेजी से बदला है। उदारीकरण और वैश्वीकरण के आने के बाद वह मधय वर्ग जो भाजपा का हिमायती समझा जाता है उसकी एक नई पीढ़ी तैयार हो चुकी है। यह नई पीढ़ी सांप्रदायिक तो है पर है शुध्द व्यावसायिक और पेशेवर। पेप्सी, कोला, पिज्जा बर्गर और मिनरल वाटर पर पलने वाली यह पीढ़ी दंगों से अपने आर्थिक हितों पर होने वाली चोट को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। जबकि भाजपा समेत हर फासीवादी सांप्रदायिक उभार के लिए दंगे अनिवार्य शर्त हैं। इसका गंभीर पहलू यह भी है कि इस आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण को भाजपा ने भी कांग्रेस के साथ साथ पाला पोसा है।






हालांकि भाजपा ने इस रिपोर्ट का लाभ उठाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। राज्यसभा में जिस तरह से एसएस अहलूवालिया और भाजपा के परम मित्र और कल तक कल्याण सिंह के परम सखा रहे और कल्याण सिंह की तुलना जनाब-ए- हुर से करने वाले अमर सिंह में जिस तरह नूरा कुश्ती हुई उससे संकेत मिल गया है कि भाजपा अब मुलायम सिंह की मदद से इस मुद्दे पर देश के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने का प्रयास करेगी। ताज्जुब इस बात का है कि मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी जो लगातार बाबरी मस्जिद की कमाई खाती रही है, इस मुद्दे पर चुप लगा गई थी क्यों कि तब कल्याण सिंह उसके साझीदार हो गए थे और मुलायम सिंह ने तो यहां तक कह दिया था कि बाबरी मस्जिद का मुद्दा अब पुराना पड़ गया है। लेकिन अब फिर सपा को भी इस रिपोर्ट के बहाने बाबरी मस्जिद याद आने लगी है।






कुल मिलाकर कांग्रेस ने इस रिपोर्ट को सही वक्त पर लीक कराकर एक बार फिर बाजी मार ली दिखती है। क्योंकि हाल फिलहाल में कहीं चुनाव भी नहीं होना है और लोकसभा चुनाव भी दूर हैं। और अगर यह रिपोर्ट ऐसे समय लीक होती जब संसद सत्र नहीं चल रहा होता तो जो हंगामा भाजपा अपनी मित्र समाजवादी पार्टी के साथ सदन में कर रही है तब सड़कों पर कर रही होती। साथ ही अभी भाजपा इसी उलझन में फंसी हुई है कि अडवाण्ाी जी को अपना नेता माने या न माने और अगर इसका कुछ फायदा अडवाणी जी के खाते में जाता भी है तो उससे भाजपा को कोई लाभ नहीं होना है। दूसरी तरफ उत्तार प्रदेश जहां कांग्रेस इस समय चौतरफा लड़ाई लड़ रही है वहां उसे फायदा होगा क्योंकि वह मुलायम सिंह जो कल तक कह रहे थे कि बाबरी मस्जिद विधवंस मामले में कल्याण सिंह दोषी नहीं हैं वह अब किस मुंह से लिब्राहन की रिपोर्ट पर हाय तौबा मचाएंगे? अब कांग्रेस के पास उन्हें उत्तार प्रदेश में घेरने का आधाार होगा। वैसे भी अब मुलायम सिंह के सारे पुराने साथी साथ छोडत्र चुके हैं और दलालों को जनता जानती है।






उधार कल्याण सिंह भी जो अभी कुछ दिन पहले ही छह दिसंबर 1992 के लिए मुसलमानों से माफी मांग रहे थे तुरंत हिन्दू हो गए हैं और जोर शोर से अपने शहीद होने का बखान कर रहे हैं॥ बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के समय कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। हालांकि वे लिब्राहन कमीशन के सामने पेश होने से ग्यारह साल तक बचते रहे। उन्होंने इसके खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर करके कहा था कि आयोग के सामने पेश होने पर सीबीआई कोर्ट में उनके खिलाफ चल रहे मुकदमे पर प्रभाव पड़ेगा। पर कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी तो उन्हें गवाही देने पेश होना पड़ा। तब उन्होंने दावा किया था कि उनकी सरकार ने बाबरी मस्जिद को बचाने के पूरे इंतजाम किए थे लेकिन केंद्र की कांग्रेस सरकार ने ऐसी परिस्थिति तैयार की जिससे मस्जिद टूटी।






हालांकि दिक्कतें कांग्रेस के सामने भी हैं। ऐसे में लगता नहीं कि कांग्रेस ईमानदारी से इस रिपोर्ट पर कार्रवाई करेगी? क्योंकि सवाल तो कांग्रेस से भी होंगे ही। सरकार ने जो एटीआर प्रस्तुत की है उससे उसकी मंशा जाहिर हो गई है। नरसिंहा राव ने आयोग को दिए अपने बयान में कहा था कि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार के हाथ बंधक बन गई थी। अयोध्या में कारसेवकों की भीड़ बढ़ने के साथ-साथ हालात खराब होते गए। उन्होंने सफाई दी थी कि केंद्र सरकार के हाथ बंधे हुए थे। राव ने कहा था कि इतिहास उनके साथ न्याय करेगा। लेकिन सवाल यह है कि यह न्याय कैसा होगा जब उनकी पार्टी ही अब उनका नाम लेने से कतराती है?






मानना पड़ेगा चिदंबरम भाजपा के नेताओं के मुकाबले कहीं अधिाक चतुर सुजान हैं जिन्होंने एक छोटी सी चाल चलकर भाजपा समेत अपने सारे विरोधिायों को चित्ता कर दिया है। आयोग की रिपोर्ट लीक होने से कांग्रेस को सीधा राजनीतिक फायदा मिलेगा वहीं भाजपा को इस रिपोर्ट से अब कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि अब वह अपनी सारी ऊर्जा इस बात पर खर्च कर देगी कि रिपोर्ट लीक कैसे हुई?



शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

कोड़ा न पहले हैं और न आखिरी

कोड़ा न पहले हैं और न आखिरी
मध़ु कोड़ा के लगभग सौ ठिकानों पर आयकर विभाग के छापों के बाद राजनीतिज्ञों का भ्रष्टाचार एक बार फिर गर्म बहस का मुद्दा बन गया है। लेकिन जहां तक राजनीति में भ्रष्टाचार का सवाल है, कोड़ा न पहले हैं और न आखिरी। ऐसा भी नहीं है कि जिनके मामले सामने नहीं आए हैं उनके ईमानदार होने की कोई गारंटी दी जा सकती हो। क्या जरूरी है जिनके मामले आज नहीं खुले कल भी उनके मामले नहीं खुलेंगे या जिनके मामले नहीं खुलेंगे वह दूधा के धाुले ही होंगे। कोड़ा का मामला इस मामले में अद्भुत है कि इस मामले से यह राज उजागर हो गया है कि कुछ दिनों का मुख्यमंत्री किस तरह चुटकियों में अरबों रूपया बना सकता है।
मात्र डेढ़ दशक पहले एक ठेका मजदूर की हैसियत से अपने कैरियर की शुरूआत करने वाले कोड़ा शुरू में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े और उसके चरित्रवान कार्यकर्ता रहे। बाद में भाजपा के टिकट पर विधाायक चुन लिए गए। जब राज्यसभा चुनाव में उन्होंने क्रॉस वोटिंग की तो भाजपा ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। लेकिन तब तक चतुर सुजान कोड़ा भारतीय राजनीति की कमजोर नब्ज को पहचान चुके थे। वह निर्दलीय चुनाव लड़ गए और चुनकर आए। उनके भाग्य ने पलटा खाया और भाजपा को उन्हीं कोड़ा की शरण में जाकर सरकार बनानी पड़ी जिन्हें उसने कुछ दिन पहले ही बाहर का रास्ता दिखाया था। कोड़ा ने अपनी पूरी कीमत भाजपा से वसूली और समय आने पर अपने पुराने अपमान का बदला अर्जुन मुंडा की सरकार गिराकर ले लिया। कांग्रेस ने उनका सहयोग किया और कोड़ा ने निर्दलीय विधाायक की हैसियत से मुख्यमंत्री बनने का कीर्तिमान स्थापित किया। कोड़ा जिस दिन मुख्यमंत्री बने थे उसी दिन यह तय हो गया था कि झाारखंड पतन के रास्ते चल पड़ा है।
ऐसा भी नहीं है कि कोड़ा के यह कारनामे एकदम सामने आए हों। बल्कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को इनकी जानकारी रही ही होगी। जिस साधाारण से आदमी दुर्गा उरांव की शिकायत पर कोड़ा के खिलाफ जांच की गई उसने यह शिकायत काफी पहले की थी। लेकिन कोड़ा के खिलाफ आयकर विभाग ने कार्रवाई तब की जब झारखण्ड में चुनाव का बिगुल फुंक चुका है और कोड़ा की जरूरत यूपीए को न केन्द्र में है और न इस वक्त झाारखण्ड में। ऐसे में कोड़ा पर कानून का कोड़ा कई शंकाओं को भी जन्म देता है। पूर्व प्रधाानमंत्री वीपी सिंह की पुस्तक 'मंजिल से ज्यादा सफर' में उन्होंने याद दिलाया है कि कैसे एक समय ऐसा भी आया था जब प्रणव मुखर्जी कांग्रेस से बाहर चले गए थे और उस समय उनके भी ठिकानों पर छापे पड़े थे।
कहा जाता है कि राजनीति देश की अर्थव्यवस्था की दिशा तय करती है और राजनीति इतना सरल विषय नहीं है जितना इसका मजाक उड़ाया जाता है। लेकिन हमारे राजनीतिज्ञों ने राजनीति की धाारा ही बदल दी है अब 'अर्थ' राजनीति की दिशा तय कर रहा है। अगर संसद में मुलायम सिंह यादव, अनिल अंबानी के समर्थन में दलीलें दे रहे हैं तो एस्सार समूह के हितों की रक्षा सुषमा स्वराज कर रही हैं। नाथवानी, मुकेश अंबानी के पैरोकार हैं तो बुध्ददेव भट्टाचार्य टाटा के दोस्त बने हुए हैं। इस मामले में किसी को भी बेदाग नहीं कहा जा सकता। 'डिफरेन्ट विद अदर्स' का राग अलापने वाली भाजपा की पोल तो काफी पहले ही खुल चुकी है और कांग्रेस में तो कृष्णा मेनन के समय से ही ऐसे लोगों की कमी नहीं है। हां वामपंथी दल अभी तक इस बीमारी से अछूते थे लेकिन अब वहां भी पी विजयन पैदा होने लगे हैं। समाजवादियों की तो बात ही छोड़ दीजिए। उनका समाजवाद ही पूंजीपतियों का पिछलग्गू है।
धोटालों ओर राजनीति का चोली दामन का साथ स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही रहा है। सबसे पहले घोटाले का पर्दाफाश तत्कालीन प्रधाानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू के दामाद फिरोज गांधाी ने किया था और हरिदास मूंदड़ा के खिलाफ संसद में आवाज उठाई थी। इस घटना से पं नेहरू की सरकार को असहज स्िथिति का सामना करना पड़ा था और तत्कालीन वित्ता मंत्री को त्यागपत्र देना पड़ा था। 1957 में हुए इस घोटाले को धोटाला युग का सूत्रधाार कहा जा सकता है। इससे पहले आजादी के तुरन्त बाद जीप घोटाला भी हुआ था और उस समय ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त कृष्णा मेनन के ऊपर इस घोटाले को लेकर उंगलियां उठी थीं। तब से चला सिलसिला 1980 में तेल कुंआ घोटाला, 1982 में अंतुले प्रकरण, फिर चुरहट लाटरी कांड जिसमें कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह पर भी उंगलियां उठी थीं, नब्बे के दशक में शेयर घोटाला, चारा घोटाला, हवाला कांड, नरसिंहाराव का सांसद रिश्वत कांड, अब्दुल करीम तेलगी का स्टाम्प घोटाला, तहलका का रक्षा सौदा भंडाफोड़ से होता हुआ मधाु कोड़ा तक जा पहुंचा है।
पूर्व केन्द्रीय मंत्री सुखराम को आय से अधिाक संपत्तिा के मामले में दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने तीन साल की सजा सुनाई व दो लाख रूपये का जुर्माना भी सुनाया। लेकिन उन्हें सजा भुगतने के लिए जेल नहीं जाना पड़ा क्योंकि अदालत ने पचास हजार रूपये के निजी मुचलके पर उन्हें जमानत दे दी। बारह साल तक चले इस केस में अदालत में यह साबित हो गया था कि नरसिम्हाराव सरकार में संचार मंत्री रहते हुए सुखराम ने ठेके देते वक्त भ्रष्टाचार किया था। सीबीआई ने उनके घर छापा मारकर 3 करोड़ 61 लाख रूपये पकड़े थे। तब सुखराम ने इन रूपयों को पार्टी का चंदा बताया था लेकिन कांग्रेस द्वारा इस धान से पल्ला झाड़ लेने के कारण सुखराम मुसीबत में पड़ गए थे। बाद में पं. सुखराम हिमाचल में कांग्रेस से बदला लेने के लिए भाजपा के साथ हो गए थे और भाजपा की सरकार उनके आशीर्वाद से ही चली। बताया जाता है कि सुखराम राजनीति में कदम रखने से पहले मंडी के स्कूल में क्लर्क थे।
हाल ही में सबसे ज्यादा गम्भीर मामला संचार मंत्री ए राजा का सामने आया। बीती 21 अक्टूबर को एक प्राथमिकी दर्ज की गई जिसमें दूर संचार विभाग के अज्ञात अधिाकारियों व्यक्तियों/ कंपनियों पर सरकार को धाोखा देने का आरोप लगाया गया और कहा गया कि स्पेक्ट्रम को बिना नीलामी किए सस्ती दर पर बेचा गया। अगले ही दिन सीबीआई ने दूर संचार विभाग के अधिाकारियों के ठिकानों पर छापे मारे। जब विपक्ष ने संचार मंत्री ए राजा के इस्तीफे की मांग की तो प्रधाानमंत्री ने कह दिया कि कोई घोटाला हुआ ही नहीं है। दरअसल कांग्रेस राजा के खिलाफ कुछ भी करने से इसलिए डर गई क्योंकि राजा ने कह दिया था कि जो कुछ हुआ वह मंत्रिमंडलीय समिति की जानकरी में था और '' लाइसेंस मुद्दे की प्रक्रिया की पूरी जानकारी प्रधाानमंत्री को दे दी गई थी।''
बोफोर्स तोप घोटाले का जिन्न भी दो दशक से भारतीय राजनीति का पीछा करता आ रहा है। हालांकि इसमेें स्व. राजीव गांधाी के दामन पर जो दाग पड़े थे अब वह धाुल चुके हैं और इस मुद्दे को उठाने वाले स्व. वीपी सिंह भी अपने जीवन के अंतिम क्षणों में ऐसा आरोप लगाने के लिए एक तरह से अपराधाबोधा का इजहार करने लगे थे। लेकिन क्वात्रोची को बचाने की कोशिशें करने पर कांग्रेस बार बार सवालों के घेरे में आ जाती है। पूर्व विदेश मंत्री कुंवर नटवर सिंह भी वोल्कर समिति की रिपोर्ट आने के बाद इराक को तेल के बदले अनाज के घोटालें में घिर चुके हैं।
इनेलो नेता ओमप्रकाश चौटाला भी सीबीआई की नजर में लगभग 2000 करोड़ की संपत्तिा के मालिक हैं और इनकी सरकार में शिक्षक भर्ती घोटाले के आरोप लग चुके हैं। इसी तरह पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल भी भ्रष्टाचार के मामलों में फंस चुके हैं। उन पर भी कई स्थानोें पर होटल और अवैधा संपत्तिा जमा करने के आरोप हैं। जबकि उनके प्रतिद्वन्दी पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह भी ऐसे ही आरोपों का सामना कर रहे हैं।
राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव का चारा घोटाला तो काफी चर्चा में रहा। इस केस में कई लोगों को सजाएं हो चुकी हैं और लालू को कब सजा होती है देखना पड़ेगा। इसी तरह राममनोहर लोहिया के समाजवाद के थोक विक्रेता मुलायम सिंह यादव भी आय से अधिाक संपत्तिा के मामलों का सामना कर रहे हैं। उनके मामले में भी कई दिलचस्प मोड़ आए। वही सीबीआई जिसने उन पर मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी थी यूपीए सरकार को सपा के समर्थन के बाद कहने लगी कि अब मुकदमा चलाने की कोई जरूरत नहीं है। इतना ही नहीं वह विश्वमोहन चतुर्वेदी जिन्होंने अदालत में मुलायम सिंह को घसीटा था अब स्वयं अदालत से गैर हाजिर चल रहे हैं। इसी तरह मुलायम सिंह की धाुर विरोधाी मायावती भी ताज कोरीडोर मामले और आय से अधिाक संपत्तिा के मामलों का सामना कर रही हैं। इसी तरह अनुसूचित जाति आयोग के अधयक्ष सरदार बूटा सिंह के सुपुत्र स्वीटी सिंह एक ठेकेदार से तीन करोड़ रूपये की रिश्वत मांगने पर पकड़े गए।
तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता भी अकूत संपत्तिा की मालकिन हैं। वह तांसी भूमि घोटाले में फंसी। लेकिन एक तकनीकी फॉल्ट के कारण सुप्रीम कोर्ट से बरी हो गईं। बताया जाता है कि जब उनकी मां की मृत्यु हुई थी तब उनके पास अपनी मां का अन्तिम संस्कार करने के लिए पैसे नहीं थे लेकिन जब उनके दत्ताक पुत्र का विवाह हुआ और उनके धर पर छापे में उनके गहने और कपड़े पकड़े गए तो सारी दुनिया ने आश्चर्य से अपनी अंगुली दांतो तले दबा ली।
उत्तार प्रदेश के परिवहन मंत्री रामअचल राजभर भी आरोपों के घेरे में हैं। बताया जाता है कि अम्बेडकरनगर बार एसोसिएशन ने राजभर की संपत्तिायों की सीबीआई जांच कराने का अनुरोधा करते हुए एक याचिका दायर करके कहा है कि राजभर किसी समय साइकिल पर घूम-घूमकर चूहा मार दवा बेचा करते थे ऐसे में उनके पास अकूत संपत्तिा कहां से आ गई?
एनडीए सरकार में एक वेबसाइट तहलका डॉट कॉम ने रक्षा सौदों में दलाली का भंडाफोड़ किया था। जिसमें तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज, उनकी सखी और समता पार्टी अधयक्षा जया जेटली व भाजपा अधयक्ष बंगारू लक्ष्मण्ा फंसे थे। लेकिन एनडीए सरकार ने बहुत निर्लज्जता के साथ सीबीआई को यह जांच करने का आदेश दे दिया कि तहलका की यह स्टिंग आपरेशन करने की मंशा क्या थी? इतना ही नहीं सीबीआई ने तहलका के पत्रकारों के खिलाफ उत्तार प्रदेश में वन्य जीवों का अवैधा शिकार करने का मुकदमा कायम कर दिया था। बाद में कारगिल शहीदों के लिए ताबूत खरीदने में घोटाले के आरोप भी एनडीए सरकार पर लगे थे।
इस कड़ी मे एक और चौंकाने वाला नाम माकपा की केरल इकाई के सचिव पी विजयन का है। अभी तक यह धाारणा थी कि वामपंथी दलों के नेताओं में नैतिकता है और वह ऐसे कारनामों में लिप्त नहीं रहते हैं। लेकिन विजयन ने इस मिथक को तोड़ा है। इसी तरह माकपा सांसद नीलोत्पल बसु का एनजीओ भी सवालों के घेरे में है।
विगत लोकसभा में सांसदों का कैश फॉर क्वैरी कांड की गूंज भी काफी तेज रही। एक निजी टीवी चैनल के स्टिंग ऑपरेशन में कई सांसद पैसा लेकर संसद में सवाल पूछते पकड़े गए। लेकिन तत्कालीन लोकसभा अधयक्ष सोमनाथ चटर्जी के कड़े रुख के बाद संसद ने इन सांसदों का सदस्यता रद्द कर दी। इसमें भी एक दिलचस्प पहलू यह है कि बसपा के एक सांसद राजाराम पाल जो इस कांड में अपनी सदस्यता गंवा बैठे थे वर्तमान सदन में कांग्रेस के माननीय सदस्य हैं। इसलिए भ्रष्टाचार की इस गंगा में डुबकी लगाने वाले हर दल के सदस्य हैं। यह सत्ताा का चरित्र है।
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं।)

‘डेली न्यूज’ जयपुर में प्रकाशित

पत्रकारिता के शिखर पुरुष प्रभाष जोशी

पत्रकारिता के शिखर पुरुष प्रभाष जोशी

हिन्दी पत्रकारिता के भीष्म पितामह प्रभाष जोशी हमेशा के लिए इस दुनिया को छोड़ गए हैं। उनके साथ ही 'मिशन पत्रकारिता' के एक पूरे युग का अंत हो गया है। प्रभाषजी पत्रकारिता के भीष्म पितामह जरूर थे लेकिन जब-जब पत्रकारिता की द्रोपदी की लाज लुटी वह द्रोपदी की रक्षा के लिए आगे बढ़कर आए। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी वह अखबारों में कम होती संपादक की भूमिका और अखबार मालिकों के पैसे लेकर खबरें बेचने के कारनामों के खिलाफ लड़ते रहे

अमलेन्दु उपाध्याय
अब नहीं रहे। यह खबर सुनने में अटपटी लगती है पर है सच। प्रभाषजी के साथ पत्रकारिता के एक पूरे युग का अन्त हो गया और उनका यूं अचानक चले जाना उन लोगों के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं है जो पत्रकारिता को एक मिशन मानकर और आम आदमी का सच्चा प्रतिनिधिा मानकर काम करते हैं।
प्रभाषजी, राजेन्द्र माथुर के बाद उस मायने में सच्चे पत्रकार थे जो पत्रकारिता के जरिए सार्थक दिशा में समाज बदलने की चाहत रखते थे और कुल मिलाकर खांटी पत्रकार थे। ऐसा भी नहीं है कि राजेन्द्र माथुर या प्रभाषजी के अलावा समकालीन दौर में पत्रकारिता के क्षेत्र में बड़े नाम वालों की कोई कमी हो। अज्ञेय, धार्मवीर भारती, कमलेश्वर, रघुवीर सहाय कुछ ऐसे लोग रहे जिन्होंने पत्रकारिता के नए मानदण्ड स्थापित किए। लेकिन प्रभाषजी को एक बात जो बाकियों से अलग कर उन्हें राजेन्द्र माथुर की श्रेणी में रखती है, वो यह है कि प्रभाषजी सौ फीसदी पत्रकार थे। वह न तो साहित्य में नाम कमाने के बाद पत्रकारिता में आए थे और न ही साहित्य में विफल होने के बाद। जिस तरह रघुवीर सहाय की कविता को आम आदमी का रोजनामा तथा 'राजनीति और विरोधा' की कविता कहा जाता है ठीक उसी तरह प्रभाषजी की पत्रकारिता आम आदमी के दुख दर्द के लिए थी। प्रभाषजी ने अपने लगभग चार दशक की पत्रकारिता के दौर में पत्रकारों की जो एक पौधा लगाई वह भी सौ फीसदी सच्चे पत्रकारों की थी। यह प्रभाषजी का ही कौशल था कि उनकी टीम में अगर राम बहादुर राय, बनवारी थे तो अभय कुमार दुबे, अंबरीश कुमार जैसे लोग भी थे। आलोक तोमर, प्रदीप सिंह, सुशील कुमार सिंह, निरंजन परिहार, उमेश जोशी, ओम थानवी प्रभातरंजन दीन जैसे लोग प्रभाषजी की ही देन हैं।
मेरा प्रभाषजी से सीधाा कभी कोई वास्ता तो नहीं रहा लेकिन एक खुशी है कि उनके जीवन की आखिरी मुहिम, जिसमें उन पर काफी हमले भी हुए, में मैं भी शामिल रहा। विगत लोकसभा चुनाव में हिन्दी पट्टी में कई बड़े अखबारों ने पैसे लेकर खबरें छापीं। प्रभाषजी ने बाकायदा अखबारों के इस कारनामे के खिलाफ आंदोलन चलाया। उस वक्त मैं रामबहादुर राय जी द्वारा संपादित पत्रिका 'प्रथम प्रवक्ता' में था। राय साहब ने इस मुद्दे पर देश भर से जानकारी इकट्ठा करने और आई हुई खबरों को संपादित करने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर ही डाली। इस दौरान एक घटना हुई जो प्रभाषजी के साथ साथ राय साहब की पत्रकारिता की भी पहचान कराती है। हमारे झारखंड के संवाददाता की खबर आई कि 'प्रभात खबर' में भी खबरें विज्ञापन के रूप में छपीं लेकिन उनके नीचे और ऊपर पीके मीडिया इनीशिएटिव लिखकर यह बताने का प्रयास किया गया कि यह खबर नहीं है।
ऐसे समय संकट इस बात का था कि 'प्रभात खबर' के संपादक हरिवंशजी, राय साहब के भी मित्र हैं और प्रभाषजी से भी उनका नजदीकी संबंधा था। मैंने राय साहब से कहा कि झारखंड से ऐसी खबर आई है क्या देना उचित रहेगा? राय साहब ने कहा कि जरूर दिया जाएगा। अगर खबर आई है तो वह किसी ने भी किया हो दिया जाएगा। इसके बाद सारी खबरें प्रभाषजी के भी पास गईं, जिनके आधाार पर उन्होंने अपना लेख लिखा। तभी अचानक 24 जून को मैंने प्रथम प्रवक्ता छोड़ दिया। लेकिन जब जुलाई के पहले हफ्ते में 'प्रथम प्रवक्ता' का अंक आया तो सारी खबरें ज्यों की त्यों अक्षरश: वैसी ही प्रकाशित हुईं जैसी मैंने संपादित की थीं। यह था प्रभाषजी का एक पत्रकार का रूप। अगर प्रभाषजी चाहते तो झारखंड की रिपोर्ट पर सवाल कर सकते थे, राय साहब से उसे न देने के लिए भी कह सकते थे। पर मिशन में मित्रता आड़े नहीं आई।
इसी तरह एक पूरी की पूरी पीढ़ी प्रभाषजी को पढ़ सुनकर ही पत्रकारिता में जवान हुई है और उसे पत्रकारिता के यह संस्कार कि जिस समय तुम पत्रकार हो उस समय तुम्हारा पहला और आखिरी धार्म पत्रकारिता ही है, प्रभाषजी ने ही दिए। इसलिए आज पत्रकारिता का जो वीभत्स कारपोरेटीक(त स्वरूप सामने आ रहा है उसमें प्रभाषजी हम जैसे उन पत्रकारों के रक्षा कवच थे जो पत्रकारिता को मिशन मानते हैं कमीशन नहीं। जाहिर है उनके जाने के बाद पत्रकारिता का स्वरूप और बदलेगा और नई चुनौतियां भी होंगी लेकिन प्रभाषजी सच्चे पत्रकारों के लिए प्रकाश स्तम्भ का काम करते रहेंगे।
amalendu@thesundaypost.in
amalendu.upadhyay@gmail.com
mob—9313517853




[ Published in “The Sunday Post” 22nd November issue]

सोमवार, 9 नवंबर 2009

चिदंबरम के पीआर मीडिया धुरंधर

चिदंबरम के पीआर मीडिया धुरंधर
अमलेन्दु उपाधयाय
मानना पड़ेगा कि गृह मंत्री पी चिदंबरम का मीडिया प्रबंधन बहुत कमाल का है। कोई महीना भर भी तो नहीं हुआ होगा जब देश के चुनिन्दा संपादकों के साथ उनकी भेंटवार्ता हुई थी और नक्सलवाद को समूल नष्ट करने का इरादा गृह मंत्री ने इस भेंटवार्ता में जताया था। लेकिन इस भेंटवार्ता का अच्छा परिणाम लगभग दो हफ्ते बाद ही सामने आने लगा जब इन बड़े संपादकों में से कई चिदंबरम की नक्सलियों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई करने के विचार के समर्थन में बहुत निर्लज्जता के साथ उतर आए और तथाकथित विकास के नाम पर निरीह आदिवासियों पर प्राणघातक हमले और देश में एक युध्द की वकालत करने लगे।
एक संपादक महोदय जो गुजरात दंगों के दौरान अपनी निष्पक्ष रिपोर्टिंग के लिए सुर्खियों में आए थे और बाद में मनमोहन सरकार के विश्वासमत के दौरान सांसदों की खरीद फरोख्त का स्टिंग ऑपरेशन का प्रसारणा अपने चैनल पर न करने के लिए सवालों के घेरे में आए थे, ने तो चाटुकारिता की सारी हदें पार करते हुए चिदंबरम की तुलना सरदार वल्लभ भाई पटेल से ही कर डाली। जबकि एक अन्य दूसरे बड़े संपादक महोदय, जिनके अखबार के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले कई संस्करण प्रारम्भ हुए और अब बन्द होने वाले हैं तथा जो बहुत जल्दी मनमोहन सिंह- चिदंबरम के आशीर्वाद से राज्यसभा सदस्य बनने वाले हैं, ने भी बाकायदा लेख लिखकर सवाल खड़ा कर दिया कि पड़ोसी देश श्रीलंका की सरकार जब बड़ी सैनिक कार्रवाई करते हुए लिट्टे आतंकवादियों की पूरी जमीन साफ कर सकती है तो क्या भारत सरकार और सेना कुछ हजार नक्सलियों को हथियार डालने के लिए बाध्य नहीं कर सकती है?
इस प्रश्न का सम्यक उत्तर सिर्फ इतना हो सकता है कि श्रीलंका ने तो आज लिट्टे का सफाया किया है लेकिन हमारे देश ने ऐसी सैन्य कार्रवाई का खमियाजा डेढ़ दशक पहले ही राजीव गांधी की शहादत देकर और ऑपरेशन ब्लू स्टार का खमियाजा इंदिरा जी की शहादत देकर उठाया था। पता नहीं हमारे यह तथाकथित बुध्दिजीवी अब क्या चाहते हैं? शायद हमारे बंधुआ बुर्जुआवादी बुध्दिजीवियों ने इतिहास और दुनिया से सबक लेना सीखा नहीं है या जान-बूझ कर सीखना नहीं चाहते हैं। हमारे बगल में पाकिस्तान है, जहां पिछले साठ सालों से फौज अपने ही लोगों के खिलाफ इस्तेमाल की जाती रही है। नतीजा सामने है। आज पाकिस्तान जबर्दस्त टूट के मुहाने पर बैठा है।
यह इत्तेफाक है या चिदम्बरम का मीडिया मैनेजमेन्ट, पता नहीं! पीसीपीए नेता छत्रधर महतो की रिहाई की मांग करते हुए आदिवासियों ने राजधानी एक्सप्रेस रोक ली। सारे समाचार चैनल शोर मचाने लगे कि नक्सलवादियों ने राजधानी एक्सप्रेस अगुवा कर ली। लेकिन पूरे दिन भर किसी भी हमारे पत्रकार साथी ने यह खुलासा नहीं किया कि ट्रेन रोकने वाले उस पीसीपीए के समर्थक थे, जो कांग्रेस की बगलबच्चा तृणमूल कांग्रेस का सहयोगी संगठन है और छत्रधर महतो भी नक्सलवादी नहीं बल्कि तृणमूल नेता हैं। बहुत बाद में धीरे से यह सूचना दी गई कि ट्रेन रोकने वाले आदिवासी थे जो तीर कमान लिए हुए थे और लूट के नाम पर उन्होंने या तो कम्बल लूटे या खाने के पैकेट। इससे पहले भी हमारे मीडिया के साथी अपनी सोच का नमूना दे चुके हैं जब 6 दिसम्बर 1992 को अयोधया में बाबरी मस्जिद गिराने वाले गुण्डों को 'कारसेवक' कहकर महिमामंडित किया गया था।
सवाल उठाया गया है कि छत्तीसगढ़, आंध्र, उड़ीसा जैसे राज्यों के कुछ जिलों में नागरिक प्रशासन की बात तो दूर रही, सरकारी सेवा का कोई शिक्षक, डॉक्टर, कंपाउंडर, नर्स इंजीनियर और पटवारी तक नहीं घुस पा रहे हैं, ऐसी स्थिति में इन क्षेत्रों में आर्थिक विकास न होने का रोना रोना अपने आप को धोखा देना है। ऐसे तर्क देने वाले बुध्दिजीवियों से बहुत विनम्रता से एक सवाल किया जा सकता है कि ठीक है जहां नक्सलवादी हैं वहां यह सरकारी अमला नहीं जा पा रहा लेकिन जहां नक्सलवादी नहीं हैं वहां यह सरकारी तंत्र नजर क्यों नहीं आता? देश भर के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की क्या हालत है, पटवारी और इंजीनियर का मतलब देहात में क्या होता है? दिल्ली में मिनरल वाटर और कोला पीने वाले बुध्दिजीवी नहीं समझ सकते हैं।
आरोप लगाए जा रहे हैं कि नक्सलवादी, ठेकेदारों और इंजीनियरों से लेवी वसूलते हैं और मारने की धमकी देते हैं। लेकिन अभी तक यह बताने वाला कोई भद्र पुरूष नहीं मिला जो बताए कि एस मंजुनाथ और सत्येन्द्र दुबे को मारने वाले भी क्या नक्सलवादी थे? हमारे संपादक महोदय जब राज्य सभा सदस्य बन जाएंगे और उनकी सांसद निधि का पैसा जब विकास कार्य में लगेगा तब शायद उनका कोई चहेता ठेकेदार हुआ तो उन्हें बताएगा कि काम शुरू होने से पहले ही चालीस प्रतिशत की रकम तो इंजीनियर साहब की भेंट चढ़ जाती है।
अगर निष्पक्ष जांच करवाई जाए कि जिन पुलों और स्कूलों को उड़ाने का आरोप नक्सलियों के सिर पर है, उनमें से कितने ऐसे थे जो दो या चार माह पुराने ही थे। नतीजा सामने आ जाएगा कि अधिकांशत: नए बने हुए थे और उनके बिलों का भी भुगतान ठेकेदारों को हो चुका था। खगड़िया में सामूहिक नरसंहार हुआ। तुरन्त आरोप लगाया गया कि नक्सलियों ने किया। लेकिन मालूम पड़ा कि यह काम तो जातीय गिरोहों का था।
बात विकास की की जा रही है लेकिन यह विकास किसका हो रहा है? किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है, आदिवासियों से जंगल छीने जा रहे हैं और उन जमीनों पर बड़े बड़े पूंजीपतियों के संयंत्र लग रहे हैं। तमाशा यह है कि जिस किसान की जमीन छीनकर छह और आठ लेन का हाईवे बनाया जा रहा है उस हाईवे पर वह किसान अपनी बैलगाड़ी या साइकिल लेकर नहीं चल सकता और अगर उस सड़क पर वह चलना चाहेगा तो उसे टोल टैक्स देना होगा चूंकि उसके चलने के लिए पैरेलल सड़क समाप्त की जा चुकी है। उत्तर प्रदेश में जेपी समूह ताज एक्सप्रेस वे बना रहा है। जिन किसानों की जमीनें छीनी गई हैं वह प्रतिवाद करते हैं तो किसानों पर गुण्डा एक्ट लगा दिया जाता है। लेकिन हमारे तथाकथित बड़े संपादकों की नजर में यह विकास है। यह विकास का ही रूप है कि झारखण्ड में जिन आदिवासियों को खदेड़कर सरकार पूंजीपतियों से एमओयू साइन करती है उनका थोड़े से दिन का मुख्यमंत्री कई हजार करोड़ रूपये की खदानें विदेशों में खरीद लेता है। लेकिन हमारे वरिष्ठ पत्रकार सैन्य कार्रवाई की आवश्यकता नक्सलियों के खिलाफ महसूस करते है?
फ्रांसिस इंदवार नाम का एक पुलिस इंस्पैक्टर बेरहमी के साथ मारा गया। इस तरह के कामों की कड़ी भर्त्सना होनी चाहिए और हुई भी। लेकिन जो हमारे बुध्दिजीवी इंदवार की हत्या पर क्रोधित हो रहे हैं और इसके लिए नक्सलियों पर सैन्य हमले की वकालत कर रहे हैं, वह यह बताना भूल जाते हैं कि इंदवार को पिछले छह माह से तनख्वाह नहीं मिली थी और उसकी तनख्वाह रोकने वाले नक्सली नहीं थे बल्कि देश के गृह मंत्री पी चिदंबरम के कारकुन ही थे। शायद मालूम हो कि झारखण्ड में पिछले लगभग नौ माह से राष्ट्रपति शासन है और सारा प्रशासन गृह मंत्री के ही अधीन है।
गृह मंत्री ने एक जोरदार तर्क दिया और उसकी हिमायत बड़े संपादकों ने की। कहा गया कि अगर नक्सली व्यवस्था बदलना चाहते हैं तो चुनाव लड़कर क्यों नहीं आते? तर्क है तो जानदार लेकिन है बेहद बेहूदा। पहली बात तो चुनाव, व्यवस्था नहीं सरकारें बदलने का माधयम है। चिदंबरम साहब स्वयं गवाह हैं कि इस देश में चार प्रतिशत मत पाकर सरकारें बन जाया करती हैं। क्या यह सरकारें जनभावनाओं की सही प्रतिनिधि होती हैं।
एक तरफ कहा जा रहा है कि कुछ हजार नक्सली हैं। दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि सारे जंगलों पर एक साथ हमला करो। अगर नक्सली कुछ हजार ही हैं तो सारे जंगलों पर एक साथ हमला करने की क्या जरूरत है? अगर ऐसा हमला हुआ तो सबसे ज्यादा जानें किसकी जाएंगी? निरीह आदिवासियों की ही? तमाशा यह है कि लोंगोवाल से बात की जा सकती है, लालडेंगा से बात की जा सकती है, परेश बरूआ से बात की जा सकती है, एनएससीएन से बात की जा सकती है, संघ- विहिप और हुर्रियत कांफ्रेंस से भी बात की जा सकती है लेकिन नक्सलियों से बात नहीं की जानी चाहिए उनके खिलाफ तो सिर्फ और सिर्फ सैन्य कार्रवाई ही एकमात्र विकल्प है। और यह सैन्य कार्रवाई इसलिए भी जरूरी हो जाती है क्योंकि खनन कंपनियों का लॉ अफसर रहा एक व्यक्ति अब इस देश का गृह मंत्री है।