मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

यूपी का विभाजन देश बांटने की पटकथा लिखेगा

यूपी का विभाजन देश बांटने की पटकथा लिखेगा


अमलेन्दु उपाध्याय

तेलंगाना राज्य बनाने की केन्द्र सरकार ने घोषणा क्या की पूरे देश में नए राज्य बनाने की पुरानी मांगों ने जोर पकड़ लिया। गोरखालैण्ड, बोडोलैण्ड, विदर्भ, हरित प्रदेश, बुन्देलखण्ड समेत लगभग दो दर्जन नए राज्य बनाए जाने की मांग सामने आ गई है। लगे हाथ उत्तार प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने भी प्रदेश को चार हिस्सों में बांटने की मांग कर डाली है। 'राहुल बाबा और सोनिया' की कांग्रेस भी पहले से ही इस मांग का समर्थन करती रही है। आखिर मामला क्या है? सारा देश एकदम बंटने को क्यों तैयार है? तेलंगाना की घोषणा के साथ ही उत्तर प्रदेश के विभाजन की बहस फिर से शुरू होर् गई है। सन 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग कर उत्तरांचल बनाया गया था उसके बाद भी उत्तर प्रदेश के बचे हुए भूभाग से कम से कम तीन और राज्य बनाने की मांग उठ रही है। थोड़े समय पहले ही केंद्रीय गृहमंत्रालय ने स्वीकार किया था कि बिहार से मिथिलांचल, गुजरात से सौराष्ट्र और कर्नाटक से कूर्ग राज्य अलग बनाने सहित कम से कम दस नए प्रदेशों के गठन की मांग की गई है। जबकि कई ऐसे राज्यों की भी मांगें उठ रही हैं जो बमुश्किल दो या तीन जिलों के बराबर हैं और उनकी दिल्ली तक आवाज अभी सुनाई नहीं पड़ी है। जैसे पश्चिम उड़ीसा में कौशलांचल राज्य या फिर हरियाणा में मेवात प्रदेश की मांग उठ रही है।

यहां यह जिक्र करना उचित होगा कि पं. जवाहर लाल नेहरू भाषाई आधार पर राज्यों के गठन का विरोध करते रहे थे लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामालू की मद्रास से आंधा्र प्रदेश को अलग किए जाने की मांग को लेकर 58 दिन के आमरण अनशन के बाद मौत और संयुक्त मद्रास में कम्युनिस्ट पार्टियों के बढ़ते वर्चस्व ने उन्हें अलग तेलुगू भाषी राज्य बनाने पर मजबूर कर दिया था। 22 दिसंबर 1953 में न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ। इस आयोग ने 30 सितंबर 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस आयोग के तीनं सदस्य-जस्टिस फजल अली, हृदयनाथ कुंजरू और केएम पाणिक्कर थे। 1955 में इस आयोग की रिपोर्ट आने के बाद ही 1956 में नए राज्यों का निर्माण हुआ और 14 राज्य व 6 केन्द्र शासित राज्य बने। फिर 1960 में पुनर्गठन का दूसरा दौर चला, जिसके परिणामस्वरूप 1960 में बंबई राज्य को तोड़कर महाराष्ट्र और गुजरात बनाए गए। 1966 में पंजाब का बंटवारा हुआ और हरियाणा और हिमाचल प्रदेश दो नए राज्यों का गठन हुआ। इसके बाद अनेक राज्यों में बंटवारे की मांग उठी लेकिन कांग्रेस ने अपने राजनीतिक हितों को धयान में रखकर बड़े राज्यों के विभाजन पर विचार किया और अपरिहार्य होने पर ही धीरे- धीरे इन्हें स्वीकार किया। फिर 1972 में मेघालय, मणिपुर, और त्रिपुरा बनाए गए। 1987 में मिजोरम का गठन किया गया और केन्द्र शासित राज्य अरूणाचल व गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। आखिर में वर्ष 2000 में भाजपा की मेहरबानी से उत्ताराखण्ड, झारखण्ड और छत्ताीसगढ़ अस्तित्व में आए।

1950 के दशक में बने पहले राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश में राज्यों के बंटवारे का आधार भाषाई था। इसके पीछे तर्क दिया गया कि स्वतंत्रता आंदोलन में यह बात शिद्दत के साथ उठी थी कि जनतंत्र में प्रशासन को आम लोगों की भाषा में काम करना चाहिए ताकि प्रशासन लोगों के नजदीक आ सके। इसी वजह से तब भाषा के आधार पर राज्य बने। अगर उस समय भाषा आधार न होता और तेलंगाना या उत्ताराखण्ड जैसी दबाव की राजनीति काम कर रही होती तो संकट हो सकता था। लेकिन उस समय भी इस फार्मूले पर ईमानदारी से काम नहीं किया गया। उस समय भी दो राज्य बंबई जिसमें गुजराती व मराठी लोग थे तथा दूसरा पंजाब जहां पंजाबी-हिंदी और हिमाचली भाषी थे, नहीं बाँटे गए। आखिरकार इन्हें भी भाषाई आधार पर महाराष्ट्र व गुजरात तथा पंजाब, हिमाचल व हरियाणा में बांटना ही पड़ा।

लेकिन भाषा के आधाार पर राज्यों के गठन का फार्मूला पूर्ण और तार्किक आधार नहीं था। अगर भाषा ही आधाार था तो विदर्भ को महाराष्ट्र से उसी समय अलग क्यों नहीं किया गया? आंधा्र को उसी समय क्यों नहीं तोड़ा गया? या सारे हिन्दी भाषी राज्यों को मिलाकर एक राज्य क्यों नहीं बनाया गया? क्या सभी हिन्दी भाषी राज्यों को मिलाकर एक राज्य बना देने से विकास किया जा सकेगा?

छोटे प्रदेश की वकालत करने वालों का तर्क है कि जनसंख्या एवं क्षेत्रफल की दृष्टि से कई राज्यों के आकारों में बड़ी विषमता है। एक तरफ़ तो बीस करोड़ से भी अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश जैसे भारी भरकम राज्य तो वहीं सिक्किम जैसे छोटे प्रदेश जिसकी जनसंख्या मात्र छ: लाख है। इसी तरह एक ओर राजस्थान जैसा लंबा चौडा राज्य जिसका क्षेत्रफल साढे तीन लाख वर्ग किमी है वहीं लक्षद्वीप मात्र 32 वर्ग किमी ही है । किंतु तथ्य बताते हैं कि छोटे प्रदेशों में विकास की दर कई गुना अधिक है। उदाहरण के लिए बिहार की प्रति व्यक्ति आय आज मात्र 3835 रु है जबकि हिमाचल जैसे छोटे राज्य में यही 18750 रु है । तर्क दिया जा रहा है कि छोटे राज्य बनने के बाद आर्थिक प्रगति होती है। इसके लिए हरियाणा और हिमाचल का उदाहरण दिया जाता है। लेकिन यह तर्क मिथ्या है। अच्छे प्रशासन के लिए छोटे राज्य ठीक हो सकते हैं लेकिन ये ही विकास की एकमात्र गारंटी कैसे हो सकते हैें? हरियाणा को छोड़ दिया जाए तो झारखण्ड, उत्ताराखण्ड और छत्ताीसगढ़ के संबंधा में विकास और अच्छे प्रशासन की बातें बेमानी साबित हुई हैं। किसी भी राज्य की प्रगति के लिए राजनीतिक स्थिरता जरूरी है, मगर झारखंड में नौ साल में छह मुख्यमंत्री बदले गए और भ्रष्टाचार व सार्वजनिक धान की जिस तरह से लूट खसोट की गई वह यह तर्क झुठलाने के लिए काफी है। इसी तरह छत्ताीसगढ़ में नक्सलवाद और राज्य प्रायोजित आतंकवाद 'सलवां जुड़ूम' इसका उदाहरण हैं जबकि उत्ताराखण्ड नौ वर्षों में अपनी राजधाानी ही तय नहीं कर पाया है। मणिपुर नगालैंड मिजोरम जैसे छोटे राज्य भी राजनीतिक तौर पर लगातार अस्थिर बने रहे हैं।

फिर जिस तरीके से प्रांतीयता के सवाल पर महाराष्ट्र में राज ठाकरे का आतंक फैला और मधय प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बाहरी लोगों को लेकर जो भाषा प्रयोग की या दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जिस तरह से अक्सर यूपी बिहार से आने वाले लोगों के लिए जहर उगलती रही हैं, वह संघीय गणतंत्र के स्वास्थ्य के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है। ऐसे में छोटे राज्य क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काने वाले और हमारे संञ्ीय ढांचे को तोड़ने वाले भी साबित हो सकते हैं।

जहां तक नए राज्यों की मांग का सवाल है तो काफी हद तक यह केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों की विफलता का नतीजा हैं। क्योंकि पिछड़े क्षेत्रों के लोगों को लगता है कि उनके साथ भाषा जाति, या क्षेत्र के नाम पर भेदभाव किया जा रहा है और नया राज्य बन जाने से उनका विकास होगा। असम से पृथक् किए गए नगालैंड, मणिपुर मिजोरम हों या मेञलय सभी छोटे हैं और सबकी अलग-अलग किस्म की जनजातीय आबादी और पहचान है। उनका असम के साथ रहना मुश्किल होता गया इसलिए इन्हें अलग राज्य बनाया गया। लेकिन क्या इन राज्यों का विकास हो पाया?

नए राज्यों की मांग के पीछे असल कारण राजनीतिक दलों व नेताओं की क्षेत्रीय राजनीतिक डॉन और मुख्यमंत्री बनने की इच्छा है। फिर ऐसी मांग करने वाले चाहे चौधारी अजित सिंह हों या मायावती। उत्तार प्रदेश को विभाजित करके हरित प्रदेश बनाए जाने की मांग कर रहे राष्ट्रीय लोकदल के नेता चौधारी अजित सिंह का सपना प्रदेश का मुख्यमंत्री बनना रहा है जिसके लिए उन्होंने कई अतार्किक समझौते भी किए हैं और कला बाजियां भी खाई हैं। उन्हें लगता है कि उत्तार प्रदेश के एक रहते वह जिंदगी भर मुख्यमंत्री नहीं बन सकते इसलिए हरित प्रदेश बन जाना चाहिए। तेलंगाना बुंदेलखंड हो या फिर हरित प्रदेश नए छोटे राज्यों की ऐसी तमाम मांगें जोर पकड़ रही हैं। इनके पीछे सामाजिक और आर्थिक और प्रशासनिक कारण तो हो सकते हैं लेकिन मुख्य कारण राजनीतिक ही हैे। स्वयं उत्तर प्रदेश कांग्रेस अधयक्ष रीता जोशी के इस कथन कि ' पहले मुलायम और अब मायावती उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य का प्रशासन चलाने में असमर्थ हैं। इसीलिए बुंदेलखंड सहित राज्य के दूसरे हिस्सों (पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पूर्वान्चल) के लोग अलग प्रदेश की मांग कर रहे हैं।' से नए राज्यों की मांग के पीछे छिपा राजनीतिज्ञों का दर्द समझा जा सकता है। कांग्रेस समझती है कि उत्तार प्रदेश के एक रहते वह वहां कभी अब पूर्ण बहुमत में नहीं आ सकती इसलिए प्रदेश तोड़ दिया जाए। यही कारण है कि अब केन्द्रीय राज्यमंत्री और हाल ही तक झांसी के विधायक प्रदीप जैन 'आदित्य' ने राज्य विधानसभा में पृथक बुंदेलखंड बनाने का प्रस्ताव रखा। मायावती भी इसी डर में यूपी के चार हिस्से चाहती हैं। उन्हें लगता है कि अगर पश्चिमी उ.प्र. अलग राज्य अन जाए तो वहां पच्चीस प्रतिशत दलित मतों के सहारे वह जिन्दगी भर मुख्यमंत्री बनी रह सकती हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बांदा चित्रकूट झांसी ललितपुर और सागर जिले को मिलाकर बुंदेलखंड राज्य बनाने की मांग उठती रही है। कांग्रेस भी इस की आग पर अपनी रोटियां सेंकती रही है। राहुल गांधाी ने बुन्देलखण्ड को जो स्पेशल आर्थिक पैकेज दिलवाया उसके पीछे विकास नहीं बल्कि कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की राजनीति है। इसी लालच में मायावती भी उ.प्र. को तोड़ने की बात कर रही हैं। क्योंकि उन्हें भी लगता है कि उ.प्र. बंट गया तो वह जिन्दगी भर मुख्यमंत्री बनी रहेंगी।

पहले पुनर्गठन आयोग ने यूपी के विभाजन के खिलाफ राय जताई थी तथा पं. नेहरू व गोविंद वल्लभ पंत भी उसके तर्को से सहमत थे। दिल्ली के प्रथम मुख्यमंत्री चौधारी ब्रह्म सिंह दिल्ली, हरियाणा, पश्चिमी उत्तार प्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्सों को मिलाकर 'वृहत्तार दिल्ली' बनाए जाने के पक्षधार थे। उनकी सोच थी कि यह जाट प्रदेश बन जाए तो उनकी पांचों ऊंगलियां घी में रहेंगी। उनका पं गोबिन्द वल्लभ पंत ने जोरदार विरोधा किया था। समय के साथ साथ यह मांग पीछे चली गई।

नए राज्यों के पुनर्गठन के लिए सुझाव देते वक्त 'राज्य पुनर्गठन आयोग' ने ही कई विवादों को जन्म दे दिया। आयोग की राय के खिलाफ जाकर उत्तर प्रदेश के टुकड़े कर छोटे राज्य बनाने का सुझाव फजल अली आयोग के सदस्य सरदार केएम पणिक्कर ने ही दिया था। उत्तर प्रदेश के बंटवारे के वह पहले प्रस्तावक थे। अपने प्रसिध्द असम्मति-पत्र, में पणिक्कर ने उत्तर प्रदेश को अंविभाजित रखने के आयोग के फैसले से असहमति जताते हुए देश की कुल आबादी के छठे भाग को एक ही राज्य में रखने को नासमझी करार दिया था।? अब उनकी इस टिप्पणी को आधाार बनाकर शासन कर पाने में असमर्थ नाकारा राजनेता उत्तार प्रदेश को बांटने की सिफारिश कर रहे हैं। उधार पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों को मिलाकर 'भोजपुर' राज्य बनाने की मांग भी की जा रही है जबकि मिथिला भाषी हिस्से को 'मिथिलांचल 'राज्य बनाने की मांग भी हो रही है।

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा जीजेएम पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग और आसपास के क्षेत्रों को मिलाकर गोरखालैण्ड बनाने की मांग कर रहा है और भाजपा इसका समर्थन कर रही है। भाजपा का सोचना है कि गोरखालैण्ड बन जाने से उसकी ताकत में थोड़ा इजाफा हो जाएगा क्योंकि जीजेएम के सहयोग से ही पं बंगाल के रास्ते लोकसभा में पहुंचने का उसका खाता पहली बार खुला है।

पश्चिम बंगाल और असम के क्षेत्रों को मिलाकर 'वृहद कूच बिहार' बनाए जाने की मांग उठती रही है। पं. बंगाल के ही उत्तारी जिलों को मिलाकर 'कामतापुर राज्य' बनाए जाने की मांग भी उठ रही है। तो असम के कछार, हैलाकांडी, और करीम गंज सहित कुछ जिलों को मिलाकर बराक घाटी राज्य की मांग भी उठती रहती है। जबकि बोडोलैण्ड की मांग तो काफी हिंसक रूख अख्तयार कर चुकी है।

मध्य प्रदेश में भी कई राज्य बनाए जाने की मांग की जा रही है। 'गोंडवाना' क्षेत्र को अलग करके गोंडवाना राज्य की मांग की जा रही है तो महाकोशल क्षेत्र को अलग करके 'महाकोशल* राज्य बनाए जाने की मांग भी की जा रही है।

इतना ही नहीं उत्तार प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कुछ जिलों को मिलाकर 'चंबल राज्य' बनाए जाने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू हो चुका है। राजस्थान में भी 'मरू प्रदेश' और 'मेवाड़' की मांग यदा-कदा उठती रहती है। ताजा मांग उदयपुर में हाईकोर्ट बेंच के बहाने 'मेवाड़' प्रदेश की है जिसे भाजपा नेता किरण माहेश्वरी हवा दे रही हैं।

आंधा्र प्रदेश में ही तेलंगाना के अलावा तटीय जिलों को मिलाकर रायलसीमा और काकतीय राज्य की मांग भी जोर पकड़ रही है। महाराष्ट्र में विदर्भ की अलग राज्य की मांग बहुत पुरानी है। जबकि इसके बरार क्षेत्र को भी अलग राज्य की मांग की जाती रही है। गुजरात से सौराष्ट्र राज्य अलग बनाने की है जो पिछले कई वर्ष से गृह मंत्रालय के समक्ष लंबित है।

कुल मिलाकर नए राज्यों की मांग विशुध्द राजनीतिक है और इसका विकास या अच्छे प्रशासन से कोई लेना देना नहीं है। प्रदेशों को बांटने की मुहिम क्या देश तोड़ने की मंजिल पर जाकर रूकेगी? खासतौर पर उ.प्र. बंटा तो मुल्क बंटने की पटकथा लिखी जाएगी।









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मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

जिन्हें राष्ट्रपति ने गुण्डे कहा अखबार ने उन्हें शहीद कहा

जिन्हें राष्ट्रपति ने गुण्डे कहा अखबार ने उन्हें शहीद कहा


अमलेन्दु उपाधयाय

6 दिसंबर बीत गया लेकिन बहुत से जख्मों को कुरेद गया। अखबारों में छपी खबरों को देखकर यह साफ हो गया कि सांप्रदायिक ताकतों ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर कब्जा कर लिया है।

याद होगा जब 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद शहीद की गई थी तब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा ने बाबरी मस्जिद गिराने वालों को 'गुण्डे' कहा था। लेकिन 6 दिसंबर 2009 के एक अखबार ने जो गांधी जी के समय से कांग्रेस समर्थित अखबार कहा जाता है, इन गुण्डों के लिए 'शहीद' शब्द का प्रयोग किया है। ऐसा तब है जब यही अखबार बाबरी मस्जिद शहीद किए जाने की निन्दा भी कर रहा है। बाबरी मस्जिद गिराने वाले गुण्डों को शहीद कहना इस देश पर मर मिटने वाले देशभक्त शहीदों का अपमान है।

वैसे तो लगभग हर अखबार ने बाबरी मस्जिद के लिए 'विवादित ढांचा' शब्द का प्रयोग किया है। मीडिया इस विषय में स्वयंभू जज बन गया है। सवाल यह है कि ढांचा विवादित कैसे हो गया? विवादित तो वह तथाकथित मंदिर है जिसने अपने निर्माण से पहले ही हजारों बेगुनाह इंसानों की बलि ले ली है और जहां बिना प्राण प्रतिष्ठा के मूर्तियों की पूजा होने लगी है।