शनिवार, 23 जनवरी 2010

परेशान क्यों हैं राज्य मंत्री

परेशान क्यों  हैं  राज्य मंत्री
अमलेन्दु उपाध्याय


हाल ही में प््राधानमंत्री के साथ एक भेंट में मंत्रिपरिशद के कुछ राज्य मंत्रियों ने षिकायत की कि तवज्जो नहीं मिलती है और केबिनेट मंत्री भाव नहीं देते हैं। इन राज्यमंत्रियों का का दर्द उभर कर सामने आया उनका कहना था कि वह लगभग बेरोजगार हैं और उनके पास फाइलें ही नहीं आती हैं। यह एक संगीन मामला है और दर्षाता है कि जब राज्यमंत्रियों का यह हाल है तब एक आम संासद की क्या स्थिति होगी? जाहिर है इस अप्रिय स्थिति के लिए स्वयं प्रधानमंत्री और उनके केबिनेट सहयोगी भी दोशी हैं। लेकिन यह तस्वीर का एकपक्षीय पहलू ही है और उस चष्मे से देखा गया अर्धसत्य है जिस पर राज्यमंत्रियों के षीषे चढ़े हुए हैं। तस्वीर का दूसरा पहलू भी है और यह पहलू इन राज्यमंत्रियों की दलील को अगर झुठलाता नहीं है तो कम से कम इस दलील पर सवाल तो उठाता ही है।


पहला सवाल यही है कि क्या केवल फाइल निपटाने से ही मंत्री जी का काम हो जाता है? फाइलें निपटाने के अलावा मंत्रियों के पास और कोई काम नहीं होता? फिर तो बहुत से ऐसे केबिनेट मंत्री भी हैं जिनके पास फाइलें कम ही होती हैं। क्या इसका तात्पर्य यह है कि उन मंत्रियों के पास काम नहीं है? जबकि कई मंत्री ऐसे भी हैं जिनके पास फाइलें तो कम ही होती हैं लेकिन महीनों वह फाइलें देख ही नहीं पाते। आखिर काम होने का पैमाना क्या है?


अभी ज्यादा समय नहीं बीता होगा जब गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा था कि उनके ऊपर काम का इतना बोझ है कि उनके विभाग को दो हिस्सों में बांट देना चाहिए। ऐसे में क्या देष का आम आदमी यह जानता है कि चिदंबरम के अलावा गृह विभाग में राज्यमंत्री भी होते हैं? फिर इस स्थिति के लिए कौन दोशी है? क्या चिदंबरम भी अपने राज्यमंत्रियों को काम नहीं देते हैं। इसी तरह बहुत से सांसद ऐसे हैं जो मंत्री तो नहीं हैं लेकिन उनकी बात गम्भीरता से सुनी जाती है और सरकार तथा नौकरषाही को उनकी बात पर गौर करने की मजबूरी होती है। यह उन सांसदों की योग्यता की वजह से है। सरकार की बात छोड़ भी दीजिए तो विपक्ष में ही कई ऐसे सांसद ऐसे हैं जिनकी अपनी एक पहचान और आवाज है जबकि वह कभी मंत्री नहीं रहे। नीलोत्पल बसु, वृन्दा कारत, गुरदासदास गुप्ता, कलराज मिश्रा, दिग्विजय सिंह ऐसे ही सांसद हैं। स्वयं कांग्रेस में मनीश तिवारी, मीनाक्षी नटराजन और अषोक तंवर कुछ ऐसे नाम हैं जिनकी अपनी एक पहचान है और उनके पास काम की भी कोई कमी नहीं है क्योंकि वह अपने क्षेत्र में काम करते हैं और जनता के बीच रहते हैं। इसी तरह राज्यमंत्रियों में सीपी जोषी, जितिन प्रसाद को काम न होने के लिए रोना नहीं पड़ता।


इस बात को दो तीन उदाहरणों से समझा जा सकता है। मरहूम राजेष पायलट आन्तरिक सुरक्षा राज्य मंत्री थे। लेकिन षायद अपने समकालीन केबिनेट मंत्रियों से ज्यादा व्यस्त भी थे और उनकी देष में एक वाॅइस भी थी। पिछली यूपीए-वन सरकार में भी श्रीप्रकाष जायसवाल भी राज्यमंत्री ही थे लेकिन उन्होंने अपनी पहचान बनाई। जबकि लालकृश्ण अडवाणी के साथ आईडी स्वामी राज्यमंत्री थे उन्होंने भी अपनी पहचान बनाई। इन सभी के पास काम होने में उनके केबिनेट मंत्रियों का कोई रोल नहीं था।


अब अगर इन राज्यमंत्रियों का ‘काम’ से तात्पर्य ठेके, परमिट, कोटा लाइसेंस देने से है तब तो उनका दुखड़ा जायज हो सकता है कि केबिनेट मंत्री सारी मलाई खुद मार लेते हैं और उन्हें ( राज्यमंत्रियों ) कोई नहीं पूछता। तब तो वाकई प्रधानमंत्री को मलाई का सही अनुपात में बंटवारा करने की व्यवस्था करनी चाहिए।


इन राज्यमंत्रियों के एक दर्द से बिना किसी किंतु परंतु के सहमत हुआ जा सकता है कि राज्यमंत्रियों की बात को अधिकारी नहीं सुनते। लेकिन यह समस्या भी केवल राज्यमंत्रियों के साथ नहीं है। बल्कि इस मुल्क में अफसरषाही बहुत ताकतवर और बेलगाम है। अफसर केवल उस केबिनेट मंत्री की ही बात सुनते हैं जो या तो स्वयं तेज हो और सौ फीसदी राजनीतिज्ञ हो या फिर प्रधानमंत्री का नजदीकी हो और उनका कुछ बिगाड़ने की हैसियत रखता हो। वरना मंत्री जी खुद अपनी फाइलें ढूंढते रह जाते हैं और फाइलें सरकारी चाल से ही चलती हैं। इस स्थिति के लिए भी केवल अधिकारियों को दोशी नहीं ठहराया जा सकता। कारण बहुत साफ है। जब संसद में तीन सौ करोड़पति सांसद पहुंच गए तो जाहिर है कि यह तीन सौ सांसद व्यापारी पहले हैं और राजनीति इनके लिए दोयम दर्जे का काम है। ऐसे में क्या उम्मीद की जा सकती है कि अधिकारी इन सांसदों और ऐसे मंत्रियों की बात सुनेंगे? इसलिए बेहतर होगा कि यह राज्यमंत्रीगण अपना दुखड़ा राने के बजाए अपनी बात में असर पैदा करें और यह असर तभी पैदा होगा जब वह सौ फीसदी राजनीतिज्ञ बनेंगे वर्ना चाहे राज्यमंत्री बन जाएं या केबिनेट यह दुख दूर नहीं होगा।

बुधवार, 13 जनवरी 2010

अब किसी और रूचिका के साथ न हो

इस लडाई की शुरूआत होती है एक अकेले इंसान के बूते। फिर उसके साथ बेशुमार लोगों का कारवां जुडता जाता है और मंजिल करीब नजर आने लगती है।



रूचिका गिरहोत्रा यौन उत्पीडन मामले में कुछ ऎसा ही हुआ, जब उसकी सखी आराधना प्रकाश गुप्ता ने उठाया पहला कदम और आज 19 साल बाद नतीजा सामने आता नजर आ रहा है। एक ऎसा केस, जो सीआरपीसी में संशोधन की वजह बना। पूरा देश 32 साल की आराधना की हौसला अफजाई कर रहा है और कह रहा है- 'आराधना हम तुम्हारे साथ हैं!'



इस लडाई की शुरूआत होती है एक अकेले इंसान के बूते। फिर उसके साथ बेशुमार लोगों का कारवां जुडता जाता है और मंजिल करीब नजर आने लगती है।



बेशक यह लडाई मैं इसलिए लड रही हूं क्योंकि रूचिका मेरी अंतरंग सहेली थी लेकिन यह लडाई लडने के पीछे जज्बा यह है कि जिस नाइंसाफी को मैंने और रूचिका ने सहा है और जो ज्यादतियां हमने सहीं, वैसा अब किसी और रूचिका के साथ नहीं हो। आज स्थिति यह है कि किसी बच्चे के साथ कोई अन्याय या यौन उत्पीडन होता है तो लोग पुलिस के पास जाने से डरते हैं। मैं चाहती हूं कि सिस्टम बदले और ऎसी घिनौनी हरकतें करने वाले समझ जाएं कि उनके लिए कानून एक बराबर है और पुलिस भी लोगों को अपनी सहायक मालूम पडे न कि लोगों में पुलिस का ही खौफ हो। आज मेरी लडाई किसी एक व्यक्ति विशेष के ही खिलाफ नहीं है। आज लोगों का न्याय व्यवस्था से विश्वास उठने लगा है। उन्हें लगता है कि ताकतवर के लिए मुल्क में कानून अलग है और कमजोर के लिए अलग। लेकिन रूचिका के मामले में न्याय की उम्मीद बढने से लोगों का भरोसा बहाल होगा।






ऎसा नहीं है कि ऎसी ज्यादतियों की शिकार केवल लडकियां ही होती हैं। कई बार छोटे बच्चे, लडके और लडकी दोनों ही ऎसी वारदातों में शिकार होते हैं। मैं चाहती हूं कि ऎसा समाज बने और लोग इतने जागरूक हो जाएं कि राठौड जैसा कोई भी अपराधी ऎसी नीच हरकत करने का दुस्साहस न कर सके। यदि ऎसी सोसायटी बन पाती है, यह सिस्टम अपने में बदलाव ला पाता है तभी मेरी लडाई सार्थक होगी और रूचिका को भी सही मायनों में न्याय मिल सकेगा, जब कोई और रूचिका किसी और राठौड का शिकार न बने।






मैं रूचिका की लडाई को आखिरी मुकाम तक ले जाऊंगी और देश में जहां भी ऎसे कोई मामले सामने आएंगे, पूरी शिद्दत के साथ उस लडाई में शामिल होऊंगी।


मैं और रूचिका बचपन से ही पक्के दोस्त थे। हमारी मुलाकात भी इत्तफाक से हुई और फिर हमें लगने लगा जैसे हम सगी बहनेे ही हैं। बात 1989 की है। सेक्टर-6 के मार्केट में मेरी पहली मुलाकात रूचिका से हुई थी। इसके एक साल पहले ही 1988 में उसकी मां का देहांत हो गया था। मेरे माता-पिता (आनंद प्रकाश और मधु) रूचिका को भी मेरी तरह ही स्नेह करते थे और वह भी मेरे माता-पिता से अपना दुख-दर्द बेहिचक कहती थी। वह मेरी मां को ही अपनी मां समझती थी। रूचिका बहुत ही हंसमुख, चंचल और बहादुर लडकी थी। वह हर पल को परिवार के साथ मिल-बांटकर जीना चाहती थी। वह कहा करती थी कि हम दोनों की दोस्ती अटूट है। मैं और रूचिका एक दूसरे का हाथ पकडकर फिल्म 'शोले' का गाना गाते थे- 'ये दोस्ती हम नहीं तोडेंगे/ तोडेंगे दम मगर तेरा साथ ना छोडेंगे।' उसे यह गाना बहुत प्यारा लगता था। लेकिन मुझे क्या मालूम था कि एक दिन वह मुझे यूं अकेला छोडकर दुनिया से चली जाएगी। उसे टेनिस का बहुत शौक था और वह एक सफल और बडी टेनिस खिलाडी बनना चाहती थी। वह अगर आज जीवित होती तो निश्चित रू प से शीर्ष टेनिस खिलाडी होती। मुझे याद है कि जब हम टेनिस खेलते थे, तो राठौड रोज हमें घंटों खेलते हुए देखता था। लंबे स्कर्ट पहनने के लिए वह हमें फटकारता था। इसलिए हमें अपने लंबे स्कर्टों को मोडना पडता था।






आज रूचिका नहीं है, लेकिन मेरी यादों में वह हरदम जिंदा है। रह-रह कर उसकी बहुत-सी बातें याद आती हैं और लगता है जैसे वह मुझसे बात कर रही है और मेरे सामने है। मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं नवीं कक्षा में थी और वह दसवीं में। लगभग हर स्कूल में जूनियर छात्र अपने सीनियर्स को फेयरवेल पार्टी दिया करते थे। मैंने भी ऎसी ही एक पार्टी में हिस्सा लिया। तब एक बडी बहन की तरह रूचिका ने मेरा मेकअप किया और मेरा हेयर स्टाइल भी बिलकुल अपने जैसा बनाया। पार्टी में मेरे हेयर स्टाइल को देखकर हमारी सभी सहपाठियों ने कहा कि हम बिलकुल बहनें लग रही हैं।






शायद मेरे उससे गहरे जुडाव के कारण ही मुझे शक्ति मिली और मैं 19 साल तक उसके गुनहगार को सजा दिलाने के लिए संघर्ष करती रही। इस लडाई में मेरी मां और मेरे पापा ने पूरा साथ दिया। यहां तक कि हमें भी राठौड के लोगों ने प्रताडित किया। रूचिका तो बिलकुल टूट ही गई थी। उसने इस सिस्टम से हार मान ली थी। उसे यकीन नहीं रह गया था कि यह सिस्टम उसके साथ कोई इंसाफ कर पाएगा। उसके भाई आशु को भी राठौड के इशारे पर प्रताडित किया गया और उस पर झूठे मुकदमे लाद दिए गए। कई दिन तक अवैध पुलिस हिरासत में मारपीट की गई, तब तो वह बिलकुल ही टूट गई और उसने इंसाफ की उम्मीद छोडकर आत्महत्या का रास्ता चुना। रूचिका की मौत ने मुझमें हौसला ला दिया। मैं जानती थी कि यह सिस्टम वैसे भी पुरूष प्रधान है। लेकिन मुझे उम्मीद थी कि एक दिन उसे इंसाफ जरूर मिलेगा। देर हो सकती है लेकिन जिस दिन जनता जागेगी, यह सिस्टम सुधर जाएगा। मुझे इस देश की न्यायपालिका पर पूरा भरोसा था और आज भी है, इसलिए मैं रूचिका की लडाई को आगे बढा पाई। मुझे लोग बधाई दे रहे हैं कि मेरे जज्बे के कारण सरकार ने सीआरपीसी में संशोधन किया। ऎसे मामलों की सुनवाई का समय निर्धारित किया तथा हर शिकायत पर एफआईआर दर्ज करना जरू री कर दिया। लेकिन मैं तो यही कहूंगी कि कानून बदल देने से ही सिस्टम नहीं सुधर जाएगा बल्कि जब तक सत्ता और प्रशासन में बैठे लोगों की नीयत नहीं बदलेगी, तब तक कुछ नहीं होने वाला।


इतना जरू र जानती हूं कि समाज में कुछ लोग ऎसे भी होते हैं जो पावर और पैसे के साथ चलते हैं। हरियाणा की मौजूदा सरकार जैसा काम कर रही है उससे तो यही लग रहा है कि फिर राठौड को बचाने का काम किया जा रहा है और यह किसके इशारे पर या दबाव में किया जा रहा है, यह सरकार ही जाने। लेकिन इस सबके बावजूद मुझे और मेरे परिवार को न्यायपालिका पर पूरा भरोसा है, इस जंग में जीत हमारे भरोसे की ही होगी।



न्याय की नैया पर भारी जन आक्रोश

19

साल बाद रूचिका मामले में आईजी शंभू प्रताप सिंह राठौड को मात्र छह महीेने की कैद और 1000 रूपए जुर्माने की सजा मिली। आखिरकार बढते विरोध को देखते हुए राठौड का पुलिस पदक वापस लेने की कवायद भी की गई। अब दोषी पाए जाने वाले पुलिस अधिकारियों के पदक निरस्त हो जाने की व्यवस्था लागू कर दी गई है।



1999

जेसिका लाल को गोली मारने वाले हरियाणा के कांग्रेसी नेता के बेटे मनु शर्मा को 2006 में आजीवन कारवास की सजा सुनाई।



1996

लॉ स्टूडेंट प्रियदर्शिनी मट्टू से बलात्कार करने वाले संतोष कुमार सिंह को 2000 में हत्या और बलात्कार का दोषी ठहराया गया।



अमलेंदु उपाध्याय


से बातचीत पर आधारित
साभार राजस्थान पत्रिका १३ जनवरी  2010 

सोमवार, 4 जनवरी 2010

गुरूजी जी को ही दोश क्यों?

गुरूजी जी को ही दोश क्यों?

अमलेन्दु उपाधयाय
आखिरकार गुरूजी का झारखण्ड का मुख्यमंत्री बनने का सपना साकार हो ही गया। भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से गुरूजी तीसरी बार और मुकम्मल तौर पर पहली बार झारखण्ड के मुख्यमंत्री बने हैं। हालांकि भाजपा के सामने समस्या यह थी कि वह उन गुरूजी को कैसे समर्थन दे दे जिनके ऊपर वह कुल जमा चार रोज पहले ही भ्रश्टाचार के आरोप लगा रही थी और उसने गुरूजी को केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया था और कई दिन संसद नहीं चलने दी थी।
 हालांकि भाजपा ने मन मसोसकर और कलेजे पर पत्थर रखकर गुरूजी को समर्थन दिया है, क्योंकि इसके अलावा न भजपा के पास कोई विकल्प था और न गुरू जी के सामने अपनी जिद पूरी करने के लिए कोई अन्य विकल्प बचा था। भाजपा की मजबूरी यह थी कि वह जानती थी कि अगर उसने गुरूजी को समर्थन देने में जरा भी देर की तो कांग्रेस उसका फायदा उठाकर प्रदेष में राश्ट्रपति षासन लागू कर सकती थी और फिर जिस तरह का खेल उसने हरियाणा में अभी निर्दलीयों विधाायकों की मदद लेकर और भजनलाल के बेटे कुलदीप बिष्नोई की हरियाणा जनहित कांग्रेस को तोड़कर खेला था, वैसा ही खेल वह झारखण्ड में भी खेल सकती थी। इसलिए भाजपा ने गुरूजी को समर्थन देकर उन पर कोई उपकार नहीं किया है बल्कि उसने कांग्रेस के दांव का काट करने के लिए ही गुरूजी को समर्थन दिया है।
 अब कांग्रेस भी गुरूजी को भ्रश्टाचारी बता रही है। लेकिन सवाल यह है कि गुरूजी तब भ्रश्टाचारी नहीं थे जब मनमोहन सिंह की कुर्सी बचाने के लिए यूपीए को समर्थन दे रहे थे और न तब भ्रश्टाचारी थे जब अभी चार रोज पहले तक कांग्रेस उनसे सौदेबाजी कर रही थी। फिर आज गुरूजी कैसे भ्रश्टाचारी हो गए? कांग्रेस को भी अफसोस गुरूजी के मुख्यमंत्री बनने का कम और भाजपा के समर्थन पाकर उनके सत्ताा संभालने का ज्यादा है। वैसे भी ईमानदारी की बात यह है कि झाारखण्ड की जनता ने गुरूजी को ही सही मायनो में जनादेष दिया है। भाजपा लोकसभा चुनाव के बाद जिस गरूर में थी उसे जनता ने तोड़ दिया। उसका जद यू के साथ गठजोड़ और भ्रश्टाचार के खिलाफ विधावा विलाप जनता को रास नहीं आया। कांग्रेस को भी जनता ने करारा जवाब दिया। उसकी राश्ट्रपति षासन बढ़ाकर मधाु कोड़ा और कई अन्य पूर्व मन्त्रियों को भ्रश्टाचार के आरोप में जेल भेजे जाने के तुरूप के पत्तो को भी जनता ने फेल कर दिया। लेकिन गुरू जी के संकट के समय जनता ने उनका साथ दिया।
 देखा जाए तो कांग्रेस ने तो गुरू जी के साथ घोर अन्याय किया और अभी भी उसकी चाल गुरू जी को कमान न सौंपकर स्वयं गद्दी हथियाने की ही थी। याद होगा कि कांग्रेस के छल के बाद गुरूजी के ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था। गुरू जी ने थोड़े समय के अन्तराल पर ही अपने सगे छोटे भाई और बेटे को खोया। तब गुरू जी ने भाव विह्वल होकर कहा था कि यह उनका खराब समय है उन्होंने सत्ताा भी गंवा दी और भाई भी खो दिया। लेकिन कांग्रेस ने उन गुरूजी की पीठ में छुरा भोंका जिन गुरूजी ने मनमोहन सिंह के गुरू नरसिंहाराव और खुद मनमोहन सिंह की सरकार बचाई थी। फिर कांग्रेस को गुरू जी से किसी भी तरह के गिले षिकवे का नैतिक अधिाकार नहीं है।
 जहां तक भाजपा का सवाल है तो उसके लिए भी भ्रश्टाचार का मसला कोई मायने नहीं रखता है। क्योंकि वहां भी बंगारू लक्ष्मण, साक्षी महाराज और डॉ छत्रपाल जैसों की पुरानी परंपरा है। इससे पहले भी जब उसका जनसंघी अवतार था तब भी वीरेन्द्र कुमार सखलेचा जैसे पवित्र लोग उसका नाम रोषन करते रहे हैं। उसके परम प्रिय जॉर्ज फर्नांडीज और जया जेटली को लोगों ने देखा ही। फिर कैसा भ्रश्टाचार। भाजपा भी जानती है कि सिध्दान्त की बातें तभी तक ठहक हैं जब तक सत्ताा न मिले। वह भी राजनीतिक दल है और उसे भी सत्ताा चाहिए। वह कोई साधाु सन्तों की संगत तो है नहीं और जो दस बीस साधाु टाइप के गेरूआवस्त्रधाारी उसकी फौज में षामिल हैं वह भी सत्ताा का स्वाद चखने के लिए ही संन्यास छोड़कर राजनीति में आए हैं। इसलिए सबने अपनी अपनी मजबूरी में दांव चले हैं और जिस प्रदेष का मुख्यमंत्री एक लेबर कांट्रैक्टर और निर्दलीय विधाायक मधाु कोड़ा बन सकता है उस राज्य का मुख्यमंत्री बनने का पहला नैतिक अधिाकार तो उन गुरूजी का ही बनता है जिन्होंने अपना पूरा जीवन झारखण्ड राज्य के गठन के लिए लगा दिया। रहा सवाल भ्रश्टाचार के आरोपों का तो जिस राज्य में 73 फीसदी विधाायक आपराधिाक पृश्ठभूमि के हों वहां कौन कैसा भ्रश्टाचारी? और यह सवाल उठाने का नैतिक अधिाकार किसके पास है क्या भाजपा और कांग्रेस अपने गिरेबान में झांकने के बाद ऐसा सवाल कर सकते हैं?



अमलेन्दु उपाधयाय
सी - 15, मेरठ रोड इंडस्ट्रियल एरिया
गाजियाबाद

मो 9313517853/ 9410672811