शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

कैद में ^आजाद*


कैद में ^आजाद*
उत्तर प्रदेश में 'लाल सलाम' कहना और सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध करना अब राष्ट्रद्रोही जुर्म है। कम से कम मानवाधिकार कार्यकर्ता और 'दस्तक' पत्रिका की संपादक और उनके पति पूर्व छात्रनेता विश्वविजय की गिरफ्तारी से तो ऐसा ही लगता है। देश भर के बुध्दिजीवी, कलाकार और साहित्यकार सीमा की गिरफ्तारी को लोकतंत्र की हत्या बता रहे हैं। उधर सरकार के जरूरत से ज्यादा काबिल पुलिस अफसर अपने बेतुके बयानों से घिरते जा रहे हैं। सवाल यह है कि क्या सरकार की नीतियों का विरोध करना और लोगों को लामबंद करना अपराध है? सरकार के पास मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के इस सवाल का अभी तक कोई उत्तर नहीं है कि माओवाद, नक्सलवाद और आतंकवाद की परिभाषा क्या है
अमलेन्दु उपाध्याय  
    पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की मानवाधिाकार कार्यकर्ता
      सीमा आजाद और उनके पति विश्वविजय को पुलिस ने नक्सली बताकर इलाहाबाद में गिरफ्तार किया। यूपी पुलिस की इस कार्रवाई का पूरे देश में जबर्दस्त विरोधा हो रहा है। तमाम मानवाधिाकारवादी उत्तार प्रदेश सरकार के खिलाफ एकजुट होकर सवाल कर रहे हैं कि सरकार और पुलिस बताए कि माओवाद, नक्सलवाद और आतंकवाद में क्या अन्तर है और नक्सली साहित्य की परिभाषा क्या है। यह ऐसे सवाल हैं जिन पर यूपी के जाहिल पुलिस अफसर बचाव की मुद्रा में आ गए हैं।
बताते चलें कि सीमा आजाद मानवाधिाकार संस्था पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज (पीयूसीएल) से सम्बध्द हैं, साथ ही द्वैमासिक वैचारिक पत्रिका 'दस्तक' की सम्पादिका भी हैं। उनके पति विश्वविजय वामपंथी रुझान वाले जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता हैं। सीमा लगातार 'दस्तक' में सरकार की जनविरोधाी नीतियों की मुखर आलोचना करती रही हैं। इतना ही नहीं सीमा ने इस पत्रिका के साथ-साथ सरकार की नीतियों को कठघरे में खड़ा करने वाली प्रचार पुस्तिकाएं भी प्रकाशित की हैं। इनमें गंगा एक्सप्रेस-वे, कानपुर के कपड़ा उद्योग और नौगढ़ में पुलिसिया दमन से सम्बन्धिात पुस्तिकाएं बहुत चर्चित रही हैं। बताया जाता है कि हाल ही में सीमा ने केन्द्र सरकार के 'ऑपरेशन ग्रीनहण्ट' के खिलाफ लेखों का एक संग्रह भी प्रकाशित किया था। बीती छह फरवरी को पुलिस ने सीमा और विश्वविजय को उस समय इलाहाबाद में गिरफ्तार कर लिया जब वह दिल्ली से पुस्तक मेले से पुस्तकें खरीद कर वापिस लौट रहे थे। पुलिस का दावा है कि उनसे विस्फोटक साहित्य बरामद किया गया है। पर यह विस्फोटक साहित्य क्या है इसका जबाव पुलिस के पास अभी तक तो नहीं है। सीमा पर राजद्रोह का अभियोग लगाया गया है।
पीयूसीएल के संगठन मंत्री राजीव यादव का कहना है कि हमारी तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनी नीतियों के विरोधिायों को कभी आतंकवादी और कभी नक्सलवादी या माओवादी घोषित करके जेल की सलाखों के पीछे ठूंसने का  खेल खेलने में लगी है। वह कहते हैं कि इस खेल में सब कुछ जायज है - हर तरह का झूठ, हर तरह का फरेब और हर तरह का दमन। राजीव की मीडिया से भी शिकायत है। वह कहते हैं, ''इस फरेब में सरकार का सबसे बड़ा सहयोगी हमारा बिका हुआ मीडिया है। इसीलिए हैरत नहीं हुई कि सीमा की गिरफ्तारी के बाद अखबारों ने हर तरह की अतिरंजित सनसनीखेज खबरें छापीं कि ट्रक भर कर नक्सलवादी साहित्य बरामद हुआ है, कि सीमा माओवादियों की 'डेनकीपर' (आश्रयदाता) थी।''
एक अन्य मानवाधिाकार कार्यकर्ता शाहनवाज आलम कहते हैं कि उत्तार प्रदेश में मानवाधिाकार और लोकतंत्र आहत और लहूलुहान है। जिस समय सीमा आजाद को गिरफ्तार किया गया, ठीक उसी वक्त पूर्वी उत्तार प्रदेश के अति नक्सल प्रभावित सोनभद्र जनपद में सोन नदी के किनारे बालू के अवैधा खनन को लेकर सरकार के विधाायक विनीत सिंह और उदयभान सिंह उर्फ डॉक्टर के समर्थकों के बीच गोलीबारी हो रही थी। इस गोलीबारी से डर कर तमाम आदिवासी अपने घरों से भाग खड़े हुए थे। घटनास्थल पर पुलिस पहुंची। गोली के खोखे भी बरामद किये, लेकिन किसी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज नहीं की गयी। वह आरोप लगाते हैं कि समूचे प्रदेश में खनन मंत्री बाबूसिंह कुशवाहा और उनके कारिंदों के द्वारा अवैधा खनन का जाल बिछा कर अरबों रुपये की काली कमाई की जा रही है और इसको अंजाम तक पहुंचाने के लिए प्रदेश के तमाम माफियाओं, हिस्ट्रीशीटरों को बेनामी ठेके दिये जा रहे हैं। नि:स्संदेह ऐसी स्थिति में आम मजदूर, आदिवासी और किसान का शोषण होना लाजिमी है। शाहनवाज जो आरोप लगाते हैं ऐसे आरोप बसपा से निष्कासित एक पूर्व सांसद ने भी लगाए थे कि उन्हें खनन माफियाओं के इशारे पर पार्टी से निष्कासित किया गया। 
शाहनवाज कहते हैं कि सीमा आजाद इन्हीं मजदूरों के हक की लड़ाई अकेले लड़ रही थी। इलाहाबाद-कौशांबी के कछारी क्षेत्र में अवैधा वसूली व बालू खनन के खिलाफ संघर्षरत मजदूरों के दमन पर उन्होंने बार-बार लिखा। जबकि किसी भी बड़े अखबार ने हिम्मत नहीं की। वह बताते हैं कि नंदा का पुरा गांव में पिछले ही माह जब पुलिस व पीएसी के जवान ग्रामीणों पर बर्बर लाठीचार्ज कर रहे थे, सीमा अकेले उनसे इन बेकसूरों को बख्श देने के लिए हाथ जोड़े खड़ी थी। उस वक्त भी किसी अखबार ने इस बर्बरता के बारे में एक लाइन की खबर नहीं छापी। सीमा की यही जंगजू प्रवृत्तिा सरकार को नहीं भायी। पीयूसीएल का आरोप है कि खनन माफियाओं को खुश करने और अपनी झोली भरने के लिए सीमा को रास्ते से हटाना जरूरी था। इलाहाबाद के डीआईजी ने ऊपर रिपोर्ट दी कि सीमा माओवादियों का जत्था तैयार कर रही है और अब नतीजा हमारे सामने है।
सोनभद्र के पत्रकार आवेश तिवारी का कहना है सरकार समर्थित अवैधा खनन के गोरखधांधो को अमली जामा पहनाने के लिए सीमा से पहले भी फर्जी गिरफ्तारियां की गयी हैं। यह आरोप बेवजह नहीं लगाए जा रहे हैं बल्कि इनके पीछे आधाार हैं। वह बताते हैं कि कैमूर क्षेत्र मजदूर महिला किसान संघर्ष समिति की रोमा और शांता पर भी पहले रासुका लगाया गया था क्योंकि वह भी आदिवासियों की जमीन पर माफियाओं के कब्जे और पुलिस एवं वन विभाग के उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठा रही थीं। जब इस पर ज्यादा हो-हल्ला मचा तो सरकार सारे मुकदमे वापिस लेने पर मजबूर हुई। इसी तरह पुलिस ने सोनभद्र जनपद से ही गोंडवाना संघर्ष समिति की शांति किन्नर को भी आदिवासियों को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया था। एक साल बाद ही शांति जैसे तैसे जमानत पर रिहा हो सकी।
आवेश भी मीडिया खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर गुस्सा जताते हुए कहते हैं, 'आज विभिन्न चैनलों पर चल रहे न्यूज फ्लैश, जिसमें नक्सलियों की गिरफ्तारी की बात कही जा रही थी, देखकर हमें लग गया था कि टीवी चैनलों के पास सच्चाई की एक ही सुरंग है और वो है सत्ताा का पक्ष। सत्ताा का वर्जन। उनके पास अपनी कोई हूक नहीं कि वो पुलिस की दी गयी सूचना पर सवाल खड़ा कर सकें। काउंटर कर सकें। जो पुलिस बताये, वही सूचना है।' वह कहते हैं कि माफियाओं और गुंडों के आतंक से कराह रहे प्रदेश में पुलिस का एक नया और खौफनाक चेहरा सामने आया है। आउट ऑफ टर्न प्रमोशन पाने और अपनी पीठ खुद ही थपथपाने की होड़ ने हत्या और फर्जी गिरफ्तारियों की नयी पुलिसिया संस्क(ति को पैदा किया है। वह कहते हैं कि नक्सल फ्रंट पर हालात और भी चौंका देने वाले हैं। नक्सलियों की धार पकड़ में असफल उत्तार प्रदेश पुलिस या तो चोरी छिपे नक्सलियों का अपहरण कर रही है या फिर ऊंचे दामों में खरीद फरोख्त करके उनका फर्जी इनकाउन्टर कर रही है।
सीमा की गिरफ्तारी के विरोधा में तेरह फरवरी को लखनऊ में पत्रकारों और बुध्दिजीवियों ने विरोधा प्रदर्शन किया। उधार जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) की ओर से जारी एक अपील में विजय प्रताप, राजीव यादव, अवनीश राय, ऋषि कुमार सिंह, चन्द्रिका, शाहनवाज आलम, अनिल, लक्ष्मण प्रसाद, अरुण उरांव, देवाशीष प्रसून, दिलीप, शालिनी वाजपेयी, पंकज उपाधयाय, विवेक मिश्रा, तारिक शफीक, विनय जायसवाल, सौम्या झा, नवीन कुमार सिंह, प्रबुध्द गौतम, पूर्णिमा उरांव, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, अर्चना मेहतो, राकेश कुमार ने कहा है कि ''हमें मालूम है कि इस एक विशेषण की आड़ पुलिस किन मंसूबों के साथ लेती है। और आजकल इस नक्सली शब्द पर केंद्र भी सजग है। उसे मालूम है कि पहाड़ों पर और जंगलों में संघर्ष बन कर उगे हुए इन नक्सलियों को साफ किये बिना वो पहाड़ों और जंगलों पर कब्जा नहीं कर सकती।''
पत्रकारों से की गई इस अपील में कहा गया है कि ''जब कभी लोकतंत्र में सत्ताा के चरित्र पर से पर्दा उठता है उस वक्त शर्मिंदगी नहीं साजिशें होती हैं। उत्तार प्रदेश के इलाहाबाद से पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता सीमा आजाद की गिरफ्तारी इसी साजिश का हिस्सा है। ये दलितों के नाम पर चुनी गयी सरकार द्वारा उन्हीं दलित आदिवासियों और किसानों के खिलाफ चलायी जा रही मुहिम को सफल बनाने का एक शर्मनाक तरीका है।''
जेयूसीएस का कहना है कि उत्तार प्रदेश के पूर्वांचल में भी एक लालगढ़ साँसें ले रहा है। वो भी सरकार और उसके कारिंदों के जुल्मोसितम से उतना ही आहत है जितना वो लालगढ़। इन पत्रकारों का कहना है कि ''अगर अभिव्यक्ति को सलाखों में कसने के सरकार के मंसूबों को सफल होने दिया गया, तो वो दिन दूर नहीं जब न सिर्फ उत्तार प्रदेश में, बल्कि समूचे देश में सत्ताा खुद ब खुद आतंक का पर्याय बन जाएगी। ऐसे में ये जरूरी है कि इस परतंत्रता के खिलाफ अभी और इसी वक्त से हल्ला बोला जाए। ये देश और देश की जनता के प्रति कर्तव्यों के निर्वहन का सही सलीका है। एक आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी सरकार से इससे अधिाक उम्मीद की भी नहीं जा सकती थी। वो भी हम जैसी पत्रकार थी लेकिन उसने पैसों के लिए अपने जमीर को नहीं बेचा। इलाहाबाद-कौशाम्बी के कछारी क्षेत्र में अवैधा वसूली व बालू खनन के खिलाफ संघर्षरत मजदूरों के दमन पर उन्होंने बार-बार लिखा, जबकि किसी भी बड़े अखबार ने हिम्मत नहीं की।''
इन पत्रकारों का कहना है कि मायावती सरकार का जब कभी दलित आदिवासी विरोधाी चेहरे पर से नकाब उठता है इस तरह की घटनाएं सामने आने लगती हैं। हो सकता है कि सीमा की गिरफ्तारी पर भी मीडिया अपने चरित्र के अनुरूप अपने होठों को सिये रखे। आज विभिन्न चैनलों पर चल रहे न्यूज फ्लैश जिनमें नक्सलियों की गिरफ्तारी की बात कही गयी थी को देखकर हमें लग गया था कि टीआरपी और नंबर की होड़ में पहलवानी कर रहे मीडिया के पास सच कहने का साहस नहीं है। अपील में कहा गया है कि सीमा, विश्व विजय और आशा की गिरफ्तारी का विरोधा हम सबको व्यक्तिगत तौर पर करना ही होगा। माधयमों की नपुंसकता का रोना अब और नहीं सहा जायेगा वर्ना आइना भी हमें पहचानने से इनकार कर देगा।
जेयूसीएस ने जानना चाहा है कि पुलिस जब यह कहती है कि उसने नक्सलवादी, माओवादी, आतंकवादी साहित्य (कई बार धाार्मिक साहित्य को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है) पकड़ा है तो उनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिये कि आखिर कौन-कौन सी किताबें इसमें शामिल हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी खास तरह की विचारधाारा से प्रेरित होकर लिखी गई किताबें रखना, पढ़ना कोई अपराधा नहीं है। पुलिस द्वारा अक्सर ऐसी बरामदगियों में कार्ल माक्र्स, लेनिन, माओत्से तुंग, स्टालिन, भगत सिंह,चेग्वेरा, फिदेल कास्त्रो, चारू मजूमदार किसी संगठन के राजनैतिक कार्यक्रम या धाार्मिक पुस्तकें शामिल होती हैं। यह पत्रकार कहते हैं कि ऐसे समय में पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि कालेजों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही इन राजनैतिक विचारकों की किताबें भी नक्सली, माओवादी, आतंकी साहित्य हैं? क्या उसको पढ़ाने वाला शिक्षक, प्रोफेसर या पढ़ने वाले बच्चे भी नक्सली, माओवादी, आतंकी हैं? पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि प्रतिबंधिात साहित्य का क्राइटेरिया क्या है, या कौन सा वह मीटर-मापक है जिससे पुलिस यह तय करती है कि यह नक्सली, माओवादी, आतंकी साहित्य है।  अब यह सवाल ऐसे हैं जिनके जबाव उत्तार प्रदेश के कम पढ़े लिखे पुलिस अफसरों से देते नहीं बन रहा। सवाल यह भी है कि क्या 'लाल सलाम' कहना नक्सलवाद है? अगर ऐसा है तो क्या मायावती की पुलिस बुध्ददेव भट्टाचार्य, एबी वर्ध्दन और प्रकाश करात को भी इस जुर्म में गिरफ्तार कर लेगी?
 पीयूसीएल के प्रदेश उपाधयक्ष सैय्यद अली मंजर कहते हैं कि बाल-राज ठाकरे जैसे लोग आए दिन संविधाान विरोधाी काम करते हैं। सरकार उनके सामने नतमस्तक दिखाई देती है। अभिव्यक्ति एवं विचार से वामपंथी लोगों को जेल भेजना दु:खद है।
कई राजनीतिक दलों और संगठनों ने भी पीयूसीएल की संगठन सचिव सीमा आजाद की गिरफ्तारी की निंदा की है। कलाकारों और साहित्यकारों ने भी इसका विरोधा किया है। समाजवादी पार्टी ने कहा है कि इस गिरफ्तारी से सरकार का फासिस्ट चेहरा सामने आ गया है। पार्टी ने फौरन ही सीमा आजाद को रिहा करने की मांग की है।
पार्टी की तरफ से जारी एक बयान में कहा गया कि मानवाधिाकार संगठन के पदाधिाकारियों को नक्सली बताकर गिरफ्तार करना प्रदेश में लोकतांत्रिक अधिाकारों का हनन है। संजरपुर (आजमगढ़) में कांग्रेस महासचिव के सामने बटला काण्ड पर सवाल पूछने पर पीयूसीएल के प्रदेश संयुक्त सचिव को गुण्डा एक्ट में धारा गया। अब मीडिया से संबंधिात सीमा आजाद तथा उनके पति को भी माओवादी बताते हुए गिरफ्तार कर लिया गया है। उन्हें हथकड़ी लगाकर अदालत में पेश किया गया जो कि अमानवीयता की हद है।
सपा प्रवक्ता राजेन्द्र चौधारी और विधाान परिषद में पार्टी के मुख्य सचेतक डॉ राकेश सिंह राना ने कहा कि कांग्रेस और बसपा दोनों की मानसिकता सत्ताा के विरोधा का दमन करने की है। संविधाान में संगठन बनाने और अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी की इनको परवाह नहीं है। कांग्रेस तो आपातकाल लगाकर अपना चरित्र उजागर कर चुकी है और बसपा की मुख्यमंत्री मायावती भी लोकतंत्र पर प्रहार करने का कोई मौका नहीं चूकती हैं। उन्हाेंने लोकतंत्र की सभी संस्थाओं का अवमूल्यन किया है। दोनों सपा नेताओं ने आरोप लगाया कि मायावती ने न्यायपालिका की अवहेलना की है और विधाायिका के प्रति उनका रुख कभी भी सम्मानजनक नहीं रहा है। कार्यपालिका का मनोबल गिराकर उन्होंने उसे पार्टी की वालंटियर फोर्स की तरह काम करने को मजबूर कर दिया है।
उन्होंने कहा कि यह बात तो जगजहिर है कि मानवाधिाकार हनन के मामले में उत्तार प्रदेश ने देश भर में अपना रिकॉर्ड बनाया है। निर्दोष नौजवानों के इंकाउंटर की कितनी ही खूनी कहानियां यहां के पुलिसतंत्र के नाम लिखी हैं। फर्जी मुकदमे बनाने में प्रदेश सरकार उसके अफसरों को महारत हासिल है। समाजवादी पार्टी ने माओवाद के नाम पर दमन की इस कार्रवाई की घोर निन्दा की है और इस तरह के फर्जी केस तुरन्त बन्द करने की मांग की है।
उधार लखनऊ में जुटे बुध्दिजीवियों ने कहा कि जरूरी नहीं फासीवाद केवल धार्म का चोला पहनकर ही आए, वह लोकतंत्र का लबादा ओढ़कर भी आ सकता है। और ऐसा हो भी रहा है। चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद कई लोगों ने खुशी जाहिर की थी और उन्हें लगा था कि चुनावों ने फासिस्ट भाजपा को हाशिये पर धाकेल दिया है। लेकिन चुनावों में हार से फासीवाद की हार नहीं हुई। एक तरफ तो कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार कल्याणकारी योजना के नाम पर जनता के बीच उसी से लूटी गई संपदा के टुकड़े फेंक रही है, तो दूसरी तरफ नक्सलवाद, आतंकवाद के खात्मे के नाम पर आम जनता और उसके हक की लड़ाई लड़ने वालों का दमन कर रही है। उन्हें सलाखों के पीछे डाल रही है। पत्रकार सीमा आजाद की गिरफ्तारी भी इसी दमन की एक अगली कड़ी है। नक्सलवाद से पूरी तरह वैचारिक विरोधा रखने वाले संगठन पीयूसीएल की सदस्य और पत्रकार सीमा आजाद की गिरफ्तारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला तो है ही, साथ ही जनपक्षधार राजनीति करने वालों और जनता के पक्ष में संघर्ष करने वालों का मुंह बंद करने की कोशिश भी है।
जाने माने साहित्यकार नीलाभ ने भी सीमा आजाद की गिरफ्तारी का जोरदार विरोधा किया है। वह एक ब्लॉग में लिखते हैं ''अभय ने अपने ब्लॉग में पुस्तक मेले का जिक्र किया है। मजे की बात है कि पांच फरवरी को उसी पुस्तक मेले में अभय, मैं और सीमा साथ थे और जिस साहित्य को पुलिस और अखबार नक्सलवादी बता रहे हैं, वे पुस्तक मेले से खरीदी गईं किताबें थीं।'' वह लिखते हैं- ''आशंका इस बात की भी है कि स्पेशल टास्क फोर्स सीमा और विश्वविजय को अपनी रिमाण्ड में ले कर पूछताछ करे और जबरन उनसे बयान दिलवाए कि वे ऐसी कार्रवाइयों में लिप्त हैं, जिन्हें राजद्रोह के अन्तर्गत रखा जा सकता है। हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां सब कुछ सम्भव है- भरपूर दमन और उत्पीड़न भी और जन-जन की मुक्ति का अभियान भी। यह हम पर मुंहसिर है कि हम किस तरफ हैं। जाहिर है कि जो मुक्ति के पक्षधार हैं, उन्हें अपनी आवाज बुलन्द करनी होगी। अर्सा पहले लिखी अपनी कविता की पंक्तियां याद आ रही हैं -
चुप्पी सबसे बड़ा खतरा है जिन्दा आदमी के लिए
तुम नहीं जानते वह कब तुम्हारे खिलाफ खड़ी हो जायेगी और सर्वाधिाक सुनायी देगी
तुम देखते हो एक गलत बात और खामोश रहते हो
वे यही चाहते हैं और इसीलिए चुप्पी की तारीफ करते हैं
वे चुप्पी की तारीफ करते हैं लेकिन यह सच है
वे आवाज से बेतरह डरते हैं
इसीलिए बोलो
बोलो अपने हृदय की आवाज से आकाश की असमर्थ खामोशी को चीरते हुए
बोलो, नसों में बारूद, बारूद में धामाका
धामाके में राग और राग में रंग भरते हुए अपने सुर्ख खून का
भले ही कानों पर पहरे हों, जबानों पर ताले हों, भाषाएं बदल दी गयी हों रातों-रात
आवाज अगर सचमुच आवाज है तो दब नहीं सकती
वह सतत आजाद है।'
सवाल यह है कि क्या हमारी आवाज भी सचमुच आजाद है या उस पर निरंकुश सरकार और उसके तानाशाह अफसरों का पहरा है?


राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को पीयूसीएल का पत्र
प्रति,
अध्यक्ष, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग
नयी दिल्ली।
महोदय,
हम आपको अवगत कराना चाहते हैं कि इलाहाबाद की पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता व पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज (पीयूसीएल) की राज्य कार्यकारिणी सदस्य व संगठन मंत्री सीमा आजाद, उनके पति पूर्व छात्रनेता विश्वविजय व साथी आशा को शनिवार को पुलिस ने इलाहाबाद जंक्शन रेलवे स्टेशन से बिना कोई कारण बताये उठा लिया है। ये दोनों मानवाधिकार कार्यकर्ता नयी दिल्ली से विश्व पुस्तक मेले में भाग लेकर रीवांचल एक्सप्रेस से इलाहाबाद लौट रहे थे। पुलिस का कहना है कि ये लोग नक्सली हैं।
महोदय, संगठन आपको इस गिरफ्तारी की पृष्ठभूमि से अवगत करना चाहता है। पिछले दिनों इलाहाबाद व कौशांबी के कछारी इलाकों में बालू खनन मजदूरों पर पुलिस-बाहुबलियों के दमन के खिलाफ पीयूसीएल ने लगातार आवाज उठाया। इलाहाबाद के डीआईजी ने बाहुबलियों व राजनेताओं के दबाव में मजदूर आंदोलन के नेताओं पर कई फर्जी मुकदमे लादे हैं। डीआईजी ने यहां मजदूरों के 'लाल सलाम' संबोधन को राष्ट्रविरोधी मानते हुए 'लाल सलाम' को प्रतिबंधित करार दिया था। पीयूसीएल ने लाल सलाम को कम्युनिस्ट पार्टियों का स्वाभाविक संबोधन बताते हुए इसे प्रतिबंधित करने की मांग की निंदा की थी। पीयूसीएल का मानना है कि 'लाल सलाम' पुरी दुनिया में मजदूरों का एक आम नारा है और ऐसे संबोधन पर किसी तरह का प्रतिबंध अनुचित है। इलाहाबाद-कौशांबी के कछारी क्षेत्र में अवैध वसूली व बालू खनन के खिलाफ संघर्षरत मजदूरों के दमन पर सवाल उठाते हुए, पिछले दिनों पीयूसीएल की संगठन मंत्री सीमा आजाद व केके राय ने कौशांबी के नंदा का पुरा गांव में वहां मानवाधिकार हनन पर एक रिपोर्ट जारी की थी। नंदा का पूरा गांव में पिछले एक माह में दो बार पुलिस व पीएसी के जवानों ने ग्रामीणों पर बर्बर लाठीचार्ज किया। इसमें सैकड़ों मजदूर घायल हुए। पुलिस ने नंदा का पुरा गांव में भाकपा माले न्यू डेमोक्रेसी के स्थानीय कार्यालय को आग लगा दिया। उनके नेताओं को फर्जी मुकदमों में गिरफ्तार कर कई दिनों तक जेल में रखा।
इस सबके खिलाफ आवाज उठाना इलाहाबाद के डीआईजी व पुलिस को नागवार गुजर रहा था। पुलिस कतई नहीं चाहती कि उसके क्रियाकलापों पर कोई संगठन आवाज उठाये। सीमा आजाद, उनके पति विश्वविजय व एक अन्य साथी आशा की गिरफ्तारी पुलिस ने बदले की कार्रवाई के रूप में की है। सीमा आजाद का नक्सलियों से कोई संबंध नहीं है और वह मानवाधिकारों के क्षेत्र में पिछले कई वर्षों से कार्यरत हैं। सीमा आजाद 'दस्तक' नाम की मासिक पत्रिका की संपादक भी हैं। उन्होंने पूर्वी उत्तार प्रदेश में मानवाधिकारों की स्थिति, मजदूर आंदोलन, सेज, मुसहर जाति की स्थिति व इंसेफेलाइटिस बीमारी जैसे कई मसलों पर गंभीर रिपोटर्ें बनायी हैं। सीमा आजाद के पति विश्वविजय व उनकी साथी आशा भी पिछले लंबे समय तक इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में छात्र नेता के रूप में सक्रिय रहे हैं। इन्होंने 'इंकलाबी छात्र मोर्चा' के बैनर तले छात्र-छात्राओं की आम समस्याओं को प्रमुखता से उठाया है। पुलिस जिन्हें नक्सली बता रही है, वो पिछले काफी समय से छात्र और मजदूरों के बीच काम कर रहे हैं।
महोदय, उत्तार प्रदेश पुलिस पहले भी पीयूसीएल के नेताओं को मानवाधिकारों की आवाज उठाने पर धमकी दे चुकी है। 9 नवंबर को चंदौली में कमलेश चौधरी की पुलिस मुठभेड़ में हत्या के बाद पीयूसीएल ने इस पर सवाल उठाये थे। जिसके बाद 11 नवंबर, 09 को खुद डीजीपी बृजलाल ने एक प्रेस कनफ्रेंस में कहा था कि ''पीयूसीएल के नेताओं पर भी कार्रवाई की जाएगी।'' (देखें 12 नवंबर, 09 का दैनिक हिंदुस्तान) इलाहाबाद से सीमा आजाद की गिरफ्तारी पुलिस की उसी बदले की कार्रवाई की एक कड़ी है। अत: हम आप से अपील करते हैं कि इस मामले में त्वरित कार्रवाई करते हुए पुलिसिया उत्पीड़न पर रोक लगाएं और मानवाधिाकारों की रक्षा के दायित्व को पूरा करें। हम यह भी मांग करते हैं कि सीमा आजाद व उनके साथियों को तुरंत मुक्त किया जाए।
भवदीय
चितरंजन सिंह, राष्ट्रीय सचिव, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज (पीयूसीएल), केके राय, अधिवक्ता, राज्य कार्यकारिणी सदस्य, पीयूसीएल संदीप पांडेय, मैग्सेसे पुरस्कार विजेता व राज्य कार्यकारिणी सदस्य, पीयूसीएल। एसआर दारापुरी, पूर्व पुलिस महानिदेशक, राज्य कार्यकारिणी सदस्य, पीयूसीएल। शाहनवाज आलम। संगठन मंत्री, पीयूसीएल। राजीव यादव, संगठन मंत्री, पीयूसीएल, विजय प्रताप, स्वतंत्र पत्रकार और मानवाट्टिाकार कार्यकर्ता

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

जनविरोधी कदम है पैट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ाना

जनविरोधी कदम है पैट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ाना


-अमलेन्दु उपाध्याय



किरीट पारीख समिति की रिपोर्ट पर केन्द्र सरकार एक बार फिर कैरोसिन, डीजल, पैट्रोल और रसोई गैस के दामों में बढ़ोत्तरी करने जा रही है। हर बार की तरह इस बार भी वही पुराना तर्क दिया जा रहा है कि पैट्रोलियम पदार्थों पर जारी सब्सिडी के चलते पैट्रोलियम कंपनियों को जबर्दस्त घाटा हो रहा है और राजकोश पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।

मासूम सा दिखने वाला यह सरकारी तर्क दरअसल बहुत खतरनाक है और सत्ता की जनविरोधी मानसिकता को दर्षाने वाला है। पहली बात तो यह है कि सरकार सब्सिडी का ढोल तो पीट रही है लेकिन यह नहीं बता रही कि डीजल और पैट्रोल पर वह आम जनता से क्या कर वसूल रही है। यदि सरकार इन करों में ही कटौती कर दे तो पैट्रोल और डीजल के दाम वर्तमान से आधे रह जाएंगे। इस मूल्य वृद्धि को टालने का दूसरा आसान और सुगम तरीका हो सकता है बषर्ते सरकार अपनी गरीब विरोधी मानसिकता को छोड़े। यदि लक्जरी कारें रखने वालों पर प्रतिवर्श अतिरिक्त कर लगा दिया जाए और एक परिवार में एक से ज्यादा अधिक कारें रखने वालों के ऊपर कर बढ़ा दिए जाएं तो मसला आसानी से हल हो सकता है और पैट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। क्योंकि लक्जरी कारें और एक से अधिक कारें आम आदमी नहीं रखता बल्कि वह तो सार्वजनिक वाहनों से ही सफर करता है।

डीजल पैट्रोल के दाम में वृद्धि से आम आदमी ही सर्वाधिक प्रभावित होता है। जबकि छूट का फायदा बड़े लोग उठा ले जाते हैं। सरकार वैसे ही महंगाई रोकने में बुरी तरह विफल रही है। ऐसे में डीजल पैट्रोल और रसोई गैस के दाम में वृद्धि महंगाई से कराह रही जनता की और कमर तोेड़ने वाला फैसला ही साबित होगा।

रसोई गैस का दाम बढ़ाने का फैसला तो एकदम बेतुका है। इस पर भारी सब्सिडी तब से दी जा रही है जब गैस कनेक्षन की संख्या कम होती थी और आम आदमी लकड़ी, कोयला को ही अपनी रसोई में प्रयोग करता था। जाहिर है ऐसे में गैस कनेक्षन समर्थ और धनवान लोगों के पास ही होते थे। लेकिन उस समय तो भरपूर सब्सिडी दी जाती रही । आज जब आम आदमी रसोई गैस का प्रयोग करने लगा तो सरकार को सब्सिडी देने में परेषानी हो रही है।

तमाषा यह है कि वह फिक्की और चैंबर आॅफ काॅमर्स जैसी धन्ना सेठों की संस्थाएं रसोई गैस या किसानों को खाद पर मिलने वाली सब्सिडी के खिलाफ अभियान चलाती हैं, जो स्वनिर्मित फर्जी मंदी से निपटने के लिए सरकार से उद्योग जगत के लिए सब्सिडी और आर्थिक पैकेज की मांग करती हैं। इसी तरह बिल्डर्स और काॅलोनाइजर्स को भी सरकार से इसलिए मदद चाहिए क्योंकि उनका मुनाफा 400 प्रतिषत से घटकर 300 प्रतिषत रह गया है। अमरीका में अगर लीमन ब्रदर्स डूबता है तो उसे सरकार से आर्थिक मदद चाहिए। भारत में ‘सुभिक्षा’ डूबता है तो उसे भी सरकार से 500 करोड़ रूपये की मदद चाहिए। रामलिंगम राजू फ्राॅड करंे तो सत्यम को बचाने के लिए भी सरकार से बीस हजार करोड़ रूपये की मांग होती है लेकिन आम गरीब आदमी को रसोई गैस पर सौ रूपये की सब्सिडी पर हाय तौबा मच जाती है।

यहां महत्वपूर्ण पहलू यह है कि रसोई गैस पर दी जा रही सब्सिडी की कुल राषि अकेले एक स्पेषल आर्थिक जोन- सेज को मिल रही रियायतों के मुकाबले काफी कम लगभग दसवां हिस्सा ही बैठती है। जबकि इन सेज के निर्माण से आम आदमी को क्या लाभ हुआ है? सरकार ने उत्तराखण्ड और हिमाचल जैसे पहाड़ी प्रदेषों में उद्योग लगाने के लिए उद्योगपतियों को दस वर्श के लिए करों में विषेश छूट दी। जिसका परिणाम यह निकला कि नये उद्योग तो नहीं लगे बल्कि हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेष के उद्योग उखड़कर इन प्रदेषों में चले गए और करों में मिल रही छूट का फायदा उठा रहे हैं। लेकिन आम आदमी को अपने उत्पाद सस्ते करके उन्होंने इस लाभ को षेयर नहीं किया। फिर इन उद्योगों को किसलिए करों में छूट देकर राजकोश को चूना लगाया गया? तब फिक्की और चैंबर आॅफ काॅमर्स को दर्द क्यों नहीं हुआ?

इसी तरह चीनी की बढ़ती कीमतें रोकने के नाम पर चीनी मिल मालिकों को कच्ची चीनी की प्रोसेंिसग पर करों में छूट सहित बहुत सी रियायतें दी गईं। लेकिन नतीजा क्या निकला? चीनी के दाम तो यथावत रहे लेकिन चीनी मिल मालिको के वारे न्यारे हो गए।

इसलिए सब्सिडी समाप्त करके डीजल, पैट्रोल और रसोई गैस के दाम बढ़ाया जाना षुद्ध रूप से जनविरोधी फैसला है और अफसोस इस बात का है कि सत्ता पक्ष और मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी इस जनविरोधी कृत्य पर एक सी ही सोच के हैं जिसके चलते लोकतंत्र के विशय में मुहावरा कि जनता का षासन जनता के द्वारा जनता के लिए बेमानी होता जा रहा है।

डेली न्यूज़ जयपुर में प्रकाशित 

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

अन्त अमरगाथा का

अन्त अमरगाथा का
अमलेन्दु उपाध्याय
आखिरकार वह घड़ी आ ही गई जिसका समाजवादियों को चैदह वर्ष से इंतजार था। हालांकि चैदह वर्ष का वनवास तो मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने भी भोगा था लेकिन समाजवादियों के लिए यह चैदह वर्ष किसी नर्क की यातना से कम नहीं थे। इन चैदह वर्षों में समाजवादी पार्टी दलालों, नर्तकियों और पूंजीपतियों का बसेरा बन गई थी और एक-एक करके सारे पुराने समाजवादी घर से बेघर कर दिए गए थे। कभी समाजवादी पार्टी के हैवीवेट महासचिव और प्रवक्ता रहे अमर सिंह लगभग एक महीने चले वाकयुद्ध के बाद पार्टी से निष्कासित कर दिए गए हैं। इस एक माह के दौरान अमर के कई रूप देखने को मिले। उन्होंने पार्टी नेतृत्व को धमकी देने के अंदाज में कहा था कि उनके सीने में मुलायम के कुछ राज दफन हैं। लेकिन उनकी धमकी का असर उल्टा ही पड़ा, बल्कि उनके निष्कासन से सपा में ऐसा उत्साहवर्धक माहौल है मानो कोई किला फतह किया गया हो। कल तक मुलायम सिंह की नाक का बाल रहे अमर सिंह आज समाजवादी पार्टी पर परिवारवाद का आरोप लगाकर उसकी जड़ों में मट्ठा डालने के लिए बेचैन दिख रहे हैं और ‘पर्दा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा’ की धमकी दे रहे हैं।
उधर अमर सिंह के सामने सवाल यह है कि वह किधर जाएं? शायद ही ऐसा कोई नेता रहा होगा जिसके लिए अमर सिंह ने कभी न कभी कुछ अपशब्दों का प्रयोग न किया हो। अमर ने पार्टी में परिवारवाद का आरोप लगाया लेकिन इससे वह स्वयं सवालों में घिर गए। अब वह भले ही कह रहे हों कि उन्हें राजनीति से मोक्ष मिल गया लेकिन असलियत यह है कि उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी समाप्त करने की पटकथा स्वयं लिखी है
अमर सिंह आज के दिन एक टूटे हुए थके और निराश व्यक्ति हैं। भले ही वह कह रहे हों कि पिक्चर तो अभी बाकी है लेकिन उनके मस्तक की लकीरें बता रही हैं कि पिक्चर का ‘दि एंड’ हो चुका है, और शायद किसी भी गैर राजनीतिक व्यक्ति की राजनीति का अंत ऐसा ही होता है। राजनीति में अवसरवादिता का नतीजा शेयर मार्केट में भी दिखने लगा है। अमर सिंह भले ही मुलायम के राज न खोल पाएं लेकिन मुलायम के एक ही चरखा दांव से उनकी कंपनी ने शेयर धड़ाम से नीचे गिर गए हैं, जबकि सपा में नया जोश आ गया है। यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने इस अंत की पटकथा स्वयं अमर सिंह ने ही लिखी है ‘दूसरे को नहीं दोष गुसाईं।’
अमर सिंह का जो हश्र हुआ वह उस दिन ही तय हो गया था जिस दिन उन्होंने सपा का दामन थामा था और धीरे-धीरे अपने पूंजीपति आकाओं अनिल अंबानी, सुब्रत राय सहारा और फिल्मी नर्तकियों का प्रवेश राजनीति में कराना शुरू किया था। अमर सिंह डेढ़ दशक तक मुलायम सिंह की आंखों का तारा बने रहे और उनका जादू मुलायम के सिर इतना चढ़कर बोला कि एक समय में जनेश्वर मिश्र के निवास पर हुई सपा संसदीय दल की बैठक में जब मोहन सिंह ने यह सवाल पूछा कि उन्हें भी मालूम होना चाहिए कि पार्टी के बड़े फैसले कहां लिए जाते हैं, तो मुलायम ने अपने समाजवादी साथियों को ही यह कहकर हड़काया था कि वह बाहर के लोगों से बाद में लड़ेंगे पहले अपने घर के विद्रोह को ठीक करेंगे।
अमर सिंह ने बहुत तेजी के साथ सपा पर कब्जा किया और आखिर में स्थिति यह हो गई थी कि सपा के बड़े से बड़े नेता पहले अमर सिंह को साष्टांग प्रणाम करते थे और बाद में मुलायम से दुआ सलाम करते थे। अच्छी तरह से याद है जब अमर सिंह सपा में शामिल हुए थे तब राज बब्बर ने उन्हें मुलायम के घर का रास्ता दिखाया था। उस समय अमर सिंह ने मुलायम का शुक्रिया अदा करते हुए जो पोस्टर छपवाया था उसमें मुलायम के साथ-साथ जनेश्वर मिश्र, आजम खां, बेनी प्रसाद वर्मा, रामगोपाल यादव और राज बब्बर की जिन्दाबाद के नारे लिखे हुए थे। लेकिन बाद में उन्होंने राज बब्बर को न सिर्फ बाहर का रास्ता दिखवाया बल्कि कहा तो यहां तक जाता है कि एक बार तो राज बब्बर को पार्टी का टिकट तब मिला जब उन्होंने बाकायदा अमर से क्षमा याचना की।  इसी तरह बेनी प्रसाद वर्मा और आजम खां भी बेइज्जत करके सपा से बाहर किए गए।
जिन रामगोपाल यादव पर अमर सिंह इतना फायर हो रहे हैं वह रामगोपाल भी एकबारगी पार्टी में इतने साइडलाइन हो गए थे कि उन्हें डिप्रेशन में अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था। फैजाबाद में हुए पार्टी के कार्यकर्ता सम्मेलन में अमर सिंह ने रामगोपाल पर कई तंज कसे थे। वहां से लौटते ही रामगोपाल जबरदस्त बीमार पड़़ गए। अब सवाल यह उठता है कि आखिर वह कौन से कारण थे कि इतना सिर चढ़ने के बाद अमर सिंह मुलायम परिवार के खिलाफ हो गए?
कहा जा रहा है कि अमर सिंह पार्टी में बढ़ते परिवारवाद से नाराज हो गए थे। यहां दो बात साफ कर दी जाएं। पहली तो यह कि अमर सिंह को यह समझने में चैदह साल क्यों लग गए कि सपा में परिवारवाद है? दूसरे परिवार की अहमियत वही व्यक्ति समझ सकता है जो पारिवारिक हो। एक निजी टीवी चैनल पर अमर सिंह ने स्वयं कहा कि वह अपने पिता से नाराज होकर अठारह वर्ष की आयु में घर से निकल गए थे और जब मृत्यु शैया पर पड़े उनके पिता ने उनसे पूछा कि क्या वह अभी भी उनसे नाराज हैं तो अमर ने कहा कि अगर उन्होंने( पिता ने) उन्हें डांटा न होता तो वह कामयाब आदमी न बन पाए होते। अमर सिंह के इस वक्तव्य से परिवार के प्रति उनकी घृणा की ग्रन्थि को समझा जा सकता है।
अमर की परेशानी तभी बढ़ना शुरू हुई जब मुलायम के पुत्र अखिलेश की आमद सक्रिय राजनीति में हुई। दरअसल अमर सिंह का ख्वाब था कि मुलायम सिंह केन्द्र की राजनीति में स्थापित होने के बाद उत्तर प्रदेश की बागडोर उन्हें सौंप देंगे। इसीलिए उन्होंने एक-एक करके अपने रास्ते के कांटे बेनी और आजम को रास्ते से हटाया। रामगोपाल और शिवपाल से उन्हें खतरा इसलिए नहीं था क्योंकि रामगोपाल मास लीडर नहीं हैं और गुणा भाग की राजनीति नहीं करते। जबकि शिवपाल सिर्फ मुलायम के हनुमान हैं और उनके अन्दर राजनीति में कुछ हासिल करने की तमन्ना भी नहीं है। ऐसे में उन्हें लगने लगा कि अखिलेश के आने से उनका खेल खराब हो गया है।
हालांकि अमर सिंह ने पहले मुलायम सिंह को अच्छी तरह समझा लिया था कि अखिलेश को सक्रिय राजनीति में न लाया जाए। जब सपा की युवा इकाई के बड़े नेता राकेश सिंह राना ने अखिलेश को आगे लाने का प्रस्ताव रखा था तो बताते हैं मुलायम ने राना को बुरी तरह डपट दिया था। लेकिन बाद में राना ने जब जनेश्वर मिश्र को समझाया कि ‘नेता जी’ के बाद पार्टी का क्या होगा और अगर अखिलेश को आगे नहीं लाया गया तो पार्टी असामाजिक तत्वों और पूंजीपतियों के दलालों की बंधक होकर अपना अस्तित्व खो देगी, तब जनेश्वर मिश्र को यह बात क्लिक कर गई और आॅस्ट्रेलिया से शिक्षा प्राप्त करके स्वदेश लौटे अखिलेश को समाजवाद की कमान सौंपने की तैयारी हुई। स्व ़ जनेश्वर मिश्र ने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में इस पूरी घटना का उल्लेख भी किया था। इस प्रस्ताव से खफा अमर सिंह ने तीन बार राकेश राना का विधानसभा का टिकट कटवाया और दो बार विधान परिषद में नाम तय हो जाने के बाद उनका रास्ता रोक दिया। बाद में राना विधान परिषद के सदस्य तभी बन सके जब अमर सिंह संकट के बादलों से घिरना शुरू हुए।
लेकिन यह बात भी सही है कि फिरोजाबाद में मुलायम की पुत्रवधु डिंपल को चुनाव लड़वाने का फार्मूला भी अमर का ही था। इसके पीछे रणनीति यह थी कि अगर डिंपल हार जाएंगी तो यादव परिवार अपने आप बैकफुट पर आ जाएगा और अगर जीत जाएंगी तो परिवारवाद के आरोप लगना शुरू हो जाएंगे। लेकिन उनका यही दांव उनके लिए घातक साबित हुआ और यादव परिवार को उनका गुणा भाग समझ में आ गया। बाद में जो कुछ हुआ वह सारी दुनिया ने देखा।
इधर आजम खां प्रकरण से भी अमर सिंह को काफी झटका लगा। हालांकि वह आजम खां को बाहर का रास्ता तो दिखाने में कामयाब हो गए लेकिन आजम खां और मुलायम की मुलाकात में आजम खां ने जो दो-चार बातें मुलायम से कहीं उन्होंने भी अमर की विदाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सूत्रों का कहना है कि जब आजम खां मुलायम से कल्याण सिंह के मसले को लेकर मिले तो उन्होंने कहा था कि वह ( आजम) पठान हैं और जिस दिन उन्हें ( मुलायम  को) छोडें़गे उस दिन राजनीति छोड़ देंगे। बाकी पार्टी उन्हें छोड़ती है तो यह उसका फैसला होगा। आजम ने अपना वादा निभाया, उन्होंने पार्टी नहीं छोड़ी पार्टी ने ही उन्हें छोड़ा। एक और बात जो आजम ने कही उस बात ने फिरोजाबाद की हार के बाद मुलायम को सोचने पर मजबूर कर दिया। बताते हैं आजम ने कहा- नेता जी पैसे तो कभी भी कमा लिए जाएंगे लेकिन अगर वोट एक बार चला गया तो फिर लौट कर नहीं आएगा। और फिरोजाबाद में जिस तरह से मुस्लिम वोट झड़कर राज बब्बर को मिला उससे आजम के शब्द मुलायम के कानों में गूंजने लगे।
जाहिर है ऐसे में अमर सिंह को परेशानी तो होनी ही थी। लेकिन अमर सिंह अपने ही बुने जाल में इस कदर फंसे कि बाहर जाकर ही रुके। अब अमर सिंह राजनीतिज्ञ तो हैं नहीं। वह बेसिकली एक ब्रोकर हैं लेकिन उन्हें गलतफहमी हो गई कि वह राजनेता हो गए हैं। उधर अपनी आदत के मुताबिक जब अमर ने मुलायम के राज अपने सीने में दबे होने का शोशा छोड़ा तो स्थिति बेकाबू हो गई और अमर के निष्कासन की फाइनल स्क्रिप्ट लिख दी गई।
हालांकि अमर सिंह ने पहले कांग्रेस में जाने के लिए अपने संपर्क टटोले लेकिन वहां से मनाही हो गई। फिर उन्होंने राष्ट्रवादी कांग्रेस में जाने की तैयारी की लेकिन तब तक वह मुलायम के खिलाफ इतना जहर उगल चुके थे कि शरद पवार ने उन्हें लेना उचित नहीं समझा। वह भाजपा में जा सकते थे लेकिन वहां उनके मित्र राजनाथ अब कमजोर हो गए हैं और भाजपा में जाकर वह मुलायम को नुकसान भी नहीं पहुंचा सकते थे। दूसरा, मुलायम सिंह से किसी के भी राजनीतिक मतभेद हो सकते हैं, उनकी नीतियों से असहमति हो सकती है लेकिन यह शिकायत कोई नहीं कर सकता कि उन्होंने कभी आॅफ द रिकाॅर्ड भी अपने किसी विरोधी के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया हो। इसलिए जब अमर सिंह, मुलायम पर हमलावर हुए तो उनके लिए सिर्फ और सिर्फ बहुजन समाज पार्टी का ही रास्ता बचा था। लेकिन वहां दिक्कत यह है कि मायावती स्वयं अमर सिंह से ज्यादा अशिष्ट हैं और उन जैसों को वहां वह फ्री हैण्ड नहीं मिल सकता जैसा सपा में मिला। इसलिए मायावती, अमर सिंह का प्रयोग मुलायम के जयचंद और मीरजाफर की तरह तो कर सकती हैं लेकिन उन्हें सतीश चन्द्र मिश्र, नसीमुद्दीन या बाबू सिंह कुशवाहा का दर्जा नहीं दे सकती हैं। दूसरे अमर सिंह के विषय में अब कहा जाने लगा है कि वह जब मुलायम के नहीं हुए तो किसी और के कैसे हो जाएंगे?
इधर अमर सिंह के सपा तोड़ने के दावे की पोल खुल गई। जिन विधायकों को उनका खासमखास समझा जाता था वह भी उनके साथ नहीं आए। इसका कारण साफ है। इन विधायकों ने ताड़ लिया है कि अमर सिंह व्यापारियों के ब्रोकर हैं और किसी भी दिन कहीं भी चुपके से निकल जाएंगे और इन विधायकों के गले व्यक्तिगत दुश्मनियां बांध जाएंगे। इसीलिए अमर के सर्वाधिक विश्वासपात्र माने जाने वाले विधायक अरविन्द सिंह गोप भी उनके साथ नहीं आए और न राजा भैया या अक्षय प्रताप सिंह उर्फ गोपाल  जी। जो अशोक सिंह चन्देल और संदीप अग्रवाल निकाले गए हैं वह मूल रूप से सपाई नहीं हैं बल्कि भाजपा और बसपा से सपा में आए थे। अबू आसिम आजमी, जिन्हें अमर सिंह अपना बता रहे थे, भी उनके साथ नहीं आए। सांसद राधामोहन सिंह खुद सपा मुखिया से मिलकर कह आए कि वह पार्टी के साथ हैं और अमर के साथ नहीं। रही बात जया प्रदा की तो वह भी आसमानी नेता हैं उनका उत्तर प्रदेश से कुछ लेना देना नहीं है।
अनिल अंबानी भी, जो अमर सिंह के मित्र कहे जाते हैं, खुलकर अमर सिंह के समर्थन में नहीं ही आए। क्योंकि वह भी अच्छी तरह जानते हैं कि एक पूंजीपति की औकात एक साधारण से राजनीतिज्ञ के सामने भी कुछ नहीं होती है। अगर कोई विश्वनाथ प्रताप सिंह सरीखा नेता किसी भूरेलाल जैसे अधिकारी को एक घंटे के लिए भी पीछे लगा देता है तो धीरूभाई अंबानी और नुस्ली वाडिया जैसे पूंजीपतियों को भी दिन में तारे नजर आ जाते हैं।
अमर सिंह को कहीं रास्ता न मिलने की एक प्रमुख वजह यह भी है कि उन जैसे तथाकथित मैनेजरों की किसी भी दल को फिलहाल जरूरत नहीं है। कांग्रेस के पास उनसे ज्यादा अच्छे मैनेजर मौजूद हैं जो सभ्य और सुसंस्कृत भी हैं। भाजपा में भले ही प्रमोद महाजन अब नहीं रहे लेकिन उनकी कमी दूर करने के लिए वहां भी बड़े-बड़े मैनेजर हैं। फिर अमर सिंह को कोई क्यों ले?