गुरुवार, 25 मार्च 2010

यह कैसा लोकतंत्र?

यह कैसा लोकतंत्र?


अमलेन्दु उपाध्याय



क्या हमारा साठ साला लोकतंत्र वाकई परिपक्व हुआ है या इसमें खामियां ही बढ़ी हैं? पिछले दिनों राज्यसभा से लेकर राज्यों की विधान सभाओं में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की सदन में हंगामे के बाद मार्षल कार्रवाई की तीन बड़ी घटनाओं ने यह सोचने पर मजबूर किया है। इन घटनाओं से लोकतंत्र षर्मसार हुआ है। बीती आठ और नौ मार्च को राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल की प्रतियां फाड़ी गईं और सभापति के हाथ से भी कागज छीने गए, उसके बाद मार्षल कार्रवाई करके सात सांसदों को राज्यसभा से बाहर निकाला गया। इस घटना के कुछ दिन बाद ही कष्मीर विधानसभा में एक विधायक जी मार्षल की मदद से सदन से बाहर फिंकवाए गए और अब राजस्थान विधानसभा में विधायकों के उत्पात के बाद उनकी मार्षलों से मार- कुटाई की घटना से सारा देष हतप्रभ है।

राजस्थान विधान सभा में तो संसदीय आचरण की सारी सीमाएं लांघकर जिस तरह सदन को कुष्ती का अखाड़ा बनाया गया उससे चिंतित होना स्वाभाविक है। अभी तक ऐसी घटनाएं उत्तर प्रदेष और बिहार में तो आम समझी जाती रही हैं लेकिन राजस्थान जैसे अपेक्षाकृत षांत प्रदेष में यह घटना चैंकाने वाली है। उत्तर प्रदेष में तो पेपरवेट, माइक को भी हथियार बनाकर विधायकगण खूब लात-घूंसे चलाने के अभ्यस्त से हो चुके हैं। मुख्यमंत्री का विरोध करने के लिए विपक्षी दल के विधायक गुब्बारे लेकर सदन में अपना गुबार निकालते हैं, अध्यक्ष के आसन पर चढ़ जाते हैं और वेल में आ जाते हैं। वहां यह व्यवहार आम हो गया है और समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी के उदय के बाद उत्तर प्रदेष की राजनीति जिस तरह से मायावती बनाम मुलायम सिंह की व्यक्तिगत रंजिष में बदली है, उसको देखते हुए तो सदन को कुष्ती का अखाड़ा बनना लाजिमी है। हालांकि 16 दिसंबर 1993 को वहां की विधानसभा सपा और भाजपा विधायकों के बीच कुरूक्षेत्र का मैदान बनी उससे यह आभास हो गया था कि लोकतंत्र का क्षय हो रहा है।

यदि संसदीय आचरण की बात छोड़ भी दी जाए तो भी जनप्रतिनिधि सदन में इस प्रकार हंगामा करके सबसे ज्यादा अहित उस जनता का करते हैं जिसकी आवाज और समस्याएं उठाने के लिए वह चुनकर आए हैं। सदन की कार्रवाई प्रारंभ होते ही सबसे पहले प्रष्नकाल होता है, जो लोकतंत्र की जान है। लेकिन आष्चर्य है कि अधिकांष जनप्रतिनिधि प्रष्नकाल में ही उपस्थित नहीं रहते और यदि आते भी हैं तो किसी न किसी बहाने हो हल्ला मचाकर प्रष्नकाल को ही स्थगित करा देते हैं। इस प्रकार जहां जनता की बात सरकार तक नहीं पहुंच पाती वहीं सदन की कार्रवाई पर होने वाले खर्च का नुकसान भी आखिरकार जनता को ही भुगतना पड़ता है। और तो और सोनिया जी के पीछे हाथ बांधे खड़ी केन्द्र की यूपीए सरकार पिछले एक वर्श में अपने सासदों की अनुपस्थिति के चलते कई बार षर्मिन्दा हुई है जबकि महंगाई जैसे आम आदमी के सवाल पर आधे से ज्यादा सांसद गायब थे।

जनप्रतिनिधियों के इस प्रकार का आचरण का मुख्य कारण ‘पब्लिसिटी’ है। चूंकि सदन की कार्यवाही सभी अखबारों और मीडिया माध्यमों की सुर्खी बनती है इसलिए सासंद और विधायक सुर्खियों में रहने के लिए सदन में हंगामा करते हैं। दूसरी बात पिछले तीन दषक में मण्डल राजनीति और राम मंदिर आंदोलन के बाद देष की राजनीति ने जबर्दस्त करवट बदली है। जाति और धर्म के आधार पर हुए धु्रवीकरण के चलते आम आदमी की मूलभूत समस्याएं राजनीतिक दलों के एजेंडे से गायब हो गई हैं। जातीय राजनीति ने असामाजिक तत्वों को राजनीति में आगे बढ़ाया है जिसके चलते राजनीति में सिद्धान्तों की लड़ाई अब समाप्त हो गई है और वह व्यक्तिगत रंजिष में बदल गई है। सदन में अब स्वस्थ बहस नहीं होती बल्कि व्यक्तिगत आक्षेप और टीका - टिप्पणियां होती हैं। स्व. राजा विष्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स तोप दलाली कांड की आड़ में जिस तरह से स्व. राजीव गांधी को निषाना बनाया उसने राजनीति में व्यक्तिगत टकराहटों को जन्म दिया, जिसे आगे चलकर पूरी षिद्दत के साथ भाजपा और कांग्रेस दोनों ने पोशित पल्लवित किया।

इस सिद्धान्तहीन राजनीति के चलते ही अब संसद में भी राम मनोहर लोहिया, भूपेष गुप्त, इंद्रजीत गुप्ता, गीता मुखर्जी जैसे लोगों की स्वस्थ बहस सुनने को नहीं मिलती बल्कि अब संसद अमर सिंह, प्रमोद महाजन, कुवर देवेन्द्र सिंह, पप्पू यादव, आनन्द मोहन और कमाल अख्तर जैसों को झेलने के लिए अभिषप्त है।

दूसरी तरफ सदन के अध्यक्ष भी अब काबिलियत और संसदीय परंपरा के ज्ञान के आधार पर नहीं बल्कि हाईकमान के प्रति अपनी निश्ठा के चलते बनते हैं। जिसके कारण सदन चलाते समय उनके निश्पक्ष रहने की कल्पना नहीं की जा सकती। अगर राज्यसभा में हुए हंगामे की ही बात की जाए तो निष्चित रूप से सवाल सभापति महोदय से भी हो तो सकते ही हैं। सभापति सदन में सरकार के नुमाइंदे नहीं हैं बल्कि उन पर पूरे सदन का विष्वास होता है। लेकिन समाजवादी सांसदों के हंगामे के बाद जिस तरीके से सभापति हामिद अंसारी ने महिला आरक्षण बिल पारित कराने की जल्दबाजी दिखाई उसे उचित कैसे ठहराया जा सकता है? इसके अलावा बिहार विधान सभा के अध्यक्ष उदयनारायण चैधरी ने तो चाटुकारिता की सारी सीमाएं ही पार करते हुए न केवल जद-यू की महादलित रैली में षिरकत की बल्कि मंच से नीतीष कुमार की जिन्दाबाद के नारे भी लगाए।

आसन पर बैठने वाले लोगों की लोकतंत्र के प्रति श्रद्धा सिर्फ एक वाकए से समझी जा सकती है। धनीराम वर्मा उत्तर प्रदेष विधानसभा के अध्यक्ष थे और मुलायम ािसंह यादव की सरकार को जबर्दस्ती विष्वासमत हासिल कराने के आरोप में हटा दिए गए थे। ( यह दीगर बात है कि उन्हें हटाये जाने में भी कानूनसम्मत तरीका नहीं अपनाया गया) बाद में जब यही धनीराम वर्मा नेता प्रतिपक्ष बने तो स्वयं सदन की बेल में आकर हंगामा मचाने लगे। याद होगा तब तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष बरखूराम वर्मा को धनीराम जी से कहना पड़ा कि- आप तो स्वयं विधानसभा अध्यक्ष रहे हैं कम से कम आप तो ऐसा व्यवहार न करें।

वैसे सदन में नारेबाजी करना कोई अलोकतांत्रिक काम नहीं है और न ही असंसदीय आचरण है। लेकिन विरोध का जो ‘काॅज’ है, वह सार्थक होना चाहिए और जनता के सवालों पर होना चाहिए। अगर सरकार मनमानी पर उतारू है और विपक्ष की भावनाओं का सम्मसन नहीं कर रही है तो उसका विरोध करने के लिए सदन उचित जगह है। लेकिन हाथापाई करना, गाली गलौच करना एकदम गलत है। दूसरी तरफ सदन के सभापति को भी निश्पक्ष और तटस्थ भाव से काम करना चाहिए। लेकिन तब क्या कीजिएगा जब सत्ता पक्ष ही सदन में हल्ला मचाने लगे? अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार में अनेक बार ऐसे अवसर आए जब सत्तारूढ़ भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सांसदों ने जबर्दस्त हल्ला मचाया और संसद नहीं चलने दी। यह लोकतंत्र की हत्या थी। इसलिए जरूरत इस बात की है कि राजनीति को सही मोड़ पर लाया जाए और जनप्रतिनिधियों और राजनैतिक दलों को जनता के प्रति जबावदेह बनाया जाए। जाहिर है इसके लिए पहल उस जनता को ही करनी होगी जिसके लिए लोकतंत्र बना है।

शनिवार, 20 मार्च 2010

महिलाएं जीतीं, लोकतंत्र हारा

महिलाएं जीतीं, लोकतंत्र हारा


अमलेन्दु उपाध्याय


महिला आरक्षण बिल को पास कराने के लिए कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दल भाजपा व वाम दलों ने जो तरीका अपनाया, उससे फासीवाद के आने की आहट सुनाई देने लगी है। राज्यसभा में यह बिल पास होने पर निश्चित रूप से महिलाएं तो जीती हैं, लेकिन लोकतंत्र हार गया है



राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के बावजूद महिलाओं को विधायिका में तैंतीस प्रतिशत आरक्षण का तेरह साल पुराना ख्वाब सच होने से बहुत दूर है। जाहिर है यदि यह पारित हो जाता तो बिल महिला सशक्तिकरण की दिशा में चला गया एक कदम साबित हो सकता था। लेकिन किन महिलाओं का सषक्तिकरण? यह बहस का मुद्दा है। इस बिल को पास कराने के लिए जिस तरह से सत्तारूढ़ दल कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दलों भाजपा तथा वामपंथी दलों ने जो तरीका अपनाया उससे फासीवाद के आने की आहट सुनाई देने लगी है। राज्यसभा में यह बिल पास होने पर निश्चित रूप से महिलाएं तो जीती हैं लेकिन लोकतंत्र हारा है।

इस बिल पर सपा, राजद और जद-(यू) ने जो आपत्तियां उठायी हैं उन्हें थोथी महिला विरोधी हरकत कहकर नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। इस बात में कोई शक नहीं है कि इस बिल का लाभ सबसे ज्यादा सवर्ण महिलाएं और खासतौर पर कुछ परिवारों की ही महिलाएं उठाएंगी। इस बिल को लेकर समाजवादी धड़ा दलित, मुस्लिम और पिछड़ा विरोधी होने का जो आरोप लगा रहा है उसे नौ तथा दस मार्च के अखबारों की सुर्खियों जैसे ‘यादव ब्रिगेड के साथ ममता की खिचड़ी नहीं पक पाई’, ‘यादव ब्रिगेड ने रोका महिला विजय रथ’, और ‘यादव तिकड़ी ने नहीं चलने दी लोकसभा’ और तथाकथित नारीवादी महिलाओं की लालू- मुलायम के खिलाफ जातिवादी टिप्पणियों ने सही साबित कर दिया है। लगभग सभी समाचार चैनल्स पर समाचार वाचकों ( इन्हें पत्रकार समझने की भूल न की जाए ) की सपा और राजद को खलनायक साबित करतीं टिप्पणियां भी साबित कर रही थीं कि महिला आरक्षण की आड़ में पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ साजिश रची जा रही है।

जो सबसे बड़ा खतरा इस बिल के बहाने सामने आया है उससे लोकतंत्र की अवधारणा पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है। जब विपक्ष की मुख्य पार्टी भारतीय जनता पार्टी सत्तारूढ़ दल कांग्रेस से मिल जाए और तो और ‘लोकतांत्रिक, जनवादी धर्मनिरपेक्ष’ विकल्प चिल्लाने वाली माकपा और भाकपा भी कांग्रेस और भाजपा से मिल जाएं तो कैसा लोकतंत्र? फिर लोकतंत्र की अवधारणा अल्पसंख्यकों पर बहुमत का शासन नहीं है। लेकिन राज्यसभा में जो तरीका अपनाकर यह बिल पारित कराया गया उसने नारी सशक्तिकरण और लोकतंत्र दोनों पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया।

अगर कल कांग्रेस, भाजपा और वामदल इस बात पर सहमत हो जाएं कि अब इस मुल्क में चुनाव नहीं होंगे और बारी बारी से उनका प्रधानमंत्री बनता रहेगा तब क्या यह संविधान संषोधन भी मार्षलों की मदद से पारित करा दिया जाएगा और पूरा मुल्क लोकतंत्र के जनाजा निकलने का तमाषा देखता रहेगा? या भाजपा और कांग्रेस में आम सहमति बन जाए कि अब भारत को हिन्दू राश्ट्र बना दिया जाए तो क्या मार्षलों की मदद से भारत को हिन्दूराश्ट्र बनाने का सेविधान संषोधन भी पारित करा दिया जाएगा? यहां विरोध महिलाओं को राजनीति में स्थान मिलने का नहीं हो रहा है बल्कि इस बहाने जो फासीवाद उभर रहा है उसकी तरफ ध्यान दिलाया जा रहा है क्योंकि जरूरी नहीं कि हर बार फासीवाद धर्म का चोला ओढ़कर ही सामने आए।

मान लिया कि सदन के अंदर हंगामा करना संसदीय आचरण नहीं है। लेकिन क्या सरकार का इन दलों से बात न करने के रवैये और राज्यसभा में मार्शलों का प्रयोग करके बिल पारित कराने को भी उचित ठहराया जा सकता है? क्या यह सरकार का फासीवादी और तानाशाहीपूर्ण रवैया नहीं है?

सवाल यहां राज्यसभा के सभापति से भी हो सकते हैं। सभापति सिर्फ सरकार के सभापति नहीं हैं। वह पूरे सदन के सभापति हैं। अगर सदन में षोर षराबा हो रहा था तो उन्हें सदन के सामान्य होने का इंतजार करना चाहिए था न कि रूलिंग पार्टी की मांग पर विरोध करने वालों को सदन से बाहर करा देना चाहिए था?

एक निजी चैनल पर इस बिल की पैरोकार एक तथाकथित समाजसेविका तर्क दे रही थीं कि संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण का प्रावधान नहीं है इसलिए मुसलमानों को आरक्षण नहीं दिया जा सकता। यहां प्रतिप्रष्न यह है कि क्या संविधान में लिंग के आधार पर आरक्षण का प्रावधान है? सवाल यहां यह भी है कि जब संविधान बना था तब कहा गया गया था कि धर्म और लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन क्या यह बिल संविधान की उस मूल भावना के अनुसार है? दरअसल इस बिल की आड़ में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिषों को कूड़ेदान में डालने का शडयंत्र रच रही हैं।

याद होगा जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री थे उस समय उनकी सरकार ने महिलाओं में षिक्षा को बढ़ावा देने के लिए स्नातक तक लड़कियों की फीस माफ की थी और ‘कन्या विद्या धन योजना’ नाम की एक योजना प्रारम्भ की थी जिसमें इंटर में पढ़ने वाली गरीब लड़कियों को एक प्रोत्साहन राषि दी जानी थी। उस समय यही राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी चिल्ला रहे थे कि यह सरकारी धन की फिजूलखर्ची है और वोट खरीदने का एक तरीका है। यानी आम महिलाओं की षिक्षा और तरक्की के लिए अगर कोई योजना लागू की जाए तो वह फिजूलखर्ची और ब्यूटी पार्लर, बटरस्काॅच, एयरकंडीशनर और समाजसेवा का काॅकटेल बनाकर नारी अधिकारों की बातें करनी वाली तथाकथित समाजसेवी महिलाओं को विधायिका में आरक्षण दे दिया जाए तो वह प्रगतिषील कदम!

आज लोकसभा का चुनाव लड़ने पर लगभग पांच करोड़ रूपया खर्च होता है, ऐसे में क्या यह संभव है कि खेत में काम करने वाली मजदूर और घरों में चैका- बर्तन करने वाली आम महिला को इस बिल से कुछ लाभ होगा। हां उन महिलाओं का भला जरूर होगा जो तथाकथित रूप से प्रगतिषील हैं, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती हैं और हिंदी से नफरत करती हैं, जो वोट डालने इसलिए नहीं जातीं क्योंकि पोलिंग बूथ पर लाइन में लगना पड़ता है लेकिन टीवी स्क्रीन पर चटर- पटर राजनेताओं को गरियाकर अपने पढा लिखा होने का सबूत पेष करती हैं। इसलिए इस बिल के पास हो जाने से भी आम महिलाओं के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

मंगलवार, 9 मार्च 2010

महिला आरक्षण : अभी लड़ाई बाकी है

महिला आरक्षण : अभी लड़ाई बाकी है



अमलेन्दु उपाध्याय

भले ही इस बार भी अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस को भारत सार्थक नहीं कर पाया। लेकिन राज्य सभा में समाजवादी धाड़े के घोर विरोध के बावजूद कांग्रेस, भाजपा और लेफ्ट के समर्थन से महिला आरक्षण विधोयक पारित हो ही जाएगा। इस विधोयक के पारित होने के साथ ही 13 वर्ष पुरानी महिला संगठनों की लड़ाई भी एक मुकाम पर पहुंच जाएर्गी। हालांकि इस प्रगतिशाील से दिखने वाले कदम का विरोध करने वाली समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल के विरोध को भी केवल महिला विरोधाी ठहराकर सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। बल्कि इस बिल के विरोधियों के तर्कों पर भी सम्यक विचार की जरूरत है।

पहली बार जब इस बिल की बात चली थी तब भी यह बिल दांव पेंच में फंस गया था। हालांकि अब इस बिल के समर्थन में दिखने वाले लोग भले ही यह तर्क देकर अपनी गर्दन बचाना चाहें कि उस समय भी सपा, राजद और जद की हठधर्मी से यह बिल पारित नहीं कराया जा सका था। लेकिन सत्यता यही है कि उस समय भी इन दांव पेंच में यह तथाकथित आधाी आबादी के समर्थक भी इसे टालने में बराबर के भागीदार थे।

इस बिल के लगातार तेरह वर्ष तक टलते रहने पर सबसे पहला सवाल तो उस कांग्रेस से ही किया जा सकता है जो पहले भी लगातार पांच वर्ष सत्ता में थी और उसके घोषणापत्र में भी महिला आरक्षण को पारित कराना प्रमुखत: शामिल था। तब भला पिछले कार्यकाल के दौरान कांग्रेस इस बिल को पास क्यों नहीं करा सकी? इसका उत्तर हमारे भद्र कांग्रेसी यह देकर अपनी जान बचा सकते हैं कि उस समय सरकार लालू प्रसाद यादव के राजद पर आश्रित थी इसलिए उस समय यह बिल पारित नहीं करा सकी। लेकिन यह मासूम सा तर्क हर किसी के गले आसानी से उतर नहीं सकता। हां अगर 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने प्रत्याशियों में से तैंतीस प्रतिशत महिलाओं को टिकट दिया होता तो इसे कांग्रेस की महिलाओं के प्रति प्रतिबध्दता कहा जा सकता था। इसलिए विरोधियों के इस तर्क में दम नजर आता है कि महंगाई के मोर्चे पर अपनी विफलता छिपाने और एकजुट हो रहे विपक्ष की एकता को विखंडित करने के लिए कांग्रेस ने यह दांव इस समय चला। वरना महिला आरक्षण विधोयक ही नहीं रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों को लागू करने और मुसलमानों को आरक्षण देने के सवाल पर कांग्रेस और यूपीए पार्ट टू क्यों खामोश है? क्या कांग्रेस और यूपीए यह मानते हैं कि इस देश का मुसलमान पिछड़ा और दलित नहीं है?

जहिर है कि अगर राज्यसभा में यह बिल पारित होने के बाद यह लोकसभा में भी पारित हो ही जाएगा और इस बिल के लिए संघर्ष कर रही महिलाओं की जीत भी हो जाएगी, लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि क्या इससे आम भारतीय नारी के जीवन में कोई अन्तर आएगा? अभी तक का इतिहास तो यही बताता है कि ऐसा कुछ आमूल-चूल परिवर्तन इस बिल के पास होने से नहीं होने वाला है। उसका कारण साफ है। जो तथाकथित प्रगतिशील महिलाएं इस बिल के लिए लॉबिंग कर रही थीं अगर उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो साफ हो जाता है कि घर के बाहर प्रगतिशील नजर आने वाली यह अधिकांश महिलाएं अपने घर की चारदिवारी के अंदर घोर नारी विरोधाी ही हैं।

इस बात को और समझने के लिए कांग्रेस, भाजपा और लेफ्ट तीनों के रासायनिक समीकरण को समझना बेहतर रहेगा। कांग्रेस की महिला विरोधाी मानसिकता को इस तरह समझा जा सकता है कि सोनिया की विरासत संभालने के लिए जब राहुल और प्रियंका में जोर आजमाइश हुई तो कमान राहुल को सौंपी गई प्रियंका को नहीं। इसी तरह भले ही भाजपा ने लोकसभा में विपक्ष का नेता सुषमा स्वराज को बनाया हो लेकिन वह भी महिलाओं को टिकट देने के मामले में अपने महिला विरोधाी चेहरे को छिपा नहीं सकी। इसी तरह महिला आरक्षण बिल पारित न होने तक लोकसभा न जाने की कसम खाने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपनी केन्द्रीय कमेटी में अभी तक किसी महिला को स्थान नहीं दे सकी है और अगर वृन्दा कारत, प्रकाश कारत की पत्नी न होतीं तो शायद माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी अपनी सोलह सदस्यीय पोलित ब्यूरो में किसी महिला को स्थान नहीं देती। ऐसे में यह उम्मीद कैसे की जाए कि यह संशोधान विधोयक पारित होने के बाद आम भारतीय नारी को विधायिका में स्थान मिल जाएगा? होगा वही जो अब तक होता आया है कि कुछ खास परिवारों की महिलाएं ही इसका लाभ उठाएंगी और आम भारतीय नारी की किस्मत राम भरोसे ही रहेगी। इसलिए इस बिल के पारित होने का औचित्य तभी होगा जब कम से कम दो बड़े दल कांग्रेस और भाजपा इस पर अपनी नीयत साफ रखें।

दूसरी ओर बिल को लेकर समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने जो रुख राज्यसभा के अंदर अपनाया उसे कम से कम कोई भी लोकतांत्रिक व्यक्ति सही नहीं ठहरा सकता। लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का हक है, असहमति जताने का भी हक है लेकिन सदन के अंदर हंगामा मचाना संसदीय आचरण नहीं है। लेकिन क्या सरकार का इन दलों से बात न करने के रवैये को भी उचित ठहराया जा सकता है? हालांकि इन दलों ने जो आपत्तियां उठायी हैं उन्हें थोथी महिला विरोधाी हरकत कहकर नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। इस बात में कोई शक नहीं है कि इस बिल का लाभ सबसे ज्यादा सवर्ण महिलाएं और खासतौर पर कुछ परिवारों की ही महिलाएं उठाएंगी। इस बिल को लेकर समाजवादी धाड़ा दलित, मुस्लिम और पिछड़ा विरोधाी होने का जो आरोप लगा रहा है उसे 9 मार्च के अखबारों की सुर्खियों और तथाकथित नारीवादी महिलाओं की लालू- मुलायम के खिलाफ जातिवादी टिप्पण्0श्नियों ने सही साबित कर दिया है। लगभग सभी न्यूज चैनल्स पर एंकरों ( इन्हें पत्रकार कदापि न समझा जाए ) की सपा और राजद पर टिप्पणियां भी साबित कर रही थीं कि महिला आरक्षण की आड़ में पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ साजिश रची जा रही है।

वैसे भी पंचायतों में महिला आरक्षण की वस्तुस्थिति किससे छिपी है? बमुश्किल एक या दो फीसदी महिला प्रतिनिधि ही ऐसी होंगी जो स्वयं अपने विवेक से पंचायत में प्रतिनिधित्व कर रही होंगी अन्यथा प्रधान जी घर में चौका चूल्हा कर रही होती हैं और प्रधान पति पंचायत में काम कर रहे होते हैं। काश ऐसा कुछ इस महिला आरक्षण के साथ न हो। वरना यह डर फिजूल नहीं है। अभी भी संसद में जो महिलाएं प्रतिनिधित्व कर रही हैं उनमें से कुल जमा दो या चार की बात छोड़ दें तो सभी का कुछ न कुछ राजनीतिक बैकग्राउण्ड है। वह चाहे सुप्रिया सुले हों, अगाथा संगमा हों, कुमारी शैलजा हों, परनीत कौर हों, नजमा हेपतुल्ला हों, हरसिमरत कौर बादल हों या मौसम नूर हों अथवा मीरा कुमार। यह सभी महिला होने के नाते राजनीति में मुकाम हासिल नहीं कर पाई हैं बल्कि अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण ही ऐसा कर पाई हैं। इस आरक्षण की सार्थकता तभी है जब यह कुछ खास राजनीतिक परिवारों के चंगुल से बाहर निकलकर आम भारतीय नारी के उत्थान के लिए कुछ कर सकें।

जैसा कि यूपीए अधयक्षा सोनिया गांधाी ने कहा है कि वह इस बिल को इसलिए पारित कराना चाहती हैं क्यों कि यह राजीव जी का सपना था। तो दुआ कीजिए कि महिला दिवस पर महिलाओं को विधायिका में आरक्षण का तोहफा देने के बाद कांग्रेस अधयक्षा सोनिया गांधाी बेटा और बेटी में कोई फर्क न मानते हुए राहुल गांधाी से ज्यादा योग्य और खूबसूरत अपनी बेटी प्रियंका को कांग्रेस का राजपाट सौंपने की घोषणा भी करेंगी। तभी यह महिला दिवस और महिला आरक्षण सार्थक होगा।