गुरुवार, 25 मार्च 2010

यह कैसा लोकतंत्र?

यह कैसा लोकतंत्र?


अमलेन्दु उपाध्याय



क्या हमारा साठ साला लोकतंत्र वाकई परिपक्व हुआ है या इसमें खामियां ही बढ़ी हैं? पिछले दिनों राज्यसभा से लेकर राज्यों की विधान सभाओं में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की सदन में हंगामे के बाद मार्षल कार्रवाई की तीन बड़ी घटनाओं ने यह सोचने पर मजबूर किया है। इन घटनाओं से लोकतंत्र षर्मसार हुआ है। बीती आठ और नौ मार्च को राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल की प्रतियां फाड़ी गईं और सभापति के हाथ से भी कागज छीने गए, उसके बाद मार्षल कार्रवाई करके सात सांसदों को राज्यसभा से बाहर निकाला गया। इस घटना के कुछ दिन बाद ही कष्मीर विधानसभा में एक विधायक जी मार्षल की मदद से सदन से बाहर फिंकवाए गए और अब राजस्थान विधानसभा में विधायकों के उत्पात के बाद उनकी मार्षलों से मार- कुटाई की घटना से सारा देष हतप्रभ है।

राजस्थान विधान सभा में तो संसदीय आचरण की सारी सीमाएं लांघकर जिस तरह सदन को कुष्ती का अखाड़ा बनाया गया उससे चिंतित होना स्वाभाविक है। अभी तक ऐसी घटनाएं उत्तर प्रदेष और बिहार में तो आम समझी जाती रही हैं लेकिन राजस्थान जैसे अपेक्षाकृत षांत प्रदेष में यह घटना चैंकाने वाली है। उत्तर प्रदेष में तो पेपरवेट, माइक को भी हथियार बनाकर विधायकगण खूब लात-घूंसे चलाने के अभ्यस्त से हो चुके हैं। मुख्यमंत्री का विरोध करने के लिए विपक्षी दल के विधायक गुब्बारे लेकर सदन में अपना गुबार निकालते हैं, अध्यक्ष के आसन पर चढ़ जाते हैं और वेल में आ जाते हैं। वहां यह व्यवहार आम हो गया है और समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी के उदय के बाद उत्तर प्रदेष की राजनीति जिस तरह से मायावती बनाम मुलायम सिंह की व्यक्तिगत रंजिष में बदली है, उसको देखते हुए तो सदन को कुष्ती का अखाड़ा बनना लाजिमी है। हालांकि 16 दिसंबर 1993 को वहां की विधानसभा सपा और भाजपा विधायकों के बीच कुरूक्षेत्र का मैदान बनी उससे यह आभास हो गया था कि लोकतंत्र का क्षय हो रहा है।

यदि संसदीय आचरण की बात छोड़ भी दी जाए तो भी जनप्रतिनिधि सदन में इस प्रकार हंगामा करके सबसे ज्यादा अहित उस जनता का करते हैं जिसकी आवाज और समस्याएं उठाने के लिए वह चुनकर आए हैं। सदन की कार्रवाई प्रारंभ होते ही सबसे पहले प्रष्नकाल होता है, जो लोकतंत्र की जान है। लेकिन आष्चर्य है कि अधिकांष जनप्रतिनिधि प्रष्नकाल में ही उपस्थित नहीं रहते और यदि आते भी हैं तो किसी न किसी बहाने हो हल्ला मचाकर प्रष्नकाल को ही स्थगित करा देते हैं। इस प्रकार जहां जनता की बात सरकार तक नहीं पहुंच पाती वहीं सदन की कार्रवाई पर होने वाले खर्च का नुकसान भी आखिरकार जनता को ही भुगतना पड़ता है। और तो और सोनिया जी के पीछे हाथ बांधे खड़ी केन्द्र की यूपीए सरकार पिछले एक वर्श में अपने सासदों की अनुपस्थिति के चलते कई बार षर्मिन्दा हुई है जबकि महंगाई जैसे आम आदमी के सवाल पर आधे से ज्यादा सांसद गायब थे।

जनप्रतिनिधियों के इस प्रकार का आचरण का मुख्य कारण ‘पब्लिसिटी’ है। चूंकि सदन की कार्यवाही सभी अखबारों और मीडिया माध्यमों की सुर्खी बनती है इसलिए सासंद और विधायक सुर्खियों में रहने के लिए सदन में हंगामा करते हैं। दूसरी बात पिछले तीन दषक में मण्डल राजनीति और राम मंदिर आंदोलन के बाद देष की राजनीति ने जबर्दस्त करवट बदली है। जाति और धर्म के आधार पर हुए धु्रवीकरण के चलते आम आदमी की मूलभूत समस्याएं राजनीतिक दलों के एजेंडे से गायब हो गई हैं। जातीय राजनीति ने असामाजिक तत्वों को राजनीति में आगे बढ़ाया है जिसके चलते राजनीति में सिद्धान्तों की लड़ाई अब समाप्त हो गई है और वह व्यक्तिगत रंजिष में बदल गई है। सदन में अब स्वस्थ बहस नहीं होती बल्कि व्यक्तिगत आक्षेप और टीका - टिप्पणियां होती हैं। स्व. राजा विष्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स तोप दलाली कांड की आड़ में जिस तरह से स्व. राजीव गांधी को निषाना बनाया उसने राजनीति में व्यक्तिगत टकराहटों को जन्म दिया, जिसे आगे चलकर पूरी षिद्दत के साथ भाजपा और कांग्रेस दोनों ने पोशित पल्लवित किया।

इस सिद्धान्तहीन राजनीति के चलते ही अब संसद में भी राम मनोहर लोहिया, भूपेष गुप्त, इंद्रजीत गुप्ता, गीता मुखर्जी जैसे लोगों की स्वस्थ बहस सुनने को नहीं मिलती बल्कि अब संसद अमर सिंह, प्रमोद महाजन, कुवर देवेन्द्र सिंह, पप्पू यादव, आनन्द मोहन और कमाल अख्तर जैसों को झेलने के लिए अभिषप्त है।

दूसरी तरफ सदन के अध्यक्ष भी अब काबिलियत और संसदीय परंपरा के ज्ञान के आधार पर नहीं बल्कि हाईकमान के प्रति अपनी निश्ठा के चलते बनते हैं। जिसके कारण सदन चलाते समय उनके निश्पक्ष रहने की कल्पना नहीं की जा सकती। अगर राज्यसभा में हुए हंगामे की ही बात की जाए तो निष्चित रूप से सवाल सभापति महोदय से भी हो तो सकते ही हैं। सभापति सदन में सरकार के नुमाइंदे नहीं हैं बल्कि उन पर पूरे सदन का विष्वास होता है। लेकिन समाजवादी सांसदों के हंगामे के बाद जिस तरीके से सभापति हामिद अंसारी ने महिला आरक्षण बिल पारित कराने की जल्दबाजी दिखाई उसे उचित कैसे ठहराया जा सकता है? इसके अलावा बिहार विधान सभा के अध्यक्ष उदयनारायण चैधरी ने तो चाटुकारिता की सारी सीमाएं ही पार करते हुए न केवल जद-यू की महादलित रैली में षिरकत की बल्कि मंच से नीतीष कुमार की जिन्दाबाद के नारे भी लगाए।

आसन पर बैठने वाले लोगों की लोकतंत्र के प्रति श्रद्धा सिर्फ एक वाकए से समझी जा सकती है। धनीराम वर्मा उत्तर प्रदेष विधानसभा के अध्यक्ष थे और मुलायम ािसंह यादव की सरकार को जबर्दस्ती विष्वासमत हासिल कराने के आरोप में हटा दिए गए थे। ( यह दीगर बात है कि उन्हें हटाये जाने में भी कानूनसम्मत तरीका नहीं अपनाया गया) बाद में जब यही धनीराम वर्मा नेता प्रतिपक्ष बने तो स्वयं सदन की बेल में आकर हंगामा मचाने लगे। याद होगा तब तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष बरखूराम वर्मा को धनीराम जी से कहना पड़ा कि- आप तो स्वयं विधानसभा अध्यक्ष रहे हैं कम से कम आप तो ऐसा व्यवहार न करें।

वैसे सदन में नारेबाजी करना कोई अलोकतांत्रिक काम नहीं है और न ही असंसदीय आचरण है। लेकिन विरोध का जो ‘काॅज’ है, वह सार्थक होना चाहिए और जनता के सवालों पर होना चाहिए। अगर सरकार मनमानी पर उतारू है और विपक्ष की भावनाओं का सम्मसन नहीं कर रही है तो उसका विरोध करने के लिए सदन उचित जगह है। लेकिन हाथापाई करना, गाली गलौच करना एकदम गलत है। दूसरी तरफ सदन के सभापति को भी निश्पक्ष और तटस्थ भाव से काम करना चाहिए। लेकिन तब क्या कीजिएगा जब सत्ता पक्ष ही सदन में हल्ला मचाने लगे? अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार में अनेक बार ऐसे अवसर आए जब सत्तारूढ़ भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सांसदों ने जबर्दस्त हल्ला मचाया और संसद नहीं चलने दी। यह लोकतंत्र की हत्या थी। इसलिए जरूरत इस बात की है कि राजनीति को सही मोड़ पर लाया जाए और जनप्रतिनिधियों और राजनैतिक दलों को जनता के प्रति जबावदेह बनाया जाए। जाहिर है इसके लिए पहल उस जनता को ही करनी होगी जिसके लिए लोकतंत्र बना है।

1 टिप्पणी:

  1. शर्मनाक है जी ऐसा लोकतंत्र.......
    ......
    यह पोस्ट केवल सफल ब्लॉगर ही पढ़ें...नए ब्लॉगर को यह धरोहर बाद में काम आएगा...
    http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_25.html
    लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से....

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