सोमवार, 31 मई 2010

ममता मीडिया की कारस्तानी और सरडीहा का सच

ममता मीडिया की कारस्तानी और सरडीहा का सच


अमलेन्दु उपाध्याय

ममता मीडिया की कारस्तानी और सरडीहा का सच


अमलेन्दु उपाध्याय

पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले में सरडीहा के पास हुई रेल दुर्घटना के तुरंत बाद देश भर में मचे बवंडर ने एक बारगी यह सोचने को मजबूर कर दिया था कि क्या वास्तव में भारत के नक्सलवादी नरपिशाच हैं? दुर्घटना स्थल पर पहुंची रेल मंत्री ममता बनर्जी ने जिस बेशर्मी और बेहूदगी से इसके लिए नक्सलवादियों को जिम्मेदार ठहराते हुए अपनी और अपने विभाग के निकम्मेपन से पल्ला झाड़ा और हमारे लोकतंत्र के तथाकथित चैथे स्तंभ बड़े पूंजीपतियों के टुकड़ों पर पलने वाले राष्ट्रीय मीडिया ने जिस निर्लज्जता के साथ इस दुर्घटना को नक्सली हमला करार दिया उसने मीडिया, नक्सलवाद और लोकतंत्र में नैतिकता के प्रश्नों पर एकबारगी फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है।

पहली बात तो नक्सलियों की ही की जाए। नक्सलवादियों के लाख दावे के बावजूद कि वह आम आदमी की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके हथियारबंद संघर्ष को जायज नहीं ठहराया जा सकता। सिर्फ इसलिए नहीं कि भारत में लोकतंत्र नाम की कोई चीज सुनाई पड़ती है। बल्कि इसलिए भी कि नक्सली जिस क्रांति की बात करते हैं वह क्रांति उनके इस तरह के रास्ते से नहीं आ सकती है। क्रांति की भूमिका के लिए जो तीन चार प्रमुख कारण बताए जाते है,ं उनमें से कई महत्वपूर्ण कारण अभी भारत में मौजूद नहीं हैं और जब तक यह कारण नहीं होंगे क्रांति सफल नहीं हो सकती है। क्रांति की अनिवार्य षर्त है कि देश के अंदर गृह युद्ध के हालात होने चाहिए और राजनीतिक उठापटक का माहौल होना चाहिए, किसी बाहरी देश के आक्रमण का खतरा हो और राजसत्ता लाचार हो। लेकिन भारत में इस तरह के कोई हालात अभी तो नहीं हैं। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की आर्थिक नीतियां एक सी हैं और उनमें नीतिगत कोई मतभेद नहीं है बल्कि दोनों एक ही हैं। वहीं देश के अंदर बड़ी तेजी से एक संस्कारविहीन, फर्जीवाड़े की अर्थव्यवस्था की कोख से एक ऐसा उच्च मध्य वर्ग पैदा हुआ है जो स्वयं को पढ़ा लिखा कहता तो है लेकिन है फूहड़। इस वर्ग को नरसिंहराव- मनमोहन- वाजपेयी की तिकड़ी ने फलने फूलने का अवसर दिया है। यह वर्ग राजसत्ता का हिमायती हेै और उसके हर जुल्म- औ- सितम का हिमायती है। ऐसे में गरीबों के हितों की खातिर की जाने वाली कोई भी सशस्त्र क्रांति फलीभूत नहीं हो सकती है।

तो क्या नक्सलियों को आम आदमी की लड़ाई लड़ना बंद कर देना चाहिए? बिल्कुल नहीं! लेकिन उन्हें अपना रास्ता बदल देना चाहिए। पहले आम जनता के बीच जाकर समझाएं कि वह करना क्या चाहते हैं और उनका आम आदमी से कोई बैर नहीं है और पूंजीवादी मीडिया उनके खिलाफ मिथ्या प्रचार कर रहा है। वरना यही होगा जो सरडीहा के मामले में मीडिया ने ममता बनर्जी के सहयोग से किया। ममता ने घटनास्थल पर जाकर कहा कि विस्फोट किया गया है। जबकि खुद गृह मंत्रालय और वित्त मंत्री इस आरोप से सहमत नहीं हैं। मीडिया में ही जो रिपोर्ट्स आईं उनके मुताबिक वहां पचास मीटर तक फिश प्लेट्स उखाड़ी गई थीं और मौके पर लगता था कि ट्रैक की कई घंटों से जांच नहीं की गई थी। लेकिन हमारे न्यूज चैनल्स ममता बनर्जी के बयान को ही ले उड़े। हर चैनल चिल्ला रहा था नक्सली हमले में 76 मरे, रेलवे पर लाल हमला। बताया गया कि घटनास्थल से नक्सली समर्थक पीसीपीए के पोस्टर मिले हैं जिसमें इस घटना की जिम्मेदारी ली गई है। लेकिन किसी भी समाचार वाचक ने यह रहस्य खोलने की जहमत नहीं उठाई कि पीसीपीए नक्सलवादी नहीं है, उसे सिर्फ नक्सलियों की हिमायत हासिल है। पीसीपीए मुखिया छत्रधर महतो बाकायदा तृणमूल कांग्रेस का पदाधिकारी था और पिछले विधानसभा चुनाव में पीसीपीए ने तृणमूल कांग्रेस को समर्थन दिया था। इस लिहाज से अगर यह पीसीपीए का काम है तब तो इसके लिए ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ही ज्यादा जिम्मेदार है। वैसे भी तृणमूल जब तब बंगाल में रेलवे ट्रैक पर हमला करती रहती है और फिश प्लेट्स उखाड़ने में उसे महारत हासिल है।

वैसे भी अभी तक की घटनाओं में जब भी नक्सलियों ने रेलवे को कोई नुकसान पहुंचाया है तो तत्काल नजदीक के केबिन और रेलवे स्टेषन को सूचना पहुंचाई है ताकि कोई दुर्घटना न हो। सवाल यह है कि क्या हमारा मीडिया सकलडीहा का ठीकरा नक्सलियों के सिर फोड़कर ममता बनर्जी को निर्दोष साबित करना चाहता है? क्या यह सही नहीं है कि मृतकों में से पचास से भी अधिक ने दुर्धटना के 48 घंटे बाद सरकारी अव्यवस्था के चलते दम तोड़ा है? क्या यह भी सही नहीं है कि राहत ट्रेन दुर्घटनास्थल पर दो धंटे बाद और क्रेन आठ घंटे बाद पहुंची? क्या यह भी सही नहीं है कि रेलवे के सभी बड़े अफसर दुर्घटना स्थल पर ममता बनर्जी के साथ ही अगले दिन पहुंचे ? क्या इसके लिए भी नक्सली ही जिम्मेदार हैं? कायदे से इस दुर्घटना के लिए ममता बनर्जी को ततकाल त्यागपत्र दे देना चाहिए और प्रधानमंत्री को भी चाहिए कि इस हादसे की जांच में ममता की लापरवाही और साजिष की भी निष्पक्ष जांच करवाएं। एक तरफ ममता का कहना है कि घटना स्थल पर फिश प्लेटें बैल्ड की गई थीं और पेंड्रोल क्लिप या फिश प्लेट उखाड़े जाने का कोई प्रश्न ही नहीं है जबकि हमारे मीडिया के साथी ही मौके से बता रहेे हैं कि फिश प्लेटें उखड़ी हुई थीं। फिश प्लेटें उखड़ना रेलवें के लिए कोई नई बात नहीं है। एक अखबार ने खुलासा किया है कि देश की राजधानी दिल्ली से बीस किलोमीटर दूर गाजियाबाद के रास्ते के ट्रैक पर वर्ष 2010 में ही पांच हजार फिश प्लेटें उखड़ी पाई गई हैं। इतना ही नहीं उखड़ी हुई फिश प्लेटों के ऊपर से राजधानी एक्सप्रेस गुजर जाने की भी खबरें पिछले दिनों आई थीं। जाहिर है दिल्ली में अभी नक्सली नहीं पहुंचे हैं ममता आपा!!

लगातार तीन दिन तक हमारे समाचारपत्रों ने सरडीहा की दुर्घटना पर तो दस बीस लाइनें ही लिखी होंगी लेकिन नक्सलियों पर कई कई पन्ने काले किए। हमारे बड़े पत्रकारों ने अपनी लेखनी का सारा कला कौशल नक्सलियो पर ही खर्च कर दिया। किसी ने लिखा- ‘नक्सलियों ने फिर ढाया कहर’, तो किसी ने लिख डाला- ‘ भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनते जा रहे नक्सलियों ने पं. बंगाल में ट्रेन को निशाना बनाकर 76 मुसाफिरों को मार डाला’। गोया भूख गरीबी अषिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे अब भारत के लिए चुनौती रहे ही नहीं बस नक्सली ही रह गए हैं।

वह तो गनीमत है कि कुछ दिन पहले ही एयर इंडिया का विमान मंगलौर में दुर्घटनाग्रस्त हुआ। कहीं इत्तेफाक से यह दंतेवाड़ा या मिदनापुर में दुर्घटनाग्रस्त हुआ होता तो हमारे मीडिया के धुरंधर इसका इलजाम भी नक्सलियों के सिर रखते। तमाषा यह है कि पूरे मीडिया ने नक्सलियों को दोष मढ़ने में तो कोई देरी नहीं की लेकिन भाकपा माओवादी के मयूरभंज-पूर्वी सिंहभूम बाॅर्डर एरियेा कमेटी के प्रवक्ता मंगल सिंह के इस बयान कि ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के विस्फोट में भाकपा माओवादी का हाथ नहीं हैं ऐसी घटनाओं से आम आदमी के साथ साथ माओवादी संगठन को भी नुकसान होता है ऐसी स्थिति में उनका संगठन ऐसी घटना को क्यों अंजाम देगा, को एक दो अखबारों ने ही कहीं कोने में लगाया। मीडिया के शोर में मंगल सिंह की यह आवाज कि ‘हम आम आदमी के हित में उनके अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करते हैं न कि उन्हें नुकसान पहुंचाने के लिए?’ दबकर रह गई।

सरडीहा दुर्घटना की एफआईआर में नक्सलवादियों का जिक्र न होने पर स्यापा करने वाले हमारे बड़े पत्रकार साथी क्या अपनी असली जिम्मेदारी पर भी ध्यान देंगे????

शनिवार, 8 मई 2010

फायदे से ज्यादा होगा नुकसान

फायदे से ज्यादा होगा नुकसान
अमलेंदु उपाध्याय


वर्श 2011 में होने वाली जनगणना के लिए जाति को भी आधार बनाए जाने के सवाल पर प्रमुख विपक्षी दल और सत्तारूढ़ दल उलझे हुए हैं। जहां जाति को आधार बनाए जाने की मांग करने वालों के अपने तर्क हैं तो वहीं इसकी खिलाफत करने वालों के भी अपने तर्क हैं लेकिन मजेदार बात यह है कि जाति के आधार पर जनगणना की मांग करने वाले लोग उन डाॅ. राम मनोहर लोहिया के षिश्य और वारिस होने का दावा करते हैं जिन डाॅ लोहिया ने ‘जाति तोड़ो - दाम बांधो’ का नारा दिया था।

हालांकि अगर जनगणना में जाति को भी एक आधार बना लिया जाएगा तो तैयारियों के लिहाज से कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा। लेकिन खुद सरकार के बड़े लोग इस मसले पर आपस में उलझे हुए लगते हैं। बताया जाता है कि कैबिनेट की बैठक में ही मंत्रीगण आपस में इस मसले पर बुरी तरह उलझ गए। जबकि भारतीय जनता पार्टी को इस बहाने आरएसएस का एजेंडा सदन में लागू करने और देषभक्ति के प्रमाणपत्र बांटने का अच्छा मौका हाथ लग गया। लेकिन इससे असल मुद्दा पीछे छूट गया।

वैसे समाजवादी धड़े से नाइत्तेफाकियों के बावजूद उनके तर्क में कुछ असर भी है। मसलन जब जनगणना में बहुत सी बेवजह बातों को भी पूछा जाता है तो जाति पूछने में हर्ज ही क्या है? एक समाजवादी नेता ने व्यक्तिगत बातचीत में कहा कि ‘कांग्रेस को इसमें परेषानी क्या है? यही कि पिछड़े तबके के लोगों को अपनी वस्तुस्थिति मालूम पड़ जाएगी और वह राजनीति और नौकरियों में अपनी ज्यादा हिस्सेदारी मांगेंगे?’ तर्क है जानदार। क्योंकि जाति की गणना होने पर नुकसान सवर्णाें को हो सकता है और देष भर में यह मांग उठ सकती है कि जब इनकी आबादी कम है तो यह नौकरियों में ज्यादा क्यों हैं,? यही कारण है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों अन्दरूनी तौर पर जाति की गणना कराए जाने के खिलाफ हैं क्योंकि दोनों ही दलों का नेतृत्व सवर्ण है और जो पिछड़ा और दलित नेतृत्व उनके यहां है भी तो वह केवल षो पीस है, निर्णय ले सकने की स्थिति में नहीं है।

हां जाति आधारित जनगणना का एक लाभ जरूर मिल सकता है। अभी हर जाति अपनी तादाद अपने हिसाब से बताती है और नौकरियों और राजनीति में हिस्सेदारी मांगती है। तब इस रंगदारी में थोड़ा फर्क पड़ेगा और यह बात साबित हो जाएगी कि पिछड़े तबके की जातियों के लोग 52 प्रतिषत हैं भी या नहीं।

लेकिन अगर निहित राजनीतिक स्वार्थों को छोड़कर बात की जाए तो जाति आधारित जनगणना के बहुत से दूरगामी दुश्परिणाम होंगे। पहली बात तो भारतीय समाज वैसे ही धोर जातिवादी है और हर जाति खुद को दूसरे से श्रेश्ठ साबित करने पर जुटी रहती है। ऐसी जनगणना से जाति के बंधन और मजबूत होंगे। जिस जाति प्रथा को तोड़ने और समाज में समरसता लाने की हवाई बातें बार बार की जाती हैं तब तो वह हवाई बातें भी होना बन्द हो जाएंगी। फिर हिन्दुओं में ही लगभग चार हजार जातियां हैं। इसके बाद हर जाति में किरोणीमल बैंसला और किरोड़ी लाल मीणा पैदा हो जाएंगे जो देष को चैन से नहीं बैठने देंगे। अभी तो बिहार में दलितों में महादलित और पिछड़ों में अति पिछड़े ही छांटे जा रहे हैं, तब हर जाति खुद को महादलित और लुप्तप्राय प्रजाति साबित करते हुए अधिक संरक्षण की मांग करेगी। जिसका दुश्परिणाम यह होगा कि देष का विकास और आर्थिक उन्नति की बातें पीछे छूट जाएंगी और जातिगत समीकरणों के लिहाज से ही महत्वपूर्ण फैसले होने लगेंगे।

इसका जो सबसे बड़ा खतरा है वह यह है कि राश्ट्रीय भावना का एकदम लोप हो जाएगा और राजनेता राश्ट्रहित की बातें न सोचकर जातिहित की ही बातें करने लगेंगेे। ऐसा स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलन के दौरान हो भी चुका है। इतिहास साक्षी है कि डाॅ भीमराव अम्बेडकर ने अंगेजों से कहा था कि वह देष छोड़कर तब तक न जाएं जब तक कि दलितों को हिन्दुओं के षोशण से मुक्ति न मिल जाए। और इस बहाने अंग्रेज इस देष में चैथाई सदी तक ज्यादा रुके रहे। जिसका खमियाजा हमने देष विभाजन के रूप में भी देखा और देष को जबर्दस्त नुकसान उठाने पड़े। अगर समाजवादी धड़ा इस बात की गारंटी दे कि इस तरह का कोई दुरूपयोग इस जनगणना का नहीं होगा तो जाति आधारित जनगणना भी कराई जा सकती है अन्यथा इसका फायदा तो बहुत कम होगा और देष को नुकसान बहुत बड़ा होगा ।


इस बहाने अंग्रेज इस देश में चौथाई सदी तक ज्यादा रूके रहे, जिसका खमियाजा हमने देश विभाजन के रूप में भी देखा और देश को जबरदस्त नुकसान उठाने पड़े। अगर समाजवादी धड़ा इस बात की गारंटी दे कि इस तरह का कोई दुरूपयोग इस जनगणना का नहीं होगा, तो जाति आधारित जनगणना भी कराई जा सकती है, अन्यथा इसका फायदा तो बहुत कम होगा। देश को नुकसान बहुत बड़ा होगा।

बुधवार, 5 मई 2010

सड़क पर दुष्मन संसद में यार

सड़क पर दुष्मन संसद में यार


अमलेन्दु उपाध्याय

अकसर कहा जाता है कि राजनीति में दो ओर दो चार नहीं होते हैं और राजनीति में जो दिखता है वह होता नहीं हैं और जो होता है वह दिखता नहीं है। इन कहावतों को एक बार फिर मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और मायावती ने विपक्ष के कटौती प्रस्ताव पर कांग्रेस का दामन थाम कर सही साबित कर दिया है। अभी कुल जमा चार दिन भी तो नहीं बीते हैं जब डॉ. अम्बेडकर के जन्म दिवस पर कार्यक्रम को लेकर कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी में उत्तर प्रदेष में जमकर युद्ध हुआ था और कांग्रेस के इतिहास की पुस्तक में डॉ. अम्बेडकर का जिक्र न होने और अम्बेडकर जयंती के कांग्रेसी पोस्टर पर अम्बेडकर का चित्र न होने पर बसपा ने कांग्रेस पर हमला बोला था।

उधर मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी और लालू प्रसाद यादव का कुनबा राश्ट्रीय जनता दल, न केवल महिला आरक्षण बिल पर किसी भी हद तक कांग्रेस के खिलाफ जाने पर आमादा थे बल्कि 27 अप्रैल को ही वामपंथी दलों द्वारा आहूत भारत बन्द में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे, वही सपा और राजद भी ठीक उसी दिन 27 अर्पैल को लोकसभा के अन्दर कांग्रेस के तारणहार बन बैठे। यानी सड़क पर कांग्रेस के विरोध में और सदन में कांग्रेस के एजेन्ट। इससे भी ज्यादा आष्चर्य इस बात पर है कि मायावती और मुलायम सिंह की रंजिष किसी से छिपी नहीं है। दोनों एक म्यान में दो तलवार की तरह साथ नहीं रह सकते। लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार बचाने के लिए दोनों को एक प्लेटफार्म पर आने से भी कोई एतराज नहीं रहा। माया मुलायम का ऐसा प्रेम भाव किसी समीकरण की वजह से नहीं है। बल्कि इसके पीछे दोनों के अपने अपने भय हैं और इस कदम के पीछे सबसे बड़ा कारक सीबीआई है।

याद होगा आईपीएल धोटाले की गूंज जब जोर षोर से हो रही थी ठीक उसी समय मायावती ने एक बहुत ही मार्मिक बयान दिया था कि सबको छोड़कर सीबीआई उनके पीछे ही पड़ी है। ठीक है कि मायावती ने आर्थिक गड़बड़ियां की हैं, लेकिन यूपीए सरकार के जो छह मंत्री आईपीएल घोटाले की जद में आ रहे थे उन पर सरकार की खामोषी न केवल मायावती के आरोपों को सही साबित करती है बल्कि कटौती प्रस्ताव पर लोकसभा में कांग्रेस के समर्थन के असल कारण को भी बिन बोले बयां कर देती है।

इसी तरह याद होगा लोकसभा चुनाव के समय कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का मायावती को धमकाने वाला बयान कि कांग्रेस के पास सीबीआई है काफी चर्चा में रहा था और उसके बाद देखने में आया कि जब जब मायावती ने कांग्रेस से पंगा लेने की या उसके षिकंजे से निकलने की जुर्रत करने की हिमाकत की सीबीआई का डंडा मायावती पर चलने लगा।

लालू प्रसाद यादव तो खैर हमेषा से सीबीआई के निषाने पर रहे हैं और कभी अपनों तो कभी गैरों के द्वारा सीबीआई से प्रताड़ित होते रहे हैं। जाहिर है कि जब लोकसभा में उनकी ताकत कम हो गई है औॅर कुछ महीनों बाद ही बिहार में विधानसभा का चुनाव होना है, ऐसे में भला क्यों लालू प्रसाद यादव कांग्रेस से पंगा लेकर अपने और अपने परिजनों के लिए मुसीबत खड़ा करना चाहेंगे? कुछ दिन पहले ही वह झारखण्ड में कांग्रेस का सीबीआई का तुरुप का पत्ता मधु कोड़ा पर चलते हुए देख ही चुके हैं।

लालू और माया जैसी ही कुछ मजबूरियां मुलायम सिंह की भी हैं। अपने अन्तःकरण से तो मुलायम सिंह कांग्रेस से दो हाथ करना भी चाहते हैं लेकिन सीबीआई का खौफ उन्हें भी पीछे धकेल देता है। मुलायम और उनके परिजनों के खिलाफ एक कांग्रेसी नेता विष्वनाथ चतुर्वेदी उर्फ मोहन की एक षिकायत पर आय से अधिक संपत्ति का मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। मजेदार बात यह है कि सीबीआई ने ही उन पर मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी थी लेकिन यूपीए पार्ट वन सरकार बचाने के लिए जिस तत्परता से मुलायम सिंह आगे आए उसका इनाम देते हुए वही सीबीआई कहने लगी कि अब मुकदमा चलाने की आवष्यकता नहीं है। इतना ही नहीं बल्कि बताया तो जाता है कि षिकायतकर्ता कांग्रेसी नेता विष्वनाथ चतुर्वेदी उर्फ मोहन उस दिन के बाद से अदालत ही नहीं पहुंचे हैं। अब अगर मुलायम सिंह कटौती प्रस्ताव पर कांग्रेस के खिलाफ मत दे देते तो सीबीआई को अदालत में यह कहने कि मुकदमा चलाने की जरूरत है और मोहन को अदालत में उपस्थित होने में कितना समय लगता, यह मुलायम सिंह अच्छी तरह जानते हैं। मुलायम सिंह पर ऐसे दबाव हैं। इसका पता उनके पुराने सखा रहे अमर सिंह की एक धमकी से चलता है। अभी कुछ दिन पहले अमर सिंह ने बयान दिया था कि यदि मुलायम के सिपहसालारों ने उनके (अमर) ऊपर हमले बन्द नहीं किए तो वह आय से अधिक संपत्ति के मामले में स्वयं अदालत पहुंचकर जांच मेें सहयोग करेंगे। देखने में आया कि इस बयान के बाद अमर सिंह के खिलाफ सपा नेताओं ने बोलना बन्द कर दिया। इसका मतलब है कि सीबीआई का कुछ न कुछ मामला है जरूर।

ल्ेाकिन उत्तर प्रदेष की जंग में इस घटनाक्रम का सबसे ज्यादा फायदा मुलायम सिंह को पहुंचा और केन्द्र में मनमोहन सरकार बचा ले जाने के बावजूद यूपी में सर्वाधिक नुकसान कांग्रेस को हुआ। लोकसभा चुनाव से ऐन पहले मुलायम सिंह की कुछ बड़ी गल्तियों का साीधा लाभ कांग्रेस को पहुंचा था और वह यूपी में एक बड़ी ताकत बनकर उभरी थी। उसके बाद प्रदेष कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोषी के मायावती के खिलाफ आग उगलते बयान ने कांग्रेस का ग्राफ काफी ऊंचा उठा दिया था जिसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस प्रत्याषी राज बब्बर फिरोजाबाद के उपचुनाव में मुलायम की पुत्रवधु को हराकर जीत गए। मायावती से रोज रोज की तू-तू, मैं-मैं से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में एक जोष आ गया था और राहुल बाबा के दलितों के धर जाकर भोजन करने की नौटंकी भी कुछ कमाल करती दिख रही थी और कांग्रेस का मिषन 2012 भी कुछ सफल होता दिख रहा था। लेकिन मनमोहन सरकार बचाने के लिए की गई कांग्रेसी जुगलबन्दी ने यूपी में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की कमर तोड़ कर रख दी। उन्हें लग रहा है कि सड़क पर तो कांग्रेसी नेतृत्व कार्यकताओं को मायावती की पुलिस की लाठियों से पिटवा रहा है और खुद दिल्ली में बैठकर मायावती की चिरौरी कर रहा हेै

कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की इसी उधेड़बुन का सर्वाधिक फायदा मुलायम सिंह को हुआ है। मायावती और कांग्रेस की तकरार से समाजवादी पार्टी बैकफुट पर जाने लगी थी और मायावती के विरोध के लोग कांग्रेस के साथ गोलबन्द होने लगे थे। लेकिन अब इस तबके का तेजी से कांग्रेस से मोहभंग होने लगा है और उसे लगने लगा है कि मायावती से लड़ाई तो मुलायम सिंह ही लड़ सकते हैं। इधर सपा ने भी 27 अप्रैल को भले ही भारत बन्द का नारा महंगाई और कांग्रेस के विरोध में दिया हो लेकिन सड़कों पर जिस तरह उसके कार्यकर्ता उतरे उन्होंने टारगेट कांग्रेस को कम और मायावती और राज्य सरकार को ही ज्यादा बनाया। नतीजतन बैकफुट पर जा रही सपा एक बार फिर फ्रन्टफुट पर आ गई और कांग्रेस अपने किए पर पछताने के लिए नेपथ्य में चली गई। भले ही कांग्रेसी इस बात पर खुष हो रहे हों कि उन्होंने विपक्ष के दांव को विफल करते हुए मनमोहन सिंह की सरकार बचा ली लेकिन यूपी की जंग में कांग्रेस ने जो खोया है उसकी भरपााई आने वाले बीस सालों में भी मुष्किल है। कांग्रेस ने यूपी में न केवल अपने कार्यकर्ताओं के अरमानों का गला धोटा है बल्कि रीता जोषी और दिग्विजय सिंह की मेहनत पर भी पानी फेर दिया है। अब राहुल बाबा चाहे कलावती के धर जाएं या जलवर्शा के उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है।