शुक्रवार, 18 जून 2010

दामन छुड़ाने की बेकरारी

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने प्रतिद्वन्दी लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के संबंधों को लेकर अभी कुछेक दिन पहले ही कहा था कि लालू जी पटना में कुछ बोलते हैं और दिल्ली में कुछ और। लेकिन अब यही बात नीतीश कुमार के ऊपर भी फिट बैठ रही है। नीतीश भी लुधियाना में कुछ करते हैं और पटना में अगर लुधियाना को याद कर लिया जाए तो उन्हें क्रोध आ जाता है।




पिछले दिनों पटना में आयोजित भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान नरेन्द्र मोदी और नीतीश का हाथ पकड़े लुधियाना के पोस्टर जारी होने पर नीतीश कुमार आग बबूला हो गए और एकबारगी तो ऐसा लगा कि जद-यू और भाजपा गठबंधन की गांठ खुलने की घड़ी आ गई है। लेकिन जैसा कि तय था यह जोड़ इतनी आसानी से नहीं टूटने वाला था और नहीं टूटा। हालांकि दोनों ही दल एक दूसरे से दामन छुड़ाना भी चाहते हैं क्योंकि यह गठबंधन स्वाभाविक नहीं है। दोनों के बीच सत्ता की मजबूरी है इसीलिए दोनों एक दूसरे से अलग होना तो चाहते हैं लेकिन हो नहीं पाते।

लोकसभा चुनाव में जद-यू को मिली अपार सफलता से नीतीश कुमार का हौसला एकाएक काफी बढ़ गया था और उन्हें लगने लगा था कि अगर दलित और मुसलमानों के वोट उनके लिए पक्के हो जाएं तो उन्हें भाजपा को ढोने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। लेकिन उसके बाद हुए उपचुनावों में लालू को मिली जबर्दस्त सफलता और जद-यू की करारी हार से नीतीश को हकीकत जल्दी ही समझ में आ गई। दरअसल लोकसभा चुनाव में मुसलमान वोट भाजपा की केन्द्र में बन रही संभावनाओं से घबराकर कांग्रेस की झोली में चला गया था जिसके चलते लालू को हार का मुंह देखना पड़ा और इसका सीधा फायदा जद-यू को हुआ। लेकिन विधानसभा चुनाव में निश्चित तौर पर यह स्थिति नहीं रहने वाली है। क्योंकि अब कांग्रेस उतना बड़ा फैक्टर नहीं होगी कि लालू को कुछ नुकसान और नीतीश को फायदा पहुंचा पाए। ऐसे में नीतीश की हरचंद कोशिश है कि उन्हें कुछ मुस्लिम वोट भी मिल जाएं। लेकिन भाजपा के मोदी प्रचार ने नीतीश की सारी संभावनाओं पर एकाएक पानी फेर दिया। इसी से आग बबूला नीतीश ने भाजपा नेताओं को दिया जाने वाला भोज भी रद्द कर दिया।



नीतीश-मोदी

नीतीश की नाराजगी भाजपा से इतनी नहीं थी जितना उन्हें मुस्लिम वोटों के छिटकने का डर था। इसीलिए उन्होंने पोस्टर छापने वालों के खिलाफ कानूनी धमकी दी। लेकिन इसमें भी चालाकी चली गई। नीतीश अच्छी तरह समझ गए हैं कि अकेले उन्हें सत्ता में वापसी करना नामुमकिन है और बाद में भी उन्हें भाजपा की आवश्यकता हो सकती है लेकिन मजबूरी यह है कि अगर थोड़ा मुस्लिम वोट नहीं मिला तो वापसी नामुमकिन है। इसलिए पोस्टर जारी करने वाली विज्ञापन एजेंसी के खिलाफ कार्रवाई की गई ताकि मोदी से नाराजगी का नाटक भी पूरा हो जाए और भाजपा से संबंध भी न बिगड़े। दूसरे नीतीश चाहते हैं कि भाजपा से पिंड तो छूटे लेकिन इसका इलजाम उनके सिर न आए बल्कि भाजपा के सिर ही यह ठीकरा फूटे।



उधर भाजपा की अपनी परेशानी यह है कि उसे राष्टीय पार्टी और कांग्रेस का विकल्प बनने के लिए उत्तर प्रदेश जैसे दोनों बड़े हिन्दी प्रदेशों में नम्बर एक बनना पड़ेगा। उत्तर प्रदेश में उसकी ऐसी कोई संभावना हाल फिलहाल नहीं है। वहां मायावती और मुलायम ने उसके लिए कोई स्पेस नहीं छोड़ा है और जो थोड़ा बहुत स्पेस बनता भी है उसे कांग्रेस छीने ले रही है। बचा बिहार। वहां भी वह अकेले कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है। वहां से नीतीश जैसा विश्वस्त सहयोगी उसे चाहिए। जिसके कंधे पर सवार होकर वह बिहार में अपनी नैया पार लगा सके। लेकिन बीच बीच में नीतीश की कांग्रेस से बढ़ती नजदीकियों की चर्चा और भाजपा से हाथ छुड़ाने की अकुलाहट से भगवा नेतृत्व चिंतित है। इसी के मद्देनजर भाजपा नेतृत्व एक विकल्प बनाकर रखना चाहता है कि अगर ऐन वक्त पर नीतीश बांह झटककर जाते हैं तो कम से कम उसकी छीछालेदर न हो और वह यह बता सके कि वह तो पहले से ही अकेले लड़ने को तैयार थी। इसी रणनीति के तहत भाजपा का दोयम दर्जे का नेतृत्व तो नीतीश के खिलाफ हमलावर रहा लेकिन पहली लाइन के नेताओं ने नीतीश के खिलाफ कुछ बोलने से बचना ही बेहतर समझा और नीतीश के स्थान पर अपने नेता सुशील मोदी की तारीफ के पुल बांधे और नीतीश को यह संदेश देने का प्रयास किया कि अगर वह जाना चाहते हैं तो जाएं। इस तरह भाजपा नेतृत्व ने एक कदम आगे दो कदम पीछे की रणनीति अपनाई और नीतीश ने भी भाजपा से झगड़ा करना उचित नहीं समझा और मामले को नीतीश बनाम नरेन्द्र मोदी बनाने का प्रयास किया और कहा कि उनका संबंध तो बिहार भाजपा से है, नरेन्द्र मोदी का बिहार में क्या काम है?



ऐसा नहीं है कि नीतीश को नरेन्द्र मोदी से कोई बड़ी नाराजगी है या वह उन्हें नापसन्द करते हैं या मोदी उनके लिए अछूत हैं। लेकिन क्या करें वोट बैंक जो सवाल है। वरना जब लुधियाना में वह नरेन्द्र मोदी से गलबाहियां कर रहे थे तब सिद्धान्त कहां चले गए थे? दूसरा नीतीश साबित क्या करना चाहते हैं? यही कि भाजपा पाक साफ है और केवल मोदी ही अछूत हैं? याद होगा लुधियाना से पटना लौटने पर मोदी के साथ हाथ मिलाने के प्रश्न पर नीतीश ने कितनी मासूमियत से उत्तर दिया कि जब मोदी ने हाथ पकड़ लिया तो क्या करता? जबकि नीतीश ने लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी को बिहार नहीं आने दिया था और कहा था कि वह मोदी के साथ एक मंच पर नहीं आएंगे। दरअसल राजनेताओं को यह गलतफहमी होती है कि जनता मूर्ख है और वह उसे जिस तरह हांकेंगे वह हंक जाएगी। लेकिन यह भ्रम ही है। जाहिर सी बात है कि नरेन्द्र मोदी संघ की पौधशाला की उपज हैं और उतने ही बड़े स्वयंसेवक हैं जितने बड़े वाजपेयी या अडवाणी। फिर मोदी से इतनी ही नाराजगी थी तो उन्हें बिहार सरकार ने राज्य के अतिथि का दर्जा क्यों दिया? यह तो वही बात हुई गुड़ खाए और गुलगुलों से परहेज!



दरअसल यह झगड़ा प्रायोजित कार्यक्रम था। भाजपा और नीतीश दोनों इस बात पर रजामंद थे कि ऐसा दिखाया जाए। ताकि भाजपा से मेलजोल के चलते नीतीश के मुस्लिम वोट पर कोई आंच नहीं आने पाए। इसमें दोनों कामयाब भी रहे। लेकिन जनता यह स्वीकार कर ले तभी यह प्रहसन कामयाब है। वैसे दोहरा चरित्र समाजवादियों का अन्तर्राष्ट्रीय चरित्र है। यह जर्मनी में हिटलर के साथ खड़े थे, डॉ. लोहिया जनसंघ के साथ खड़े थे, मुलायम सिंह कल्याण सिंह के साथ खड़े थे और नीतीश, शरद, जार्ज ,मोदी, तोगड़िया और अडवाणी के साथ खड़े हैं।

सोमवार, 14 जून 2010

सुधरते क्यों नहीं लाशों के सौदागर

भोपाल गैस कांड के सबसे बड़े मुजरिम वारेन एंडरसन को भारत से भगाने को लेकर आरोप- प्रत्यारोप का दौर जारी है। इस मामले में एकमात्र जीवित बचे अहम गवाह अर्जुन सिंह की चुप्पी और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का अपनी ही तत्कालीन केन्द्र सरकार पर अप्रत्यक्ष वार भी मामले को गम्भीर बना रहा है। इस राजनीति के खेल में असल सवाल पीछे छूटते जा रहे हैं और भोपाल के पीड़ितों के जख़्म और हरे होते जा रहे हैं। सवाल यह है कि अगर यह सच सामने आ भी जाए कि एंडरसन को भगाने में किसकी मुख्य भूमिका थी, तो क्या पीड़ितों के जख्म भर जाएंगे? क्या इससे एंडरसन भारत को मिल जाएगा?




मीडिया की रिपोर्ट्स में यह बात तो खुलकर सामने आ गई है कि एंडरसन को भगाने के लिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के आदेश थे। लेकिन अकेले अर्जुन सिंह के बल पर एंडरसन भारत छोड़कर नहीं भाग सकता था, जब तक कि केन्द्र सरकार का वरदहस्त उसे हासिल नहीं हो। भले ही आज अर्जुन सिंह उसी तरह का दबाव महसूस कर रहे हों जैसा कि एंडरसन को भगाते वक्त महसूस कर रहे थे, लेकिन एक बात तो साफ है कि अगर अर्जुन सिंह इसके अकेले गुनाहगार होते तो एंडरसन गिरफ्तार ही नहीं हुआ होता। फिर एंडरसन अकेले अर्जुन के दम पर तत्कालीन राष्ट्रपति का मेहमान नहीं बन सकता था।



अब भले ही कांग्रेसजन दलील दें कि तत्कालीन राज्य सरकार ने ही एंडरसन को भागने दिया। लेकिन यह राज्य सरकार थी किसकी ? कांग्रेस की ही न ? तो कांग्रेस अपनी नैतिक जिममेदारी से कैसे मुंह चुरा सकती है ? जो लोग कांग्रेसी कल्चर से वाकिफ हैं वह अच्छी तरह जानते हैं कि उस समय एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री की औकात गांधी दरबार में एक थाने के दरोगा से ज्यादा नहीं होती थी और इतना बड़ा फैसला लेने के बाद तो उसका मुख्यमंत्री बने रहना संभव ही नहीं था।



इसलिए एक बात तो साफ है कि एंडरसन को बचाने में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता, भले ही आरके धवन, जयंती नटराजन और सत्यव्रत चतुर्वेदी कुछ भी सफाई देते रहें। इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि अगर अर्जुन सिंह पर दबाव ज्ञानी जैल सिंह की तरफ से होता तो उन्हें जुबान खोलने में एक मिनट भी नहीं लगता। क्योंकि उस समय तक ज्ञानी जी की हैसियत आज से दो साल पहले तक के मनमोहन सिंह से ज्यादा नहीं थी। उनकी चुप्पी ही बयां कर रही है कि उनके ऊपर उस समय भी गांधी (राजीव) का दबाव था और आज भी गांधी ( सोनिया) का दबाव है। वैसे भी अर्जुन सिंह गांधी परिवार के बहुत वफादार रहे हैं इसलिए यह तय है कि वह मरते समय सच बोलकर अपनी जिन्दगी भर की वफादारी पर पानी नहीं फेरेंगे।



यह तो तय होता रहेगा कि एंडरसन को बचाने वाले कौन लोग थे। लेकिन अहम सवाल यह है कि भोपाल के पीड़ितों के साथ लगातार छल कौन कर रहा है? क्या कांग्रेस कर रही है या भाजपा कर रही है? ईमानदार उत्तर यही है कि दोनों ही अपनी ओछी हरकतों से आज भी बाज नहीं आ रहे हैं और दोनों ही छह लाख पीड़ितों के उतने ही गुनाहगार हैं जितना एंडरसन।



यूनियन कार्बाइड को खरीदने वाली डाउ कैमिकल्स को उसकी जिम्मेदारियों से मुक्ति तो मनमोहन सिंह सरकार ने ही दी है जबकि भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने अदालत के बाहर यूनियन कार्बाइड से तयशुदा रकम से काफी कम पर समझौता कर लिया। भारत सरकार ने मुआवजे के लिए 3.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर का मुकदमा दायर किया था लेकिन वाजपेयी सरकार ने 470 मिलियन अमेरिकी डॉलर पर ही उससे समझौता कर लिया। इतना ही नहीं डाउ कैमिकल्स से भारतीय जनता पार्टी ने चन्दा भी लिया और वह हिन्दुत्व की प्रयोगशाला गुजरात की मोदी टाइप अस्मिता में चार चांद लगा रही है।



आज एंडरसन को भारत लाना जितना जरूरी है उससे ज्यादा पीड़ितों का पुनर्वास और उनका उपचार जरूरी है। क्या कांग्रेस और भाजपा दोनों ही इस बात का उत्तर दे सकती हैं कि पिछले पच्चीस सालों में उनकी सरकारों ने गैस पीड़ितों के उपचार के लिए कितने नए अस्पताल खोले? कितने पीड़ितों को रोजगार मुहैया कराया?



इसलिए बेहतर यही है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही भोपाल की लाशों पर कम से कम अब तो राजनीति बन्द कर दें। क्योंकि कुदरत अपने तरीके से इंतकाम लेती है। ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं हैं। सारी दुनिया राजीव गांधी का हश्र देखा है। क्या यह भोपाल के पीड़ितों की आह का असर था? अगर ऐसा है तो लाशों के सौदागरों को सुधर जाना चाहिए।

मंगलवार, 8 जून 2010

15000 बेगुनाहों का पद्म भूषण हत्यारा

अस्सी के दशक में मेरठ के दंगों के बाद मशहूर शायर बशीर बद्र ने कहा था- 'तेग़ मुंसिफ हो जहां दारो रसन हो शाहिद/ बेगुनाह कौन है इस शहर में क़ातिल के सिवा?' (यानी जहां तलवार जज हो और फांसी का फंदा गवाह हो, उस शहर में क़ातिल के अलावा बेगुनाह कौन है)। अजब इत्तेफाक है कि बद्र साहब मेरठ को छोड़कर नवाबों के शहर भोपाल में जा बसे। लेकिन आज जब भोपाल गैस त्रासदी का 25 वर्ष बाद फैसला आया तो उनका मेरठ पर कहा गया शेर भोपाल पर भी फिट बैठा।




पन्द्रह हजार लोगों के क़ातिलों को 25 वर्ष चले मुकदमे के बाद महज दो साल की सजा सुनाई गई जिसे कुल जमा 25 हजार रुपये के मुचलके पर उन्हें तत्काल रिहा भी कर दिया गया। तमाशा यह है कि भोपाल के सबसे बड़े मुजरिम एंडरसन को भारत सरकार आज तक अमरीका से मांगने की जुर्रत भी नहीं कर पाई। भगोड़ा एंडरसन भारत सरकार और भोपाल गैस पीड़ितों को मुंह चिढ़ाते हुए आज भी अमरीका में ऐश-ओ-आराम से रह रहा है और हमारे प्रधानमंत्री जब अमरीका जाते हैं तो जॉर्ज बुश को भारत का प्यार देकर आते हैं ताकि फिर कोई यूनियन कार्बाइड भोपाल कांड को अंजाम दे। जबकि भोपाल के पीड़ित हर पल तड़प् तड़प् कर जी रहे हैं और पिछले पच्चीस सालों से सजा भुगत रहे हैं।



भोपाल गैस त्रासदी पर आया अदालत का फैसला हमारे लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था के मुंह पर करारा तमाचा है। इस फैसले ने साबित कर दिया है कि मुल्क में ताकतवर अमीरों के लिए कानून अलग ढंग से काम करता है और जिस न्यायपालिका के निष्पक्ष होने का ढिंढोरा पीटा जाता है वह दुनिया का सबसे बड़ा झूठ है। क्या न्यायपालिका क्या सरकार क्या सीबीआई सब के सब भोपाल के क़ातिलों के हक़ में खड़े दिखाई दिए हैं।



मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा है कि वह सजा बढ़वाए जाने के लिए कानून बनाए जाने का अनुरोध प्रधानमंत्री से करेंगे और कानून मंत्री वीरप्पा मोइली भी कड़ी सजा दिलाए जाने की बात कर रहे हैं। लेकिन जब तक यह कानून बनेगा (पता नहीं कब बनेगा?) भोपाल के बेगुनाहों के क़ातिल आरामतलब ज़िन्दगी पूरी करके अल्लाह को प्यारे हो चुके होंगे और पीड़ितों की आने वाली नस्लें भी सजा भुगत रही होंगी?



आज भले ही कानून मंत्री वीरप्पा मोइली कह रहे हों कि यह फैसला पीड़ितों के साथ मज़ाक है लेकिन यह भी कड़वा सच है कि यह मजाक करवाने के लिए भी तत्कालीन और वर्तमान कांग्रेसी सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं है। आखिर कैसे बिना तत्कालीन कांग्रेस सरकार के सहयोग के मुख्य हत्यारा एंडरसन भारत छोड़कर भाग निकला? कैसे बिना सरकार के सहयोग के यूनियन कार्बाइड अपना हिस्सा बेचने में सफल हो गई? जाहिर है क़ातिलों के हाथ बहुत लम्बे थे इतने लम्बे कि उच्चतम न्यायालय का एक फैसला भी उनको बचाने में मददगार ही साबित हुआ।



भोपाल का फैसला हमारे पूरे सिस्टम पर सवालिया निशान लगाता है। इस फैसले से न्यायपालिका की भी साख गिरी है। सीबीआई और सरकार को तो लोग क़ातिलों के हमराही मान ही चुके हैं लेकिन उच्चतम न्यायालय की साख को भी बट्टा लगा है। सवाल यहां सियासी जमातों से हो सकता है कि अफजल गुरू को फांसी के फंदे पर लटकवा देने को बेकरार लोगों की जुबां पर पिछले पच्चीस सालों में एक बार भी एंडरसन को फांसी पर चढ़ा देने की बात क्यों नहीं आई? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि अफजल की फांसी से कुछ सियासतदानों को फायदा हो सकता है और भोपाल के बेगुनाहों के क़ातिलों को सजा मिलने से सियासी फायदा नहीं होगा?



भारत सरकार रोज पाकिस्तान से हाफिज़ सईद और लखवी को मांगती है। लेकिन क्या एक बार भी एंडरसन को अमरीका से मांगने का हौसला दिखाया गया। अमरीका से परमाणु करार करने के लिए अपनी सरकार को दांव पर लगा देने वाले अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री क्यों अमरीका से यह कहने का हौसला नहीं जुटा पाए कि जब तक हमें एंडरसन नहीं दोगे तुमसे कोई बात नहीं होगी? सईद और लखवी तो फिर भी कुछ लोगों को मारने के लिए अपने कुछ लोगों को मरवाते भी हैं लेकिन एंडरसन तो एक रात में पन्द्रह हजार लोगों का क़त्ल कर देता है। एंडरसन निश्चित रूप से लखवी और सईद और लादेन से बड़ा हत्यारा है।



दो दिसंबर 1982 के बाद से इस मुल्क में कई दफा कांग्रेस की सरकार रही, भारतीय जनता पार्टी की सरकार रही, राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा की सरकार रही लेकिन किसी भी सरकार ने क़ातिलों को सजा दिलाना तो दूर बल्कि उन्हें महिमामंडित किया। सजायाफ्ता हत्यारों में से एक केशव महिन्द्रा, जो त्रासदी के समय यूनियन कार्बाइड का चेयरमैन था, की सत्ता के गलियारों में तूती बोलती रही। भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद आज सरकार से भोपाल कांड के फैसले के आलोक में भले ही परमाणु दायित्व विधेयक पर चर्चा की मांग कर रहे हों लेकिन राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने वाली भारतीय जनता पार्टी की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने वर्ष 2002 में इसी केशव महिन्द्रा को पद्म भूषण पुरस्कार देने का ऐलान किया था। क्या तब वाजपेयी सरकार को नहीं मालूम था कि केशव महिन्द्रा पर भोपाल के 15000 बेगुनाहों के क़त्ल का मुकदमा चल रहा है?



महिन्द्रा का सफ़र यहीं खत्म नहीं होता है। वह सरकार की कई बड़ी महत्वपूर्ण और निर्णायक समितियों का भी सम्मानित सदस्य रहा है। वह ‘सेन्ट्रल एडवायजरी काउन्सिल ऑफ इंडस्ट्रीज' का सदस्य और कम्पनी मामलों के महत्वपूर्ण आयोग ‘सच्चर कमीशन ऑन कम्पनी लॉ एण्ड एमआरटीपी’ का सदस्य रहा। इससे भी बढ़कर बात यह है कि महिन्द्रा, प्रधानमंत्री की व्यापार और उद्योग पर बनी सलाहकार परिषद का सदस्य रहा है। अब समझा जा सकता है कि कैसे यह फैसला आने में पच्चीस साल लग गए? एंडरसन और केशव महिन्द्रा का गैंग भविष्य की विश्व की आर्थिक शक्ति बनते भारत (जिसका दावा प्रधानमंत्री और उनके प्रशंसक करते हैं) का मज़ाक उड़ा रहा है। क्या आपने भी सुना मनमोहन सिंह जी????