सोमवार, 30 अगस्त 2010

हिन्दुत्व की अवधारणा ही आतंकी है

हिन्दुत्व की अवधारणा ही आतंकी है
अमलेन्दु उपाधयाय
कांग्रेस के साथ आरंभ से दिक्कत यह रही है कि वह किसी भी मुद्दे पर कोई भी स्टैण्ड चुनावी गुणा भाग लगाकर लेती है और अगर मामला गांधी नेहरू खानदान के खिलाफ न हो तो उसे पलटी मारने में तनिक भी हिचक नहीं होती है। उसकी इसी कमजोरी का फायदा उठाकर देश में सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतें अपना विस्तार करती रही हैं और कांग्रेस फौरी नुकसान देखकर अहम मसलों पर अपने कदम पीछे हटाती रही है जिसका बड़ा नुकसान अन्तत: देश को उठाना पड़ा है। कुछ ऐसा ही मामला फिलहाल 'भगवा आतंकवाद' के मसले पर हुआ जब राज्य पुलिस महानिदेशकों के एक तीन दिवसीय सम्मेलन में गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने धयान दिलाया कि देश में भगवा आतंकवाद भी है। बस भगवा गिरोह ने जब शोर मचाना शुरू किया तो कांग्रेस बैकफुट पर आ गई और चिदंबरम से उसने अपना पिण्ड छुड़ा लिया। नतीजतन हिन्दुत्ववादी  आतंकवादियों  के हौसले बुलन्द हैं।
    यहां सवाल यह है कि क्या वास्तव में भगवा आतंकवाद जैसा कुछ है? और क्या आतंकवाद का कोई धर्म होता है? जाहिर सी बात है कि समझदार लोगों का जवाब यही होगा कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और न कोई रंग होता है। लेकिन चिदंबरम ने जो कहा उससे भी असहमत होना आसान नहीं है। चिदंबरम के शब्द प्रयोग में असावधानी हो सकती है लेकिन भावना एकदम सही है। जिस आतंकवाद की तरफ चिदंबरम ने इशारा किया उसकी आमद तो आजादी के तुरंत बाद हो गई थी और इस आतंकवाद ने सबसे पहली बलि महात्मा गांधी की ली। उसके बाद भी यह धीरे धीरे बढ़ता रहा और 6 दिसम्बर 1992 को इसका विशाल रूप सामने आया।
    हाल ही में जब साध्वी प्रज्ञा, दयानन्द पाण्डेय और कर्नल पुरोहित नाम के दुर्दान्त आतंकवादी पकड़े गए तब यह फिर साबित हो गया कि ऐसा आतंकवाद काफी जड़ें जमा चुका है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी का चिदंबरम के बयान पर हो- हल्ला मचाना 'चोर की दाड़ी में तिनका' वाली कहावत को चरितार्थ करता है।
    पहली बात  तो यह है कि भगवा रंग पर किसी राजनीतिक दल का अधिकार नहीं है और न करने दिया जाएगा। यह हमारी सदियों पुरानी आस्था का रंग है। लेकिन चिदंबरम के बयान के बाद भाजपा और संघ यह दर्शाने का प्रयास कर रहे हैं गोया भगवा रंग उनका ही हो। अगर ऐसा है तो भाजपा का झण्डा भगवा क्यों नहीं है?
    अब संघी भाई कह रहे हैं कि हिन्दू कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता। बात सौ फीसदी सही है और हम भी यही कह रहे हैं कि हिन्दू आतंकवादी नहीं हो सकता और आतंकवादी गतिविधिायों में जो आतंकवादी पकड़े गए हैं या अभी पकड़ से बाहर हैं वह किसी भी हाल में हिन्दू नहीं हो सकते वह तो 'हिन्दुत्व' की शाखा के हैं। दरअसल 'हिन्दुत्व' की अवधारणा ही आतंकी है और उसका हिन्दू धर्म से कोई लेना देना नहीं है। कोई भी धर्मग्रंथ, वेद, पुराण, गीता रामायण हिन्दुत्व की बात नहीं करता न किसी भी धर्मग्रंथ में 'हिन्दुत्व' शब्द का प्रयोग किया गया है।
हिन्दुत्व एक राजनीतिक विचार धारा है जिसकी बुनियाद फिरकापरस्त, देशद्रोही और अमानवीय है। आज हमारे संधी जिस हिन्दुत्व के अलम्बरदार बन रहे हैं, इन्होंने भी इस हिन्दुत्व को विनायक दामोदर सावरकर से चुराया है। जो अहम बात है कि सावरकर का हिन्दुत्व नास्तिक है और उसकी ईश्वर में कोई आस्था नहीं है। जबकि हिन्दू धर्म पूर्णत: आस्तिक है। उसकी विभिन्न शाखाएं तो हैं लेकिन ईश्वर में सभी हिन्दुओ की आस्था है। लिहाजा ईश्वर के बन्दे आतंकी तो नहीं हो सकते पर जिनकी ईश्वर में आस्था नहीं है वही आतंकी हो सकते हैं। 
    जो अहम बात है कि हिन्दू धर्म या किसी भी धर्म के साथ कोई 'वाद' नहीं जुड़ा है क्योंकि 'वाद' का कंसेप्ट ही राजनीतिक होता है जबकि 'हिन्दुत्व' एक वाद है। और आतंकवाद भी एक राजनीतिक विचार है। दुनिया में जहां कहीं भी आतंकवाद है उसके पीछे राजनीति है। दरअसल आतंकवाद, सांप्रदायिकता के आगे की कड़ी है। जब धर्म का राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए हथियार की तरह प्रयोग किया जाता है तब सांप्रदायिकता का उदय होता है और जब सांप्रदायिकता के जुनून को पागलपन की हद तक ले जाया जाता है तब आतंकवाद पैदा होता है। 
 भारत में भी जिसे भगवा आतंकवाद कहा जा रहा है वस्तुत: यह 'हिन्दुत्ववादी आतंकवाद'  है, जिसे आरएसएस और उसके आनुषंगिक संगठन पालते पोसते रहे हैं। संघ की शाखाओं में बाकायदा आतंकवादी प्रशिक्षित किए जाते हैं जहां उन्हें लाठी- भाला चलाना और आग्नेयास्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। दशहरे वाले दिन आतंकवादी अपने हथियारों की शस्त्र पूजा करते हैं।
    फिर प्रतिप्रश्न यह है कि भाजपा और संघ को चिदंबरम के बयान पर गुस्सा क्यों आता है? 'मजहबी आतंकवाद', 'जिहादी आतंकवाद' और 'वामपंथी उग्रवाद' जैसे शब्द तो संघ के शब्दकोष की ही उपज हैं न! अगर मजहबी आतंकवाद होता है तो भगवा आतंकवाद क्यों नहीं हो सकता? अगर वामपंथी उग्रवाद होता है तो दक्षिणपंथ का तो मूल ही उग्रवाद है। अगर 'जिहादी आतंकवाद' और 'इस्लामिक आतंकवाद' का अस्तित्व है तब तो 'भगवा आतंकवाद' भी है। अब यह तय करना भाजपा- आरएसएस का काम है कि वह 'किस आतंकवाद' को मानते हैं?

सोमवार, 16 अगस्त 2010

ममता माओवादी !

ममता माओवादी !
इस दहर में सब कुछ है पर इन्साफ नहीं है।



इन्साफ हो किस तरह कि दिल साफ नहीं है।



राजनीति के विषय में अक्सर कई कहावतें सुनने को मिलती हैं। जैसे राजनीति में दो और दो चार नहीं होते या राजनीति में कुछ सही गलत नहीं होता या फिर राजनीति और अवसरवादिता एक दूसरे के पर्याय हैं। राजनीति के इन मुहावरों और सिद्धान्तहीन – अवसरवादी राजनीति की ताजा मिसाल रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी ने हाल ही में पेश की है। एक समय में अटल बिहारी वाजपेयी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार की आंखों का तारा रहीं और हिन्दू हृदय सम्राट नरेन्द्र मोदी के कारनामों को समर्थन देने वाली ममता दीदी अब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पार्ट-2 में प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह और संप्रग मुखिया सोनिया गांधी के जिगर का टुकड़ा हैं।



बीती नौ अगस्त को पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में एक रैली में ममता दीदी का प्यार गृह मंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दुश्मन न. एक माओवादियों के लिए उमड़ पड़ा। ममता ने लालगढ़ में ऐलान किया कि माओवादी नेता आजाद का फर्जी एनकाउन्टर किया गया है। बात सही भी हो सकती है क्योंकि ममता केन्द्र सरकार में महत्वपूर्ण पद पर आसीन हैं और सरकार के अन्दर जो चलता है उसकी पल पल की जानकारी उन्हें रहती है। क्योंकि आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है और लोग अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस की प्रदेश सरकारें अपने हाईकमान के इशारे पर ही चलती हैं। लिहाजा जब दीदी कह रही हैं कि आजाद का फर्जी एन्काउन्टर हुआ, तो यकीन न करने का भला कौन सा कारण हो सकता है?



लेकिन सवाल यह है कि दीदी जो बात आज सरेआम कह रही हैं वह उन्होंने सरकार के अन्दर क्यों नहीं की? दूसरा जब आजाद का फर्जी एन्काउन्टर करने का षड्यन्त्र रचा जा रहा था उस समय दीदी ने आजाद को बचाने का प्रयास क्यों नहीं किया? इसलिए ममता को अपने गिरेबान में भी झांक कर देखना चाहिए कि आजाद की हत्या के लिए जितने दोषी मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और चिदंबरम हैं, ममता उनसे कम गुनाहगार नहीं हैं। क्योंकि मनमोहन सरकार को बैसाखी अब ममता दीदी की लगी हैं उनके दुश्मन माकपाइयों की नहीं। इसलिए अगर आजाद का फर्जी एन्काउन्टर हुआ है, जैसा कि दीदी का आरोप है और अपना भी मानना है, तो आजाद की हत्या के जुर्म से ममता भी बरी नहीं हो सकती हैं।



लोगों को याद होगा कि जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस हादसा हुआ था उस समय ममता बनर्जी ही वह पहली शख्स थीं जिन्होंने आरोप लगाया था कि ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को विस्फोट से उड़ाया गया है और उन्होंने माओवादियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया था। जबकि गृह मंत्रालय ने साफ कहा था कि विस्फोट के कोई सुबूत नहीं है। यानी जब जरूरत होगी तब ममता माओवादियों को हत्यारा भी कहेंगी और जब जरूरत होगी तब उनके समर्थन से रैली भी करेंगी। यह राजनीति की बेशर्म अवसरवादिता का जीता जागता उदाहरण है।



ममता बनर्जी का यह कोई नया कारनामा नहीं है। वह इससे पहले भी ऊट-पटांग हरकतें करती रही हैं। याद है न समाजवादी पार्टी के तत्कालीन महासचिव अमर सिंह के साथ दिल्ली के जामियानगर में ममता गईं थीं और उन्होंने बटला हाउस एन्काउन्टर को फर्जी करार दिया था और मौके पर ही कुछ पत्रकारों की पिटाई भी करवा दी थी। लेकिन लोकसभा चुनाव में वह बटला हाउस फर्जी मुठभेड़ के लिए जिम्मेदार कांग्रेस के साथ ही मैदान में उतरीं।



मीडिया में जो खबरें आई हैं उनके अनुसार ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस हादसे के मुख्य आरोपियों में से कई ममता की रैली की कमान संभाल रहे थे। इतना ही नहीं ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस की दुर्घटना के लिए जिस पीसीपीए को दोशी ठहराया जा रहा है, ममता की रैली उसी पीसीपीए के बैनर तले हुई। ममता के बहाने सवाल तो गृह मंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और माओवादी नेता किशन जी से भी हो सकते हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब चिदंबरम माओवादियों का समर्थन करने वाले बुद्धिजीवियों को पुलिसिया भाषा में हड़का रहे थे। अब चिदम्बरम साहब माओवादियों की खुलकर हिमायत करने वाली ममता बनर्जी के खिलाफ क्या कदम उठाएंगे? नक्सलवाद को देश का दुश्मन न. एक करार देने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्या ममता बनर्जी को अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने और उनके माओवादियों से संबंधों की जांच कराने की हिम्मत जुटा पाएंगे? लालगढ़ दौरे पर जाकर मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को कानून व्यवस्था का उपदेश देने वाले गृह मंत्री क्या अपनी मंत्रिमंडलीय सहयोगी को भी कुछ ज्ञान देंने की जहमत उठाएंगे?



जो अहम सवाल है वह माओवादी नेता किशन जी और पूरे माओवादी नेतृत्व से है। माओवादी लगातार माकपा और भाकपा को इसलिए कोसते रहे हैं कि इन दोनों दलों ने संसदीय जनतंत्र का रास्ता अपना लिया है। जहां तक माकपा-भाकपा और माओवादियों के अन्तिम लक्ष्य का सवाल है, दोनों के लक्ष्य में कोई अन्तर नहीं है, झगड़ा लक्ष्य को पाने के रास्ते का है। क्या किशन जी यह बता सकते हैं कि नरेन्द्र मोदी का समर्थन करने वाली, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की जिगर का टुकड़ा रहीं ममता बनर्जी का समर्थन करने से देश में साम्यवाद आ जाएगा? क्या जिस संसदीय जनतंत्र को माओवादी लगातार कोसते रहे हैं, उनका यह कदम उसी भ्रष्ट व्यवस्था को पोषित करने वाला नहीं है? क्या यही नई जनवादी क्रांति है? क्या किशन जी यह गारंटी दे सकते हैं कि माकपा को उखाड़ कर और तृणमूल कांग्रेस को सत्ता में लाकर माओवादियों का लक्ष्य पूरा हो जाएगा? अब यह तय करना माओवादी नेतृत्व का काम है कि क्या वह ममता बनर्जी के साथ खड़े होकर देश भर में अपने समर्थकों को खोना चाहेंगे?



नौ अगस्त की लालगढ़ रैली ने सवाल तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश और मेधा पाटकर के लिए भी खड़े किए हैं। अभी तक दोनों ही लोग स्वयं को सामाजिक कार्यकर्ता घोषित करते आए हैं। लेकिन ममता बनर्जी के साथ उनका मंच साझा करना उनकी नीयत पर भी सवाल खड़ा करता है। एक आरोप अक्सर लगता रहा है कि देश के अन्दर कम्युनिस्ट पार्टियों के खिलाफ पूंजीवादी ताकतें पिछले दरवाजे से काम कर रही हैं और अब माओवादी भी जाने अनजाने इन ताकतों के हाथ का खिलौना बन रहे हैं। यह आरोप ममता की लालगढ़ रैली के बाद अब काफी हद तक सही लगने लगा है। अगर स्वामी अग्निवेश, मेधा पाटकर, ममता और माओवादी एक साझे मंच पर आते हैं तो क्या कहा जाएगा?



ममता बनर्जी का ताजा बयान सिर्फ राजनीतिक अवसरवादिता की ही बानगी नहीं है, बल्कि यह मौजूदा मनमोहन सरकार के ऊपर कई सवालिया निशान लगाती है। ममता रेल मंत्री हैं और किसी भी मंत्री का बयान पूरे मंत्रिमंडल का बयान समझा जाता है। यूपीए-2 के ही कई मंत्रियों को मंत्रिमंडल की भावना के खिलाफ जाकर बयानबाजी करने के कारण सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पड़ी है। क्या प्रधानमंत्री ममता से भी माफी मंगवाएंगे? अगर नही तो यही संदेश जाएगा कि केन्द्र सरकार का भी मानना है कि आजाद का एन्काउन्टर नहीं हुआ है बल्कि हत्या हुई है। अब गेंद प्रधानमंत्री के पाले में है। देखना अब यह है कि प्रधानमंत्री में कितना दम है?