सोमवार, 14 जून 2010

सुधरते क्यों नहीं लाशों के सौदागर

भोपाल गैस कांड के सबसे बड़े मुजरिम वारेन एंडरसन को भारत से भगाने को लेकर आरोप- प्रत्यारोप का दौर जारी है। इस मामले में एकमात्र जीवित बचे अहम गवाह अर्जुन सिंह की चुप्पी और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का अपनी ही तत्कालीन केन्द्र सरकार पर अप्रत्यक्ष वार भी मामले को गम्भीर बना रहा है। इस राजनीति के खेल में असल सवाल पीछे छूटते जा रहे हैं और भोपाल के पीड़ितों के जख़्म और हरे होते जा रहे हैं। सवाल यह है कि अगर यह सच सामने आ भी जाए कि एंडरसन को भगाने में किसकी मुख्य भूमिका थी, तो क्या पीड़ितों के जख्म भर जाएंगे? क्या इससे एंडरसन भारत को मिल जाएगा?




मीडिया की रिपोर्ट्स में यह बात तो खुलकर सामने आ गई है कि एंडरसन को भगाने के लिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के आदेश थे। लेकिन अकेले अर्जुन सिंह के बल पर एंडरसन भारत छोड़कर नहीं भाग सकता था, जब तक कि केन्द्र सरकार का वरदहस्त उसे हासिल नहीं हो। भले ही आज अर्जुन सिंह उसी तरह का दबाव महसूस कर रहे हों जैसा कि एंडरसन को भगाते वक्त महसूस कर रहे थे, लेकिन एक बात तो साफ है कि अगर अर्जुन सिंह इसके अकेले गुनाहगार होते तो एंडरसन गिरफ्तार ही नहीं हुआ होता। फिर एंडरसन अकेले अर्जुन के दम पर तत्कालीन राष्ट्रपति का मेहमान नहीं बन सकता था।



अब भले ही कांग्रेसजन दलील दें कि तत्कालीन राज्य सरकार ने ही एंडरसन को भागने दिया। लेकिन यह राज्य सरकार थी किसकी ? कांग्रेस की ही न ? तो कांग्रेस अपनी नैतिक जिममेदारी से कैसे मुंह चुरा सकती है ? जो लोग कांग्रेसी कल्चर से वाकिफ हैं वह अच्छी तरह जानते हैं कि उस समय एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री की औकात गांधी दरबार में एक थाने के दरोगा से ज्यादा नहीं होती थी और इतना बड़ा फैसला लेने के बाद तो उसका मुख्यमंत्री बने रहना संभव ही नहीं था।



इसलिए एक बात तो साफ है कि एंडरसन को बचाने में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता, भले ही आरके धवन, जयंती नटराजन और सत्यव्रत चतुर्वेदी कुछ भी सफाई देते रहें। इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि अगर अर्जुन सिंह पर दबाव ज्ञानी जैल सिंह की तरफ से होता तो उन्हें जुबान खोलने में एक मिनट भी नहीं लगता। क्योंकि उस समय तक ज्ञानी जी की हैसियत आज से दो साल पहले तक के मनमोहन सिंह से ज्यादा नहीं थी। उनकी चुप्पी ही बयां कर रही है कि उनके ऊपर उस समय भी गांधी (राजीव) का दबाव था और आज भी गांधी ( सोनिया) का दबाव है। वैसे भी अर्जुन सिंह गांधी परिवार के बहुत वफादार रहे हैं इसलिए यह तय है कि वह मरते समय सच बोलकर अपनी जिन्दगी भर की वफादारी पर पानी नहीं फेरेंगे।



यह तो तय होता रहेगा कि एंडरसन को बचाने वाले कौन लोग थे। लेकिन अहम सवाल यह है कि भोपाल के पीड़ितों के साथ लगातार छल कौन कर रहा है? क्या कांग्रेस कर रही है या भाजपा कर रही है? ईमानदार उत्तर यही है कि दोनों ही अपनी ओछी हरकतों से आज भी बाज नहीं आ रहे हैं और दोनों ही छह लाख पीड़ितों के उतने ही गुनाहगार हैं जितना एंडरसन।



यूनियन कार्बाइड को खरीदने वाली डाउ कैमिकल्स को उसकी जिम्मेदारियों से मुक्ति तो मनमोहन सिंह सरकार ने ही दी है जबकि भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने अदालत के बाहर यूनियन कार्बाइड से तयशुदा रकम से काफी कम पर समझौता कर लिया। भारत सरकार ने मुआवजे के लिए 3.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर का मुकदमा दायर किया था लेकिन वाजपेयी सरकार ने 470 मिलियन अमेरिकी डॉलर पर ही उससे समझौता कर लिया। इतना ही नहीं डाउ कैमिकल्स से भारतीय जनता पार्टी ने चन्दा भी लिया और वह हिन्दुत्व की प्रयोगशाला गुजरात की मोदी टाइप अस्मिता में चार चांद लगा रही है।



आज एंडरसन को भारत लाना जितना जरूरी है उससे ज्यादा पीड़ितों का पुनर्वास और उनका उपचार जरूरी है। क्या कांग्रेस और भाजपा दोनों ही इस बात का उत्तर दे सकती हैं कि पिछले पच्चीस सालों में उनकी सरकारों ने गैस पीड़ितों के उपचार के लिए कितने नए अस्पताल खोले? कितने पीड़ितों को रोजगार मुहैया कराया?



इसलिए बेहतर यही है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही भोपाल की लाशों पर कम से कम अब तो राजनीति बन्द कर दें। क्योंकि कुदरत अपने तरीके से इंतकाम लेती है। ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं हैं। सारी दुनिया राजीव गांधी का हश्र देखा है। क्या यह भोपाल के पीड़ितों की आह का असर था? अगर ऐसा है तो लाशों के सौदागरों को सुधर जाना चाहिए।

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