मंगलवार, 8 जून 2010

15000 बेगुनाहों का पद्म भूषण हत्यारा

अस्सी के दशक में मेरठ के दंगों के बाद मशहूर शायर बशीर बद्र ने कहा था- 'तेग़ मुंसिफ हो जहां दारो रसन हो शाहिद/ बेगुनाह कौन है इस शहर में क़ातिल के सिवा?' (यानी जहां तलवार जज हो और फांसी का फंदा गवाह हो, उस शहर में क़ातिल के अलावा बेगुनाह कौन है)। अजब इत्तेफाक है कि बद्र साहब मेरठ को छोड़कर नवाबों के शहर भोपाल में जा बसे। लेकिन आज जब भोपाल गैस त्रासदी का 25 वर्ष बाद फैसला आया तो उनका मेरठ पर कहा गया शेर भोपाल पर भी फिट बैठा।




पन्द्रह हजार लोगों के क़ातिलों को 25 वर्ष चले मुकदमे के बाद महज दो साल की सजा सुनाई गई जिसे कुल जमा 25 हजार रुपये के मुचलके पर उन्हें तत्काल रिहा भी कर दिया गया। तमाशा यह है कि भोपाल के सबसे बड़े मुजरिम एंडरसन को भारत सरकार आज तक अमरीका से मांगने की जुर्रत भी नहीं कर पाई। भगोड़ा एंडरसन भारत सरकार और भोपाल गैस पीड़ितों को मुंह चिढ़ाते हुए आज भी अमरीका में ऐश-ओ-आराम से रह रहा है और हमारे प्रधानमंत्री जब अमरीका जाते हैं तो जॉर्ज बुश को भारत का प्यार देकर आते हैं ताकि फिर कोई यूनियन कार्बाइड भोपाल कांड को अंजाम दे। जबकि भोपाल के पीड़ित हर पल तड़प् तड़प् कर जी रहे हैं और पिछले पच्चीस सालों से सजा भुगत रहे हैं।



भोपाल गैस त्रासदी पर आया अदालत का फैसला हमारे लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था के मुंह पर करारा तमाचा है। इस फैसले ने साबित कर दिया है कि मुल्क में ताकतवर अमीरों के लिए कानून अलग ढंग से काम करता है और जिस न्यायपालिका के निष्पक्ष होने का ढिंढोरा पीटा जाता है वह दुनिया का सबसे बड़ा झूठ है। क्या न्यायपालिका क्या सरकार क्या सीबीआई सब के सब भोपाल के क़ातिलों के हक़ में खड़े दिखाई दिए हैं।



मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा है कि वह सजा बढ़वाए जाने के लिए कानून बनाए जाने का अनुरोध प्रधानमंत्री से करेंगे और कानून मंत्री वीरप्पा मोइली भी कड़ी सजा दिलाए जाने की बात कर रहे हैं। लेकिन जब तक यह कानून बनेगा (पता नहीं कब बनेगा?) भोपाल के बेगुनाहों के क़ातिल आरामतलब ज़िन्दगी पूरी करके अल्लाह को प्यारे हो चुके होंगे और पीड़ितों की आने वाली नस्लें भी सजा भुगत रही होंगी?



आज भले ही कानून मंत्री वीरप्पा मोइली कह रहे हों कि यह फैसला पीड़ितों के साथ मज़ाक है लेकिन यह भी कड़वा सच है कि यह मजाक करवाने के लिए भी तत्कालीन और वर्तमान कांग्रेसी सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं है। आखिर कैसे बिना तत्कालीन कांग्रेस सरकार के सहयोग के मुख्य हत्यारा एंडरसन भारत छोड़कर भाग निकला? कैसे बिना सरकार के सहयोग के यूनियन कार्बाइड अपना हिस्सा बेचने में सफल हो गई? जाहिर है क़ातिलों के हाथ बहुत लम्बे थे इतने लम्बे कि उच्चतम न्यायालय का एक फैसला भी उनको बचाने में मददगार ही साबित हुआ।



भोपाल का फैसला हमारे पूरे सिस्टम पर सवालिया निशान लगाता है। इस फैसले से न्यायपालिका की भी साख गिरी है। सीबीआई और सरकार को तो लोग क़ातिलों के हमराही मान ही चुके हैं लेकिन उच्चतम न्यायालय की साख को भी बट्टा लगा है। सवाल यहां सियासी जमातों से हो सकता है कि अफजल गुरू को फांसी के फंदे पर लटकवा देने को बेकरार लोगों की जुबां पर पिछले पच्चीस सालों में एक बार भी एंडरसन को फांसी पर चढ़ा देने की बात क्यों नहीं आई? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि अफजल की फांसी से कुछ सियासतदानों को फायदा हो सकता है और भोपाल के बेगुनाहों के क़ातिलों को सजा मिलने से सियासी फायदा नहीं होगा?



भारत सरकार रोज पाकिस्तान से हाफिज़ सईद और लखवी को मांगती है। लेकिन क्या एक बार भी एंडरसन को अमरीका से मांगने का हौसला दिखाया गया। अमरीका से परमाणु करार करने के लिए अपनी सरकार को दांव पर लगा देने वाले अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री क्यों अमरीका से यह कहने का हौसला नहीं जुटा पाए कि जब तक हमें एंडरसन नहीं दोगे तुमसे कोई बात नहीं होगी? सईद और लखवी तो फिर भी कुछ लोगों को मारने के लिए अपने कुछ लोगों को मरवाते भी हैं लेकिन एंडरसन तो एक रात में पन्द्रह हजार लोगों का क़त्ल कर देता है। एंडरसन निश्चित रूप से लखवी और सईद और लादेन से बड़ा हत्यारा है।



दो दिसंबर 1982 के बाद से इस मुल्क में कई दफा कांग्रेस की सरकार रही, भारतीय जनता पार्टी की सरकार रही, राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा की सरकार रही लेकिन किसी भी सरकार ने क़ातिलों को सजा दिलाना तो दूर बल्कि उन्हें महिमामंडित किया। सजायाफ्ता हत्यारों में से एक केशव महिन्द्रा, जो त्रासदी के समय यूनियन कार्बाइड का चेयरमैन था, की सत्ता के गलियारों में तूती बोलती रही। भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद आज सरकार से भोपाल कांड के फैसले के आलोक में भले ही परमाणु दायित्व विधेयक पर चर्चा की मांग कर रहे हों लेकिन राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने वाली भारतीय जनता पार्टी की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने वर्ष 2002 में इसी केशव महिन्द्रा को पद्म भूषण पुरस्कार देने का ऐलान किया था। क्या तब वाजपेयी सरकार को नहीं मालूम था कि केशव महिन्द्रा पर भोपाल के 15000 बेगुनाहों के क़त्ल का मुकदमा चल रहा है?



महिन्द्रा का सफ़र यहीं खत्म नहीं होता है। वह सरकार की कई बड़ी महत्वपूर्ण और निर्णायक समितियों का भी सम्मानित सदस्य रहा है। वह ‘सेन्ट्रल एडवायजरी काउन्सिल ऑफ इंडस्ट्रीज' का सदस्य और कम्पनी मामलों के महत्वपूर्ण आयोग ‘सच्चर कमीशन ऑन कम्पनी लॉ एण्ड एमआरटीपी’ का सदस्य रहा। इससे भी बढ़कर बात यह है कि महिन्द्रा, प्रधानमंत्री की व्यापार और उद्योग पर बनी सलाहकार परिषद का सदस्य रहा है। अब समझा जा सकता है कि कैसे यह फैसला आने में पच्चीस साल लग गए? एंडरसन और केशव महिन्द्रा का गैंग भविष्य की विश्व की आर्थिक शक्ति बनते भारत (जिसका दावा प्रधानमंत्री और उनके प्रशंसक करते हैं) का मज़ाक उड़ा रहा है। क्या आपने भी सुना मनमोहन सिंह जी????

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