अमलेन्दु उपाध्याय
बिहार की बाढ़ त्रासदी पर पत्रकारों और समाजसेवियों की नई दृष्टि देती रिपोर्टिंग 'अनकही कहानी' हर संवेदनशील व्यक्ति को पढ़नी चाहिए। यह हमें मौतों पर होती घटिया राजनीति और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कार्यपालिका के नंगे यथार्थ से रूबरू कराती है
11 सितंबर को अमरीका में हवाई हमले में लगभग 5 हजार लोग मारे गए थे। आज भी उनकी याद में मोमबत्तिायां जलाई जाती हैं। भारतीय मीडिया भी इन तस्वीरों को प्रसारित करता है। क्या 18 अगस्त की याद में भी, जिसमें 50 हजार लोग मारे गए, मोमबत्तिायां जलाई जाएंगी?
यह सुलगता हुआ सवाल किया गया है 'बाढ़-2008' पर फ्री थिंकर्स की ओर से जारी 'अनकही कहानी' के मुखपृष्ठ पर ही। जाहिर है जवाब भी सवाल के माफिक सुलगता हुआ ही होगा - 'नहीं। कारण? हम-आप सब जानते हैं।'
बिहार की कोसी बाढ़ त्रासदी पर पत्रकारों और समाजसेवियों की नई दृष्टि देती रिपोर्टिंग हमें मौतों पर होती घटिया राजनीति और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कार्यपालिका के नंगे यथार्थ से रूबरू कराती है। 'बाढ़ की जाति' में प्रमोद रंजन बताते हैं कि किस प्रकार जदयू नेता शिवानंद तिवारी ने निहायत ही फूहड़ और घटिया बयान देकर 'भाई का दर्द भाई ही समझता है' साबित कर दिया है कि इस विकराल आपदा के समय बिहार में घृणित राजनीति ही नहीं चल रही है, बल्कि इसके पीछे एक कुत्सित जातिवाद भी चल रहा है, जो यह हुंकार भर रहा है कि 'यादवो, दलितो, अति पिछड़ो! तुम्हारे समर्थन का भी हमारे लिए कोई मोल नहीं है।'
प्रमोद रंजन की रिपोर्ट बताती है कि जाति बिहार की नस-नस में कूट-कूट कर भरी है। मेधा पाटकर के साथ आए 'घर बचाओ' आंदोलन के कार्यकर्ताओं के द्वारा लाई गई सहायता सामग्री को कैसे कैपिटल एक्सप्रेस के गार्ड उदयशंकर ने गालियां बकते हुए फिंकवा दिया, चूंकि ये कार्यकर्ता दलित थे।
रपट के अंत में प्रमोद कहते हैं कि सुशील मोदी बता रहे हैं कि केमिकल 'गुजरात' से आ रहा है (और शायद आइडिया भी)। राज्य सरकार की ओर से पहली बार व्यवस्थित ढंग से आदमियों के शवों को भी ठिकाने लगाया जाएगा। न बदबू आएगी, न आक्रोश फैलेगा.....मरे तो शूद्र हैं। भाजपा जिस मनुवाद में विश्वास करती है, उसके अनुसार शूद्र और पशु एक समान होते हैं।
अष्टावक्र कहते हैं कि ठीक उसी तरह जैसे प्रेमचंद के 'कफन' में घीसू और माधव कफन के लिए चंदा कर रहे हैं, उसी तर्ज पर नीतीश चंदा कर रहे हैं। वे कहते हैं कि सब कुछ समय से होगा। हिटलर जिंदाबाद का नारा है। भावी इतिहास हमारा है। नीतीश हिटलर के बिहारी अवतार हैं। दोनों समाजवादी। दोनों विकास-पुरुष। हिटलर ने कहा था- गर्व से कहो हम जर्मन हैं। नीतीश ने कहा है- गर्व से कहो हम बिहारी हैं। विकास की जो मिसाल हिटलर ने रखी थी, वही मिसाल नीतीश ने रखी है।
एक संवाददाता की डायरी में कितना मार्मिक चित्रण है कि दिल दहल जाए- 'बाढ़ पीढ़ितों द्वारा कहा गया हर वाक्य खबर है...अस्पतालों में गर्भवती महिलाओं की भीड़ थी। किसी के गर्भ से हाथ निकाले बच्चा चार दिनों से पड़ा था, तो कोई खून से लथपथ अस्पताल के फर्श पर पड़ी थी।....नवजात बच्चे दम तोड़ रहे थे।' आरएसएस के ऊपर टिप्पणी करते हुए यह संवाददाता कहता है- 'भाजपा के एक नेता कहते हैं कि यहां ईसाई मिशनरियों की दाल नहीं गलने दी जाएगी। बाबा रामदेव से बात हो गई है कि जितने बच्चे अनाथ हो गए हैं उन्हें गोद ले लिया जाएगा। आखिर आरएसएस जिंदा ही है इन्हीं हथकंडों के कारण। मेरा ध्यान तो रामदेव पर अटका है। बाबा रामदेव माने रामदेव यादव। वैसे ही जैसे लालू प्रसाद माने लालू यादव?' टिप्पणी बहुत गंभीर है।
कोसी के पीड़ितों की अनकही कहानी वहां से शुरू होती है, जहां से शब्द अभिव्यक्ति की सामर्थ्य खोने लगते हैं। अपने परिवार के छह सदस्यों को खोने वाले हशमत की व्यथा के लिए न 'व्यथा' शब्द पर्याप्त है न ही नाव पलटने के बाद गर्भवती पत्नी और बच्चों के लिए बिलखते हशमत को पीटकर कोसी की अथाह धारा में फेंक देने वाले सैनिकों की क्रूरता के लिए 'क्रूरता'। डायरी के अंत में संवाददाता कहता है- 'थोड़ी देर लेटता हूं। सोकर क्या करूंगा...सुबह की पहली ट्रेन से उस पटना नगरी में लौटना है, जहां सत्तााधीश बाढ़-पीढ़ितों के लिए राहत शिविर चलने नहीं देना चाहते।'
आखिरी रपट में सत्यकाम की उलाहना नीतीश के लिए काफी गंभीर है, लेकिन क्या नीतीश भी सीख लेने का समय निकालेंगे? - 'बांध 18 तारीख को टूटता है, नीतीश की खुमारी 24 को टूटती है। चिल्लाते हैं- जा रे यह तो प्रलय है।.....नीतीश कुमार!....हजारों लोग बाढ़ से निकलकर सुरक्षित स्थानों पर जा रहे हैं। आप भी उस जानलेवा बाढ़ से निकलिए, जिसमें गरदन तक डूब चुके हैं। आपके इर्द-गिर्द सांप, बिच्छुओं का और लाशों का ढेर लग गया है।'
'अनकही कहानी' को पढ़ते हुए आप सिर्फ बाढ़ की विभीषिका पर टिप्पणियां ही नहीं पढ़ते हैं, बल्कि उस संत्रास और दर्द से गुजरते हैं, जिसकी कल्पना मात्र से आप अपनी सुध-बुध खो बैठें। महाकवि धूमिल ने कहा था- 'शब्द मित्रों पर कारगर होते हैं।' इसलिए अगर आप में एक इनसान का दिल धड़कता है और आपका जमीर जिंदा है और शिराओं में खून अभी बाकी है तो इस अनकही कहानी को सुनते हुए आप के अंदर उबाल आ सकता है- सत्ताा के प्रति, धर्म के प्रति, सरकारी मशीनरी के प्रति और सबसे ज्यादा अपने बहैसियत एक इनसान होने पर हिंदुस्तान में जन्म लेने के प्रति। हर संवेदनशील व्यक्ति को अनकही कहानी अवश्य पढ़नी चाहिए। बाबा नागार्जुन के शब्दों में- अन्न पचीसी मुख्तसर, लोग करोड़-करोड़/ सचमुच ही लग जाएगी आंख कान में होड़।
बिहार की बाढ़ त्रासदी पर पत्रकारों और समाजसेवियों की नई दृष्टि देती रिपोर्टिंग 'अनकही कहानी' हर संवेदनशील व्यक्ति को पढ़नी चाहिए। यह हमें मौतों पर होती घटिया राजनीति और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कार्यपालिका के नंगे यथार्थ से रूबरू कराती है
11 सितंबर को अमरीका में हवाई हमले में लगभग 5 हजार लोग मारे गए थे। आज भी उनकी याद में मोमबत्तिायां जलाई जाती हैं। भारतीय मीडिया भी इन तस्वीरों को प्रसारित करता है। क्या 18 अगस्त की याद में भी, जिसमें 50 हजार लोग मारे गए, मोमबत्तिायां जलाई जाएंगी?
यह सुलगता हुआ सवाल किया गया है 'बाढ़-2008' पर फ्री थिंकर्स की ओर से जारी 'अनकही कहानी' के मुखपृष्ठ पर ही। जाहिर है जवाब भी सवाल के माफिक सुलगता हुआ ही होगा - 'नहीं। कारण? हम-आप सब जानते हैं।'
बिहार की कोसी बाढ़ त्रासदी पर पत्रकारों और समाजसेवियों की नई दृष्टि देती रिपोर्टिंग हमें मौतों पर होती घटिया राजनीति और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कार्यपालिका के नंगे यथार्थ से रूबरू कराती है। 'बाढ़ की जाति' में प्रमोद रंजन बताते हैं कि किस प्रकार जदयू नेता शिवानंद तिवारी ने निहायत ही फूहड़ और घटिया बयान देकर 'भाई का दर्द भाई ही समझता है' साबित कर दिया है कि इस विकराल आपदा के समय बिहार में घृणित राजनीति ही नहीं चल रही है, बल्कि इसके पीछे एक कुत्सित जातिवाद भी चल रहा है, जो यह हुंकार भर रहा है कि 'यादवो, दलितो, अति पिछड़ो! तुम्हारे समर्थन का भी हमारे लिए कोई मोल नहीं है।'
प्रमोद रंजन की रिपोर्ट बताती है कि जाति बिहार की नस-नस में कूट-कूट कर भरी है। मेधा पाटकर के साथ आए 'घर बचाओ' आंदोलन के कार्यकर्ताओं के द्वारा लाई गई सहायता सामग्री को कैसे कैपिटल एक्सप्रेस के गार्ड उदयशंकर ने गालियां बकते हुए फिंकवा दिया, चूंकि ये कार्यकर्ता दलित थे।
रपट के अंत में प्रमोद कहते हैं कि सुशील मोदी बता रहे हैं कि केमिकल 'गुजरात' से आ रहा है (और शायद आइडिया भी)। राज्य सरकार की ओर से पहली बार व्यवस्थित ढंग से आदमियों के शवों को भी ठिकाने लगाया जाएगा। न बदबू आएगी, न आक्रोश फैलेगा.....मरे तो शूद्र हैं। भाजपा जिस मनुवाद में विश्वास करती है, उसके अनुसार शूद्र और पशु एक समान होते हैं।
अष्टावक्र कहते हैं कि ठीक उसी तरह जैसे प्रेमचंद के 'कफन' में घीसू और माधव कफन के लिए चंदा कर रहे हैं, उसी तर्ज पर नीतीश चंदा कर रहे हैं। वे कहते हैं कि सब कुछ समय से होगा। हिटलर जिंदाबाद का नारा है। भावी इतिहास हमारा है। नीतीश हिटलर के बिहारी अवतार हैं। दोनों समाजवादी। दोनों विकास-पुरुष। हिटलर ने कहा था- गर्व से कहो हम जर्मन हैं। नीतीश ने कहा है- गर्व से कहो हम बिहारी हैं। विकास की जो मिसाल हिटलर ने रखी थी, वही मिसाल नीतीश ने रखी है।
एक संवाददाता की डायरी में कितना मार्मिक चित्रण है कि दिल दहल जाए- 'बाढ़ पीढ़ितों द्वारा कहा गया हर वाक्य खबर है...अस्पतालों में गर्भवती महिलाओं की भीड़ थी। किसी के गर्भ से हाथ निकाले बच्चा चार दिनों से पड़ा था, तो कोई खून से लथपथ अस्पताल के फर्श पर पड़ी थी।....नवजात बच्चे दम तोड़ रहे थे।' आरएसएस के ऊपर टिप्पणी करते हुए यह संवाददाता कहता है- 'भाजपा के एक नेता कहते हैं कि यहां ईसाई मिशनरियों की दाल नहीं गलने दी जाएगी। बाबा रामदेव से बात हो गई है कि जितने बच्चे अनाथ हो गए हैं उन्हें गोद ले लिया जाएगा। आखिर आरएसएस जिंदा ही है इन्हीं हथकंडों के कारण। मेरा ध्यान तो रामदेव पर अटका है। बाबा रामदेव माने रामदेव यादव। वैसे ही जैसे लालू प्रसाद माने लालू यादव?' टिप्पणी बहुत गंभीर है।
कोसी के पीड़ितों की अनकही कहानी वहां से शुरू होती है, जहां से शब्द अभिव्यक्ति की सामर्थ्य खोने लगते हैं। अपने परिवार के छह सदस्यों को खोने वाले हशमत की व्यथा के लिए न 'व्यथा' शब्द पर्याप्त है न ही नाव पलटने के बाद गर्भवती पत्नी और बच्चों के लिए बिलखते हशमत को पीटकर कोसी की अथाह धारा में फेंक देने वाले सैनिकों की क्रूरता के लिए 'क्रूरता'। डायरी के अंत में संवाददाता कहता है- 'थोड़ी देर लेटता हूं। सोकर क्या करूंगा...सुबह की पहली ट्रेन से उस पटना नगरी में लौटना है, जहां सत्तााधीश बाढ़-पीढ़ितों के लिए राहत शिविर चलने नहीं देना चाहते।'
आखिरी रपट में सत्यकाम की उलाहना नीतीश के लिए काफी गंभीर है, लेकिन क्या नीतीश भी सीख लेने का समय निकालेंगे? - 'बांध 18 तारीख को टूटता है, नीतीश की खुमारी 24 को टूटती है। चिल्लाते हैं- जा रे यह तो प्रलय है।.....नीतीश कुमार!....हजारों लोग बाढ़ से निकलकर सुरक्षित स्थानों पर जा रहे हैं। आप भी उस जानलेवा बाढ़ से निकलिए, जिसमें गरदन तक डूब चुके हैं। आपके इर्द-गिर्द सांप, बिच्छुओं का और लाशों का ढेर लग गया है।'
'अनकही कहानी' को पढ़ते हुए आप सिर्फ बाढ़ की विभीषिका पर टिप्पणियां ही नहीं पढ़ते हैं, बल्कि उस संत्रास और दर्द से गुजरते हैं, जिसकी कल्पना मात्र से आप अपनी सुध-बुध खो बैठें। महाकवि धूमिल ने कहा था- 'शब्द मित्रों पर कारगर होते हैं।' इसलिए अगर आप में एक इनसान का दिल धड़कता है और आपका जमीर जिंदा है और शिराओं में खून अभी बाकी है तो इस अनकही कहानी को सुनते हुए आप के अंदर उबाल आ सकता है- सत्ताा के प्रति, धर्म के प्रति, सरकारी मशीनरी के प्रति और सबसे ज्यादा अपने बहैसियत एक इनसान होने पर हिंदुस्तान में जन्म लेने के प्रति। हर संवेदनशील व्यक्ति को अनकही कहानी अवश्य पढ़नी चाहिए। बाबा नागार्जुन के शब्दों में- अन्न पचीसी मुख्तसर, लोग करोड़-करोड़/ सचमुच ही लग जाएगी आंख कान में होड़।
Dec 20, '08
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