बुधवार, 28 जुलाई 2010

मुद्दों पर हावी रणनीति

संसद का मानसून सत्र सोमवार को प्रारंभ हो गया। सत्र प्रारंभ होने से पहले देश का राजनीतिक माहौल साफ संकेत दे रहा है कि मौजूदा सत्र खासा हंगामेदार होगा। घरेलू और बाहरी तमाम मोर्चो पर बुरी तरह विफल रही सरकार हमलावर विपक्ष से निपटने के लिए अनेक उपाय ढूंढ़ रही है। महंगाई के मुद्दे पर सफल भारत बंद के आयोजन और इस मुद्दे पर मिले अपार जनसमर्थन से गदगद विपक्ष इस सत्र में भी महंगाई को अपना प्रमुख हथियार बनाएगा।

प्रमुख विपक्षी दल भाजपा गुजरात के अमित शाह की सीबीआई द्वारा गिरफ्तारी को मुख्य मुद्दा बनाना चाहती थी, लेकिन इस मुद्दे पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में ही दरार दिखने पर भाजपा को बैक होना पड़ा है। समाजवादी पार्टी और वामपंथी दल तो पहले से ही इस मसले पर भाजपा के विरोध में थे, लेकिन भाजपा का जूनियर पार्टनर जनता दल (यू) भी शाह प्रकरण पर असहज है। दरअसल बिहार में अगले साल विधानसभा चुनाव हैं और वहां सड़क से लेकर विधानसभा तक चुनाव की रिहर्सल चल रही है। ऎसे में अगर जद (यू) संसद में भाजपा के साथ शाह प्रकरण पर खड़ा होता है, तो बिहार में उसे मुस्लिम मतों से हाथ धोना पड़ेगा। लिहाजा भाजपा ने भी महंगाई को ही विपक्षी एकता का पहला हथियार बनाया है। इस मसले पर वामपंथी दल, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल भी सरकार को घेरेंगे, लेकिन उनकी कोशिश होगी कि उन्हें भाजपा को साथ न समझा जाए। भाजपा ने मंगलवार 27 जुलाई को महंगाई पर कार्य स्थगन प्रस्ताव लाने की घोषणा की है, जबकि सरकार की मंशा साफ है कि वह कार्य स्थगन पर चर्चा कराने को तैयार नहीं है। इसलिए सत्र की शुरूआत ही नारेबाजी, बायकाट के साथ होने के पूरे आसार हैं। महंगाई के बाद भोपाल गैस कांड दूसरा ऎसा बड़ा मुद्दा होगा, जिस पर सरकार घिरी नजर आएगी। विपक्ष कांग्रेस पर आरोप लगाता रहा है कि तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने ही वारेन एंडरसन को सुरक्षित देश से निकाला था। जाहिर है सरकार इस मसले पर तमाम किंतु-परंतु करेगी और अपनी जवाबदेही से बचना चाहेगी। बताया जाता है भारतीय जनता पार्टी ने इस विषय पर नियम 184 के तहत चर्चा कराने के लिए नोटिस दिया है और सरकार इस नियम के तहत चर्चा कराना नहीं चाहेगी, क्योंकि 184 के तहत चर्चा पर मतदान कराया जाता है। मामूली अंतर से बहुमत प्राप्त सरकार के लिए बार-बार वोट प्रबंधन टेढ़ा काम है। लिहाजा भोपाल गैस त्रासदी पर सरकार और विपक्ष टकराएंगे।

भोपाल गैस त्रासदी मसले पर सरकार के सामने दोहरी चुनौती है। एक तरफ तो उसे विपक्ष के वार झेलने होंगे, दूसरी ओर सरकार के अंदर यूनियन कार्बाइड और उसकी सहयोगी डाउ केमिकल्स के मददगार समझे जाने वाले कमलनाथ और अभिषेक मनु सिंघवी सरीखों को आउट ऑफ कंट्रोल होने से रोकना बड़ी चुनौती होगा। इससे भी बड़ा सकंट सरकार के सामने अर्जुन सिंह होंगे। अभी तक तो कांग्रेस उनकी चुप्पी बरकरार रखने में कामयाब रही है, लेकिन अर्जुन सिंह ने अगर इस मुद्दे पर मुंह खोल दिया, तो सरकार की खासी फजीहत हो सकती है। बड़े मुद्दों में भारत-पाक वार्ता की विफलता भी शामिल होगी। कृष्णा-कुरैशी वार्ता के ऎन पहले गृह सचिव जीके पिल्लई ने जिस तरह बयानबाजी करके माहौल खराब किया, वह विपक्ष के निशाने पर होगा। हालंाकि विपक्ष इस मसले पर साफ बंटा होगा। भाजपा जहां पिल्लई के समर्थन और कृष्णा के विरोध में होगा, तो शेष विपक्ष पिल्लई के खिलाफ होगा।

स्पेक्ट्रम नीलामी में कथित गड़बडियों के चलते संचार मंत्री ए राजा सरकार की नई मुसीबत बनेंगे। हालांकि सरकार के मैनेजर अंदरूनी तौर पर तो चाहते हैं कि राजा की मुसीबतें बढ़ती ही जाएं, लेकिन राजा के बहाने घिरेगी तो सरकार भी। सरकार के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द रेल मंत्री ममता बनर्जी बनेंगी। विपक्ष खासतौर पर वामपंथी दल सैंथिया रेल हादसे के मद्देनजर ममता के इस्तीफे की मांग करेंगे। विपक्ष यह आरोप लगाता रहा है कि बडे रेल हादसे होने के बाद भी ममता अपने मंत्रालय पर ध्यान नहीं दे रही हैं और रेल मंत्रालय का प्रयोग वह बंगाल में अपनी राजनीति चमकाने के लिए कर रही हैं। वामपंथी दल जहां माओवादियों से ममता के दोस्ताना संबंधों की पोल पट्टी खोलेंगे, तो तृणमूल के कुछ सांसद फिर संसद को अखाड़ा बनाना चाहेंगे। बिहार विधानसभा के आसन्न चुनाव की छाया भी संसद के मानसून सत्र पर पडेगी। लालू प्रसाद यादव अपने कुल जमा चार सांसदों के बल पर बिहार के टे्रजरी घोटाले को उठाना चाहेंगे, लेकिन कितना सफल होंगे, यह तो समय बताएगा। राष्ट्रीय महत्व का एक और मुद्दा प्रमुख रूप से केंद्र में होगा। वह यह कि कश्मीर में हाल ही की हिंसा सबका ध्यान खींचेगी। भाजपा इसके बहाने फिर से तुष्टिकरण, धारा 370 का राग अलापेगी और स्वयं को राष्ट्रवादी और बाकी सारे देश को राष्ट्रविरोधी घोषित करेगी। जाहिर है कश्मीर समस्या के समाधान पर चर्चा कम होगी, बल्कि इस समस्या का राजनीतिक दोहन अधिक होगा।

महिला आरक्षण विधेयक व जनगणना में जाति एक बार फिर टकराव का कारण बन सकते हैं। हालांकि महिला आरक्षण का जिन्न सरकार खुद बोतल में बंद रखना चाहेगी, क्योंकि यह विधेयक यूपीए सरकार के लिए बवाल-ए-जान साबित हो सकता है। पिछले सत्र में बड़ी मुश्किल से इस पर सरकार ने अपनी जान बचाई थी। इसी तरह जनगणना में जाति पर भी समाजवादी विपक्ष अपने विरोध की इतिश्री पिछले सत्र में कर चुका है। अगर कोई मुद्दा न मिला, तो फिर इस मुद्दे पर भी हाथ आजमाया जा सकता है। लगता है सरकार की तरफ से भी विपक्ष खासतौर पर भाजपा को घेरने के लिए कमर कसी जा रही है। इसके लिए कर्नाटक में भाजपा के मंत्री रेड्डी बंधुओं का अवैध खनन और एक अंग्रेजी टीवी चैनल के स्टिंग ऑपरेशन के जरिए फिर चर्चा में आया भगवा आतंकवाद भाजपा के लिए परेशानी का सबब बनेंगे। सोहराबुद्दीन फर्जी एनकाउंटर, भगवा आतंकवाद व अवैध खनन पर खुद को घिरता देख भाजपा संसद को बाधित करने का प्रयास करेगी। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में हालांकि सभी दलों ने सदन को सुचारू रूप से चलाए जाने के लिए सहयोग देने का औपचारिक वादा तो किया, लेकिन विरोधी दल के नेताओं के तेवर बता रहे थे कि यह वादा झूठा साबित होगा। सरकार इस सत्र में कुल नौ विधेयक रखने वाली है, जबकि 26 नए विधेयक पेश किए जाएंगे। रेल बजट और आम बजट की पूरक व अनुदान मांगों पर विचार कर इन्हें भी पास किया जाएगा, लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि क्या 26 जुलाई से 27 अगस्त तक एक माह चलने वाला मानसून सत्र जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतरेगा?

लंबे समय से संसद में जनता के सवालों पर स्वस्थ बहस की परंपरा समाप्त होती जा रही है। संभवत: जनता दल (यू) अध्यक्ष शरद यादव ने पिछले दिनों एक संवाददाता के सवाल के जवाब में खीझकर कहा था कि संसद में राजनीति नहीं होगी, तो क्या कीर्तन होगा? बात बहुत माकूल थी, लेकिन सवाल तो यह है कि राजनीति किसके लिए और किसके सवालों पर होगी? ऎसा क्यों होता है कि अंबानी बंधुओं के सवाल पर तो संसद में काफी बहस होती है, लेकिन जब जनता के सवाल महंगाई पर चर्चा होती है, तो आधे से ज्यादा सांसद गायब होते हैं। संसद के कार्य दिवस में सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्नकाल होता है, जो सीधे जनता से जुड़ा होता है। विपक्ष को अपनी बात रखने, सदन में नारेबाजी व बायकाट करने और सदन न चलने देने का हक है, लेकिन अगर प्रश्नकाल में हंगामा किया जाता है, तो यह सीधे उस आम आदमी के हितों पर हमला है, जिसका प्रतिनिधित्व करने का दावा हर राजनैतिक दल करता है। संसद आम आदमी के सवाल उठाने के लिए है।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

गुस्से के इजहार का एक जरिया

गुस्से के इजहार का एक जरिया


महंगाई के विरोध में वामपंथी दलों और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के बीती 5 जुलाई के भारत बंद के बाद अचानक देश के तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया और सरकार के संवेदनहीन समर्थकों के दिल मेे आम आदमी के लिए प्यार उमड़ आया है। भारत बंद के बहाने बडे पूंजीपतियों के पैसे पर पलने वाला देश का मीडिया अब आम आदमी की परिभाषा बदलना चाहता है। अब इस देश की गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाली चालीस फीसदी जनता को आम आदमी की श्रेणी से बाहर करके कारों और हवाई जहाज में सफर करने वाले उच्च मध्यम वर्ग को आम आदमी घोषित करने की कुटिल चालें चली जा रही हैं।

बंद के विरोध में तर्क दिया गया कि इससे आम आदमी को कष्ट होता है और रोज कमाकर रोटी खाने वालों के सामने दिक्कतें आती हैं। यह तर्क सोलह आना झूठ का पुलिंदा है, क्योंकि जिस रोज कमाने वाले की चिंता की जा रही है, उस रोज कमाने वाले को तो साल मेे पचास दिन भी रोजगार नहीं मिलता है। यह दावा सिर्फ हवाई नहीं है, बल्कि यूपीए सरकार जिस महानरेगा को अपनी उपलब्घि बताती है, वही महानरेगा इस सचाई को बयां कर रहा है। महानरेगा साल में सिर्फ सौ दिन रोजगार की गारंटी देती है, जिससे साफ जाहिर होता है कि आम गरीब आदमी को साल में सौ दिन भी रोजगार नहीं मिलता है। फिर हमारे मीडिया के बंधु किस रोज कमाने वाले के दर्द की बात कर रहे हैं?

फिर हड़ताल और बंद लोकतांत्रिक अधिकार हैं। जब सरकार निरंकुश, निरी संवेदनहीन और पूंजीपतियों की गुलाम हो जाए, तब बंद और राष्ट्रव्यापी हड़ताल ही आम आदमी के लोकतांत्रिक हथियार बनते हैं। 5 जुलाई का भारत बंद समूचे विपक्ष के आह्वान पर किया गया था और इसका आह्वान करने वाले विपक्ष को कुल मिलाकर सरकार से ज्यादा वोट मिले हैं। सरकार के खिलाफ आम आदमी के गुस्से को समझा जा सकता है, जिसने स्वत: स्फूर्त इस बंद में हिस्सा लिया और बेरहम निरंकुश सरकार के खिलाफ अपनी आवाज उठाई। वैसे भी अतीत में बंद जैसे लोकतांत्रिक हथियारों से ही सरकारों को झुकना पड़ा है। ऎसे में देश के मीडिया का बंद पर स्यापा उसके जनविरोधी चरित्र को उजागर करता है। तमाशा यह है कि सरकार और कांग्रेस का दावा है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह योग्य अर्थशास्त्री हैं और उनके नेतृत्व में देश आर्थिक तरक्की कर रहा है। विकास दर दस फीसदी का आंकड़ा पार कर रही है, लेकिन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के पिछले सवा साल के कार्यकाल में खाद्य पदार्थो के दाम तीन गुने तक हो गए। आम आदमी के रोजगार के अवसर दिनोंदिन छिनते ही जा रहे हैं। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में डेढ़ लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। छोटे किसान अपनी जमीनें बेचकर दिहाड़ी मजदूर बन रहे हैं, लेकिन जुए की अर्थव्यवस्था पर चलने वाला सेंसेक्स बीस हजारी बन रहा है। क्या यही सफल अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की योग्यता है कि वह महंगाई कम करने के लिए मानसून का रास्ता देख रहे हैं? सरकार के कान खोलने के लिए आम आदमी के पास बंद और हड़ताल के सिवा कोई चारा नहीं बचता, जब सरकार को तेल कंपनियों के घाटे की तो चिंता सताने लगे और इसके लिए वह आम आदमी का गला काटने पर उतारू हो जाए, लेकिन टाटा, बिरला, अंबानी और उन जैसे सैकड़ों पूंजीपतियों को सरकार करों में खरबों रूपये की छूट देने लगे और किसानों की जमीनें छीनकर इन्हें सस्ते दामों में देने लगे। चिंता जताई गई कि एक दिन में बीस हजार करोड़ रूपये के कारोबार का नुकसान हो गया, तो इससे आम आदमी को क्या फर्क पड़ता है। इस बीस हजार करोड़ में देश की सवा अरब आबादी का तो बीस रूपया भी नहीं था।

हां, एक बात जरूर हुई कि देश के मीडिया की बेशर्मी और बेहयाई खुलकर सामने आ गई। ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस हादसे और भोपाल कांड पर फैसले के राष्ट्रव्यापी शोक के बीच टीआरपी के लिए राजू श्रीवास्तव की फूहड़ कॉमेडी और राखी सावंत के ठुमके दिखाने वाले हमारे न्यूज चैनल्स खुलकर आम आदमी के खिलाफ सरकार के समर्थन में उतर आए। जिस मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, वह आम जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के खिलाफ सरकारी भौंपू बन गया। महंगाई पर चिंता जताते वक्त भी इस मीडिया को बस, ऑटो के किराए में वृद्धि की चिंता नहीं होती, बल्कि हवाई यात्रा के किराए में वृद्धि की चिंता होती है।

हार की खीज में लड़खड़ाई जुबां

हार की खीज में लड़खड़ाई जुबां


भारतीय जनता पार्टी के नए-नवेले अध्यक्ष नितिन गडकरी की जुबान एक बार फिर फसल गई है। लालू-मुलायम को कुत्ता कहने के बाद अब गडकरी कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की वल्दियत पूछ रहे हैं। लिहाजा दिग्विजय सिंह भी अपनी वल्दियत न बताकर अब गडकरी से उन्हीं की जुबान में उनकी वल्दियत पूछ रहे हैं। पिछले कुछ समय में भारतीय राजनीति में जबरदस्त गिरावट देखने को मिल रही है और तथाकथित राष्ट्रीय नेता सड़कछाप शब्दावली में एक-दूसरे पर वार कर रहे हैं। इन नेताओं की भाषा सुनकर गली के लफंगे भी शर्मिदा हो रहे हैं। ऎसा नहीं है कि गडकरी ने ऎसा पहली बार ही किया हो। भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद वह कई बार गंदी शब्दावली सामने ला चुके हैं। अभी उन्होंने अफजल गुरू को कांग्रेस का दामाद बताया था। अब गडकरी जी यह भूल गए कि अफजल गुरू तो अब राष्ट्रवादी हो गया है। उसे राष्ट्रवादी होने का प्रमाण-पत्र तो राम जेठमलानी के मार्फत संघ कबीले से मिल चुका है, फिर अफजल गुरू किसका दामाद है?

गडकरी की गंदी जुबान पर संघ कबीला या भाजपा शर्मिदा हो, ऎसा कतई नहीं है, क्योंकि गडकरी जो बक रहे हैं, उसे संघ कबीले का मौन समर्थन है। मिलती-जुलती शब्दावली भाजपा के "पीएम इन वेटिंग" लालकृष्ण आडवाणी पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान प्रयोग कर चुके हैं। आडवाणी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को निकम्मा कहा था। हालांकि संघ कबीला स्वयं को सांस्कृतिक राष्ट्रवादी कहता है और उसका दावा है कि उसकी टकसाल में चरित्रवान स्वयंसेवक गढ़े जाते हैं, लेकिन गडकरी को देखकर समझा जा सकता है कि संघ कबीले का चरित्र और संस्कार क्या है? गडकरी की जुबान लगातार फिसल रही है और संघ के कर्ता-धर्ता मौन साधे बैठे हैं। कहीं ऎसा तो नहीं कि संघ की शाखाओं में इन्हीं संस्कारों की ट्रेनिंग दी जाती है, जो विपक्षी नेताओं का चरित्रहनन करने का कार्य कर रहे हैं। हां, यह जरूर है कि उन्हें जबाव देने के लिए कांग्रेसी नेता भी जिस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वह भी संस्कारित और मर्यादित नहीं है।

जहां तक भाजपा का सवाल है, संघ ने महात्मा गांधी को भी नहीं बख्शा। इंदिरा गांधी के खिलाफ तो सड़कों पर जिस अभद्र और निहायत घटिया शब्दावली का प्रयोग संघ और भाजपा के नेता करते रहे, उसका गवाह सारा देश है। वरूण गांधी, प्रवीण तोगडिया, अशोक सिंघल, विनय कटियार, उमा भारती और ऋतंभरा की शब्दावली का नमूना सारा देश देख चुका है, इसलिए इस समय सिर्फ गडकरी को दोष देना उचित नहीं है, क्योंकि वह तो परंपरा को ही आगे बढ़ा रहे हैं। हां, गडकरी की गंदी जुबान में छिपी संघ-भाजपा की हताशा को समझा जा सकता है। केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने से पहले उसके नेता शालीनता का एक नकली आवरण ओढ़े रहते थे, लेकिन सत्ता में आने के बाद उनका यह नकली आवरण उतर गया और वह अपनी मूल संस्कृति पर उतर आए। भाजपा सरकार के दौरान संसद में सबसे ज्यादा शोरशराबा और हंगामा उसके सांसद करते पाए गए। भाजपा के सांसदों और विधायकों के असभ्य आचरण के कारण सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी हो। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को उम्मीद थी कि वह सता में लौट आएगी, लेकिन जनता ने उसकी सांप्रदायिक और विघटनकारी नीतियों को ठुकराकर सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया और बड़े अरमानों से प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे आडवाणी जी की वेटिंग लिस्ट अंतहीन बन गई। सत्ता में आने का सपना चकनाचूर हो गया।

लोकसभा चुनाव में मात खाई भाजपा की बौखलाहट अब गडकरी जैसे भाजपा नेताओं की बोली में झलक रही है। उधर गडकरी समेत सभी भाजपा नेताओं में खुद को बड़ा हिंदू समर्थक साबित करने की होड़ मची हुई है। इसके लिए उन्हें लगता है कि जो जितना उग्र, हिंसक और असभ्य होगा, वही बड़ा स्वयंसेवक सिद्ध होगा। दूसरा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इन असभ्य नेताओं के बयानों को प्रमुखता देता है, इसलिए चर्चा में बने रहने के लिए भी यह नेता ऊटपटांग बयान देते रहते हैं। गडकरी के साथ एक और दिक्कत यह है कि वह जनता की राजनीति में कभी नहीं रहे हैं।

बुधवार, 14 जुलाई 2010

भारत ने प्रचंड की स‌रकार गिरवाई-आनंद स्वरुप वर्मा

आनन्द स्वरूप वर्मा देश के जाने माने पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। संभवत: नेपाल की राजनीति और खासतौर पर वहां की माओवादी राजनीति पर भारत में उनसे ज्यादा गहराई के साथ कम ही लोग जानते हैं। अपनी बेबाक बयानी के लिए जाने जाने वाले वर्मा जी जब रौ में बोलते हैं तो इतना सच कि जुबां कड़वी हो जाए। जाहिर है सच कड़वा ही होता है। छपास डॉट कॉम के राजनीतिक संपादक अमलेन्दु उपाध्याय ने उनसे नेपाली माओवाद और भारत नेपाल संबंधों पर लम्बी बातचीत की। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के प्रमुख अंश :-

आपकी फिल्म ‘फ्लेम्स ऑफ स्नो’ पर सेंसर बोर्ड ने पाबंदी क्यों लगा दी?




सेंसर बोर्ड का कहना है कि इस देश में अभी जो माओवादी आन्दोलन है, उसका जो विस्तार हुआ है उसे देखते हुए हम इस फिल्म पर रोक लगा रहे हैं। लेकिन हमारा कहना है कि इस फिल्म में भारत के माओवादी आन्दोलन के विषय में एक शब्द भी नहीं कहा गया है, कोई फुटेज भी नहीं है कोई स्टिल भी नहीं है। ऐसी स्थिति में अगर नेपाल के आन्दोलन पर, केवल माओवादी आन्दोलन पर नहीं बल्कि वहां के समग्र आन्दोलन पर कोई फिल्म बनाई जा रही है तो उसको यह बहाना देकर रोकना एकदम अनुचित है। क्योंकि यह फिल्म माओवादी आंदोलन के ऊपर नहीं है बल्कि उसके ऊपर केन्द्रित है। क्योंकि इस फिल्म की शुरूआत होती है जब पृथ्वीनारायण शाह ने नेपाल की स्थापना की थी यानि दो सौ ढाई सौ साल के दौरान जो आन्दोलन हुए उनकी झलक देते हुए यह माओवादी आन्दोलन पर केन्द्रित हो जाती है। क्योंकि यह मुख्य आन्दोलन था जिसने वहां राजशाही को समाप्त किया। अब अगर आप यह कहते हैं कि इस फिल्म से यहां के माओवादियों को प्रेरणा मिलेगी तो किसी एक जनतांत्रिक देश में इस तरह की बात कहकर किसी फिल्म को रोकना अनुचित है। तब तो अगर नेपाल के आन्दोलन पर कोई पुस्तक लिखी जाएगी तो भी प्रेरणा मिलेगी? यह स्थिति तो बिल्कुल जो हमारा फन्डामेन्टल राइट यानि अभिव्यक्ति की आजादी है उसका गला घोंटना है।



क्या भारत का माओवाद और नेपाल का माओवाद अलग-अलग है?



मेरे विचार में हर देश का माओवाद अलग-अलग होता है। क्योंकि जितने भी विचारक रहे हैं मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओत्से तुंग या आज के दौर में प्रचण्ड, सबका यही कहना है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद जो एक सिद्धान्त है, उसको आप अपने देश की सांस्कृतिक, भौगोलिक, राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुरूप लागू कीजिए। हर देश की राजनीतिक सामाजिक पृष्ठभूमि अलग होती है। नेपाल में राजतंत्र था और वहां एक जबर्दस्त सामंती राजनैतिक व्यवस्था थी। उसमें उन्होंने वहां किस परिस्थिति में माओवाद को लागू किया यह उनका मामला है। भारत के माओवाद और नेपाल के माओवाद में बहुत फर्क है। क्योंकि उन्होंने तो चुनाव में भी हिस्सा लिया और सरकार बनाई। जबकि भारत में अभी ऐसी स्थिति नहीं है। दोनों स्थितियों में फर्क तो काफी है। लेकिन नेपाल के माओवादी आन्दोलन से भारत के माओवादी आन्दोलन को प्रेरणा लेने का सवाल है, जैसा कि सेंसर बोर्ड कहता है तो वह यह भी प्रेरणा ले सकते हैं कि किस तरह कोई आन्दोलन आम जनता के बीच न केवल आदिवासियों के बीच पॉपुलर हो सकता है, मध्यवर्ग को भी प्रभावित कर सकता है, मध्यवर्ग को भी अपने दायरे में ले सकता है और वह एक निरंकुश व्यवस्था के खिलाफ सफल हो सकता है। तो दोनों में फर्क तो है। अब भारत में जो लोग हैं जो सत्ता में बैठे हैं जो सेंसर बोर्ड देख रहे हैं उनकी अकल इतनी नहीं है कि इतना विश्लेषण कर सकें।



क्या आपको लगता है कि भारत की सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था माओवादियों के खिलाफ हो चुकी है?



भारत के माओवादियों के?



जी भारत के माओवादियों के



नहीं यह तो एक दूसरा सवाल हो गया क्योंकि इसका मुझसे कोई मतलब नहीं है। ( हंसते हुए) अगर आप हमसे भारत के माओवादी आन्दोलन पर बातचीत करना चाहते हैं तो एक अलग बात है। हमसे तो नेपाल पर ही बात करें।



चलिए नेपाल पर ही केन्द्रित होते हैं। अक्सर यह आरोप लगते रहे हैं कि नेपाल के माओवादियों से भारत के माओवादियों को समर्थन और मदद मिलती रही है और नेपाली माओवादियों का रुख हमेशा से भारत विरोधी रहा है। क्या नेपाली माओवादी वास्तव में भारत विरोधी हैं?




इसके लिए तो आपको यह देखना होगा कि भारत के माओवादियों की केन्द्रीय समिति और उनके बड़े नेता गणपति के हस्ताक्षर से अब से एक डेढ़ साल पहले खुली चिट्ठी नेपाल के माओवादियों को लिखी गई जिसमें नेपाली माओवादी आन्दोलन की तीखी आलोचना की गई। इस पत्र में यह आलोचना की गई कि नेपाली माओवादी क्रांति का रास्ता छोड़ करके संशोधानवादी हो गए। यह तो दोनों के संबंधों की बात है। जहां तक नेपाल के माओवादियों से मदद मिलते रहने की बात है तो वह इस स्थिति में कभी नहीं रहे कि भारत जैसे किसी विशाल देश के किसी संगठन को मदद कर सकें। अगर आप दोनों देशों के एरिया और आबादी की और रिसोर्सेस से तुलना करें तो देखेंगे कि वह भारत के मुकाबले कहीं ठहरते ही नहीं हैं। ऐसे में वह अपने को संभालेंगे कि भारत के माओवादियों की मदद करेंगे। इसलिए कोई भौतिक मदद या इस तरह की मदद की बात नहीं है लेकिन बिरादराना संबंध वह मानते हैं। वह तो भारत के माओवादियों के साथ, पेरू के माओवादियों के साथ, कोलंबिया के माओवादियों के साथ, हर देश के माओवादियों के साथ एक बिरादराना संबंध मानते हैं। वैसे ही भारत के माओवादियों के साथ मानते हैं। इससे ज्यादा उनका कोई लेना देना नहीं है।



लेकिन प्रचण्ड प्रधानमंत्री बनते ही पहले चीन गए जबकि परंपरा रही है कि नेपाल का राजनेता पहले भारत आता है। वैसे भी हम नेपाल के ज्यादा नजदीक हैं, क्योंकि हमारे सदियों पुराने संबंधा नेपाल से हैं। इस कदम से नहीं लगा कि प्रचण्ड के मन में भारत के प्रति कोई गांठ है?



देखिए यह कौन सी परंपरा है कि कोई प्रधानमंत्री जो बनेगा वह पहले भारत आएगा? भारत कोई मंदिर है जो वहां जाएगा और मत्था टेकेगा? जहां तक मेरा सवाल है मैं इस परंपरा के एकदम खिलाफ हूं। दूसरी बात किन परिस्थितियों में प्रचण्ड भारत न आकर चीन गए उसे देखना पड़ेगा। किसी भी विषय पर बात करते समय उस पूरी प्रक्रिया को देख लीजिए न कि केवल परिणिति। केवल परिणिति को देखने पर सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंचेंगे। वह पूरी प्रक्रिया क्या थी मैं आपको थोड़ा संक्षेप में बता दूं। वहां पर बीजिंग में ओलंपिक खेल चल रहे थे चीन में। खेलों के उद्धाटन के समय चीन ने वहां के राष्ट्रपति को निमंत्रण दिया। रामबरन यादव को, जो नेपाली कांग्रेस के हैं। वह जब निमंत्रण मिला तो भारत के नेपाल में राजदूत राकेश सूद ने राष्ट्रपति से कहा कि आप चीन मत जाइए, इससे भारत को अच्छा नहीं लगेगा। तो राष्ट्रपति ने कहा कि हम नहीं जाएंगे। अब केवल बात राष्ट्रपति और राकेश सूद के बीच की होती तो यह किसी भी तरह स्वीकार्य हो सकती थी। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह भी स्वीकार्य नहीं है। लेकिन डिप्लोमैटिक रूप से एकबारगी यह स्वीकार्य हो सकता है। लेकिन राकेश सूद ने यह जानकारी प्रेस को दी कि हमने मना कर दिया और राष्ट्रपति नहीं गए। अब नेपाल की आम जनता को यह बात बहुत अच्छी नहीं लगी कि हमारे राष्ट्रपति को एक, मतलब राष्ट्रपति तो बहुत बड़ा पद है न, राष्ट्रपति को एक ब्यूरोक्रेट भारत का मना कर दे और वह मान जाए। जब समापन समारोह के लिए, तब यह प्रचण्ड प्रधानमंत्री नहीं बने थे, 15 अगस्त 2008 को बने हैं, और उनको जाना था 16 या 17 अगस्त को, इनको भी निमंत्रण मिला समापन समारोह के लिए और प्रचण्ड ने स्वीकृति दे दी थी। राकेश सूद ने उन्हें भी मना किया कि आप मत जाइए। तब प्रचण्ड ने कहा कि मैंने स्वीकृति दे दी है तो फिर सूद ने कहा कि आप मत जाइए भारत को अच्छा नहीं लगेगा। उन्होंने कहा मैं क्यों नहीं जाऊं जब मैंने स्वीकृति दे दी है मैं जाऊंगा। और वह चले गए। मान लीजिए कि प्रचण्ड उस समय नहीं जाते और राकेश सूद इस बात को भी प्रेस में देता ही कि हमने मना किया तो एक संप्रभु राष्ट्र के राष्ट्रपति और प्रधाानमंत्री को भारत का राजदूत मना कर दे कि आप यह न करें वह न करो, यह उचित नहीं है। इसलिए अपनी देश की जनता की भावनाओं को देखते हुए प्रचण्ड के लिए चीन जाना जरूरी हो गया था। अगर राकेश सूद ने यह गड़बड़ियां नहीं की होतीं तो शायद वह इसको एवायड भी कर सकते थे। इसलिए इस घटना का विश्लेषण पूरी परिस्थिति देखकर ही करना चाहिए। हालांकि प्रचण्ड ने भी इसके बाद जो कहा मैं उससे भी बहुत सहमत नहीं हूं कि ‘मेरी पहली राजनीतिक यात्रा तो भारत की ही होगी। क्या जरूरत थी यह भी कहने की। नेपाल एक संप्रभु राष्ट्र है वह भारत का कोई सूबा नहीं है कोई प्रॉविंस नहीं है कोई प्रांत नहीं है।



देखने में आ रहा है कि माओवादियों का आन्दोलन नेपाल में भी कुछ कमजोर पड़ता जा रहा है और आम जनता पर उनकी पकड़ कुछ ढीली पड़ती जा रही है। क्या कारण हैं कि माओवादी कमजोर पड़ रहे हैं?



यह कहने का आधार कोई है?



जी बिल्कुल। अभी उन्होंने हड़ताल का आह्वान किया और लोगों ने सड़को पर उतरकर उसका विरोधा किया तो उन्हें हड़ताल वापस लेनी पड़ी?



नहीं। एक मई को जो हड़ताल का आह्वान किया था, वह आप नेपाल के किसी भी सोर्स से पता कर लीजिए अखबार से, जो बुर्जुआ अखबार हैं उनसे मालूम कीजिए वह अब तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन था। रहा सवाल यह हड़ताल वापस लेने का तो वैसे भी उस को चार पांच दिन से अधिक नहीं चलाते क्योंकि उससे वहां की आम जनता को काफी दिक्कतें उठानी पड़तीं। लेकिन एक चीज का ध्यान दीजिए कि राजतंत्र समाप्त तो हो गया, भौतिक रूप से समाप्त हो गया। लेकिन अभी तमाम राजावादी तत्व सभी पार्टियों में मौजूद हैं। सामन्तवाद वहां अभी मौजूद है, वह तो समाप्त नहीं हुआ है। तो बहुत सारे ऐसे तत्व हैं जो इस समय अपने को माओवादियों के खिलाफ लामबंद कर रहे हैं। पिछले एक वर्ष के दौरान माओवाद विरोधी ताकतों को नजदीक आने का एक अच्छा मौका मिला है। इसमें बहुत सारी अन्तर्राष्ट्रीय ताकतें जिसमें अमेरिका और स्वयं भारत भी शामिल है, इन्होंने माओवाद के खिलाफ तत्वों की मदद की है। निश्चित रूप से जो खबरें आई हैं वह सही हैं कि कुछ प्रदर्शन हुए हैं काठमांडू में लेकिन काठमांडू और शहर तो कभी भी माओवादियों के आधार नहीं रहे उनका आधार तो ग्रामीण इलाका है। काठमांडू में जरूर इस तरह के तत्व हैं लेकिन केवल इस आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि उनकी पकड़ कमजोर पड़ गई है। क्योंकि जिस दिन माओवादियों की पकड़ कमजोर पड़ जाएगी उन्हें नष्ट करने में एक मिनट का भी समय वह ताकतें नहीं लगाएंगी जो उनकी विरोधी हैं।



प्रचण्ड ने बीच में एक बार आरोप लगाया था कि उनकी सरकार गिराने में विदेशी ताकतों का हाथ था और खासतौर पर उन्होंने भारत की तरफ इशारा किया था और आपने सुना भी होगा कि योगी आदित्यनाथ ने बयान दिया था कि राजतंत्र की बहाली के लिए वह नेपाल जाएंगे, बाबा रामदेव भी वहां गए और आरएसएस के प्रचारक इन्द्रेश जी के भी नेपाल में पड़े रहने की खबरें आई थीं। तो क्या आपको लगता है कि भारत की दक्षिणपंथी ताकतें माओवादियों के खिलाफ नेपाल में काम कर रही हैं?



जी हां, प्रचण्ड ने केवल संकेत ही नहीं दिया था बल्कि उन्होंने खुलकर कहा था कि भारत ने उनकी सरकार गिराने में पूरी मदद की थी। और उसकी वजह थी कि सेनाध्यक्ष रुकमांगद कटवाल वाला प्रकरण। कटवाल को जब प्रचण्ड ने बर्खास्त किया तो तीन-तीन बार कटवाल ने प्रधानमंत्री के आदेशों की अवहेलना की थी। इसलिए जरूरी हो गया था उन्हें बर्खास्त करना। उस समय भी राकेश सूद ने प्रचण्ड से कहा था कि अगर आप कटवाल को बर्खास्त करेंगे तो इसके बहुत गम्भीर परिणाम होंगे। अपमानजनक शब्दावली प्रयोग की थी हमारे राजदूत ने। इस राजदूत ने तो ठेका ले रखा है नेपाल की जनता को भारत विरोधी बनाने का। जबकि हम लोग लगातार यह प्रयास करते हैं कि दोनों देशों की जनता के बीच एक सद्भाव बना रहे। लेकिन राकेश सूद की वजह से यह सद्भाव बहुत समय तक बना नहीं रह पाएगा। इसके बाद प्रचण्ड ने कटवाल को बर्खास्त किया। एक निर्वाचित प्रधानमंत्री को यह अधिकार है कि वह सेनाधयक्ष को बर्खास्त कर सके। उन्होंने बर्खास्त किया और राष्ट्रपति ने उन्हें बहाल कर दिया। उन राजनीतिक दलों ने खासतौर पर नेकपा एमाले जो वहां की प्रमुख राजनीतिक दल है उसके अधयक्ष झलनाथ खनाल ने, जिनकी पार्टी सरकार में शामिल थी, वायदा किया कि कटवाल की बर्खास्तगी का वह समर्थन करेंगे। लेकिन जब प्रचण्ड ने बर्खास्त किया तो उन्होंने समर्थन वापस ले लिया। यह प्रचण्ड का मानना है और वहां की जनता का मानना है कि नेकपा एमाले ने जो समर्थन वापिस लिया वह भारत के इशारे पर वापिस लिया। अब यह बात सही है या गलत मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। लेकिन आम नेपाली जनता के अन्दर धारणा यही है, राकेश सूद की हरकतों की वजह से, कि भारत ने ही प्रचण्ड की सरकार गिराने में मदद की। और यही बात प्रचण्ड ने भी कही है। तो एक बात तो है कि भारत की भूमिका इस समय अच्छी नहीं रही। जिस समय नवंबर 2005 में बारह सूत्रीय समझौता हुआ था उसके बाद से भारत की बहुत अच्छी गुडविल बन गई थी नेपाल में। और नेपाली जनता भारत सरकार के प्रति सकारात्मक रुख अख्तियार कर रही थी। लेकिन कटवाल प्रसंग के बाद से लगातार एक के बाद एक कई घटनाएं ऐसी हो चुकी हैं जिनसे नेपाली जनता को लग रहा है कि भारत उसके हितों के खिलाफ काम कर रहा है। हाल के ही अखबार उठाकर देखिए, कांतिपुर और काठमांडू पोस्ट जो वहां के दो बड़े अखबार हैं, और यह माओवादी अखबार नहीं हैं। बाकायदा अखबार हैं जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया है या इंडियन एक्सप्रेस है, इनके प्रिन्ट के कोटा को अट्ठाइस दिन से यहां रोक रखा है कलकत्ता बंदरगाह पर भारत सरकार के अधिकारियों ने। महज इसलिए कि इस अखबार ने लगातार यह लिखा कि मौजूदा परिस्थिति में माधाव नेपाल को इस्तीफा दे देना चाहिए ताकि एक आम सहमति की सरकार बन सके। माधाव नेपाल की सरकार को चूंकि भारत सरकार समर्थन कर रही है इसलिए इनको यह चीज नागवार लगी। इतना ही नहीं राकेश सूद ने वहां के उद्योगपतियों को जो भारतीय उद्योगपति हैं, बुलाकर कहा कि आप लोग कांतिपुर को, काठमांडू पोस्ट को और कांतिपुर टेलीविजन को विज्ञापन देना बन्द कर दें। तो यह सारी चीजें जो हो रही हैं वह दोनों देशों की जनता के संबंधों को बहुत खराब करेंगी। मेरी चिन्ता यह है और अगर दोनों देशों के संबंध तनावपूर्ण होते हैं तो उससे नेपाल का नुकसान तो होगा ही क्योंकि वह छोटा देश है लेकिन भारत का भी कोई बहुत भला नहीं होने जा रहा है।



अगर प्रचण्ड यह समझ लेते कि कटवाल को बर्खास्त करने से भारत की तरफ से इस तरह का हस्तक्षेप हो सकता है तो क्या स्थिति थोड़ी सुधार सकती थी?



नहीं प्रचण्ड को तो यह मालूम पड़ गया था कि अगर हम कटवाल को बर्खास्त करेंगे तो ऐसा होगा क्योंकि उन्हें बहुत खुलकर धामकी दी थी राकेश सूद ने और शायद इस धामकी के जवाब में ही उन्हें कटवाल को बर्खास्त करना और ज्यादा जरूरी हो गया था। क्योंकि अतीत में भारत सरकार के राजदूतों के या भारत सरकार के ब्यूरोक्रेट्स की यह आदत पड़ गई थी कि वह नेपाल के प्रधानमंत्रियों को कुछ भी कह कर अपनी मनमर्जी करवाते थे। कम से कम प्रचण्ड के साथ यह बात नहीं है। उन्होंने कभी यह नहीं कहा, देखिए अगर आज नेपाल के अन्दर साक्षात् माओत्से-तुंग भी शासन करने आ जाएं तो भारत के साथ किसी तरह की दुश्मनी एफोर्ड नहीं कर सकते। इसको प्रचण्ड अच्छी तरह जानते हैं कि भारत से नेपाल तीन तरफ से घिरा हुआ है, यूं कहिए इण्डिया लॉक्ड कंट्री है। ठीक है। भारत से यह नाराजगी मोल लेंगे तो भारत उनकी जनता को कितना कष्ट पहुंचाएगा? तो अगर कोई पार्टी या कोई पार्टी का राजनेता जो सचमुच जनता के हितों की परवाह करता होगा, मैं यह मानता हूं कि माओवादी जनता की हितों की ज्यादा परवाह करते हैं और पार्टियों के मुकाबले, तो वह कभी नहीं चाहेगा कि भारत के साथ शत्रुतापूर्ण संबंधा हों, और प्रचण्ड ने कई मौकों पर यह कहा है कि हमारे पड़ोसी दो जरूर हैं चीन और भारत। हम राजनीतिक तौर से एक समान इक्वल डिस्टेंस रखेंगे दोनों से। लेकिन भारत के साथ हमारे जो संबंध हैं, सांस्कृतिक संबंध, भौगोलिक संबंध, इनकी कोई तुलना ही नहीं हो सकती चीन से। हमारे और भारत के बीच में रोटी और बेटी का संबंध है, यह शब्द प्रचण्ड ने इस्तेमाल किए थे। तो जब पूरा कल्चरली एक है, दोनों की खुली सीमा है। बिहार का एक बहुत बड़ा हिस्सा खुले रूप से नेपाल आता जाता है। तो ऐसी स्थिति में प्रचण्ड खुद ऐसा नहीं चाहेंगे कि भारत के साथ हमारे संबंधा कटु हों। लेकिन उसके साथ-साथ एक संप्रभु राष्ट्र होने के नाते प्रचण्ड यह जरूर चाहेंगे कि भारत हमारी संप्रभुता का सम्मान करे। छोटे देश और बड़े देश में आकार तो हो सकता है कि अलगृअलग हों लेकिन कहीं यह नहीं होता है कि छोटे देश की संप्रभुता छोटी हो और बड़े देश की संप्रभुता बड़ी हो। अगर ऐसा होता तो इंग्लैण्ड की संप्रभुता तो बड़ी छोटी होती, जो ढाई सौ तीन सौ साल तक भारत पर शासन कर सकी। इसलिए संप्रभुता छोटी बड़ी नहीं होती है देश का आकार छोटा बड़ा होता है। इस बात को भारत का ब्यूरोक्रेट नहीं समझता है। इसलिए जरूरत यह है रूलिंग क्लास के माइंड सेट को बदलने की।



एक आरोप यह लगता रहा है कि जैसा आपने भी कहा कि यहां का जो रूलिंग क्लास ब्यूरोक्रेट है, यह भारत की विदेश नीति के साथ हमेशा कुछ न कुछ गड़बड़ करता रहता है। कहीं न कहीं इसके पीछे इस वर्ग के अपने कुछ निहित स्वार्थ होते हैं या कुछ और इंट्रैस्ट होते हैं? क्या यह आरोप सही है?



देखिए प्रमाण तो कोई नहीं हैं। लेकिन निश्चित तौर पर आखिर क्या वजह है कि किसी भी पड़ोसी देश के साथ हमारे संबंधा अच्छे नहीं हैं। कुछ चीजें तो हैं जो हमारे वश में नहीं हैं। भौगोलिक सीमा, ठीक है भारत एक बड़ा देश है, उसके लिए हम कुछ नहीं कर सकते। बड़े देश का एरोगेन्स तो हम रोक सकते हैं न! तो यह जो प्रॉब्लम है। भूटान के राजतंत्र को हम लगातार समर्थन देते रहे हैं। आप समर्थन दीजिए लेकिन किसकी कॉस्ट पर? वहां की जनता जो रिफ्यूजी बना दी गई जनतंत्र की मांग करने पर! यह हमारी नीति है। और हम दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र हैं और हम दुनिया के सबसे सड़े गले राजतंत्र को समर्थन देते रहे आम जनता के साथ धोखा करके। तो यह बड़ी शर्मनाक स्थिति है और यह हमारी विदेश नीति की असफलता है कि आज सारे पड़ोसी देश हमसे खतरा महसूस करते हैं। बजाय इसके कि अगर आप एक बड़े भाई की तरह रहते या जुड़वां भाई की तरह रहते तो वह चीज नहीं है।