मंगलवार, 20 जुलाई 2010

हार की खीज में लड़खड़ाई जुबां

हार की खीज में लड़खड़ाई जुबां


भारतीय जनता पार्टी के नए-नवेले अध्यक्ष नितिन गडकरी की जुबान एक बार फिर फसल गई है। लालू-मुलायम को कुत्ता कहने के बाद अब गडकरी कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की वल्दियत पूछ रहे हैं। लिहाजा दिग्विजय सिंह भी अपनी वल्दियत न बताकर अब गडकरी से उन्हीं की जुबान में उनकी वल्दियत पूछ रहे हैं। पिछले कुछ समय में भारतीय राजनीति में जबरदस्त गिरावट देखने को मिल रही है और तथाकथित राष्ट्रीय नेता सड़कछाप शब्दावली में एक-दूसरे पर वार कर रहे हैं। इन नेताओं की भाषा सुनकर गली के लफंगे भी शर्मिदा हो रहे हैं। ऎसा नहीं है कि गडकरी ने ऎसा पहली बार ही किया हो। भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद वह कई बार गंदी शब्दावली सामने ला चुके हैं। अभी उन्होंने अफजल गुरू को कांग्रेस का दामाद बताया था। अब गडकरी जी यह भूल गए कि अफजल गुरू तो अब राष्ट्रवादी हो गया है। उसे राष्ट्रवादी होने का प्रमाण-पत्र तो राम जेठमलानी के मार्फत संघ कबीले से मिल चुका है, फिर अफजल गुरू किसका दामाद है?

गडकरी की गंदी जुबान पर संघ कबीला या भाजपा शर्मिदा हो, ऎसा कतई नहीं है, क्योंकि गडकरी जो बक रहे हैं, उसे संघ कबीले का मौन समर्थन है। मिलती-जुलती शब्दावली भाजपा के "पीएम इन वेटिंग" लालकृष्ण आडवाणी पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान प्रयोग कर चुके हैं। आडवाणी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को निकम्मा कहा था। हालांकि संघ कबीला स्वयं को सांस्कृतिक राष्ट्रवादी कहता है और उसका दावा है कि उसकी टकसाल में चरित्रवान स्वयंसेवक गढ़े जाते हैं, लेकिन गडकरी को देखकर समझा जा सकता है कि संघ कबीले का चरित्र और संस्कार क्या है? गडकरी की जुबान लगातार फिसल रही है और संघ के कर्ता-धर्ता मौन साधे बैठे हैं। कहीं ऎसा तो नहीं कि संघ की शाखाओं में इन्हीं संस्कारों की ट्रेनिंग दी जाती है, जो विपक्षी नेताओं का चरित्रहनन करने का कार्य कर रहे हैं। हां, यह जरूर है कि उन्हें जबाव देने के लिए कांग्रेसी नेता भी जिस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वह भी संस्कारित और मर्यादित नहीं है।

जहां तक भाजपा का सवाल है, संघ ने महात्मा गांधी को भी नहीं बख्शा। इंदिरा गांधी के खिलाफ तो सड़कों पर जिस अभद्र और निहायत घटिया शब्दावली का प्रयोग संघ और भाजपा के नेता करते रहे, उसका गवाह सारा देश है। वरूण गांधी, प्रवीण तोगडिया, अशोक सिंघल, विनय कटियार, उमा भारती और ऋतंभरा की शब्दावली का नमूना सारा देश देख चुका है, इसलिए इस समय सिर्फ गडकरी को दोष देना उचित नहीं है, क्योंकि वह तो परंपरा को ही आगे बढ़ा रहे हैं। हां, गडकरी की गंदी जुबान में छिपी संघ-भाजपा की हताशा को समझा जा सकता है। केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने से पहले उसके नेता शालीनता का एक नकली आवरण ओढ़े रहते थे, लेकिन सत्ता में आने के बाद उनका यह नकली आवरण उतर गया और वह अपनी मूल संस्कृति पर उतर आए। भाजपा सरकार के दौरान संसद में सबसे ज्यादा शोरशराबा और हंगामा उसके सांसद करते पाए गए। भाजपा के सांसदों और विधायकों के असभ्य आचरण के कारण सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी हो। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को उम्मीद थी कि वह सता में लौट आएगी, लेकिन जनता ने उसकी सांप्रदायिक और विघटनकारी नीतियों को ठुकराकर सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया और बड़े अरमानों से प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे आडवाणी जी की वेटिंग लिस्ट अंतहीन बन गई। सत्ता में आने का सपना चकनाचूर हो गया।

लोकसभा चुनाव में मात खाई भाजपा की बौखलाहट अब गडकरी जैसे भाजपा नेताओं की बोली में झलक रही है। उधर गडकरी समेत सभी भाजपा नेताओं में खुद को बड़ा हिंदू समर्थक साबित करने की होड़ मची हुई है। इसके लिए उन्हें लगता है कि जो जितना उग्र, हिंसक और असभ्य होगा, वही बड़ा स्वयंसेवक सिद्ध होगा। दूसरा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इन असभ्य नेताओं के बयानों को प्रमुखता देता है, इसलिए चर्चा में बने रहने के लिए भी यह नेता ऊटपटांग बयान देते रहते हैं। गडकरी के साथ एक और दिक्कत यह है कि वह जनता की राजनीति में कभी नहीं रहे हैं।

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