गुस्से के इजहार का एक जरिया
महंगाई के विरोध में वामपंथी दलों और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के बीती 5 जुलाई के भारत बंद के बाद अचानक देश के तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया और सरकार के संवेदनहीन समर्थकों के दिल मेे आम आदमी के लिए प्यार उमड़ आया है। भारत बंद के बहाने बडे पूंजीपतियों के पैसे पर पलने वाला देश का मीडिया अब आम आदमी की परिभाषा बदलना चाहता है। अब इस देश की गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाली चालीस फीसदी जनता को आम आदमी की श्रेणी से बाहर करके कारों और हवाई जहाज में सफर करने वाले उच्च मध्यम वर्ग को आम आदमी घोषित करने की कुटिल चालें चली जा रही हैं।
बंद के विरोध में तर्क दिया गया कि इससे आम आदमी को कष्ट होता है और रोज कमाकर रोटी खाने वालों के सामने दिक्कतें आती हैं। यह तर्क सोलह आना झूठ का पुलिंदा है, क्योंकि जिस रोज कमाने वाले की चिंता की जा रही है, उस रोज कमाने वाले को तो साल मेे पचास दिन भी रोजगार नहीं मिलता है। यह दावा सिर्फ हवाई नहीं है, बल्कि यूपीए सरकार जिस महानरेगा को अपनी उपलब्घि बताती है, वही महानरेगा इस सचाई को बयां कर रहा है। महानरेगा साल में सिर्फ सौ दिन रोजगार की गारंटी देती है, जिससे साफ जाहिर होता है कि आम गरीब आदमी को साल में सौ दिन भी रोजगार नहीं मिलता है। फिर हमारे मीडिया के बंधु किस रोज कमाने वाले के दर्द की बात कर रहे हैं?
फिर हड़ताल और बंद लोकतांत्रिक अधिकार हैं। जब सरकार निरंकुश, निरी संवेदनहीन और पूंजीपतियों की गुलाम हो जाए, तब बंद और राष्ट्रव्यापी हड़ताल ही आम आदमी के लोकतांत्रिक हथियार बनते हैं। 5 जुलाई का भारत बंद समूचे विपक्ष के आह्वान पर किया गया था और इसका आह्वान करने वाले विपक्ष को कुल मिलाकर सरकार से ज्यादा वोट मिले हैं। सरकार के खिलाफ आम आदमी के गुस्से को समझा जा सकता है, जिसने स्वत: स्फूर्त इस बंद में हिस्सा लिया और बेरहम निरंकुश सरकार के खिलाफ अपनी आवाज उठाई। वैसे भी अतीत में बंद जैसे लोकतांत्रिक हथियारों से ही सरकारों को झुकना पड़ा है। ऎसे में देश के मीडिया का बंद पर स्यापा उसके जनविरोधी चरित्र को उजागर करता है। तमाशा यह है कि सरकार और कांग्रेस का दावा है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह योग्य अर्थशास्त्री हैं और उनके नेतृत्व में देश आर्थिक तरक्की कर रहा है। विकास दर दस फीसदी का आंकड़ा पार कर रही है, लेकिन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के पिछले सवा साल के कार्यकाल में खाद्य पदार्थो के दाम तीन गुने तक हो गए। आम आदमी के रोजगार के अवसर दिनोंदिन छिनते ही जा रहे हैं। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में डेढ़ लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। छोटे किसान अपनी जमीनें बेचकर दिहाड़ी मजदूर बन रहे हैं, लेकिन जुए की अर्थव्यवस्था पर चलने वाला सेंसेक्स बीस हजारी बन रहा है। क्या यही सफल अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की योग्यता है कि वह महंगाई कम करने के लिए मानसून का रास्ता देख रहे हैं? सरकार के कान खोलने के लिए आम आदमी के पास बंद और हड़ताल के सिवा कोई चारा नहीं बचता, जब सरकार को तेल कंपनियों के घाटे की तो चिंता सताने लगे और इसके लिए वह आम आदमी का गला काटने पर उतारू हो जाए, लेकिन टाटा, बिरला, अंबानी और उन जैसे सैकड़ों पूंजीपतियों को सरकार करों में खरबों रूपये की छूट देने लगे और किसानों की जमीनें छीनकर इन्हें सस्ते दामों में देने लगे। चिंता जताई गई कि एक दिन में बीस हजार करोड़ रूपये के कारोबार का नुकसान हो गया, तो इससे आम आदमी को क्या फर्क पड़ता है। इस बीस हजार करोड़ में देश की सवा अरब आबादी का तो बीस रूपया भी नहीं था।
हां, एक बात जरूर हुई कि देश के मीडिया की बेशर्मी और बेहयाई खुलकर सामने आ गई। ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस हादसे और भोपाल कांड पर फैसले के राष्ट्रव्यापी शोक के बीच टीआरपी के लिए राजू श्रीवास्तव की फूहड़ कॉमेडी और राखी सावंत के ठुमके दिखाने वाले हमारे न्यूज चैनल्स खुलकर आम आदमी के खिलाफ सरकार के समर्थन में उतर आए। जिस मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, वह आम जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के खिलाफ सरकारी भौंपू बन गया। महंगाई पर चिंता जताते वक्त भी इस मीडिया को बस, ऑटो के किराए में वृद्धि की चिंता नहीं होती, बल्कि हवाई यात्रा के किराए में वृद्धि की चिंता होती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें