बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

एंडलेस वेटिंग लिस्ट को अभिशप्त अडवानी


एंडलैस वेटिंग लिस्ट को अभिशप्त अडवाणी
अमलेन्दु उपाधयाय

कभी 'डिफरेंट विद अदर्स' का घमंड करने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अब 'पार्टी विद डिफरेंसेस' बन कर रह गई है। पहले तो मनमोहन सिंह ही अभी पी एम की कुर्सी खाली करने वाले नहीं हैं जबकि भाजपा ने जिन लाल कृष्ण अडवाणी को स्वयं 'पी.एम. इन वेटिंग' तय किया था उनकी वेटिंग लिस्ट को एंडलैस (अंतहीन) बनाने के लिए स्वयं भाजपाई कर्णधार जुट गए हैं।

लोगों को याद होगा कि जब 1984 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 2 के आंकड़ें पर सिमट गई थी तब आरएसएस के चहेते और निष्ठावान संघ कार्यकर्ता लालकृष्ण अडवाणी को भाजपा की कमान बहुत ही हताशा और निराशा के माहौल में सौंपी गई थी। यह वह दौर था जब अपनी स्थापना (तकनीकी रूप से, हालांकि भाजपा का पुराना रूप जनसंघ है) के शुरूआती दौर में ही उसका गणित गड़बड़ाने लगा था। अटल बिहारी वाजपेयी निश्चित रूप से उस समय भी भाजपा के बड़े और सर्वमान्य नेता और स्टार प्रचारक थे, लेकिन जब कमान अडवाणी जी के हाथ आई तो उन्होंने कट्टर हिंदुत्व की राह पकड़ी और 'राम मंदिर/बाबरी मस्जिद' विवाद को हवा दी। संक्षेप में इतना ही कि भाजपा को 2 के स्कोर से सत्ताा तक पहुंचाने में जिस एक व्यक्ति का सर्वाधिक योगदान है वह शख्स लाल कृष्ण अडवाणी ही हैं।
लेकिन अडवाणी जी को भी याद होगा कि 90 के दशक के शुरूआती दौर में भाजपा के त्रिदेव 'अवाजो जी' समझे जाते थे। यानी अडवाणी, वाजपेयी और मुरली मनोहर जोशी। लेकिन 1996 आते आते यह 'अवाजो' की छवि बिखरने लगी और मुरली मनोहर जोशी भाजपा के पटल से ओझल होने लगे।
पहली बार जब भाजपा 'राजग' बनाकर सत्ताारूढ़ हुई तब तक तो मुरली मनोहर जोशी एकदम प्रभावहीन हो चुके थे और संगठन व सरकार पर अडवाणी का आधिपत्य हो चुका था। समझा जाता है कि जोशी को साइडलाइन करने में अडवाणी की ही मुख्य भूमिका थी। पूरे राजग शासन के दौरान विपक्ष यह आरोप लगाता रहा कि सरकार के मुखिया तो अटल जी हैं लेकिन अडवाणी जी समानांतर सरकार चला रहे हैं। यह आरोप काफी हद तक सही भी थे।सरकार में अडवाणी जी की तूती अटल जी से ज्यादा बोलती थी। लेकिन अडवाणी जी का रुतबा उनकी पाकिस्तान यात्रा के बाद समाप्त होने लगा जिसमें उन्होंने जिन्ना पर विवादित बयान दे दिया था।
'जिन्ना' पर अपने विवादित बयान के बाद अडवाणी जी ने 'संघ' से लगभग लट्ठमलट्ठा की स्थिति पैदा कर ली। यहीं से उनका रुतबा घटने लगा। आज अधिकारिक तौर पर भाजपा ने भले ही उन्हें 'पी एम इन वेटिंग' घोषित कर रखा है लेकिन अंदरूनी तौर पर भाजपा में आज सबसे ज्यादा संकटग्रस्त व्यक्ति अडवाणी ही हैं।
अडवाणी जी के लिए सबसे पहले मुश्किलें उमा भारती ने शुरू कीं। लेकिन बगावती तेवर अपना चुकीं उमा भारती को अडवाणी जी बाहर का रास्ता दिखलाने में कामयाब रहे। उमा भारती के साथ मदनलाल खुराना और प्रहलाद पटेल भी बाहर चले गए। हालांकि उमा भारती अभी तक भाजपा या अडवाणी के लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं बन पाई हैं, लेकिन अब पुराने स्वयंसेवक गोविंदाचार्य का उमा भारती के साथ जुड़ना अडवाणी और भाजपा दोनों के लिए शुभ संकेत नहीं है। गोविंदाचार्य कभी भाजपा के संकटमोचक होते थे लेकिन आज वे भाजपा के लिए संकट हैं। गोविंदाचार्य विचार और संगठन के व्यक्ति हैं और वे ठान चुके हैं कि अब भाजपा की जड़ों में मट्ठा डाल कर ही रहेंगे।
उमा भारती के बाद स्वयं पार्टी अधयक्ष और कभी अडवाणी जी की चेलाही करने वाले राजनाथ सिंह अडवाणी जी की राह में कांटे बिछाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। अडवाणी-राजनाथ विवाद के मीडिया में खूब उछलने के बाद संघ को मधयस्थता करने के लिए विवश होना पड़ा। बताया जाता है कि अडवाणी के निवास पर संघ और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की बैठक हुई और उसमें सुलहनामा कराया गया। संघ की तरफ से बैठक में मोहन भागवत, सुरेश सोनी और मदनदास देवी मौजूद थे जबकि भाजपा की तरफ से राजनाथ सिंह, वैंकेया नायडू, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, रामलाल और अरुण जैटली उपस्थित थे।
चर्चा है कि इस बैठक में संघ नेताओं ने साफ कहा कि अगर भाजपा में सिर फुटौव्वल यूं ही जारी रही और संघ से समन्वय बनाकर नहीं चला गया तो लोकसभा चुनाव के परिणाम भाजपा के लिए घातक होंगे। राजनाथ सिंह ने इस मौके का फायदा भी अडवाणी के खिलाफ एक हथियार के रूप में ही किया। उन्होंने पार्टी प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर से प्रेस ब्रीफिंग में एक सैध्दांतिक परंतु डिप्लोमैटिक बयान दिलवा दिया कि पार्टी में अधयक्ष से बड़ा कोई पद नहीं होता है। अंतिम वाक्य पार्टी अध्यक्ष का ही माना जाता है। इस बयान के बाद साफ हो गया कि पार्टी में राजनाथ सिंह ही सर्वेसर्वा हैं और अडवाणी केवल एक मोहरा।
पार्टी अधयक्ष राजनाथ सिंह वैसे भी भाजपा के 'नरसिंहाराव' समझे जाते हैं जो अपनी ही पार्टी को गर्त में धकेलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। राजनाथ सिंह हवा-हवाई नेता हैं और आज तक वे सिर्फ तीनों विधानसभा चुनाव ही जीत पाए हैं। पहला तब जब रामलहर थी और दूसरा व तीसरा तब जब वे मुख्यमंत्री थे। राजनाथ सिंह जब उत्तार प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार में शिक्षा मंत्री थे तो विधानसभा चुनाव में एक साधारण्ा से आदमी से बुरी तरह हार गए थे और चौथे नंबर पर रहे थे। एक समय में उन्होंने कल्याण सिंह के खिलाफ उत्तार प्रदेश में ऐसी हवा बनाई कि कल्याण न तो मुख्यमंत्री रह पाए और न भाजपा में ही रह पाए। लेकिन राजनाथ ने उत्तार प्रदेश में जो बीज बोए उसके दुष्परिणाम उत्तार प्रदेश में भाजपा भुगत रही है। आज उत्तार प्रदेश में नेता विरोधी दल का पद भी भाजपा के पास नहीं बचा है। राजनाथ और अडवाणी का विवाद ऊपरी तौर पर अभी शांत भी न हो पाया था कि पूर्व उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत ने अडवाणी जी के लिए नई मुश्किलें पैदा कर दीं। शेखावत ने लोकसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर नया पेंच डाल दिया। शेखावत की पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मुलाकात ने इस संकट को और गहरा कर दिया। शेखावत अडवाणी से भी ज्यादा सीनियर हैं। और आज की जो गठबंधन की राजनीति है उसमें गैर कांग्रेस विपक्ष के पास अटल बिहारी वाजपेयी के बाद सर्वाधिक स्वीकार्य नाम हैं। सूत्र बताते हैं कि सन् 1967 में जब राजस्थान में तकनीकी कारणों से जनसंघ की सरकार बनने से रह गई थी उस समय जनसंघ का राजस्थान में नेतृत्व शेखावत ही कर रहे थे जबकि अडवाणी उस समय सिर्फ दिल्ली म्युनिस्पिल कॉरपोरेशन के सभासद थे। इसके अतिरिक्त शेखावत की छवि आम जनता में एक ईमानदार और आम आदमी के नेता के रूप में है। ऐसे में अडवाणी जी को धक्का लगना ही था।
शेखावत प्रकरण समाप्त भी न हुआ था कि अनिल अंबानी ने नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री के रूप में उछालकर अडवाणी जी के लिए फिर संकट खड़ा कर दिया। मोदी ने भी अनिल अंबानी के बयान पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करके संकेत दे दिया कि वे भी पीएम की वेटिंग लिस्ट में शामिल हैं। वैसे भी हिंदू कट्टरवाद के लिए मोदी की रेटिंग अडवाणी से ऊपर चल रही है। गुजरात के मामलों में मोदी अडवाणी समेत किसी बड़े भाजपा नेता को बोलने नहीं देते हैं। ऐसे में अगर मोदी के मन में भी लड्डू फूटने लगे तो अडवाणी का नाम वेटिंग लिस्ट में और पीछे चला जाएगा।
भाजपा के एक अन्य क्षत्रप जसवंत सिंह भी अडवाणी के लिए कोई न कोई नया सिर दर्द पैदा कर ही देते हैं। अडवाणी जी ने आत्मकथा लिखी और कहा कि कंधार प्रकरण में उन्हें जानकारी नहीं थी। कोई विपक्षी कुछ कहता इससे पहले ही जसवंत सिंह ने कह दिया कि अडवाणी को सब मालूम था और जिस बैठक में निर्णय लिया गया उमसें अडवाणी थे। अब जसवंत सिंह को कौन समझाए कि उन्होंने पूरी आत्मकथा पर ही पानी फेर दिया।
ताजा मामला कल्याण सिंह का है जिसने अडवाणी और भाजपा की हवा निकाल दी है। कल्याण सिंह ने फिलहाल तो भाजपा को गुड-बाय कह दिया है। लेकिन गुडबाय कहने से पहले बाबरी मस्जिद धवंस के हीरो ने अडवाणी जी की स्वनिर्मित ''लौह पुरूष'' की छवि पर यह कहकर हमला बोल दिया कि देश को सरदार पटेल, इंदिरा गांधी और उनके (कल्याण) जैसे नेताओं की जरूरत है। कल्याण सिंह का सदमा भाजपा पचा नहीं पा रही है। कल्याण सिंह उत्तार प्रदेश की 22 सीटों पर भाजपा को जबर्दस्त नुकसान और समाजवादी पार्टी को फायदा पहुंचाने की स्थिति में हैं । बुलंदशहर, बदायूं, फर्रूखाबाद, आंवला, बरेली, शाहजहांपुर, घौरहरा, सीतापुर, लख्ीामपुर, एटा, हमीरपुर, जालौन, फतेहपुर, कानपुर, हरदोई, उन्नाव, ऐसी सीटें हैं, जो सीधो-सीधो कल्याण सिंह ने इशारे पर हैं। यहां कल्याण भले ही भाजपा को इतनी सफलता न दिला पाते लेकिन नुकसान तो पहुंचा ही देंगे।
कल्याण सिंह के पुत्र राजवीर सिंह सपा में शामिल हो गए हैं। कल्याण सिंह के बाद लगभग एक दर्जन और उपेक्षित क्षत्रप अडवाणी की वेटिंग लिस्ट को लंबा कर सकते हैं।
राजस्थान में भाजपा के कद्दावर मीणा नेता डॉ. किरोणीलाल पहले ही बगावत कर चुके हैं। झारखंड में बाबूलाल मरांडी अपनी ढपली अलग बजा रहे हैं। मदनलाल खुराना दिल्ली में कोप भवन में बैठे हैं। उत्ताराखंड में पूर्व मुख्मंत्री भगत सिंह कोश्यारी रूठे हुए हैं। वे ाुवन चंद्र खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाए जाने से नाराज हैं। उन्हें लगता है कि अडवाणी ही उनके साथ हुई नाइंसाफी के लिए एकमात्र जिम्मेदार हैं। गुजरात में पूर्व मुख्यमंत्री केशु भाई पटेल पहले भी बेसुरा राग गा चुके हैं। अभी भी उनके तेवर ठंडे नहीं पड़े हैं। हिमाचल में पूर्व मुख्यमंत्री शांताकुमार अपनी उपेक्षा और मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल की कार्यशैली से आहत हैं।
उधर मधयप्रदेश और छत्ताीसगढ़ में मिली विजय से उत्साहित राजनाथ खेमे ने रमन सिंह और शिवराज सिंह के नाम भी वेटिंग लिस्ट में उछाल दिए हैं। रमन और शिवराज के नाम के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि दोनों की छवि आम आदमी के नेता और विकास पुरूष की है। अगर सपा, जैसे दलों से गठबंधन करके सरकार बनाने की नौबत आई तो ये दल अडवाणी के मुकाबले रमन और शिवराज को तरजीह देंगे।
राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि भाजपा की इस सिर फुटौव्वल के पीछे मुख्य कारण भाजपा पर संघ का नियंत्रण कम होना है। अटल जी के नेतृत्व में जब भाजपा ने सरकार बनाई तब उसे सत्ताा के मोह में अपने बहुत से सिध्दांतों से समझौता करना पड़ा। पार्टी और सरकार में बड़ी संख्या में महत्वपूर्ण स्थानों पर ऐसे लोग पहुंच गए जिनका संघ से कोई लेना देना नहीं रहा।
सरकार के इसी घमंड में अडवाणी जी ने भी संघ को चुनौती देना शुरू कर दिया। उस समय से संघ की भाजपा पर जो पकड़ कमजोर हुई उसका नतीजा अब सामने आ रहा है और भुगतान भी अडवाणी जी को ही पड़ रहा है।
अडवाणी का संघ से पंगा लेने का प्रमुख कारण समझा जा रहा है कि संघ प्रमुख सुदर्शन जी को छोड़कर अन्य सभी संघ के प्रमुख पदाधिकारी अडवाणी जी से काफी कम उम्र के हैं। लेकिन अडवाणी जी यह भूल गए थे कि व्यक्ति संस्था से बड़ा नहीं होता है और जो व्यक्ति संस्था से बड़ा दिखता है, उसकी महामानव की छवि संस्था ही बनाती है। यह अडवाणी जी का दुर्भाग्य है कि उन्होंने स्वयं, संघ के निर्देश पर अटल जी को महामानव की और संस्था से बड़ी छवि बनाई लेकिन जब वे स्वयं अटल जी का स्थान लेना चाहते हैं तो उनके ही शिष्य रास्ते में कांटे बिछा देते हैं।
अडवाणी जी शायद बलराज मधोक से सबक लेना भूल गए। जो कल मधोक के साथ हुआ क्या अडवाणी जी के भाग्य में वैसा ही कुछ लिखा है या अडवाणी इस झंझावात को पार कर जाएंगे? इस समय अडवाणी के लिए प्रधानमंत्री बनने से ज्यादा जरूरी अपने घर को बचाना है। वरना अटल जी के समय में जिस एनडीए में 17 दल थे आज 4 अडवाणी के नेतृत्व में चार बचे हैं। अडवाणी जीे वेटिंग लिस्ट को कम करने के लिए अपना घर तो बचाना ही होगा।

[ यह समीक्षा हिन्दी पाक्षिक पत्रिका "प्रथम प्रवक्ता " में प्रकाशित हुयी ]






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