गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

कल्याण का रास्ता दिल्ली नहीं नागपुर जाता है

कल्याण का रास्ता दिल्ली नहीं नागपुर जाता है
- अमलेन्दु उपाध्याय
मेरे छात्र राजनीति के दौर के एक मित्र हैं जो मुलायम सिंह के उत्तर प्रदेश के प्रमुख 25 मैनेजरों में से एक हैं और 2 जून 1995 के लखनऊ के स्टेट गेस्ट हाउस कांड के प्रमुख अभियुक्तों में से भी एक हैं। 2007 के विधानसभा चुनाव के दौरान सपा के एक कर्णधार कुंवर नटवर सिंह का बयान आया जिसका लब्बो लुबाव था कि सरकार तो सपा की ही बनेगी भले ही भाजपा के सहयोग से बने। हालांकि न नौ मन तेल हुआ और न राधा नाचीं। न मुलायम सिंह सौ से ऊपर पहुंचे और न भाजपा के समर्थन से सरकार बनने की नौबत आई। मैंने अपने उक्त मित्र महोदय से ये पूछा कि नटवर सिंह ने यह क्या कह दिया? मेरे मित्र निजी बातचीत में भी बहुत सोच समझकर बोलते हैं, पर जो बोलते हैं उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि 5, विक्रमादित्य मार्ग लखनऊ में यह क्या चल रहा है। ( हालांकि इस निजी बातचीत का जिक्र करना सैद्धांतिक रूप से गलत है, परंतु जो बात हम आगे कहना चाह रहे हैं उसके लिए जरूरी भी है।)

मित्र ने जबाव दिया कि सही है, मायावती को रोकने के लिए अगर भाजपा से समझौता करना पड़े तो किया जाए। इन दाढ़ी वालों ( मुसलमानों ) की फिक्र नहीं करनी चाहिए। फिर एक भद्दी सी गाली देकर कहा कि मायावती, नरेंद्र मोदी का प्रचार करती है फिर भी ये उसे वोट देते हैं और जब पिटेंगे तो जाएंगे कहां लौटकर नेता जी की शरण में आएंगे।

मेरे मित्र के वक्तव्य से मुलायम सिंह यादव और उनकी मंडली की सोच समझी जा सकती है। कमोबेश विगत 5-6 वर्षों में सपा नेतृत्व की यह सोच बन गई है कि मुसलमान जब तक पिटेगा नही तब तक उन्हें ( सपा को ) मिलेगा नहीं । इसलिए सपा नेतृत्व कोई भी ऐसा अवसर छोड़ता नहीं जिसके चलते मुसलमान पिटे नहीं ।

फिलवक्त छह दिसम्बर 1992 के बाबरी मस्जिद के कातिल और भाजपा के बागी कल्याण सिंह सपा के झंडाबरदार हो गए हैं। लेकिन लगता है कि मुलायम सिंह मायावती के खौफ में जल्दबाजी कर गए हैं और -” चौबे जी छब्बे बनने गए, दुबे बनकर लौटे“ वाली कहावत उन पर फिट बैठ गई है। सपा के मुस्लिम नेता कल्याण को पचा नहीं पा रहे हैं और सपा में एक बड़ी बगावत होने वाली है जो मुलायम सिंह का राजनीतिक कैरियर चौपट कर देगी। हालांकि सपा ने सोचा था कि अगर कल्याण सिंह साथ आ जाएंगे तो लोध वोटों से उन्हें फायदा हो जाएगा और लोकसभा चुनाव में अपनी ताकत बढ़ाकर वह केन्द्र में बनने वाली नई सरकार से मायावती को जेल भिजवाने के लिए सौदेबाजी कर लेंगे। लेकिन लगता है यह दांव उल्टा पड़ गया है।

परमाणु करार पर अमरीका की दलाली करने से सपा मुखिया से नाराज चल रहे फायरब्रांड सपा नेता मौ0 आजम खां कल्याण सिंह की भर्ती से फट पड़े हैं और खुलकर उन्होंने कल्याण सिंह को पार्टी में लेने का विरोध किया है। आजम खां उन लोगों में शुमार किए जाते हैं, जो उसूलो की हिफाजत के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। याद रखना चाहिए कि आजम खां ने उस बुरे दौर में भी मुलायम का दामन नहीं छोड़ा था जब मुलायम सिंह का साया भी उनका साथ छोड़ गया था। 1991 का वह दौर भी मुलायम सिंह को शायद आज बाॅलीवुडी चकाचौंध और दलालों की रोशनी में याद न हो जब बहैसियत मुख्यमंत्री मुलायम सिंह हैलीकाॅप्टर से उतरते थे और उन्हे देखने और सुनने के लिए 100 लोग भी नहीं होते थे। ऐसे समय भी आजम खां मुलायम सिंह के लिए गला फाड़ रहे थे कि मुलायम सिंह मुजाहिद है, बाबरी मस्जिद का रखवाला है, जिसने मस्जिद की हिफाजत के लिए सरकार कुर्बान कर दी। लेकिन आजम को यह कहां पता था कि वही मुलायम सिंह एक दलित महिला से घबराकर उसी बाबरी मस्जिद के कातिल से समझौता कर लेगा?

आजम खां कल तक मुसलमानों से कह रहे थे कि छह दिसम्बर 1992 तुम्हारे माथे पर कलंक गोदा गया है, जब अजान देना तो बच्चों के दूसरे कान में छह दिसम्बर की जिल्लत की याद भी दिलाना। आजम भाई जिस जिल्ल्त को छह दिसम्बर 1992 से झेलते आ रहे थे उस जिल्लत का वाइस ( जिम्मेदार) तो अब उनकी छाती पर खड़ा है। बताया जाता है कि आजम खां ने कल्याण सिंह को लेकर अपनी नाराजगी का सार्वजनिक इजहार कर भी दिया है और मुलायम सिंह द्वारा कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद के कत्ल के इल्जाम से बरी करने पर तीखा प्रतिरोध दर्ज कराया है। आजम के जबाव में सपा के प्रदेश प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी ने बयान दे दिया कि कल्याण सिंह तो पहले भी सपा सरकार को समर्थन दे चुके हैं। जो लोग सपा की अंदरूनी गणित से वाकिफ हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि जब तक मुलायम सिंह की रजामंदी न हो राजेन्द्र चौधरी की औकात आजम खां के खिलाफ बयान देने की नहीं है।

कल्याण सिंह के मसले पर सपा सांसद शाफिकुर्रहमन वर्क और सलीम शेरवानी ने भी बहती गंगा में हाथ धो लिया। हालांकि दोनों इसलिए नाराज हैं कि उनके टिकट काटे गए हैं वरना तो परमाणु करार पर अमरीका के दुमछल्ले तो वर्क और शेरवानी दोनों ही थे। लेकिन जनता में संदेश तो गलत जा ही रहा है। हालांकि शेरवानी को तो उनके क्षेत्र बदायूॅ का मुसलमान, उन्हें मुसलमान मानने को तैयार ही नहीं है, चूंकि शेरवानी तो छह दिसम्बर 1992 को नरसिंहाराव के साथ बाबरी मस्जिद शहीद होते हुए देखते रहे थे और उस समय से लेकर आज तक वे इस मसले पर एक शब्द भी नहीं बोले हैं।

तमाशा यह है कि बाबरी मस्जिद के सारे कातिल आज मुलायम सिंह की बगल में खड़े हैं और मुलायम सिंह एक दलाल से उन्हें धर्मनिरपेक्ष होने का प्रमाणपत्र भी दिलवा रहे हैं। ब्रजभूषणशरण सिंह, अडवाणी की रथयात्रा के सारथी थे आज अमर सिंह के पायलट हैं। उमा भारती छह दिसम्बर 1992 को ‘एक धक्का और दो/बाबरी मस्जिद तोड़ दो’ का नारा लगाकर मुरली मनोहर जोशी के गले में झूल रही थीं, अब अमर सिंह को बचाने के लिए सीडी लिख रही हैं। कल्याण सिंह को छह दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद का कत्ल करने के लिए गर्व है लेकिन मुलायम ने उन्हें इस इल्जाम से बरी कर दिया है , अब अगर उच्चतम न्यायालय ने कल्याण को इस जुर्म में सजा दी तो इसमें मुलायम क्या करें?

जब परमाणु करार पर मुलायम सिंह ने अपने चालीस वर्ष पुराने उन वामपंथी मित्रों को गाली देते हुए , ( जिन्होंने न केवल मुलायम के राजनीतिक कैरियर की हिफाजत की थी बल्कि अनेक बार उनका जीवन भी बचाया था) कांग्रेस का दामन थामा था, उसी दिन तय हो गया था कि मुलायम सिंह ने जो रास्ता पकड़ा है वह एक दिन नागपुर ( संघ मुख्यालय ) तक जाएगा। और कल्याण सिंह की भर्ती से यह शक यकीन में बदल गया है।

संघ के विषय में एक कहावत मशहूर है कि वह जिसे हरा नहीं पाता उससे दोस्ती कर लेता है। 90 के दशक में स्थिति यही थी कि संघ मुलायम को हरा नहीं पा रहा था। इसीलिए उसने एक दलाल मुलायम के पीछे लगाया। बताया जाता है कि इस दलाल के पिता पक्के स्वयंसेवक थे और मरते दम तक खाकी नेकर पहने रहे थे। दलाल की मेहनत धीरे-धीरे रंग लाई। एक एक करके उसने मुलायम के सारे शुभचिंतक और नींव के पत्थर चुन-चुनकर किनारे लगाए। जनेश्वर मिश्रा निष्क्रिय होकर बुढ़ापा काट रहे हैं। राज बब्बर और बेनी प्रसाद वर्मा को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। मोहन सिंह को ठण्डा किया जा चुका है। केवल आजम खां रोड़ा थे सो कल्याण सिंह को लाकर ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गई हैं कि या तो जिल्लत के साथ रहें या दूर हो जाएं।

लेकिन मुलायम सिंह यह बात भूल गए कि 1992 के बाद महाराष्ट्र में शिवसेना की सरकार मुसलमान के वोट से बनी थी। चूंकि मुसलमान ने देखा कि कांग्रेस भी उसे मार रही थी और शिवसेना भी इसलिए उसने पीठ में खंजर भोंकने वालों के साथ न जाकर सीने पर वार करने वालों के साथ जाना पसंद किया। क्या उ0प्र0 में भी मुसलमान यह रुख नहीं अपना सकता? दिल्ली में आजमगढ़ी मुसलमानों के प्रदर्शन में कांग्रेस और भाजपा के साथ मुलायम और अमर सिंह का जिस तरह से कोसा गया उससे भविष्य की तस्वीर को पढ़ा जा सकता है।

हो सकता है मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह का छह दिसम्बर 1992 का गुनाह माफ कर दिया हो। लेकिन मुलायम सिंह को याद हो या न हो लेकिन मुझे भली भांति याद है कि कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और भदोही में पुलिस ने एक फर्जी एन्काउन्टर में समाजवादी पार्टी के चार पदाधिकारियों को माफिया सरगना धनंजय सिंह ( अब विधायक ) बताकर मार दिया था। मुलायम सिंह ने पूरे एक दिन संसद में हंगामा मचाया था और कल्याण सिंह को सपा कार्यकत्र्ताओं का हत्यारा बताया था। स्व0 चंद्रशेखर जी को उस समय खड़े होकर सरकार से कहना पड़ा था कि कल्याण सिंह कम से कम मुलायम से इस मसले पर बात करें और संवादहीनता टूटे। मुलायम सिंह का धर्मनिरपेक्षता का प्रमाणपत्र तो कल्याण को मिल गया है। क्या अपने कार्यकर्ताओं के हत्यारे को भी बरी करेंगे मुलायम? मुलायम को याद रखना चाहिए कि उनकी तरकत कोई दलाल या नचखइया नहीं बल्कि उनके कार्यकर्त्ता हैं, जो इस अवसरवादी राजनीति से त्रस्त हैं। उ0प्र0 का मुसलमान बस मुलायम सिंह से एक शेर में अपने दर्द को बयां कर रहा है-‘‘ जब भी पूछा किसी ने मेरी बर्बादियों का हाल / बेसाख्तां जुबां पे तेरा नाम आ गया।’’

(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और एक पाक्षिक पत्रिका से जुड़े हुए हैं।)

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढिया लिखा है दोस्त।
    अब जिनकी चड्ढी सरकेगी उन्हे तो रबिश लगेगा ही।
    लोहिया के चेले नागपुर के दलालो के हाथ बिक गये …

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  2. राजनीति का पर्दा बारह रंगो से रंगा है,पहले वह बाहुबल को देखता है फ़िर धन के बल को देखता है,उसके बाद अपनी जान पहिचान और सोर्स सिफ़ारिस को समझता है,फ़िर अपने ही लोगों की पहिचान और रिस्तेदारी का फ़ायदा उठाना जानता है,जब इतनी सारी बातें सामने आ जाती है तो वह चकाचौंध और शिक्षा का सहारा लेता है,फ़िर इसके बाद नम्बर आता है तो वह दुश्मनी और जातिवाद प्रान्तवाद का सहारा लेता है,फ़िर अपने ही मंत्रणा देने वालों को अपने स्वार्थ के लिये दाव पर लगाने की कोशिश करता है,जब अपने भी मंत्रणा देने वाले दूर होते है तो उनके धन और रिस्क लेकर काम करना चाहता है,पुराने इतिहास और गडे मुर्दे उखाडकर अपने को आगे बढाने की कोशिश करता है,जब इससे भी जी भर जाता है और इन सबसे काम नही चलता है तो धर्म और न्याय का सहारा लेना चाहता है,धर्म और राज्य से भी काम नही चलता है तो लोगों को कैरियर की रास्ता देने और काम धन्धे का बहाना लेकर चलना चाहता है,इससे भी काम नही चलता है तो मीडिया और समाचार पत्रों में अपनी खूब सारी बडाइयां छपवाकर अपने किये कामों का ड्रामा बनाकर दिखाने की कोशिश करता है,और इस चाल के बाद राजनीति का पर्दा फ़ट जाता है,वह अन्तिम धागे भी नही संभाल पाता और खत्म हो जाता है,कोई एक आध धागा रह जाता है जो समय को याद दिलाता रहता है।

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