बुधवार, 8 जुलाई 2009

गजनी के भारतीय अवतारों को सजा मिले

गजनी के भारतीय अवतारों को सजा मिले
- अमलेन्दु उपाध्याय
-आखिरकार लिब्राहन आयोग की बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट आ ही गई। इस हाई प्रोफाइल केस की जांच रिपोर्ट आने में ही कुल जमा सत्रह वर्ष लग गए। जाहिर है कि ऐसी गति से तो मुकदमें मे सजा सुनाए जाने में सत्रह सौ साल लगेंगे, वह भी तब, जब मुकदमा कायम होगा। इस सबके परे बहस का विषय यह है कि क्या इस आधार पर दोषियों को माफ कर दिया जाए कि सजा होने में कई साल लग जाएंगे? बहरहाल इस रिपोर्ट पर राजनीति शुरू हो गई है और हर कोई अपने हिसाब से कार्रवाई चाहता है।
लिब्राहन आयोग ने भाजपा समेत कई बडे दलों को पशोपेश में डाल दिया है और अनुमान लगाया जा रहा है कि जो रिपोर्ट जस्टिस लिब्राहन ने दी है उसका हश्र भी पहले बन चुके अन्य आयोगों की तरह होगा, जिनमें से कई की रिपोर्ट बस्ते में से निकलने के लिए तडपडा रही हैं और कई की रिपोर्ट पर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुईर्। कहा जा रहा है कि इस रिपोर्ट ने मरती हुई भाजपा के लिए संजीवनी का काम किया है और भाजपा चाहती है कि सरकार इस रिपोर्ट पर कार्रवाई करे ताकि वह एक बार फिर इंसानों की लाशों की राजनीति करके दिल्ली की सल्तनत पर पहुंचने का सपना साकार कर सके। लेकिन अब भाजपा के यह सपने साकार नहीं होंगे। और अगर मान भी लिया जाए कि इससे भाजपा को पांच साल बाद होने वाले चुनाव में कोई फायदा होगा, तो क्या इस अंदेशे के कारण बाबरी मस्ज्दि के क.ातिलों को खुला छोड दिया जाए? हालांकि यह कल्पित भय है और ऐसा भी नहीं है कि हमेशा ऐसी घटनाओं में सांप्रदायिक ताकतों को फायदा ही होता हो। बाल ठाकरे का मतदान का अधिकार छीना गया इससे शिवसेना को लाभ नहीं हुआ बल्कि वह पिछड गई। इसी तरह इस लोकसभा चुनाव के दौरान आडवाणी जी आतंकवाद पर बहुत चिल्लाए, मुंबई में २६/११ हुआ लेकिन जब इसके बाद चुनाव हुए तो भाजपा बुरी तरह पिछड गई।
फिर अभी लोकसभा चुनाव में पांच साल हैं, अगर सरकार रिपोर्ट पर कार्रवाई करने के प्रति वास्तव में ईमानदार है तो फास्ट ट्रैक कोर्ट कर गठन करके हर रोज सुनवाई कराकर दो महीने में फैसला भी करवा सकती है। ऐसे में भाजपा क्या फायदा उठा पाएगी? चूंकि जब पांच साल बाद इसका लाभ उठाने का अवसर आएगा तब तक आडवाणी जी सियासत से विदा हो चुके होंगे। कल्याण सिंह और उमा भारती भाजपा से बाहर हैं हीं। बाकी जिन लोगों को इस केस में सजा हो सकती है वह लोग राष्ट्रीय अपील नहीं हैं। इसलिए भाजपा कोई फायदा नहीं उठा पाएगी।
दरअसल कांग्रेस की दिक्कत यह है कि संभवतः इस रिपोर्ट में पी वी नरसिंहाराव और कांग्रेस की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए हैं। ऐसे में क्यों कांग्रेस ईमानदारी से इस रिपोर्ट पर कार्रवाई करेगी? ताज्जुब इस बात का है कि मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी जो लगातार बाबरी मस्जिद की कमाई खाती रही है, इस रिपोर्ट पर चुप लगा गई है। इसका कारण है। सपा के नए दोस्त कल्याण सिंह भी इस कांड में दोषी हैं जबकि मुलायम सिंह यादव चुनाव के दौरान कल्याण के गुनाहों को माफ करके घोषणा कर चुके हैं कि बाबरी मस्जिद अब मुद्दा नहीं रहा, जिसका उन्हें इस चुनाव में खमियाजा भी भुगतना पडा। अब अगर मुलायम सिंह कुछ बोलते हैं तो उनके दोस्त कल्याण सिंह के लिए मुश्किलें पैदा हो जाएंगी।
इस मसले में जल्द से जल्द दोषियों को सजा मिलनी चाहिए। ऐसा इसलिए नहीं कि कुछ लाख गुंडों ने एक मस्जिद तोड दी थी। ऐसे तो हर रोज कहीं न कह मस्जिद और मंदिर तोडे ही जाते हैं। नरेन्द्र मोदी ने अभी गुजरात में कई मन्दिर गिरवाए। पाकिस्तान में कई मस्जिदें गिराई गईं। कश्मीर के राजा हर्ष ने तो बाकायदा मंदिर तोडने के लिए ’देवोत्पतन्नायक‘ नाम के अधिकारी की नियुक्ति की थी। इस केस में दोषियों को सजा मिलना इसलिए जरूरी है क्योंकि बाबरी मस्ज्दि शहीद करने वाले गुंडों ने इस मस्जिद के बहाने इस देश के धर्मनिरपेक्ष संविधान पर हमला किया था, इंसानियत को तार तार किया था। स्वयं तत्कालीन राष्ट्रपति को यह कहने के लिए मजबूर होना पडा था कि बाबरी मस्जिद को गिराने वाले गुंडे थे।
हालांकि कल्याण सिंह का लिब्राहन आयोग में गवाही में कहना कि ऐसा करने को कोई पूर्वनियोजित कार्यक्रम नहीं था, सत्य ही है। दरअसल भाजपा बाबरी मस्जिद गिराना नहीं चाहती थी वह केवल इसे मुद्दा बनाकर रखना चाहती थी ताकि इस पर सियासत करती रहे और इसके जरिये धन इकठ्ठा होता रहे। लेकिन भाजपा ने जिन बंदरों की फौज अयोध्या में ६ दिसंबर १९९२ को अयोध्या में जमा की उस पर उसका नियंत्रण नहीं रहा। वरना महमूद गजनवी के संघी अवतार तो बाबरी मस्जिद को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझकर पाल रहे थे लेकिन उनके पाले बंदरों ने ऐन मौके पर काम खराब कर दिया। अब अगर इन नागपुरियों ने बाबरी मस्जिद नहीं गिराई थी तो यह इसका श्रेय क्यों लेना चाहते हैं और जब श्रेय लेना चाहते हैं तो लिब्राहन की रिपोर्ट से घबरा क्यो रहे हैं।
- लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं एवं साप्ताहिक पत्र "दी सन्डे पोस्ट " में सह सम्पादक हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें