कोबाड़ का रास्ता!
अमलेन्दु उपाध्याय
पिछले महीने गिरफ्तार किए गए नकसली नेता कोबाड़ गांधी की दिल्ली में गिरफ्तारी से देष में एक बहस छिड़ गई है। पहले जब नक्सल समस्या पर बहस होती थी तब इसे कुंठित युवाओं की सत्ता लालसा या भटके हुए वामपंथी अतिवादी बताकर इसे कानून व्यवस्था का प्रष्न बता दिया जाता था और राजकाज चलता रहता था। लेकिन इस बार बहस कुछ नए किस्म की है।
कोबाड़ गांधी इसके लिए बधाई के पात्र हैं कि उनके बहाने ही सही नक्सलवाद एक बार फिर चर्चा में है और उनकी गिरफ्तारी के बहाने ही सही, माओवादी आन्दोलन को फिर से समझने की जरूरत महसूस की जाने लगी है। भले ही गृह मंत्री पी. चिदंबरम नक्सलवाद को सबसे बड़ा खतरा बता रहे हों लेकिन उनकी सरकार में ही लोग उनके इस विचार से पूर्णतया सहमत नहीं दिखते हैं। स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यह कहने को मजबूर हो गए हैं कि नक्सलवाद सिर्फ कानून व्यवस्था का मामला नहीं है। और यह बात सही भी है। कानून व्यवस्था के मसले दषकों तक नहीं चला करते हैं। नक्सलवाद इस देष में लगभग तीन दषक से भी ज्यादा समय से पनप रहा है और इसका प्रभाव कम होने के बजाए लगातार बढ़ता ही गया है। किसी भी आतंकवादी आन्दोलन के पूरे दौर में जितने आतंकवादी मारे जाते होंगे उससे कहीं ज्यादा नक्सली हर साल पुलिस के हाथों मारे जाते हैं। अकेले छत्तीसगढ़ में एक वर्श में चार सौ के आसपास कथित नक्सली मारे गए हैं। लेकिन कोई तो बात है जो नक्सलवाद का जुनून बढ़ता ही जाता है।
दिल्ली की गद्दी पर बैठे हुक्मरानों और पूॅंजीवादी रुझान के बुद्धिजीवियों के माथे पर इस प्रष्न को लेकर चिंता की लकीरें गहरी हो गई हैं कि आखिर क्या बात है कि कोबाड़ गांधी जैसे लोग अपने कैरियर, घरबार और व्यापार को छोड़कर इस तरह के आन्दोलन से न केवल जुड़ जाते हैं बल्कि अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। ताज्जुब इसलिए भी होता है कि अतिवामपंथी आंदोलन से जुड़ने वाले लोग न तो धर्म के पहरूए हैं, न जेहादी हैं, न जातिवादी आन्दोलन से निकलकर आए हैं। फिर उन्हें यह जुनून कहाॅं से मिलता है?
यहाॅं यह याद रखना चाहिए कि कोबाड़ गांधी इस तरह का पहला उदाहरण नहीं हैं, जिन्होंने माक्र्सवाद के सिद्धान्तों के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया हो। इससे पहले भी ईएमएस नंबूदरीपाद जैसे लोग भी हुए हैं जिनका राजघराने से ताल्लुक रहा और उनकी जमींदारी देष में सर्वाधिक मालगुजारी वसूलने वाली रियासत समझी जाती थी। लेकिन नम्बूदरीपाद अपनी सारी संपत्ति कम्युनिस्ट पार्टी को सौंपकर पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए थे। कोबाड़ गांधी के जुनून को एक और तरीके से समझा जा सकता है। गौतम बुद्ध भी अपना सारा राजपाट छोड़कर दुख के निदान की तलाष में ही भिक्षु बन गए थे। लेकिन बुद्ध का रास्ता अध्यात्म का था, पलायन का था और कोबाड़ ने जो रास्ता चुना, वह है तो बुद्ध के समानान्तर ही लेकिन वह विचार का रास्ता है, संघर्श का रास्ता है, पलायन का नहीं।
यह भी बात गौेर करने लायक है कि नक्सलवाद से प्रभावित क्षेत्र वही ज्यादा हैं जहाॅं जंगल और आदिवासी ज्यादा हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि जंगल नक्सलवादियों की मदद करते हैं। बल्कि समस्या की तह तक जाना होगा। नब्बे के दषक में जब इस मुल्क में नरसिंहाराव और मनमोहन सिंह मार्का उदारीकरण आया जिसे चिदंबरम जैसे हार्वर्ड उत्पादित अर्थषास्त्रियों ने और धार दी तो देष में नए किस्म का पूॅंजीवाद आया और सरकारों की भूमिका भी बदलने लगी। नब्बे के दषक से पहले सरकार की भूमिका कल्याणकारी राज्य की मानी जाती थी। दिखावे के लिए ही सही ‘गरीबी हटाओ’ के नारे लगते थे। लेकिन नरसिंहाराव-वाजपेयी-मनमोहन की तिकड़ी ने सरकारों की भूमिका एक एनजीआंे की बना दी और सरकारें बड़े पूॅंजीपतियों और घोटालेबाजों की जेब की गुलाम बनकर रह गईं और अब तो प्रधानमंत्री जनता को नसीहत भी देने लगे हैं कि वह और महॅंगाई के लिए तैयार रहे।
उदारीकरण की आंधी में औद्योगिकीकरण और तथाकथित विकास के नाम पर किसानों की जमीनें हथियाए जाने लगीं और जंगल से आदिवासियों को बेदखल करके कारखाने लगने लगे। क्या संयोग है कि सारी बड़ी कंपनियों के काॅरपोरेट दफ्तर तो मुंबई और कोलकाता में हैं लेकिन कई कई हजार एकड़ में लगने वाले उनके प्लांट छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के जंगलों में लग रहे हैं। बाॅंध बन तो रहे हैं विकास के नाम पर लेकिन यह बाॅंध बलि ले रहे हैं हजारों गांवों के लोगों की। इस विकास और औद्योगिकीकरण से एक आम आदमी को लाभ होने के बजाए नुकसान ही हुआ है।
काफी पहले दो छोटी सी खबरें अलग अलग अखबारों में पढ़ी थीं। एक हाल ही की घटना राजस्थान की थी। उस खबर के मुताबिक कुछ आदिवासियों को पुलिस ने पकड़ा था जिन से लगभग बारह हजार रूपए मूल्य का आंवला पकड़ा गया था। सरकार का तर्क था कि इस आंवले पर अधिकार उस ठेकेदार का है जिसे वन उपज का ठेका दिया गया है। दूसरी खबर के मुताबिक मुकेष अंबानी के जामनगर रिफाइनरी प्लांट में कई सैकड़ा एकड़ में बेहतरीन आम के पेड़ लगे हुए हैं और उन आमों का निर्यात विदेषों को किया जाता है।
अगर आपके पास दृश्टि है तो नक्सलवाद के बढ़ते प्रभाव को समझने और समझाने के लिए यह छोटी सी दो खबरें काफी हैं। राजस्थान की घटना बताती है कि जंगल से आदिवासियों का अधिकार खत्म कर दिया गया है। और अंबानी की खबर बताती है कि जामनगर का प्लांट हजारों लोगों को विस्थापित करके ही स्थापित हुआ होगा और किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करके मुकेष अंबानी अब आम की खेती भी कर रहे हैं। इन्हीं विस्थापित लोगों के समर्थन से नक्सलवाद का विस्तार हो रहा है। यह कटु सत्य है और इसे चिदंबरम चाहे स्वीकार करें या न करें - इस विस्थापित आम आदमी के समर्थन से ही नक्सलवाद को षह मिल रही है। खुद सरकारी आंकडें बताते हैं कि वर्श 2006 में 1,509 नक्सली वारदातें हुई। जबकि वर्श 2007 में 1,565 वारदातें हुई। इन वारदातों में वर्श 2006 में 157 सुरक्षा बलों के जवान और 521 नागरिक मारे गए जबकि वर्श 2007 में 236 सुरक्षा बलों के जवान और 460 नागरिक मारे गए।
मीडिया में जो खबरें आ रही हैं, उनके मुताबिक नक्सलवाद प्रभावित राज्यों में पुलिस बल के आधुनिकीकरण के नाम पर कई हजार करोड़ रूपए सरकार खर्च करेगी। जाहिर है इसमें से अधिकांष रूपया अत्याधुनिक हथियारों की खरीद पर खर्च किया जाएगा और एक बड़ी रकम खुफिया नेटवर्क बनाने के नाम पर खर्च होगी, जिसका कोई हिसाब किताब पुलिस अफसरों को नहीं देना होता है। जाहिर है जब तक इस नेटवर्क के नाम पर और हथियारों की खरीद के नाम पर सरकार यह धन मुहैया कराती रहेगी तब तक नक्सलियों के नाम पर आम गरीब आदिवासी पुलिस मुठभेड़ों में मरता रहेगा और प्रतिषोध में इन गरीबों का समर्थन नक्सलियों को ही मिलता रहेगा। सवाल यह भी है कि आतंकवाद नक्सलवाद प्रभावित राज्यों में विकास के नाम पर जो धन राज्यों को दिया जाता है उस धन का क्या प्रयोग होता है? अगर यह धन विकास पर ही खर्च हो रहा है तो वह विकास कहाॅं हो रहा है? अक्सर समाचारपत्रों में रिपोटर््स प्रकाषित होती हैं कि नक्सली अपने क्षेत्रों में ठेकेदारों से लेवी वसूल करते हैं। खबरें सही होती भी हैं। लेकिन यही खबरें प्रष्न भी छोड़ती हैं कि नक्सली यह लेवी किन लोगों से वसूलते हैं? आम गरीब आदमी तो लेवी देता नहीं हैं। लेवी देता है भ्रश्ट ठेकेदार और इंजीनियर। जाहिर है कि अगर यह नक्सलियों को लेवी नहीं भी देगा तो उस पैसे को विकास में नहीं लगाएगा बल्कि अपनी जेब भरेगा।
इसलिए चिदंबरम जी को समझना होगा कि नक्सलवाद विचार है और विचार बन्दूकों से कुचले नहीं जाते। इसके लिए खुद चिदंबरम जी को इस व्यवस्था में सुधार करना होगा और खुद भी एक वैचारिक व्यक्ति बनना होगा। सरकार को एनजीओ की भूमिका छोड़ कर कल्याणकारी राज्य की भूमिका निभानी होगी और विकास का पैमाना बदलना होगा विस्थापन की बुनियाद पर विकास नहीं चलेगा। वरना आप एक कोबाड़ को पकड़ेंगे दस नए कोबाड़ पैदा हो जाएंगे। अभी तक का इतिहास तो यही बताता है कि नक्सली पैदा होता नहीं है बल्कि यह व्यवस्था( जिसके पैरोकार चिदंबरम और मनमोहन हैं) बनाती है। नक्सलियों का हिंसा का रास्ता एकदम गलत है , लेकिन उनका उद्देष्य गलत कहा जाए? कोबाड़ की गिरफ्तारी या छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के नाम पर आदिवासियों का सामूहिक नरसंहार समस्या का हल कभी नहीं बन सकेगा।
Well written with clarity and precision. The problem needs immediate attention to be understood properly in correct socio-economic contexts. Guns and weapons are certainly not going to 'solve' any such human 'problem' forever.
जवाब देंहटाएंThanks
अगर बन्दूक समस्या का हल नहीं है तो नक्सलियों को उसे त्याग देना चाहिए.
जवाब देंहटाएंनक्सलवादियों को गंभीरता से नहीं लेने के परिणाम आज हमें भुगतने पड़ रहे हैं। हम अब भी नहीं जागे और इनके खिलाफ आवाज बुलंद नहीं की तो शायद हमारी आने वाली पीढ़ी को हमसे भी बदतर स्थिति का सामना करना पड़े।
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जवाब देंहटाएंबड़ा स्पष्ट और आँखें खोल देने वाला विवेचन ।
पर जो शुतुरमुर्ग़ सरीखे आँखें मूँदे रहने का निश्चय किये बैठे हों, उनका ?
वास्तव मे हमारे यहाँ जब तक राई का पहाड़ नही बन जाता तब तक कुछ किया नही जाता ।यह सब उसी का परिणाम है। समय रहते सही कदम उठा लिआ जाए तो ऐसी स्थिति कभी पैदा ही ना होगी। लेकिन कोई समझना ही नही चाहे तो क्या करे....
जवाब देंहटाएंkoi bhi samasya baat se hi sulajh sakati hai..
जवाब देंहटाएंMay Happiness and Contentment Fill Your life.
Wishing you a Very Happy & Prosperous Diwali!!
and a very happy new year
kulwant singh