शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

अन्त अमरगाथा का

अन्त अमरगाथा का
अमलेन्दु उपाध्याय
आखिरकार वह घड़ी आ ही गई जिसका समाजवादियों को चैदह वर्ष से इंतजार था। हालांकि चैदह वर्ष का वनवास तो मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने भी भोगा था लेकिन समाजवादियों के लिए यह चैदह वर्ष किसी नर्क की यातना से कम नहीं थे। इन चैदह वर्षों में समाजवादी पार्टी दलालों, नर्तकियों और पूंजीपतियों का बसेरा बन गई थी और एक-एक करके सारे पुराने समाजवादी घर से बेघर कर दिए गए थे। कभी समाजवादी पार्टी के हैवीवेट महासचिव और प्रवक्ता रहे अमर सिंह लगभग एक महीने चले वाकयुद्ध के बाद पार्टी से निष्कासित कर दिए गए हैं। इस एक माह के दौरान अमर के कई रूप देखने को मिले। उन्होंने पार्टी नेतृत्व को धमकी देने के अंदाज में कहा था कि उनके सीने में मुलायम के कुछ राज दफन हैं। लेकिन उनकी धमकी का असर उल्टा ही पड़ा, बल्कि उनके निष्कासन से सपा में ऐसा उत्साहवर्धक माहौल है मानो कोई किला फतह किया गया हो। कल तक मुलायम सिंह की नाक का बाल रहे अमर सिंह आज समाजवादी पार्टी पर परिवारवाद का आरोप लगाकर उसकी जड़ों में मट्ठा डालने के लिए बेचैन दिख रहे हैं और ‘पर्दा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा’ की धमकी दे रहे हैं।
उधर अमर सिंह के सामने सवाल यह है कि वह किधर जाएं? शायद ही ऐसा कोई नेता रहा होगा जिसके लिए अमर सिंह ने कभी न कभी कुछ अपशब्दों का प्रयोग न किया हो। अमर ने पार्टी में परिवारवाद का आरोप लगाया लेकिन इससे वह स्वयं सवालों में घिर गए। अब वह भले ही कह रहे हों कि उन्हें राजनीति से मोक्ष मिल गया लेकिन असलियत यह है कि उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी समाप्त करने की पटकथा स्वयं लिखी है
अमर सिंह आज के दिन एक टूटे हुए थके और निराश व्यक्ति हैं। भले ही वह कह रहे हों कि पिक्चर तो अभी बाकी है लेकिन उनके मस्तक की लकीरें बता रही हैं कि पिक्चर का ‘दि एंड’ हो चुका है, और शायद किसी भी गैर राजनीतिक व्यक्ति की राजनीति का अंत ऐसा ही होता है। राजनीति में अवसरवादिता का नतीजा शेयर मार्केट में भी दिखने लगा है। अमर सिंह भले ही मुलायम के राज न खोल पाएं लेकिन मुलायम के एक ही चरखा दांव से उनकी कंपनी ने शेयर धड़ाम से नीचे गिर गए हैं, जबकि सपा में नया जोश आ गया है। यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने इस अंत की पटकथा स्वयं अमर सिंह ने ही लिखी है ‘दूसरे को नहीं दोष गुसाईं।’
अमर सिंह का जो हश्र हुआ वह उस दिन ही तय हो गया था जिस दिन उन्होंने सपा का दामन थामा था और धीरे-धीरे अपने पूंजीपति आकाओं अनिल अंबानी, सुब्रत राय सहारा और फिल्मी नर्तकियों का प्रवेश राजनीति में कराना शुरू किया था। अमर सिंह डेढ़ दशक तक मुलायम सिंह की आंखों का तारा बने रहे और उनका जादू मुलायम के सिर इतना चढ़कर बोला कि एक समय में जनेश्वर मिश्र के निवास पर हुई सपा संसदीय दल की बैठक में जब मोहन सिंह ने यह सवाल पूछा कि उन्हें भी मालूम होना चाहिए कि पार्टी के बड़े फैसले कहां लिए जाते हैं, तो मुलायम ने अपने समाजवादी साथियों को ही यह कहकर हड़काया था कि वह बाहर के लोगों से बाद में लड़ेंगे पहले अपने घर के विद्रोह को ठीक करेंगे।
अमर सिंह ने बहुत तेजी के साथ सपा पर कब्जा किया और आखिर में स्थिति यह हो गई थी कि सपा के बड़े से बड़े नेता पहले अमर सिंह को साष्टांग प्रणाम करते थे और बाद में मुलायम से दुआ सलाम करते थे। अच्छी तरह से याद है जब अमर सिंह सपा में शामिल हुए थे तब राज बब्बर ने उन्हें मुलायम के घर का रास्ता दिखाया था। उस समय अमर सिंह ने मुलायम का शुक्रिया अदा करते हुए जो पोस्टर छपवाया था उसमें मुलायम के साथ-साथ जनेश्वर मिश्र, आजम खां, बेनी प्रसाद वर्मा, रामगोपाल यादव और राज बब्बर की जिन्दाबाद के नारे लिखे हुए थे। लेकिन बाद में उन्होंने राज बब्बर को न सिर्फ बाहर का रास्ता दिखवाया बल्कि कहा तो यहां तक जाता है कि एक बार तो राज बब्बर को पार्टी का टिकट तब मिला जब उन्होंने बाकायदा अमर से क्षमा याचना की।  इसी तरह बेनी प्रसाद वर्मा और आजम खां भी बेइज्जत करके सपा से बाहर किए गए।
जिन रामगोपाल यादव पर अमर सिंह इतना फायर हो रहे हैं वह रामगोपाल भी एकबारगी पार्टी में इतने साइडलाइन हो गए थे कि उन्हें डिप्रेशन में अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था। फैजाबाद में हुए पार्टी के कार्यकर्ता सम्मेलन में अमर सिंह ने रामगोपाल पर कई तंज कसे थे। वहां से लौटते ही रामगोपाल जबरदस्त बीमार पड़़ गए। अब सवाल यह उठता है कि आखिर वह कौन से कारण थे कि इतना सिर चढ़ने के बाद अमर सिंह मुलायम परिवार के खिलाफ हो गए?
कहा जा रहा है कि अमर सिंह पार्टी में बढ़ते परिवारवाद से नाराज हो गए थे। यहां दो बात साफ कर दी जाएं। पहली तो यह कि अमर सिंह को यह समझने में चैदह साल क्यों लग गए कि सपा में परिवारवाद है? दूसरे परिवार की अहमियत वही व्यक्ति समझ सकता है जो पारिवारिक हो। एक निजी टीवी चैनल पर अमर सिंह ने स्वयं कहा कि वह अपने पिता से नाराज होकर अठारह वर्ष की आयु में घर से निकल गए थे और जब मृत्यु शैया पर पड़े उनके पिता ने उनसे पूछा कि क्या वह अभी भी उनसे नाराज हैं तो अमर ने कहा कि अगर उन्होंने( पिता ने) उन्हें डांटा न होता तो वह कामयाब आदमी न बन पाए होते। अमर सिंह के इस वक्तव्य से परिवार के प्रति उनकी घृणा की ग्रन्थि को समझा जा सकता है।
अमर की परेशानी तभी बढ़ना शुरू हुई जब मुलायम के पुत्र अखिलेश की आमद सक्रिय राजनीति में हुई। दरअसल अमर सिंह का ख्वाब था कि मुलायम सिंह केन्द्र की राजनीति में स्थापित होने के बाद उत्तर प्रदेश की बागडोर उन्हें सौंप देंगे। इसीलिए उन्होंने एक-एक करके अपने रास्ते के कांटे बेनी और आजम को रास्ते से हटाया। रामगोपाल और शिवपाल से उन्हें खतरा इसलिए नहीं था क्योंकि रामगोपाल मास लीडर नहीं हैं और गुणा भाग की राजनीति नहीं करते। जबकि शिवपाल सिर्फ मुलायम के हनुमान हैं और उनके अन्दर राजनीति में कुछ हासिल करने की तमन्ना भी नहीं है। ऐसे में उन्हें लगने लगा कि अखिलेश के आने से उनका खेल खराब हो गया है।
हालांकि अमर सिंह ने पहले मुलायम सिंह को अच्छी तरह समझा लिया था कि अखिलेश को सक्रिय राजनीति में न लाया जाए। जब सपा की युवा इकाई के बड़े नेता राकेश सिंह राना ने अखिलेश को आगे लाने का प्रस्ताव रखा था तो बताते हैं मुलायम ने राना को बुरी तरह डपट दिया था। लेकिन बाद में राना ने जब जनेश्वर मिश्र को समझाया कि ‘नेता जी’ के बाद पार्टी का क्या होगा और अगर अखिलेश को आगे नहीं लाया गया तो पार्टी असामाजिक तत्वों और पूंजीपतियों के दलालों की बंधक होकर अपना अस्तित्व खो देगी, तब जनेश्वर मिश्र को यह बात क्लिक कर गई और आॅस्ट्रेलिया से शिक्षा प्राप्त करके स्वदेश लौटे अखिलेश को समाजवाद की कमान सौंपने की तैयारी हुई। स्व ़ जनेश्वर मिश्र ने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में इस पूरी घटना का उल्लेख भी किया था। इस प्रस्ताव से खफा अमर सिंह ने तीन बार राकेश राना का विधानसभा का टिकट कटवाया और दो बार विधान परिषद में नाम तय हो जाने के बाद उनका रास्ता रोक दिया। बाद में राना विधान परिषद के सदस्य तभी बन सके जब अमर सिंह संकट के बादलों से घिरना शुरू हुए।
लेकिन यह बात भी सही है कि फिरोजाबाद में मुलायम की पुत्रवधु डिंपल को चुनाव लड़वाने का फार्मूला भी अमर का ही था। इसके पीछे रणनीति यह थी कि अगर डिंपल हार जाएंगी तो यादव परिवार अपने आप बैकफुट पर आ जाएगा और अगर जीत जाएंगी तो परिवारवाद के आरोप लगना शुरू हो जाएंगे। लेकिन उनका यही दांव उनके लिए घातक साबित हुआ और यादव परिवार को उनका गुणा भाग समझ में आ गया। बाद में जो कुछ हुआ वह सारी दुनिया ने देखा।
इधर आजम खां प्रकरण से भी अमर सिंह को काफी झटका लगा। हालांकि वह आजम खां को बाहर का रास्ता तो दिखाने में कामयाब हो गए लेकिन आजम खां और मुलायम की मुलाकात में आजम खां ने जो दो-चार बातें मुलायम से कहीं उन्होंने भी अमर की विदाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सूत्रों का कहना है कि जब आजम खां मुलायम से कल्याण सिंह के मसले को लेकर मिले तो उन्होंने कहा था कि वह ( आजम) पठान हैं और जिस दिन उन्हें ( मुलायम  को) छोडें़गे उस दिन राजनीति छोड़ देंगे। बाकी पार्टी उन्हें छोड़ती है तो यह उसका फैसला होगा। आजम ने अपना वादा निभाया, उन्होंने पार्टी नहीं छोड़ी पार्टी ने ही उन्हें छोड़ा। एक और बात जो आजम ने कही उस बात ने फिरोजाबाद की हार के बाद मुलायम को सोचने पर मजबूर कर दिया। बताते हैं आजम ने कहा- नेता जी पैसे तो कभी भी कमा लिए जाएंगे लेकिन अगर वोट एक बार चला गया तो फिर लौट कर नहीं आएगा। और फिरोजाबाद में जिस तरह से मुस्लिम वोट झड़कर राज बब्बर को मिला उससे आजम के शब्द मुलायम के कानों में गूंजने लगे।
जाहिर है ऐसे में अमर सिंह को परेशानी तो होनी ही थी। लेकिन अमर सिंह अपने ही बुने जाल में इस कदर फंसे कि बाहर जाकर ही रुके। अब अमर सिंह राजनीतिज्ञ तो हैं नहीं। वह बेसिकली एक ब्रोकर हैं लेकिन उन्हें गलतफहमी हो गई कि वह राजनेता हो गए हैं। उधर अपनी आदत के मुताबिक जब अमर ने मुलायम के राज अपने सीने में दबे होने का शोशा छोड़ा तो स्थिति बेकाबू हो गई और अमर के निष्कासन की फाइनल स्क्रिप्ट लिख दी गई।
हालांकि अमर सिंह ने पहले कांग्रेस में जाने के लिए अपने संपर्क टटोले लेकिन वहां से मनाही हो गई। फिर उन्होंने राष्ट्रवादी कांग्रेस में जाने की तैयारी की लेकिन तब तक वह मुलायम के खिलाफ इतना जहर उगल चुके थे कि शरद पवार ने उन्हें लेना उचित नहीं समझा। वह भाजपा में जा सकते थे लेकिन वहां उनके मित्र राजनाथ अब कमजोर हो गए हैं और भाजपा में जाकर वह मुलायम को नुकसान भी नहीं पहुंचा सकते थे। दूसरा, मुलायम सिंह से किसी के भी राजनीतिक मतभेद हो सकते हैं, उनकी नीतियों से असहमति हो सकती है लेकिन यह शिकायत कोई नहीं कर सकता कि उन्होंने कभी आॅफ द रिकाॅर्ड भी अपने किसी विरोधी के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया हो। इसलिए जब अमर सिंह, मुलायम पर हमलावर हुए तो उनके लिए सिर्फ और सिर्फ बहुजन समाज पार्टी का ही रास्ता बचा था। लेकिन वहां दिक्कत यह है कि मायावती स्वयं अमर सिंह से ज्यादा अशिष्ट हैं और उन जैसों को वहां वह फ्री हैण्ड नहीं मिल सकता जैसा सपा में मिला। इसलिए मायावती, अमर सिंह का प्रयोग मुलायम के जयचंद और मीरजाफर की तरह तो कर सकती हैं लेकिन उन्हें सतीश चन्द्र मिश्र, नसीमुद्दीन या बाबू सिंह कुशवाहा का दर्जा नहीं दे सकती हैं। दूसरे अमर सिंह के विषय में अब कहा जाने लगा है कि वह जब मुलायम के नहीं हुए तो किसी और के कैसे हो जाएंगे?
इधर अमर सिंह के सपा तोड़ने के दावे की पोल खुल गई। जिन विधायकों को उनका खासमखास समझा जाता था वह भी उनके साथ नहीं आए। इसका कारण साफ है। इन विधायकों ने ताड़ लिया है कि अमर सिंह व्यापारियों के ब्रोकर हैं और किसी भी दिन कहीं भी चुपके से निकल जाएंगे और इन विधायकों के गले व्यक्तिगत दुश्मनियां बांध जाएंगे। इसीलिए अमर के सर्वाधिक विश्वासपात्र माने जाने वाले विधायक अरविन्द सिंह गोप भी उनके साथ नहीं आए और न राजा भैया या अक्षय प्रताप सिंह उर्फ गोपाल  जी। जो अशोक सिंह चन्देल और संदीप अग्रवाल निकाले गए हैं वह मूल रूप से सपाई नहीं हैं बल्कि भाजपा और बसपा से सपा में आए थे। अबू आसिम आजमी, जिन्हें अमर सिंह अपना बता रहे थे, भी उनके साथ नहीं आए। सांसद राधामोहन सिंह खुद सपा मुखिया से मिलकर कह आए कि वह पार्टी के साथ हैं और अमर के साथ नहीं। रही बात जया प्रदा की तो वह भी आसमानी नेता हैं उनका उत्तर प्रदेश से कुछ लेना देना नहीं है।
अनिल अंबानी भी, जो अमर सिंह के मित्र कहे जाते हैं, खुलकर अमर सिंह के समर्थन में नहीं ही आए। क्योंकि वह भी अच्छी तरह जानते हैं कि एक पूंजीपति की औकात एक साधारण से राजनीतिज्ञ के सामने भी कुछ नहीं होती है। अगर कोई विश्वनाथ प्रताप सिंह सरीखा नेता किसी भूरेलाल जैसे अधिकारी को एक घंटे के लिए भी पीछे लगा देता है तो धीरूभाई अंबानी और नुस्ली वाडिया जैसे पूंजीपतियों को भी दिन में तारे नजर आ जाते हैं।
अमर सिंह को कहीं रास्ता न मिलने की एक प्रमुख वजह यह भी है कि उन जैसे तथाकथित मैनेजरों की किसी भी दल को फिलहाल जरूरत नहीं है। कांग्रेस के पास उनसे ज्यादा अच्छे मैनेजर मौजूद हैं जो सभ्य और सुसंस्कृत भी हैं। भाजपा में भले ही प्रमोद महाजन अब नहीं रहे लेकिन उनकी कमी दूर करने के लिए वहां भी बड़े-बड़े मैनेजर हैं। फिर अमर सिंह को कोई क्यों ले?

1 टिप्पणी:

  1. वाह अमलेंदु जी, कई दिनों बाद आपको पढ़ा, लेकिन मान गया की आपने देर से लिखा लेकिन दुरुस्त लिखा, इतनी अंदरूनी जानकारी और इतना पैनापन आपकी कलम में है, मै सलाम करता हु..अआप ये पोस्ट विस्फोट पर क्यों नहीं डालते..
    आपका मित्र

    अजित

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