अमलेन्दु उपाध्याय
भले ही इस बार भी अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस को भारत सार्थक नहीं कर पाया। लेकिन राज्य सभा में समाजवादी धाड़े के घोर विरोध के बावजूद कांग्रेस, भाजपा और लेफ्ट के समर्थन से महिला आरक्षण विधोयक पारित हो ही जाएगा। इस विधोयक के पारित होने के साथ ही 13 वर्ष पुरानी महिला संगठनों की लड़ाई भी एक मुकाम पर पहुंच जाएर्गी। हालांकि इस प्रगतिशाील से दिखने वाले कदम का विरोध करने वाली समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल के विरोध को भी केवल महिला विरोधाी ठहराकर सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। बल्कि इस बिल के विरोधियों के तर्कों पर भी सम्यक विचार की जरूरत है।
पहली बार जब इस बिल की बात चली थी तब भी यह बिल दांव पेंच में फंस गया था। हालांकि अब इस बिल के समर्थन में दिखने वाले लोग भले ही यह तर्क देकर अपनी गर्दन बचाना चाहें कि उस समय भी सपा, राजद और जद की हठधर्मी से यह बिल पारित नहीं कराया जा सका था। लेकिन सत्यता यही है कि उस समय भी इन दांव पेंच में यह तथाकथित आधाी आबादी के समर्थक भी इसे टालने में बराबर के भागीदार थे।
इस बिल के लगातार तेरह वर्ष तक टलते रहने पर सबसे पहला सवाल तो उस कांग्रेस से ही किया जा सकता है जो पहले भी लगातार पांच वर्ष सत्ता में थी और उसके घोषणापत्र में भी महिला आरक्षण को पारित कराना प्रमुखत: शामिल था। तब भला पिछले कार्यकाल के दौरान कांग्रेस इस बिल को पास क्यों नहीं करा सकी? इसका उत्तर हमारे भद्र कांग्रेसी यह देकर अपनी जान बचा सकते हैं कि उस समय सरकार लालू प्रसाद यादव के राजद पर आश्रित थी इसलिए उस समय यह बिल पारित नहीं करा सकी। लेकिन यह मासूम सा तर्क हर किसी के गले आसानी से उतर नहीं सकता। हां अगर 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने प्रत्याशियों में से तैंतीस प्रतिशत महिलाओं को टिकट दिया होता तो इसे कांग्रेस की महिलाओं के प्रति प्रतिबध्दता कहा जा सकता था। इसलिए विरोधियों के इस तर्क में दम नजर आता है कि महंगाई के मोर्चे पर अपनी विफलता छिपाने और एकजुट हो रहे विपक्ष की एकता को विखंडित करने के लिए कांग्रेस ने यह दांव इस समय चला। वरना महिला आरक्षण विधोयक ही नहीं रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों को लागू करने और मुसलमानों को आरक्षण देने के सवाल पर कांग्रेस और यूपीए पार्ट टू क्यों खामोश है? क्या कांग्रेस और यूपीए यह मानते हैं कि इस देश का मुसलमान पिछड़ा और दलित नहीं है?
जहिर है कि अगर राज्यसभा में यह बिल पारित होने के बाद यह लोकसभा में भी पारित हो ही जाएगा और इस बिल के लिए संघर्ष कर रही महिलाओं की जीत भी हो जाएगी, लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि क्या इससे आम भारतीय नारी के जीवन में कोई अन्तर आएगा? अभी तक का इतिहास तो यही बताता है कि ऐसा कुछ आमूल-चूल परिवर्तन इस बिल के पास होने से नहीं होने वाला है। उसका कारण साफ है। जो तथाकथित प्रगतिशील महिलाएं इस बिल के लिए लॉबिंग कर रही थीं अगर उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो साफ हो जाता है कि घर के बाहर प्रगतिशील नजर आने वाली यह अधिकांश महिलाएं अपने घर की चारदिवारी के अंदर घोर नारी विरोधाी ही हैं।
इस बात को और समझने के लिए कांग्रेस, भाजपा और लेफ्ट तीनों के रासायनिक समीकरण को समझना बेहतर रहेगा। कांग्रेस की महिला विरोधाी मानसिकता को इस तरह समझा जा सकता है कि सोनिया की विरासत संभालने के लिए जब राहुल और प्रियंका में जोर आजमाइश हुई तो कमान राहुल को सौंपी गई प्रियंका को नहीं। इसी तरह भले ही भाजपा ने लोकसभा में विपक्ष का नेता सुषमा स्वराज को बनाया हो लेकिन वह भी महिलाओं को टिकट देने के मामले में अपने महिला विरोधाी चेहरे को छिपा नहीं सकी। इसी तरह महिला आरक्षण बिल पारित न होने तक लोकसभा न जाने की कसम खाने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपनी केन्द्रीय कमेटी में अभी तक किसी महिला को स्थान नहीं दे सकी है और अगर वृन्दा कारत, प्रकाश कारत की पत्नी न होतीं तो शायद माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी अपनी सोलह सदस्यीय पोलित ब्यूरो में किसी महिला को स्थान नहीं देती। ऐसे में यह उम्मीद कैसे की जाए कि यह संशोधान विधोयक पारित होने के बाद आम भारतीय नारी को विधायिका में स्थान मिल जाएगा? होगा वही जो अब तक होता आया है कि कुछ खास परिवारों की महिलाएं ही इसका लाभ उठाएंगी और आम भारतीय नारी की किस्मत राम भरोसे ही रहेगी। इसलिए इस बिल के पारित होने का औचित्य तभी होगा जब कम से कम दो बड़े दल कांग्रेस और भाजपा इस पर अपनी नीयत साफ रखें।
दूसरी ओर बिल को लेकर समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने जो रुख राज्यसभा के अंदर अपनाया उसे कम से कम कोई भी लोकतांत्रिक व्यक्ति सही नहीं ठहरा सकता। लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का हक है, असहमति जताने का भी हक है लेकिन सदन के अंदर हंगामा मचाना संसदीय आचरण नहीं है। लेकिन क्या सरकार का इन दलों से बात न करने के रवैये को भी उचित ठहराया जा सकता है? हालांकि इन दलों ने जो आपत्तियां उठायी हैं उन्हें थोथी महिला विरोधाी हरकत कहकर नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। इस बात में कोई शक नहीं है कि इस बिल का लाभ सबसे ज्यादा सवर्ण महिलाएं और खासतौर पर कुछ परिवारों की ही महिलाएं उठाएंगी। इस बिल को लेकर समाजवादी धाड़ा दलित, मुस्लिम और पिछड़ा विरोधाी होने का जो आरोप लगा रहा है उसे 9 मार्च के अखबारों की सुर्खियों और तथाकथित नारीवादी महिलाओं की लालू- मुलायम के खिलाफ जातिवादी टिप्पण्0श्नियों ने सही साबित कर दिया है। लगभग सभी न्यूज चैनल्स पर एंकरों ( इन्हें पत्रकार कदापि न समझा जाए ) की सपा और राजद पर टिप्पणियां भी साबित कर रही थीं कि महिला आरक्षण की आड़ में पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ साजिश रची जा रही है।
वैसे भी पंचायतों में महिला आरक्षण की वस्तुस्थिति किससे छिपी है? बमुश्किल एक या दो फीसदी महिला प्रतिनिधि ही ऐसी होंगी जो स्वयं अपने विवेक से पंचायत में प्रतिनिधित्व कर रही होंगी अन्यथा प्रधान जी घर में चौका चूल्हा कर रही होती हैं और प्रधान पति पंचायत में काम कर रहे होते हैं। काश ऐसा कुछ इस महिला आरक्षण के साथ न हो। वरना यह डर फिजूल नहीं है। अभी भी संसद में जो महिलाएं प्रतिनिधित्व कर रही हैं उनमें से कुल जमा दो या चार की बात छोड़ दें तो सभी का कुछ न कुछ राजनीतिक बैकग्राउण्ड है। वह चाहे सुप्रिया सुले हों, अगाथा संगमा हों, कुमारी शैलजा हों, परनीत कौर हों, नजमा हेपतुल्ला हों, हरसिमरत कौर बादल हों या मौसम नूर हों अथवा मीरा कुमार। यह सभी महिला होने के नाते राजनीति में मुकाम हासिल नहीं कर पाई हैं बल्कि अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण ही ऐसा कर पाई हैं। इस आरक्षण की सार्थकता तभी है जब यह कुछ खास राजनीतिक परिवारों के चंगुल से बाहर निकलकर आम भारतीय नारी के उत्थान के लिए कुछ कर सकें।
जैसा कि यूपीए अधयक्षा सोनिया गांधाी ने कहा है कि वह इस बिल को इसलिए पारित कराना चाहती हैं क्यों कि यह राजीव जी का सपना था। तो दुआ कीजिए कि महिला दिवस पर महिलाओं को विधायिका में आरक्षण का तोहफा देने के बाद कांग्रेस अधयक्षा सोनिया गांधाी बेटा और बेटी में कोई फर्क न मानते हुए राहुल गांधाी से ज्यादा योग्य और खूबसूरत अपनी बेटी प्रियंका को कांग्रेस का राजपाट सौंपने की घोषणा भी करेंगी। तभी यह महिला दिवस और महिला आरक्षण सार्थक होगा।
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