शनिवार, 20 मार्च 2010

महिलाएं जीतीं, लोकतंत्र हारा

महिलाएं जीतीं, लोकतंत्र हारा


अमलेन्दु उपाध्याय


महिला आरक्षण बिल को पास कराने के लिए कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दल भाजपा व वाम दलों ने जो तरीका अपनाया, उससे फासीवाद के आने की आहट सुनाई देने लगी है। राज्यसभा में यह बिल पास होने पर निश्चित रूप से महिलाएं तो जीती हैं, लेकिन लोकतंत्र हार गया है



राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के बावजूद महिलाओं को विधायिका में तैंतीस प्रतिशत आरक्षण का तेरह साल पुराना ख्वाब सच होने से बहुत दूर है। जाहिर है यदि यह पारित हो जाता तो बिल महिला सशक्तिकरण की दिशा में चला गया एक कदम साबित हो सकता था। लेकिन किन महिलाओं का सषक्तिकरण? यह बहस का मुद्दा है। इस बिल को पास कराने के लिए जिस तरह से सत्तारूढ़ दल कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दलों भाजपा तथा वामपंथी दलों ने जो तरीका अपनाया उससे फासीवाद के आने की आहट सुनाई देने लगी है। राज्यसभा में यह बिल पास होने पर निश्चित रूप से महिलाएं तो जीती हैं लेकिन लोकतंत्र हारा है।

इस बिल पर सपा, राजद और जद-(यू) ने जो आपत्तियां उठायी हैं उन्हें थोथी महिला विरोधी हरकत कहकर नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। इस बात में कोई शक नहीं है कि इस बिल का लाभ सबसे ज्यादा सवर्ण महिलाएं और खासतौर पर कुछ परिवारों की ही महिलाएं उठाएंगी। इस बिल को लेकर समाजवादी धड़ा दलित, मुस्लिम और पिछड़ा विरोधी होने का जो आरोप लगा रहा है उसे नौ तथा दस मार्च के अखबारों की सुर्खियों जैसे ‘यादव ब्रिगेड के साथ ममता की खिचड़ी नहीं पक पाई’, ‘यादव ब्रिगेड ने रोका महिला विजय रथ’, और ‘यादव तिकड़ी ने नहीं चलने दी लोकसभा’ और तथाकथित नारीवादी महिलाओं की लालू- मुलायम के खिलाफ जातिवादी टिप्पणियों ने सही साबित कर दिया है। लगभग सभी समाचार चैनल्स पर समाचार वाचकों ( इन्हें पत्रकार समझने की भूल न की जाए ) की सपा और राजद को खलनायक साबित करतीं टिप्पणियां भी साबित कर रही थीं कि महिला आरक्षण की आड़ में पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ साजिश रची जा रही है।

जो सबसे बड़ा खतरा इस बिल के बहाने सामने आया है उससे लोकतंत्र की अवधारणा पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है। जब विपक्ष की मुख्य पार्टी भारतीय जनता पार्टी सत्तारूढ़ दल कांग्रेस से मिल जाए और तो और ‘लोकतांत्रिक, जनवादी धर्मनिरपेक्ष’ विकल्प चिल्लाने वाली माकपा और भाकपा भी कांग्रेस और भाजपा से मिल जाएं तो कैसा लोकतंत्र? फिर लोकतंत्र की अवधारणा अल्पसंख्यकों पर बहुमत का शासन नहीं है। लेकिन राज्यसभा में जो तरीका अपनाकर यह बिल पारित कराया गया उसने नारी सशक्तिकरण और लोकतंत्र दोनों पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया।

अगर कल कांग्रेस, भाजपा और वामदल इस बात पर सहमत हो जाएं कि अब इस मुल्क में चुनाव नहीं होंगे और बारी बारी से उनका प्रधानमंत्री बनता रहेगा तब क्या यह संविधान संषोधन भी मार्षलों की मदद से पारित करा दिया जाएगा और पूरा मुल्क लोकतंत्र के जनाजा निकलने का तमाषा देखता रहेगा? या भाजपा और कांग्रेस में आम सहमति बन जाए कि अब भारत को हिन्दू राश्ट्र बना दिया जाए तो क्या मार्षलों की मदद से भारत को हिन्दूराश्ट्र बनाने का सेविधान संषोधन भी पारित करा दिया जाएगा? यहां विरोध महिलाओं को राजनीति में स्थान मिलने का नहीं हो रहा है बल्कि इस बहाने जो फासीवाद उभर रहा है उसकी तरफ ध्यान दिलाया जा रहा है क्योंकि जरूरी नहीं कि हर बार फासीवाद धर्म का चोला ओढ़कर ही सामने आए।

मान लिया कि सदन के अंदर हंगामा करना संसदीय आचरण नहीं है। लेकिन क्या सरकार का इन दलों से बात न करने के रवैये और राज्यसभा में मार्शलों का प्रयोग करके बिल पारित कराने को भी उचित ठहराया जा सकता है? क्या यह सरकार का फासीवादी और तानाशाहीपूर्ण रवैया नहीं है?

सवाल यहां राज्यसभा के सभापति से भी हो सकते हैं। सभापति सिर्फ सरकार के सभापति नहीं हैं। वह पूरे सदन के सभापति हैं। अगर सदन में षोर षराबा हो रहा था तो उन्हें सदन के सामान्य होने का इंतजार करना चाहिए था न कि रूलिंग पार्टी की मांग पर विरोध करने वालों को सदन से बाहर करा देना चाहिए था?

एक निजी चैनल पर इस बिल की पैरोकार एक तथाकथित समाजसेविका तर्क दे रही थीं कि संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण का प्रावधान नहीं है इसलिए मुसलमानों को आरक्षण नहीं दिया जा सकता। यहां प्रतिप्रष्न यह है कि क्या संविधान में लिंग के आधार पर आरक्षण का प्रावधान है? सवाल यहां यह भी है कि जब संविधान बना था तब कहा गया गया था कि धर्म और लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन क्या यह बिल संविधान की उस मूल भावना के अनुसार है? दरअसल इस बिल की आड़ में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिषों को कूड़ेदान में डालने का शडयंत्र रच रही हैं।

याद होगा जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री थे उस समय उनकी सरकार ने महिलाओं में षिक्षा को बढ़ावा देने के लिए स्नातक तक लड़कियों की फीस माफ की थी और ‘कन्या विद्या धन योजना’ नाम की एक योजना प्रारम्भ की थी जिसमें इंटर में पढ़ने वाली गरीब लड़कियों को एक प्रोत्साहन राषि दी जानी थी। उस समय यही राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी चिल्ला रहे थे कि यह सरकारी धन की फिजूलखर्ची है और वोट खरीदने का एक तरीका है। यानी आम महिलाओं की षिक्षा और तरक्की के लिए अगर कोई योजना लागू की जाए तो वह फिजूलखर्ची और ब्यूटी पार्लर, बटरस्काॅच, एयरकंडीशनर और समाजसेवा का काॅकटेल बनाकर नारी अधिकारों की बातें करनी वाली तथाकथित समाजसेवी महिलाओं को विधायिका में आरक्षण दे दिया जाए तो वह प्रगतिषील कदम!

आज लोकसभा का चुनाव लड़ने पर लगभग पांच करोड़ रूपया खर्च होता है, ऐसे में क्या यह संभव है कि खेत में काम करने वाली मजदूर और घरों में चैका- बर्तन करने वाली आम महिला को इस बिल से कुछ लाभ होगा। हां उन महिलाओं का भला जरूर होगा जो तथाकथित रूप से प्रगतिषील हैं, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती हैं और हिंदी से नफरत करती हैं, जो वोट डालने इसलिए नहीं जातीं क्योंकि पोलिंग बूथ पर लाइन में लगना पड़ता है लेकिन टीवी स्क्रीन पर चटर- पटर राजनेताओं को गरियाकर अपने पढा लिखा होने का सबूत पेष करती हैं। इसलिए इस बिल के पास हो जाने से भी आम महिलाओं के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

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