गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

जरदारी से नहीं बुश से मांगो मसूद अजहर

जरदारी से नहीं बुश से मांगो मसूद
अज़हर

अमलेन्दु उपाध्याय -

अमलेन्‍दु उपाध्‍यायसुषमा स्वराज भाजपा की कोर ग्रुप की सदस्या हैं। यूं तो उनकी पृष्ठभूमि समाजवादी है, पर उन्होंने संघ की शाखा भले ही ज्वाइन न की हो पर झूठ को सच दिखाकर बोलने का संघी प्रशिक्षण उन्होंने जरूर ग्रहण किया है। लेकिन उनकी समाजवादी पृष्ठभूमि उनके संघी प्रशिक्षण पर यदा कदा हावी हो ही जाती है खासतौर पर तब वह झूठ बोलकर अपनी कुटिल मुस्कान से झूठ को सच दिखाने का प्रयास करती हैं।
जयपुर, बेंगलुरू और सूरत-अहमदाबाद की घटनाओं के बाद सुषमा जी ने कुटिल मुस्कान बिखरते हुए जो कहा था उसका लब्बो लुबाव था कि तीनों भाजपा शासित राज्यों में क्रमवार बम विस्फोटों के पीछे कांग्रेसी हाथ था। सुषमा जी राजग सरकार की महत्वपूर्ण नीति निर्धारकों में रही हैं और वे भली भांति जानती हैं कि सत्ता के खेल कैसे खेले जाते हैं। लिहाजा जो उनके अपनी सरकार के समय के अनुभव थे, वे उन्हीं के आधार पर ही बोल रही थीं। परंतु अब सुषमा जी क्या कहेंगी कि दिल्ली, फिर असम और अब मुंबई तीनों कांग्रेस शासित राज्य हैं, जहां आतंकी हमले हुए हैं और उनका राजनीतिक लाभ भाजपा को मिला है। अगर सुषमा जी का पहले दिया गया वक्तव्य सही था तो निश्चित रूप से दिलली, असम और मुंबई की घटनाओं के पीछे कौन है, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
सुषमा स्वराज हों या आडवाणी जी, ये सियासी वाचाल लोग हैं। लेकिन मनमोहन सिंह तो धीर गंभीर अधिकारी हैं ( माफ करें मनमोहन के लिए नेता शब्द प्रयोग नहीं किया जा सकता चूंकि नेता अपने फॉलोअर्स के कारण्ा बनता है भले ही वो शाहबुद्दीन हो या फिर पप्पू यादव लेकिन मनमोहन सिंह किसके नेता हैं ?) अगर वे चाहते तो इस समस्या का हमेशा के लिए खात्मा कर सकते थे चूंकि उनका कुछ भी दांव पर नहीं लगा था। अगर मान लिया जाए कि आम चुनाव के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो जाएगी तो भी कांग्रेस उन्हें दोबारा प्रधानमंत्री तो बनाने से रही! और अगर कांग्रेस की लुटिया डूब जाती है तो वैसे ही अ-सरदार प्रधानमंत्री का बिस्तरा गोल है। सो मनमोहन सिंह अगर चाहते तो इस समस्या का निदान कर सकते थे लेकिन वे ठहरे मुनीम सो विदेशी मोर्चे पर अमरीका की कठपुतली बन गए और घरेलू मोर्चे पर भाजपा के चक्रव्यूह में फंस गए ।मनमोहन सिंह की अमरीका और बुश से दोस्ती से फायदा यह हुआ कि जैसे ही मुंबई में शूट आउट रुका वैसे ही अमरीकी खुयिा एजेंसी एफबीआई और इसराइली खुयिा एजेंसियों के अधिकारी मुंबई पहुंच गए। लेकिन इसराइली खुफिया अधिकारियों ने पहुंचते ही जो बयान दिया उसमें हमारे सैन्य बलों को नाकारा साबित कर दिया आर पूरे शूट आउट को विफल घोषित कर दिया।
अब अगर पूछा जाए कि अमरीका और इसराइल भारत के इतने ही हमदर्द थे तो इनकी सेनाएं अफगानिस्तान और इराक में डेरा डाले बैठी हैं, उन्हे तुरंत मुंबई क्यों नहीं भेज दिया? कोंडालिजा राइज तुरंत भारत आ गईं लेकिन पाकिस्तान को दी जा रही अमरीकी आर्थिक सहायता आज तक बंद नहीं की गई है। ऐसा क्यों? अगर पाकिस्तान को अमरीकी आर्थिक सहायता और अमरीकी हथियार मिलना बंद हो जाएं तो पाकिस्तान की अकल तो 24 घंटे में दुरूस्त हो जाए।
जो सूचनाएं मिल रही हें, उनके अनुसार हमलावर आतंकवादियों ने ताज होटल और नरीमन हाउस में चुनचुनकर अमरीकी और इजराइली नागरिकों को मारा। इसके गूढ़ अर्थ हैं। 9/11 के बाद अमरीका में घुसना इन आतंकवादियों के लिए आसान नहीं रहा, लेकिन अमरीका के नए दोस्त मनमोहन के उस भारत पर हमला तो आसान है, जिसकी सेना में कर्नल पुरोहित जैसे लोग हैं। मुंबई पर हमला भारत सरकार की अमरीकापरस्त नई विदेश नीति और इजराइल अमरीका के साथ संयुक्त नौसैनिक अभ्यास को चुनाती है।
तमाशा यह है कि अमरीका, अडवाणी और मनमोहन सिंह तीनों कह रहे हैं कि आई एस आई ने हमला कराया, लेकिन तीनों में से कोई भी यह बताने को राजी नहीं है कि आई.एस.आई को प्रशिक्षण हथियार, पैसा और मादक द्रव्य सीआईए से मिल रहे हैं। क्यों नहीं मनमोहन सिंह और अडवाणी सीआईए के खिलाफ बोलते?
घरेलू राजनीति में भी मनमोहन सिंह भाजपा के चक्रव्यूह में फंस गए हैं। मनमोहन सिंह, मनमोहन से कड़क सिंह बनने के चक्कर में युध्दोन्मादी भाषा बोल रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि चुनाव से पहले अगर पाकिस्तान से जंग-जंग खेल लिया जाए तो कांग्रेस को वैसा ही फायदा होगा जैसा कारगिल के बाद भाजपा को हुआ था। यह आत्मघाती सोच है। अडवाणी जी भी मनमोहन के मन की बात ताड़ गए हैं, सो पहले सरकार को नाकारा तो कह रहे थे लेकिन नेकर वाले पिछले 61 वर्षों से जो भाषा ‘नक्शे में से नाम मिटा दो पापी पाकिस्तान का’ बोलते रहे हैं, अब उसे बोलने से परहेज कर रहे हैं।
मनमोहन सिंह पाकिस्तान से मसूद अजहर और दाउद को मांग रहे हैं, पाकिस्तान बदले में भारत से बाल ठाकरे मांग रहा है। ये एक्सचेंज बुरा तो नहीं है? अगर एक बाल ठाकरे पाकिस्तान को सौंपकर भारत में शांति आ जाए तो बुरा क्या है? वैसे भी ठाकरे को भारत में वोट का अधिकार समाप्त है। अगर चीन भारत से दलाई लामा, श्रीलंका प्रभाकरण और नेपाल योगी आदित्यनाथ मांगे तो भारत दे देगा? फिर पाकिस्तान से हम किस आधार पर उम्मीद कर रहे हैं कि वह उन आतंकवादियों को हमें सौंप देगा जिन्हें जसवंत सिंह सरकारी दामाद बनाकर कंधार छोड़कर आए थे।
परंतु मनमोहन की समस्या यह है कि वह हमला तो पाकिस्तान पर कर रहे होते हैं और दिमाग में उनके अडवाणी जी घुसे होते हैं। लेकिन मनमोहन यह क्यों भूल जाते हैं कि वो जिस पाकिस्तान से मसूद अजहर मांग रहे हैं वह अब जरदारी का है जिसकी बीबी काें इन्हीं आतंकवादियों ने मारा है और उसमें आईएसआई का हाथ है। जरदारी के सामने नई मुश्किलें खड़ी करके मनमोहन सिंह, अडवाणी के दबाव में ऐसा काम कर रहे हैं जो भारत के लिए हमेशा के लिए नासूर बन जाएगा। हम यह बात क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि सुरक्षित और शांत भारत के लिए पड़ोस में लोकतांत्रिक पाकिस्तान का होना बहुत जरूरी है।जब तक वहां सैन्य सरकार या सेना का हस्तक्षेप रहेगा तब तक भारत में शांति बहाल नहीं हो सकती।
भारत को अगर दबाव बनाना है तो जरदारी के बजाए उस जॉर्ज बुश पर बनाए जिसे मनमोहन सिंह अभी थोड़े समय पहले ही आई लव यू बोल कर आए है। और जिसके पिता सीनियर बुश ने माफियाओं और तस्करों को जोड़कर सीआईए बनाई थी। वैसे अडवाणी जी और मनमोहन के मीत बुश साहब अभी तक पाकिस्तान में मौजूद ओसामा, जवाहिरी और बैतुल्ला को ना मार पाए हैं और न पकड़ पाए हैं, फिर मनमोहन को कैसे मिलेगा मसूद अजहर? मांगा तो पाकिस्तान से बुश ने भी दाउद को था, पर मिला तो नहीं ! मतलब जो काम खुद नहीं कर पाए उसे मनमोहन से कराना चाहते हैं बुश??????

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