सोमवार, 29 दिसंबर 2008

जंग तो खुद एक मसला है जंग क्या मसलों का हल होगी

जंग तो खुद एक मसला है जंग क्या मसलों का हल होगीnmumbai आतंकवादी हमले के तुरंत बाद अमरीकी विदेश मंत्री कोंडालिजा राइज भारत के साथ आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता दिखाने के लिए भारत आ पहुंचीं। अब यह तो पता नहीं कि अमरीका का साथ भारत को कितना मिलेगा परंतु इतना अवश्य है कि आतंकवादियों की नजर में भारत अब उतना ही बड़ा निशाना बन गया है जितना अमरीका।राइज का भारत के साथ खड़ा होना हमें महाभारत के युध्द की याद दिलाता है, जहां श्री कृष्ण स्वयं तो पांडवों के साथ थे और उनकी सेना कौरवों के लिए लड़ रही थी। ठीक उसी तरह अमरीका के हथियार और पैसा आई एस आई और पाकिस्तान के पास हैं और भारत के पास मनमोहन के मीत बुश हैं।
मुंबई हमले के बाद एक बहस समूचे देश में चल रही है कि अमरीका में 11/9 के बाद कोई आतंकी घटना नहीं हुई परंतु भारत में एक के बाद एक कई घटनाएं हो चुकी हैं, लिहाजा भारत को भी अमरीका से सबक लेकर पाकिस्तान पर हमला बोल देना चाहिए। सुनने में यह विचार बहुत अच्छा है, परंतु कूटनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के लिहाज से एकदम फूहड और बचकाना।
नि:संदेह मृत्यु कष्टकारी है और ऐसे संदर्भ में जब सामूहिक और हत्या के रूप में हो तो मौत विक्षोभ पैदा करती है। लेकिन 11/9 के बाद अमरीका के नेतृत्व में ‘आतंक के विरुध्द लड़ाई’ के नाम पर जो किया गया है, वह न केवल अमानवीय है बल्कि किसी भी हाल में 11 सितंबर से कम हिंसक और आतंकवादी नहीं है।
11 सितंबर के बाद कई सवाल उभरकर सामने आए हैं, जिनका उत्तर अमरीका की तरफ से आज तक नहीं आया है। विश्व में आतंक के लिए आज जिस इस्लामी फण्डामेंटलिज्म को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, वह अमरीका का ही पाला पोसा हुआ है। सोवियत संघ, अफगानिस्तान और पोलैण्ड जैसे साम्यवादी देशों में कम्युनिज्म की समाप्ति के लिए अमरीका ने इन इस्लामिक फण्डामेंटलिस्ट्स को हथियार, पैसा , प्रशिक्षण और गोला बारूद उपलब्ध कराया।
तो अब वे कौन से कारण हैं कि शीत युध्द की समाप्ति के बाद जब दुनिया एक ध्रुवीय हो गई थी और धुरी अमरीका बन गया था व सारी दुनिया पर अमरीका का आर्थिक व सामरिक साम्राज्य स्थापित हो चुका था, तब सारी दुनिया में आतंक पनप रहा है और अमरीका के ही दिए हथियार तबाही मचा रहे हैं?
गौरतलब है कि पश्चिमी सभ्यता और अमरीका ने अपना आर्थिक साम्राज्य सारी दुनिया पर कायम करने के लिए भूमण्डलीकरण और हथियारों को जरिया बनाया है। सही मायनों में अमरीका की आर्थिक नीतियों के असंतोष से आतंकवाद पनपा है। क्या इस आरोप के समर्थन में एक ही तर्क पर्याप्त नहीं है कि ग्यारह सितंबर को आतंकवादियों ने हमले के लिए ‘स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी’ को निशाना नहीं बनाया, बल्कि भूमण्डलीकरण के प्रतीक ‘विश्व व्यापार केंद्र’ एवं सारी दुनिया में आतंक, हत्या और तख्तापलट के लिए जिम्मेवार माने जाने वाले कुख्यात अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्र केंद्र- ‘पेंटागन’ को ही निशाना क्यों बनाया? क्या कारण है कि दूसरे मुल्कों में भी आतंकवादी हमलों का निशाना ‘अमरीकी वाणिज्य दूतावास’ ही बने है? क्या कारण है कि मुंबई में ताज होटल में हत्यारे आतंकवादी विदेशी पर्यटकों के पासपोर्ट देख देख कर अमरीकी और इसराइली नागरिकों को अपना निशाना बनाते हैं या नरीमन हाउस पर धावा बोलते हैं?
आतंकवाद के विरूध्द अमरीका की लड़ाई बेमानी है, चूंकि अमरीका का अब तक का इतिहास लगातार आतंकवादी जमातों को पालने पोसने और षडयंत्रों तथा हत्याओं के जरिए तख्तापलट का रहा है। शीत युध्द के दौरान समाजवादी देशों में अमरीका ने इस्लामिक फण्डामेंटलिस्ट्स को हथियार और धन मुहैया कराया ताकि वहां तख्ता पलट करके उसकी कठपुतली सरकारें बन सकें। अफगानी मुजाहिदीन और तालिबान भी अमरीका की ही देन हैं, जिन्हें हथियार और धन देकर उसने अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट शासन का तख्तापलट कराया था। स्वयं ओसामा बिन लादेन पहले अमरीकी एजेंट था और सद्दाम हुसैन ने भी अमरीका की शह पर तख्तापलट करके ही सत्ता हथियाई थी।
इसी प्रकार श्रीलंका के आतंकवादी संगठन लिट्टे को अमरीका समर्थित इजराइली खुफिया एजेंसी ‘मोसाद’ ने प्रशिक्षित किया है। क्या यह सच नहीं है कि कालांतर में भारत के खालिस्तानी आतंकवादियों को सी आई ए की मदद मिलती रही है और अमरीका में बैठकर ही खालिस्तान के नेता भारत में अपनी आतंकवादी कार्रवाइयां संचालित करते रहे हैं?
अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर बेगुनाह अफगान नागरिकों की हत्या करने के पीछे भी क्या अमरीका की मंशा सिर्फ तालिबान का तख्तापलट करना ही नहीं था? चूंकि अभी तक न तो ओसामा बिन लादेन पकड़ा गया है और न मारा गया है। मुल्ला उमर भी अमरीकी पकड़ से बाहर है, फिर अमरीका ने अफगानिस्तान में अपना अभियान रोक क्यों दिया है?
क्या इराक पर हमला करने के पीछे भी अमरीका की मंशा वहां सिर्फ सद्दाम का तख्तापलट करना नहीं थी?वरना बुश साहब अभी तक उन जैविक और रासयनिक हथियारों को खोज क्यों नहीं पाए जिनका आरोप सद्दाम के ऊपर मढ़ा गया था। बल्कि ऐसे बम अमरीका के पास मौजूद हैं। कुछ दिन पहले रिपोर्ट्स आई थीं कि ‘सुनामी’ अमरीका के द्वारा समुद्र के भीतर एक आणविक विस्फोट करने के कारण आई थी। फिलिस्तीन के प्रकरण पर भी अमरीका का रवैया आतंकवादी रहा है। इसराइल के विरूध्द जब जब यूएनओ में प्रस्ताव आए तब तब अमरीका ने अपने वीटो का प्रयोग किया और स्वतंत्रता की कामना संजोए फिलिस्तीनियों के दमन में सहयोगी बना। क्या यह सच नहीं है कि सत्तर के दशक में भारत पर हमला करने के लिए अमरीकी नौसेना का सातवां बेड़ा करांची तक आ गया था?
जिस मुल्क ने लगातार तीस वर्ष तक वियतनाम पर नापाम बम बरसाकर धरती लहुलुहान की हो , हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराए हों, इराक में पांच लाख बेगुनाह बच्चों का कत्ल किया हो, उसे यह अधिकार कैसे दिया जा सकता है कि वह तय करे कि कौन आतंकवादी है? और हमारे भद्रजन एक हत्यारे और आतंकवादी मुल्क से ‘आतंक के विरुध्द लड़ाई का सबक सीखना चाहते हैं!
अगर अमरीका, फिडेल कास्त्रो, पुष्प कमल दहल ‘प्रचण्ड’ और अहमदीनेजाद को आतंकवादी घोषित कर दे, तो हम अमरीकी फरमान कैसे मान लें? अमरीकी फरमान मनमोहन सिंह मान सकते हैं, चूंकि वह अभी अभी बुश को ‘आई लव यू’ बोलकर आए हैं, अडवाणी जी मान सकते हैं, क्योंकि उनके गुरु ने अमरीका को धार्मिक योध्दा घोषित किया था। लेकिन सारी दुनिया को गौतम, महावीर और गांधी की अहिंसा व ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का संदेश देने वाला ये भारतवर्ष कैसे किसी आतंकवादी और हत्यारे का हमराह बन जाए?
ग्यारह सितंबर से पहले भी ‘विश्व व्यापार केंद्र’ पर 1993 में आतंकवादी हमला हुआ था, उस समय भी अमरीका ने इस्लामी कट्टरवाद को दोषी ठहराया था।परंतु उसी समय स्वयं अमरीकी खुफिया तंत्र ने खुलासा किया था कि उस हमले के पीछे एक पूर्व अमरीकी सैन्य अधिकारी का हाथ था। उस समय भी एक बड़ा नरसंहार होते होते बच गया था। अफगानिस्तान और इराक में लंबा खूनी सफर तय करने के बाद भी आज तक अमरीका 11/9 के पीछे ओसामा या सद्दाम के हाथ होने का कोई प्रमाण नहीं दे पाया है।
आतंकवाद के विरुध्द युध्द संचालित करने का असल मकसद अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ उठ रहे विश्वव्यापी असंतोष को दबाना है। सारी दुनिया में और खासतौर पर विकासशील देशों में भूमण्डलीकरण (भारत में जिसके पैरोकार मनमोहन और अडवाणी दोनों हैं) और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट खसोट के खिलाफ जनमत तैयार हो रहा है। अगर यही स्थिति रही तो अमरीकी कंपनियों को दुनिया में कारोबार करना दुश्वार हो जाएगा। इसीलिए अमरीका आतंक के खिलाफ लड़ाई में भारत के साथ खड़ा होना दिखाना चाहता है, चूंकि डूबती अमरीकी अर्थव्यवस्था क लिए भारत एक बड़ा बाजार है।
जो लोग अमरीका के नक्शे कदम पर चलने की सलाह दे रहे हैं, क्या वे यह नहीं देख रहे हैं कि अमरीका की इन्हीं युध्दोन्मादी और सामा्रज्यवादी नीतियों और इराक में बुरी तरह घिर जाने के चलते ही उसका दिवाला निकल गया है। दुनिया का हेकड़ दादा आज विश्व का सबसे बड़ा कर्जदार मुल्क है।और जो भारत को अमरीका बनने की सलाह दे रहे हैं उन्हें यह भी तो बताना चाहिए कि अमरीका बनने पर मुंतजिर अल जैदी का जूता भी मुफ्त में मिलता है, इसे लेने को कौन सा हुक्मरां रजामंद है?
फैज अहमद ‘फैज’ की एक लंबी नज्म है, जिसका सारांश है कि जंग तो खुद एक मसला है, जंग क्या मसलों का हल होगी? इसलिए ए शरीफ इंसानों इंसानियत की बेहतरी के लिए जंग टलती रहे तो बेहतर है।
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और एक पत्रिका से जुड़े हुए हैं।)पता-द्वारा एस सी टी मिमिटेडसी-15, मेरठ रोड इण्डस्ट्रियल एरियागाजियाबादउ0प्र0पिन-201003

2 टिप्‍पणियां:

  1. युद्धोन्मादी अन्धराष्ट्रवाद हमेशा ही फ़ासिस्ट और साम्राज्यवादपरस्त ताकतों का मार्ग प्रशस्त करता है और जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वे उसे दुहराने को अभिशप्त होते हैं। बहुत अच्छा आलेख।
    बधाई।

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