बुधवार, 15 अप्रैल 2009

मायावती और आयोग की निष्पक्षता के सवाल

मायावती और आयोग की निष्पक्षता के सवाल -
अमलेन्दु उपाध्याय,
बुधवार, 15 अप्रैल, 2009
आजकल उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री, बहन मायावती, चुनाव आयोग से बहुत ज्यादा खफा हैं। कारण है, कि बहन जी प्रमुख प्रतिद्धन्दी समाजवादी पार्टी की शिकायत पर चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव-गृह, कुंवर फतेह बहादुर को हटाने का फरमान जारी कर दिया। बहन जी का गुस्सा होना लाजिमी है, क्योंकि कुंवर फतेह बहादुर, बहन जी के खासमखास लेफटीनेन्ट और कुर्क अमीन हैं, जिनकी भूमिका की चर्चा सत्ता के गलियारों में इसलिए होती है कि उनके और पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह के भागीरथ प्रयास और अथक परिश्रम से माफिया सरगना मुख्तार अंसारी, अफजाल अंसारी, धनंजय सिंह, और अरुण शंकर शुक्ल उर्फ अन्ना जैसे अपराध की दुनिया के धुरंधर, बहन जी का अपराधमुक्त प्रदेश बनाने के लिए न केवल साथ दे रहे हैं, बल्कि बहन जी के हाथी पर सवार होकर उन्हें 7, रेसकोर्स पहुंचाने के लिए आहुतियां भी दे रहे हैं। इस पुनीत यज्ञ में पहली आहुति जौनपुर से इंडियन जस्टिस पार्टी के उम्मीदवार की हत्या से शुरू हुई है। लेकिन अभी मुश्किल से डेढ़ बरस ही बीता होगा, जब बहन जी उत्तर प्रदेश में ‘ब्लू क्रान्ति’ करके सत्तरूढ़ होने के बाद, सबसे पहले शुक्रिया अदा करने, मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी के पास गई थीं। गोपालस्वामी ने भी माथे पर तिलक लगाकर सार्वजनिक बयान दिया था कि अगर उन्होंने हर विधानसभा क्षेत्र में तीन चार हजार फर्जी वोट डालने से नहीं रोका होता, तो उत्तर प्रदेश में चुनाव के मतलब बदल गए होते। यानी गोपालस्वामी ने अपरो़क्ष रूप से स्वीकार किया था कि अगर उन्होंने समाजवादी पार्टी के लोगों के ऊपर डण्डा नहीं चलाया होता, तो मुलायम सिंह सत्ता में आ गए होते। यह बात सही भी है कि गोपालस्वामी ही अकेला ऐसा कारक थे, जिसने मायावती को सत्ता दिलाई। अगर चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश में कथित निष्पक्षता नहीं दिखाई होती और पिछड़े व अल्पसंख्यक मतदाताओं को केन्द्रीय बलों का खौफ दिखाकर, स्वयं माथे पर लम्बा तिलक लगाकर यह संकेत न दिया होता, कि तिलक वाले ( ब्राह्मण) अब दलितों के वोट डलवाएंगे, तो मायावती 2007 का विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार गई होतीं। याद है कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की घोषणा से पहले समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के तीन साल पूरे होने पर सपा कार्यालय में एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ था, जिसमें प्रदेश के मुख्य सचिव, पुलिस महानिदेशक ने भी शिरकत की थी। इस पर बहन जी ने जबर्दस्त हंगामा मचाया था। उच्च न्यायालय द्वारा इन अधिकारियों को क्लीन चिट देने के बावजूद, आयोग ने इन अधिकारियों को हटा दिया था। आयोग के इस फैसले के विरोध में तत्कालीन पुलिस महानिदेशक बुआ सिंह ने अपने रिटायरमेन्ट से कुछ दिन पूर्व ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया था। तब बहन जी के लिए चुनाव आयोग पाक-साफ और निश्पक्ष था। हालांकि बुआ सिंह मायावती के ही नजदीकी माने जाते थे। लेकिन सवाल यह है कि क्या चुनाव आयोग वाकई में निष्पक्ष है? पिछले घटनाक्रम पर नजर दौड़ाएं, तो जाहिर हो जाता है कि न तो चुनाव आयोग निष्पक्ष है और न राजनीतिक दल ईमानदार। याद कीजिए कि जब मुलायम सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में उनके चहेते अफसर हटाए गए थे तब उनका जवाब था कि उत्तर प्रदेश के अफसर बहुत काबिल हैं और आयोग राजनीतिक दवाब में ऐसा कर रहा है। अगर तब अफसर बहुत काबिल थे, तो क्या मुलायम सिंह के सत्ताच्युत होते ही सारे अफसर नालायक हो गए? दरअसल चाहे मायावती हों या मुलायम या अन्य कोई नेता, जिसकी जहां सरकार है वह, वहां अफसरों का नाजायज इस्तेमाल करके ही चुनाव जीतना चाहता है, अपनी नीतियों, कार्यक्रम और कार्यकत्र्ताओं के बल पर नहीं। याद है मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री रहते हुए अपने कार्यकत्र्ताओं को हिदायत दी थी, कि वे अफसरों पर दबाव नहीं बनाएं। आखिर क्यों? इसी तरह अभी बमुश्किल दो महीने हुए होंगे, जब गोपालस्वामी ने नवीन चावला के खिलाफ राष्ट्रपति को सिफारिश की थी। तब भाजपा ने कांग्रेस पर आरोप लगाया था, कि वह संवैधानिक पदों का अपमान कर रही है। लेकिन जब उन्हीं गोपालस्वामी ने वरुण गांधी के खिलाफ फैसला दे दिया तो भाजपा संवैधानिक पदों की बेइज्जती पर उतर आई और चुनाव आयोग की हदें तय करने की बहस की मांग करने लगी। चुनाव आयोग से पंगा लेने में अपने वामपंथी दल भी पीछे नहीं हैं। जब बंगाल विधानसभा के चुनाव हुए तो तृणमूल कांग्रेस की शिकायतों के आधार पर आयोग ने बंगाल में पर्यवेक्षक भेजने का ऐलान किया। पलटवार करते हुए मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने घोषणा कर दी कि चुनाव आयोग के विशेष पर्यवेक्षक बंगाल में धुसे, तो गिरफतार कर लिए जाएंगे। बाद में बमुश्किल यह टकराव रोका गया और पर्यवेक्षकों की निगरानी में ही चुनाव हुए। लेकिन वरुण मसले पर वामपंथी दल भी चुनाव आयोग के एकदम अनुशासित विद्यार्थी बन गए। जहां तक आयोग की निष्पक्षता का सवाल है, तो यह निष्पक्षता उसके कार्यकलाप में दिखनी भी चाहिए। लेकिन अक्सर होता यह है, कि निष्पक्षता साबित करने के अतिउत्साह में ऐसा आभास होने लगता है, कि आयोग किसी एक दल का पक्षधर बन गया है। और कभी-कभी होता भी ऐसा ही है। छपरा में पिछले चुनाव में भाजपा नेता राजीव प्रताप सिंह रूढ़ी की शिकायत पर आयोग ने निश्पक्षता दिखाने के चक्कर में लालू यादव की ऐसी तैसी कर दी। लेकिन नतीजा क्या हुआ? रूढ़ी तब भी बुरी तरह हारे। रूढ़ी को हारना पहले भी था, बाद में भी हारे और अब भी हारेंगे, लेकिन आयोग की तो भद्द पिटी। ठीक इसी तरह तृणमूल की शिकायत पर आयोग ने बंगाल की माकपा सरकार को नाकों चने चबवा दिए। यह हवा बनाई गई कि इस बार माकपा की सरकार उखड़ जाएगी, क्योंकि आयोग माकपा की गुण्डागर्दी पर रोक लगाएगा। लेकिन माकपा के लिए आयोग का यह कदम वरदान साबित हुआ। स्वयं आयोग के तत्कालीन पर्यवेक्षक केजे राव ने यह स्वीकारोक्ति की थी कि तृणमूल की 99 प्रतिशत शिकायतें फर्जी थीं और गुण्डागर्दी भी तृणमूल ही कर रही थी। जबकि माकपा जो शिकायतें करती थी, वह तथ्यों पर आधारित होती थीं और सही होती थीं। देखने में आया कि आयोग की सख्ती के बावजूद माकपा ने 51 प्रतिशत मत लेकर यह चुनाव जीता। आयोग की निष्पक्षता पर संदेह करने का कारण जायज है। टी एन शेषण को चुनाव सुधारों का जनक माना जाता है। लेकिन उनकी निष्पक्षता की कलई तब खुली, जब वे शिवसेना के टिकट पर चुनाव लड़े। एम एस गिल तो घोषित कांग्रेसी हो ही गए हंै। गोपालस्वामी भी दस पांच दिन में अपने रिटायरमेन्ट के बाद भगवा रंग में रंग जाएंगे। ऐसे में काहे की निष्पक्षता और काहे की ईमानदारी!!!!!

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