रविवार, 3 मई 2009

क्यों बेचैन है मुसलमान
अमलेन्दु उपाध्याय
हर बार लोकसभा चुनाव से पहले कुछ मुस्लिम बुध्दिजीवी और राजनीतिज्ञ विधायिका में मुसलमानों के गिरते प्रतिनिधित्व पर चिंता जताते हुए अनुसूचित जातियों की तरह ही मुसलमानों को विधायिका में आबादी के आधार पर प्रतिनिधित्व देने की मांग करते हैं और यह विचार का सिलसिला जो शुरू हो जाता है तो मुसलमानों की अलग पार्टी बनाने पर समाप्त होता है। इसके परिणाम स्वरूप हर बार मुस्लिम प्रतिनिधित्व कम होता चला जाता है। अब 'वजूद मोर्चा' नाम के एक संगठन द्वारा अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर मुसलमानों सहित अन्य अल्पसंख्यकों को चुनाव लड़ने की छूट दिए जाने की मांग से राजनीतिक दल परेशान हैं।
जिस समय बहुजन समाज पार्टी ''जिसकी जितनी संख्या भारी/ उतनी उसकी हिस्सेदारी'' का नारा देकर जाति और धर्म के आधार पर सियासत और सत्ताा में हिस्सेदारी देने की बात करके और मुस्लिम-दलित गठजोड़ के जरिए 85 फीसदी बहुजन का नारा देकर देश की राजनीति में प्रवेश कर रही थी, ठीक उसी समय देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह, मुसलमानों का विधायिका में प्रतिनिधित्व घटना शुरू हुआ।
अगर देश में संपन्न हुए प्रथम आम चुनाव से लेकर अब तक के आंकड़ों पर निगाह डाली जाए, तो मुस्लिम प्रतिनिधित्व को लेकर बहुत से भ्रम दूर हो जाते हैं और यह बात भी खुलकर सामने आ जाती है कि जब सांप्रदयिक मुद्दे गौण होते हैं, तब मुस्लिम प्रतिनिधिात्व बढ़ता है और अधिकांश मुस्लिम सांसद उन इलाकों से चुनकर आते हैं, जहां मुस्लिम आबादी अपेक्षाकृत कम है।
आजादी के बाद सन् 1952 में संपन्न हुए प्रथम आम चुनाव में 489 सदस्यों में से 21 मुस्लिम सदस्य जीतकर आए। जबकि उस समय मुसलमानों की आबादी 9.91 प्रतिशत थी। संख्या बल के प्रतिनिधित्व के लिहाज से उन्हें 49 सीटें मिलनी चाहिए थीं। इस चुनाव में कांग्रेस ने अपने 479 उम्मीदवारों में से कुल 21 मुसलमानों को टिकट दिया, जो 4.29 प्रतिशत की हिस्सेदारी थी। जबकि सोशलिस्ट पार्टी ने अपने 254 प्रत्याशियों में कुल दो प्रतिशत यानी 8 मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे। गौरतलब है कि इस आम चुनाव में विजयी 21 मुस्लिम उम्मीदवारों में से 19 कांग्रेस के टिकट पर जीत कर आए। अधिकांश मुस्लिम सांसद उन क्षेत्रों से जीतकर आए जहां मुस्लिम आबादी दस प्रतिशत से कम भी थी।
चौथी लोकसभा के लिए जब चुनाव हुए तो कांग्रेस विरोध की हवा थी। इस चुनाव में कांग्रेस ने अपने 516 प्रत्याशियों में 5.62 प्रतिशत यानी 29 मुसलमान प्रत्याशी उतारे, जिनमें से कुल 13 ने जीत दर्ज कराई। जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने 106 प्रत्याशियों में से 7 मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया जिनमें से कुल दो ही जीत पाए। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने सिर्फ एक मुस्लिम प्रत्याशी, बंगाल की बैरकपुर संसदीय सीट से मैदान में उतारा। स्वतंत्र पार्टी ने अपने 178 उम्मीदवारों में से 8.43 प्रतिशत यानी 15 मुसलमान प्रत्याशी बनाए, जिनमें से कुल 3 ही जीत दर्ज करा पाए। इस चुनाव की खास बात यह रही कि चार निर्दलीय मुस्लिम प्रत्याशी भी जीते, जिनमें से एक तो तमिलनाडु की रामनाथपुरम सीट से जीते, जहां मुस्लिम आबादी दस प्रतिशत से भी कम थी। इसी तरह एक निर्दलीय प्रत्याशी हरियाणा की गुड़गांव सीट से जीते, जहां का प्रतिनिधित्व पूर्व में मौलाना अबुल कलाम आजाद करते रहे थे। इसी चुनाव में प्रो. हुमांयू कबीर एक क्षेत्रीय पार्टी, बंगला कांग्रेस के टिकट पर विजयी हुए।
1977 में जब छठी लोकसभा के लिए चुनाव हुआ तो मुस्लिम मतदाताओं ने एकजुट होकर इंदिरा गांधी के खिलाफ मतदान किया। आपातकाल के दौरान खासतौर पर मुसलमानों को संजय गांधी द्वारा निशाना बनाए जाने के खिलाफ देश भर में मुसलमान कांग्रेस के खिलाफ चले गए। मुसलमानों ने इस चुनाव में कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशियों के खिलाफ भी जमकर मतदान किया। जबकि इस चुनाव में कांग्रेस ने अपने 492 उम्मीदवारों में से 7.52 प्रतिशत यानी 37 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे। इनमें से कुल 13 ही जीत हासिल कर पाए। इस चुनाव में जनता पार्टी ने 5.43 प्रतिशत यानी 405 में से 22 मुसलमानों को प्रत्याशी बनाया, जिनमें से 16 जीत कर आए।
अब तक हुए 14 चुनावों में से आठवीं लोकसभा के लिए 1980 में हुए चुनाव में मुस्लिम सांसदों का स्कोर सर्वाधिक रहा। इस चुनाव में भी कांग्रेस ने सर्वाधिक 41 मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे, जबकि उसने कुल 492 प्रत्याशी खड़े किए थे। इस चुनाव में 31 मुस्लिम प्रत्याशी कांग्रेस के टिकट पर जीत कर आए, जिनमें से अकेले उत्तार प्रदेश से ग्यारह सांसद कांग्रेसी थे। जनता पार्टी के 7 मुस्लिम सांसद भी जीते।
इस चुनाव में जनता पार्टी ने अपने 432 प्रत्याशियों में से 21 मुसलमान चुने थे। इस चुनाव की खास बात यह थी कि उत्तार प्रदेश से कुल 18 मुस्लिम सांसद थे। यदि आबादी के आधार पर आरक्षण लागू होता तो कुल 13 मुस्लिम सांसद ही उत्तार प्रदेश से चुनकर आ सकते थे। इस चुनाव में सांप्रदायिक मुद्दे बिल्कुल गायब थे।
गौर करने की बात यह है कि अब तक केवल माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ही इकलौती ऐसी पार्टी है जिसने 1977 से लेकर 2004 तक सर्वाधिक दस प्रतिशत मुस्लिम प्रत्याशी उतारने का रिकॉर्ड बरकरार रखा है।
1984 में आठवीं लोकसभा के लिए संपन्न चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में इंदिरा गांधी की हत्या के कारण सहानुभूति की लहर चली और इस चुनाव में भी मुस्लिम सांसदों ने अपना स्कोर बरकरार रखा। इस चुनाव में कुल 45 मुस्लिम सांसद चुनकर पहुंचे, जिनमें से 31 कांग्रेस के टिकट पर चुने गए। इस चुनाव में अपने कुल 517 उम्मीदवारों में से कांग्रेस ने 41 मुसलमानों को मैदान में उतारा। हालांकि 1980 और 1984 दोनों में कांग्रेस के मुस्लिम सांसदों की संख्या बराबर थी।
1989 में नवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में मुस्लिम प्रतिनिधिात्व का ग्राफ नीचे आ गया, जो अब तक जारी है। 1989 में राजीव गांधाी के विरोध में जनता दल का उभार था तो शाहबानो प्रकरण भी उबाल पर था। उच्चतम न्यायालय के फैसले को मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव में राजीव गांधी सरकार ने संसद में कानून बनाकर पलट दिया था। जबकि भाजपा, विहिप का राम मंदिर अभियान शुरू हो चुका था और राजीव गांधी अपने चुनाव प्रचार अभियान की शुरूआत अयोधया से कर चुके थे। इस सांप्रदायिक विषाक्त माहौल में मुस्लिम प्रतिनिधिात्व घटकर 33 रह गया। कांग्रेस ने इस चुनाव में अपने 510 प्रत्याशियों में से 37 मुसलमान उम्मीदवार बनाए, जिनमें से कुल 12 ही जीत दर्ज करा पाए। जबकि जनतादल ने अपने 243 उम्मीदवारों में से 18 मुसलमान प्रत्याशी बनाए, जिनमें से 12 जीत कर आए। इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने 25 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे, जिनमें से 14 अकेले उत्तार प्रदेश से थे। हालांकि बसपा का एक भी मुस्लिम प्रत्याशी जीत दर्ज नहीं करा सका, लेकिन उत्तार प्रदेश की अमरोहा, बरेली, डुमरियागंज और कैराना तथा बिहार के सीवान में बसपा के मुस्लिम प्रत्याशी कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशियों की हार का सबब बने। 1989 में मुस्लिम प्रतिनिधित्व में जो गिरावट शुरू हुई वह आज तक जारी है।
यहां देखने वाली बात यह है कि सिर्फ अधिक संख्या में मुस्लिम प्रत्याशी उतारे जाने से ही मुस्लिम प्रतिनिधित्व नहीं बढ़ता। बल्कि मुस्लिम प्रतिनिधित्व तब-तब बढ़ा है, जब-जब सांप्रदायिक मुद्दे गायब रहे हैं और मुस्लिम मतदाताओं ने भी बिना किसी भेदभाव के मतदान किया। वरना 1998 में तो कई दलों ने बड़ी संख्या में मुस्लिम प्रत्याशी उतारे और अधिकांश हार गए। इस चुनाव में जनता दल ने 17, राष्ट्रीय जनता दल ने 17, सपा ने 25, बसपा ने 23 मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे, जिनमें से सपा के 3, राजद के 3 और बसपा के 2 जीते, जबकि जनता दल के सभी हार गए। देखने में आया है कि बसपा का रोल शुरु से ही मुस्लिम वोटों को डिस्टर्ब करने का रहा है।
अगर 2004 में संपन्न पिछले लोकसभा चुनाव के आंकड़ों पर ही नजर डालें, तो इस चुनाव में कुल 36 मुस्लिम सांसद चुनकर आए जिनमें से 9 उन क्षेत्रों से जीतकर आए जहां मुस्लिम आबादी 50 प्रतिशत से अधिक है, 14 उन क्षेत्रों से जीतकर आए जहां मुस्लिम आबादी 22 से 40 प्रतिशत के बीच थी, जबकि 9 उन क्षेत्रों से जीतकर आए जहां मुस्लिम आबादी 11 से 18 प्रतिशत के बीच थी। और महाराष्ट्र की कोलाबा व तमिलनाडु की पेरियाकुलम ऐसी सीटें थीं जहां मुस्लिम आबादी क्रमश: आठ व पांच प्रतिशत थी, परंतु वहां से मुस्लिम प्रत्याशी जीते। इस प्रकार कुल 36 मुस्लिम सांसदों में से 27 ऐसे थे, जो हिंदू मतदाताओं के बल पर जीतकर संसद में पहुंचे।
उत्तार प्रदेश की रामपुर ऐसी सीट रही है जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 51 प्रतिशत है और वहां का प्रतिनिधित्व सपा के टिकट पर जीती दक्षिण भारतीय हिंदू महिला जया प्रदा कर रही हैं। हालांकि इस सीट पर चौदह चुनावों में ग्यारह बार मुस्लिम प्रत्याशी विजयी रहा है, लेकिन तीन बार हिंदू प्रत्याशी भी विजयी रहे। हिंदू प्रत्याशी एक बार भारतीय लोकदल, एक बार भाजपा और एक बार सपा के टिकट पर जीता, जबकि 9 बार कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशी ने जीत दर्ज कराई।
इसके विपरीत पं. बंगाल की जंगीपुर ऐसी सीट है जहां 59 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं यहां 1977 में रिकार्ड बना। माकपा के एस सान्याल ने यहां भारी बहुमत से जीत दर्ज कराई, जबकि कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशी एल.हक को 0.7 प्रतिशत ही मत मिले और अन्य दो मुस्लिम उम्मीदवारों को कुल 3 प्रतिशत मत मिले।
इसी तरह रायगंज ऐसी सीट है जहां 55 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। परंतु 1977 (भारतीय लोकदल), 1980 (कांग्रेस), 1984 (कांग्रेस) और 1989 (कांगेस) को छोड़कर हमेशा हिंदू उम्मीदवार ही जीते जिनमें सिध्दार्थ शंकर राय और प्रियरंजन दास मुंशी (2004) प्रमुख हैं। जबकि 1991, 1996, 1998 में माकपा के गैर मुस्लिम प्रत्याशी जीते।
543 में से जिन 453 संसदीय क्षेत्रों के आंकड़े उपलब्ध हैं उनके अनुसार 219 सीटें ऐसी हैं जिन पर मुस्लिम मतदाता दस प्रतिशत से भी कम हैं, 160 सीटों पर ग्यारह से 20 प्रतिशत और 62 सीटों पर 21 से 50 प्रतिशत के बीच हैं। जबकि बारह क्षेत्र ऐसे हैं जहां मुस्लिम मतदाता पचास प्रतिशत से अधिक हैं।
उत्तार प्रदेश ऐसा राज्य है जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या लगभग 15.59 प्रतिशत है लेकिन 2004 के चुनाव में सर्वाधिक ग्यारह मुस्लिम सांसद उत्तार प्रदेश से ही जीत कर आए।
1967 से 2004 तक के जो आंकड़े उपलब्ध हैं उसके मुताबिक लद्दाख में 46 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं, लेकिन यहां से 11 में से तीन बार ही मुस्लिम सांसद चुने गए, जबकि उत्तार प्रदेश की अमरोहा भी ऐसी ही सीट है जहां 41.19 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। लेकिन 11 में से यहां भी सिर्फ 3 बार मुस्लिम सांसद चुने गए। इसी प्रकार मुरादाबाद में 41.49 प्रतिशत और माल्दा में 41 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता थे और दोनों ही जगह ग्यारह में से 8 बार मुस्लिम प्रत्याशी जीते, जबकि बरहामपुर में 44 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता थे परंतु 1967 से आज तक यहां एक भी बार मुस्लिम प्रत्याशी नहीं जीता।
इस संबंध में ऑल इंडिया मिल्ली कौंसिल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. मौलाना यासीन अली उस्मानी का मानना है कि चूंकि अब क्षेत्रीय दलों की तादात बढ़ रही है, जिसके फलस्वरूप मुस्लिम प्रत्याशियों की तादात तो बढ़ रही है, लेकिन संसद में प्रतिनिधित्व कम हो रहा है। वह कहते हैं कि जिस दौर में मुसलमान किसी एक राष्ट्रीय दल के साथ एकजुट रहे तो उनका प्रतिनिधित्व बढ़ा। लेकिन अफसोस की बात यह है कि जो लोग मुसलमानों के नाम पर जीत कर पहुंचते हैं, वे संसद में पहुंचकर अपनी पार्टी के नुमाइंदे बनकर रह जाते हैं, लेकिन मुसलमानों के मसाइल पर नहीं बोलते।
मौलाना यासीन उसमानी कहते हैं कि अब सलाहउद्दीन औबेसी, जी एम बनातवाला, सैयद शहाबुद्दीन और सुलेमान सेत जैसे मुस्लिम सांसद नहीं पहुंच रहे, जिन पर कौम ऐतबार कर सके और जो मुसलमानों के बुनियादी मसाइल को मुल्क के सामने रख सकें। उनका कहना है कि कहने को तो सलीम इकबाल शेरवानी, मुसलमान जैसा नाम है, लेकिन अपने बीस बरस के कार्यकाल में वह कभी भी मुसलमानों के मसाइल पर एक शब्द भी संसद में नहीं बोले। तो ऐसे मुसलमान सांसद से तो एक सेक्युलर हिंदू, मुसलमानों के लिए अच्छा है, जो कम से कम मुसलमानों के सवाल पर बोलता तो है।
जबकि वजूद मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक मोहम्मद यूसुफ अली खान का कहना है कि सवाल मुस्लिम प्रतिनिधित्व का तो बहुत बाद की चीज है, असल सवाल है कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही कुल दो प्रतिशत मुसलमान सरकारी नौकरियों में हैं और 17 प्रतिशत जेल में। मुस्लिम प्रतिनिधित्व घटने के लिए वह कारण दूसरा ही बताते हैं। वह बताते हैं कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण के बाद कुल सामान्य सीटें तो 325 ही रह जाती हैं और उसमें 15 प्रतिशत प्रतिनिधित्व 52 सांसदों का बैठता है। वह कहते हैं कि राजनीति में कभी एक और एक दो नहीं होते। चिंता का असली विषय यह है कि पांच राज्यों से प्रतिनिधित्व आ ही नहीं रहा है और जो प्रतिनिधित्व आ रहा है वह उत्तार प्रदेश, बिहार, पं बंगाल जैसे राज्यों से आ रहा है, जहां सेक्युलर राजनीतिक दलों की संख्या अच्छी है।
युसूफ अली खान प्रोपोर्शनल प्रतिनिधित्व को देश के लिए खतरनाक मानते हैं। उनका कहना है कि ऐसा होने पर देश पाकिस्तान के नक्शे कदम पर चला जाएगा और लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा, जिसका खमियाजा अंतत: मुसलमानों को ही उठाना पड़ेगा। चूंकि ऐसा होने पर कम्पटीशन समाप्त हो जाएगा और मिलजुलकर काम करने की भावना समाप्त हो जाएगी। उनकी मांग है कि इसके स्थान पर होना यह चाहिए कि जो रिजर्व सीटे हैं, उन पर मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को लड़ने की छूट मिले। उनका कहना है कि अनुसूचित जाति के लिए सीट रिजर्व करने के स्थान पर हर दल से कहा जाए कि अपने प्रत्याशियों में तयशुदा आरक्षण दे, इससे देश की 25 प्रतिशत सीटों पर लोगों की दिलचस्पी राजनीति में खत्म हो गई है, वह बहाल हो जाएगी।
( लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और पाक्षिक पत्रिका 'प्रथम प्रवक्ता' के संपादकीय विभाग में कार्यरत हैं।)

3 टिप्‍पणियां:

  1. ek naye samajik vibhajan ki patkatha likhi ja rahi hai ...shayad

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  2. "अब सलाहउद्दीन औबेसी, जी एम बनातवाला, सैयद शहाबुद्दीन और सुलेमान सेत जैसे मुस्लिम सांसद नहीं पहुंच रहे"

    पढ कर लगा कि मुस्लिम अगुआ अभी भी बाबर, औरंगज़ेब, सिकन्दर लोदी, महमूद ग़ज़नवी सरीखा प्रतिनिधित्व चाहता है. छठी सदी में जी रहे इन पिशाचों से न जाने कब हमें मुक्ति मिलेगी?

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  3. स्वर्गीय राजीव गांधी के हत्यारों को सजा मिल गयी,प्रभाकरन मारा गया या अन्डरग्राउन्ड हो गया पता नहीं है,पंजाब साथ हो गया,भिन्डरवाला काण्ड की एवज में श्री मनमोहन सिंह ने अपनी सेवायें कांग्रेस को देकर पंजाबियों के मन से स्वर्गीय श्रीमती इंदिरागांधी के प्रति नफ़रत को साफ़ कर दिया है,भारत के इस अक्समात राजनीतिक बदलाव का कारण कोई जातीय समीकरण या प्रदेश की भावना नहीं मानी जा सकती है,न ही इसके अन्दर कोई दल विशेष की पहिचान ही मानी जा सकती है,यह चुनाव एक इतिहास बना है और आगे की पीढी को याद आता रहेगा,मीडिया की हटधर्मी और बदलता परिवेश राजनीति के लिये अजीब पहेली है,इटली से ग्रेट ब्रिटेन मात्र एक हजार किलोमीटर की दूरी पर है,भारत आर्थिक गुलामी में फ़िर से घिर गया है,नारा उठाना है तो वह उठाओ जिससे आम आदमी को अपने ही भाई से नफ़रत न हो,आम आदमी के अन्दर एक ही काम रह गया है,महिने भर कमाना और किस्त दे देना,और जो किस्त नही दे पाया है उसे कोर्ट की धारा १३८ से जूझना,नौकरी वालों ने नौकरी गिरवी रखी है,मकान वालों ने मकान गिरवी रखा है,खेत गिरवी रखे है,मशीन गिरवी रखी है,फ़ैक्टरी गिरवी रखी है,इनसे मुक्ति का रास्ता दिखाइये।

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