गुरुवार, 21 मई 2009

परिवार से हारे दल

परिवार से हारे दल
अमलेन्दु उपाध्याय
चाहे कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी हों या स्वयंभू पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी, सभी ने कार्यकर्ताओं को निराश किया और अपने चुनाव प्रचार की बागडोर भी अपने परिजनों को ही सौंपी
'राजनीति और विरोध की कविता' के कवि रघुवीर सहाय ने कहा था-्रू''दल का दल पाप छिपा रखने के लिए एकजुट होना/ जितना बड़ा दल होगा, उतना ही खाएगा देश को।'' अगर रघुवीर सहाय आज होते, तो उन्हें संशोधन करके दल के स्थान पर 'घर' कहना पड़ता।
पंद्रहवीं लोकसभा के लिए संपन्न हुए चुनाव में सभी दलों ने अपने कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर न केवल सारे टिकट घर में ही बांट लिए, बल्कि कार्यकर्ताओं से चुनाव प्रचार का अधिकार भी छीन लिया। फिर इस मामले में चाहे कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी हों या स्वयंभू पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी, सभी ने कार्यकर्ताओं को निराश किया और अपने चुनाव प्रचार की बागडोर भी अपने परिजनों को ही सौंपी।
रायबरेली में यूं तो चुनाव, कांग्रेस अघ्यक्षा सोनिया गांधी और अमेठी में उनके पुत्र राहुल गांधी लड़ रहे थे, लेकिन सारे देश में कांग्रेस का संगठन मजबूत होने का दावा करने वाली पार्टी ने प्रचार की कमान किसी कार्यकर्ता को देने से परहेज किया और दोनों जगह पर प्रचार की कमान सोनिया की पुत्री प्रियंका गांधी के हाथ रही। मामला जब कांग्रेस का हो तो उसकी प्रमुख प्रतिद्वंदी पार्टी भाजपा भला कहां पीछे रहने वाली है। 'मजबूत नेतृत्व/ निर्णायक सरकार' का नारा देने वाली भाजपा ने भी गांधीनगर सीट पर किसी कार्यकर्ता को प्रचार की जिम्मेदारी नहीं सौंपी। वहां सारी कमान अडवाणी की पुत्री प्रतिभा अडवाणी और पत्नी कमला अडवाणी ने संभाली।
आग उगलकर रातों रात सुपर स्टार बने वरुण गांधी भी इस मामले में अपनी ताई से होड़ करते नजर आए। पीलीभीत में वरुण के चुनाव की सारी कमान उनकी मां मेनका के हाथ रही, जबकि आंवला में अपनी मां को जिताने के लिए वरुण 'मां के आंसुओं' का हिसाब लगवाते नजर आए।
कभी इंदिरा गांधी को वंशवाद के लिए कोसने वाले, चौधरी देवीलाल के वंशज भी इंदिरा के नक्शे कदम पर चलते नजर आए। सोनीपत में पुत्र अजय चौटाला के चुनाव प्रचार की कमान ओमप्रकाश चौटाला ने खुद संभाल रखी थी। इसी तरह अजय चौटाला को चुनौती दे रही स्व. बंसीलाल की पौत्री श्रुति चौधरी के चुनाव प्रचार की कमान उनकी मां और हरियाणा की पर्यटन मंत्री किरन चौघरी ने संभाल रखी थी। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी पुत्र दीपेंद्र सिंह हुड्डा के लिए जी जान से लगे थे।
पंजाब में भी कुछ ऐसा ही नजारा रहा। अपनी पुत्रवधु के चुनाव की कमान स्वयं मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने संभाल रखी थी और जब वह कहीं बाहर होते तो उनके पुत्र सुखबीर सिंह बादल के हाथ में कमान होती। पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी अपने पुत्र के चुनाव की कमान स्वयं ही संभाले थे।
समंदर किनारे के राज्यों में भी परिवार ही प्रचार पर हावी थे, फिर चाहे वह आंध्र हो या तमिलनाडु। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के पुत्र स्टालिन पूरे प्रदेश में पार्टी के लिए प्रचार का जिम्मा संभाल रहे थे। जबकि पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदौस के चुनाव में प्रतिष्ठा उनके पिता एस. रामदौस की लगी हुई थी।
आंध्र प्रदेश में यूं तो चंद्रबाबू नायडू स्वयं स्टार प्रचारक हैं, लेकिन इस बार प्रचार की मुख्य कमान एन.टी. रामाराव के पौत्र जूनियर एनटीआर के हाथ में थी और लोग उनमें रामाराव का अक्स देख रहे थे।
पश्चिम में मराठा क्षत्रप शरद पवार की इज्जत अपनी सीट पर तो लगी ही थी, वह बेटी सुप्रिया सुले के चुनाव के भी मुख्य कर्ता धर्ता थे।
देश की राजधानी दिल्ली में भी परिवारों की हवा रही। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित वैसे तो दूसरी बार चुनाव लड़ रहे थे, लेकिन उनके प्रचार की सारी कमान शीला के हाथ में ही थी। यह बात दीगर है कि तनाव में शीला यह भी भूल जाती थीं कि उनके पुत्र का नाम क्या है और वह चुनाव भी लड़ रहे हैं।
एक पत्रकार के जूते के चलते टिकट से महरूम हुए पूर्व सांसद सज्जन कुमार ने भी अपने भाई रमेश कुमार के प्रचार की कमान स्वयं ही संभाली हुई थी।
दिल्ली से लगी हुई गाजियाबाद सीट पर हालांकि भाजपा अध्यक्ष, राजनाथ सिंह, स्वयं उम्मीदवार थे और बाहरी नेताओं की फौज के बावजूद उनके प्रचार की कमान उनके पुत्र, पंकज, के हाथ में थी। पंकज का सहयोग करने के लिए राजनाथ के दूसरे पुत्र, नीरज और राजनाथ की पत्नी, सावित्री सिंह, भी थीं और अमरीका से उनकी बेटी भी प्रचार करने आ गई थीं। लेकिन, हाय अफसोस! कार्यकर्ताओं पर भरोसा राजनाथ ने भी नहीं जताया। यहां तक कि झंडा और पोस्टर लगाने का ठेका भी, बताते हैं, एक एड एजेंसी को दिया गया।
अगर राजनाथ सिंह अपने चुनाव की बागडोर अपने पुत्रों और पुत्री को सौंप सकते हैं, तो भाजपा के उत्तार प्रदेश इकाई के अध्यक्ष, रमापतिराम त्रिपाठी भला क्यों पीछे रह जाएं? खलीलाबाद में रमापतिराम के बेटे शरद त्रिपाठी उम्मीदवार थे और वहां प्रतिष्ठा रमापति की दांव पर लगी थी, सो वहां प्रचार की सारी कमान पिताश्री के हाथ थी।
रमापतिराम अगर अपने पुत्र के चुनाव की बागडोर संभाल सकते हैं, तो उनके धुर विरोधी और भाजपा का उत्तार प्रदेश में इकलौता पिछड़ा चेहरा, ओमप्रकाश सिंह क्या ऐसे ही पिछड़ जाते? मिर्जापुर में पुत्र, अनुराग सिंह, के प्रचार की कमान पूरी मुस्तैदी के साथ ओमप्रकाश सिंह ने संभाल रखी थी।
उत्तार प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का वैसे अपना तो परिवार नहीं है, लेकिन वह मदर टेरेसा की तरह मां का दिल रखने का दावा करती हैं। इसलिए उन्होंने बेटों को दिल खोलकर टिकट भी दिए और पिताओं के हाथ में प्रचार की कमान भी। सबसे ज्यादा परेशान पूर्वांचल के माफिया सम्राट हरिशंकर तिवारी थे। उनके बूढ़े कंधों पर तीन- तीन सीटों की जिम्मेदारी थी। उनके एक बेटे, भीष्मशंकर तिवारी, खलीलाबाद से बसपा प्रत्याशी थे तो दूसरे बेटे, विनयशंकर तिवारी, गोरखपुर से बसपा की नैया के खिवैया थे। तिवारी जी को केवल इन दो बेटों की ही चिंता नहीं थी, बल्कि उनके भांजे, गणेशशंकर पांडेय, भी महराजगंज में हाथी पर सवार थे। अब खलीलाबाद, गोरखपुर और महराजगंज तीनों जगह हाथी के महावत हरिशंकर तिवारी ही थे।
वाराणसी में माफिया सरगना मुख्तार अंसारी, हाथी पर सवार थे और यहां उनका सारा चुनाव प्रबंधन बड़े भाई अफजाल अंसारी के हाथ था।
मधुमिता शुक्ला हत्याकंाड के सजायाफ्ता मुजरिम अमरमणि त्रिपाठी के भाई अजीतमणि त्रिपाठी महराजगंज में साइकिल पर चढ़कर भाई की खड़ाऊं उठा रहे थे। अब अमरमणि तो जेल में थे , इसलिए उनकी इज्जत की दुहाई, बेटा अमनमणि देता फिर रहा था और पापा के नाम पर चाचा के लिए वोट मांग रहा था।
पूर्वी उत्तार प्रदेश में सुल्तानपुर से कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. संजय सिंह की कथा भी कुछ अलग नहीं थी। उनके प्रचार की सारी बागडोर कभी अमिता मोदी नाम की बैडमिंटन खिलाड़ी से अमेठी की रानी बनीं उनकी पत्नी और विधायिका अमिता सिंह के हाथ में थी।
संगम के तट इलाहाबाद पर भी परिवारों की जंग कमाल की थी। सपा के प्रत्याशी कुंवर रेवतीरमण सिंह के चुनाव की कमान उनके पूर्वमंत्री- पुत्र उज्जवलरमण सिंह के हाथ में थी। तो कुंवर साहब के विरोधी, बसपा प्रत्याशी अशोक वाजपेयी के प्रचार की कमान उनके पुत्र हर्षवर्धन वाजपेयी के हाथ में थी। देवरिया में भी बसपा विधायक रामप्रसाद जायसवाल अपने पिता गोरखप्रसाद के चुनाव की बागडोर संभाले हुए थे।
अगर बात परिवारों को कमान की चले, तो भला डॉ. लोहिया के पूंजीवादी, आधुनिकतम समाजवादी चेले क्या किसी से कम हैं! समाजवादी पार्टी तो नेतापुत्रों के कूड़ेदान में तब्दील हो ही गई है। जिस किसी भी नेतापुत्र को कहीं जगह नहीं, उसके सहारा नेता जी। फिर चाहे वह नीरज शेखर हों या राजवीर।
कन्नौज और फिरोजाबाद में मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश यादव मैदान में थे और उनके चुनाव की कमान चाचा, शिवपाल के हाथ में थी। मैनपुरी में जहां मुलायम सिंह स्वयं मैदान में थे, वहां भी प्रचार की सारी कमान उनके भाई, शिवपाल के हाथ में थी। लेकिन इस मामले में मुलायम के भतीजे, धर्मेंद्र थोड़े बदनसीब रहे, कि उन्हें अपने घर का कोई सारथी नहीं मिला और सपा ने, बदायूं में, उनके चुनाव की कमान अपने मैनेजरों उमाशंकर चौधरी और अरविंद सिंह को सौंप दी।
कभी मुलायम सिंह के गनर रहे, सांसद एसपी सिंह बघेल भी अपने पूर्व नेता से इस मामले में होड़ में पीछे नहीं रहे। बघेल के चुनाव की बागडोर उनकी पत्नी, मधु बघेल के हाथ में रही।
एटा में उत्तार प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह मैदान में थे। बताते हैं, कि उनके पैर में चुनाव के ऐन मौके पर चोट आ गई। इसलिए उनके पुत्र, राजवीर उनकी बैसाखी बने हुए थे। कभी मुलायम सिंह की सरकार बचाने के लिए संसदीय मर्यादा ताक पर रखकर फैसला देने वाले पूर्व विधानसभा अध्यक्ष, धनीराम वर्मा भी कन्नौज में मुलायम सिंह के पुत्र के खिलाफ टाल ठोंक रहे, अपने पुत्र और बसपा प्रत्याशी के चुनाव संचालक थे।
बिहार में भी परिजनों ने ही प्रचार की बागडोर संभाली। लोकजनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान और उनके भाई रामचंद्र पासवान के चुनाव में प्रचार की कमान उनके अभिनेता पुत्र चिराग पासवान के हाथ में थी। जबकि सुपौल में पासवान को बायबाय कहकर गए पप्पू यादव की प्रतिष्ठा उनकी पत्नी रंजीता रंजन के चुनाव में लगी थी। यूं तो लालू प्रसाद यादव अपनी मसखरी के लिए विश्वविख्यात हैं, लेकिन पाटिलिपुत्र और सारण में उनकी स्थिति 'गाते-गाते चिल्लाने लगे हैं' वाली हो गई थी। यहां कमान उनकी पत्नी राबड़ी देवी के हाथ में थी।
बाहुबली शहाबुद्दीन और सूरजभान भले ही जेल में थे, लेकिन क्षेत्र में उनकी पत्नियां उनकी प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ रही थीं।
बात लोकतंत्र की हो और राजा रजवाड़े पीछे रह जाएं, ऐसा हो नहीं सकता। राजस्थान की झालावाड़ संसदीय सीट पर युवराज दुष्यंत सिंह, जनता के दरबार में शीश नवाए खड़े थे। लिहाजा उनकी मां, महारानी वसुंधरा राजे सिंधिया उनके लिए खून पसीना एक कर रही थीं। भले ही ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में हैं और दुष्यंत सिंह भाजपा में, लेकिन हैं तो दोनों भाई-भाई। सो, ज्योतिरादित्य के चुनाव की कमान उनकी पत्नी के हाथ में थी। जबकि छत्ताीसगढ़ में मूंछ ऐंठने वाले राजा साहब, दिलीप सिंह जूदेव का चुनाव प्रबंधन उनके विधायक पुत्र युध्दवीर सिंह के हाथ में था। छत्ताीसगढ़ में ही पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने पत्नी रेनू जोगी के चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया हुआ था और व्हील चेयर पर बैठकर ही पूरा चुनाव संचालित कर रहे थे।
उन्नाव से कांग्रेस प्रत्याशी अनु टंडन का चुनाव प्रबंधन तो और कमाल का था। अनु, उन्नाव में मुकेश अंबानी की प्रतिनिधि के तौर पर लड़ रही थीं। चूंकि मामला कॉरपोरेट जगत का था, इसलिए परिवार तो हावी था, लेकिन कॉरपोरेट स्टाइल में कंपनी बनाकर। बताते हैं, कि उन्नाव में अनु के कार्यकर्ता बनने के लिए बाकायदा कैटवॉक हुई और साक्षात्कार के बाद कार्यकर्ता भर्ती हुए।
इन सबमें कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह का नसीब थोड़ा खराब था। दिग्विजय के अनुज, लक्ष्मण सिंह तो भाजपा के टिकट पर मैदान में थे। जिन्हें हराने के लिए दिग्गी राजा को लोगों के हाथ पैर जोड़ने पड़ रहे थे। जबकि अर्जुन सिंह की पुत्री विद्रोह करके सीधी से निर्दलीय चुनाव लड़ गईं। सो, अर्जुन सिंह उनके प्रचार की कमान नहीं संभाल पाए।
लेकिन यह रुझान लोकतंत्र के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है, जो साबित करता है, कि पंद्रहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में दलीय व्यवस्था फेल हो गई है और जनता के सामने किसी एक राजा को चुनने का ही विकल्प है। अब यह आप पर निर्भर करता है, कि आप सोनिया मॉडल, आडवाणी मॉडल, मायावती मॉडल अथवा मुलायम मॉडल में से किसे चुनते हैं। हां, इस मामले में वामपंथी दल अभी भी बचे हुए हैं, जहां परिवार की नहीं, कैडर की ही चलती है। रघुवीर सहाय की पंक्तियों में थोड़ा सा हेर फेर कि - ''घर का घर पाप छिपा रखने के लिए एकजुट होना/ जितना बड़ा घर होगा, उतना ही खाएगा देश को।''

पंद्रहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में दलीय व्यवस्था फेल हो गई है और जनता के सामने किसी एक राजा को चुनने का ही विकल्प है। अब, यह आप पर निर्भर करता है, कि आप सोनिया मॉडल, आडवाणी मॉडल, मायावती मॉडल अथवा मुलायम मॉडल में से किसे चुनते हैं। हां, इस मामले में वामपंथी दल अभी भी बचे हुए हैं, जहां परिवार की नहीं कैडर की ही चलती है
[ यह लेख 'प्रथम प्रवक्ता ' में प्रकाशित हुआ ]

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