गुरुवार, 11 जून 2009

अब चाहिए दलित प्रधानमंत्री, युवराज नहीं

अब चाहिए दलित प्रधानमंत्री, युवराज नहीं
- अमलेन्दु उपाध्याय,
'बधाई हो बधाई' के मंगलगान के बीच आखिरकार मीराकुमार ने लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी पा ही ली। देश भर में जश्न का माहौल है कि 'पहली बार' कोई दलित महिला लोकसभा अध्यक्ष बनी है। इस बार भी कांग्रेसजन हमेशा की तरह अपनी पीठ स्वयं थपथपाने में व्यस्त हैं, चूंकि 'पहली बार' करने का पुनीत कार्य इस देश में कांग्रेस ही करती आई है। जाहिर है कि पांच दशक तक आजाद हिंदुस्तान पर कांग्रेस का ही राज रहा है इसलिए 'पहली बार' पर उसका ही कॉपीराइट है। सवाल यह है कि मीरा के इस पद पर काबिज हो जाने से महिलाओं और दलितों की स्थिति पर क्या असर पड़ेगा? क्या इस 'पहली बार' से महिलाओं को अब घर और बाहर में बराबर का हक मिल जाएगा? क्या अब दलितों का सामाजिक स्तर ऊंचा उठ जाएगा और इस मुल्क में अब कोई बेलछी, पनवारी, कुम्हेर नहीं होगा? साफ है कि यह एक दिवास्वप्न के अलावा और कुछ नहीं है। इस कदम से न महिलाओं की दशा सुधरेगी और न दलितों की नियति बदलेगी। ठीक उसी तरह जैसे राहुल की यूथ पॉलीटिक्स से देश के नौजवानों का कुछ भला नहीं हुआ सिवाय इसके कि कुछ युवराजों को समय से काफी पहले वह सब हासिल हो गया जो उनके पिताओं ने उम्र के आखिरी पड़ाव में पाया था। कहने को तो रजिया सुल्तान के रूप में दुनिया को पहली महिला शासिका हिंदुस्तान ने ही दी। लेकिन उससे कितनी महिलाएं सुल्तान बन पाईं। इंदिरा गांधी भी 'पहली बार' महिला प्रधानमंत्री बनीं, लेकिन आपातकाल में नसबंदी के जरिए सबसे बड़ा शिकार महिलाएं ही बनीं। ठीक उसी तरह उ.प्र. में जब जब मायावती मुख्यमंत्री बनती हैं, दलितों पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ जाती हैं। फिर मीरा कुमार न तो घरेलू कामकाजी महिला हैं और न गांव देहात की पददलित, जो कोई नई क्रांति हो गई हो। यहां यह भी याद दिलाना जरूरी है कि मीरा कुमार विदेश सेवा की अधिकारी (आई एफ एस) रही हैं और उन बाबू जगजीवनराम की पुत्री हैं, जिन्हें जनता पार्टी की सरकार बनने पर जनसंघियों ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता के कारण प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था। अब यह साफ है कि मीरा को यह कुर्सी इसलिए नहीं मिली है कि वे महिला अथवा दलित हैं बल्कि उन्हें यह कुर्सी इसलिए मिली हैं कि वे 'मीरा कुमार' हैं और स्व. बाबू जगजीवनराम की पुत्री हैं। वरना न तो कांग्रेस में इस पद के लायक महिलाओं की कमी थी और न दलितों की। हां इतना जरूर हुआ है कि कांग्रेस के दलित प्रेम की पोल पट्टी खुल गई है। चुनाव से पहले कांग्रेसी युवराज राहुल दलितों के घर रोटी खाने और कलावती फूलवती का जो नाटक रच रहे थे, वह दलितों के साथ सबसे बड़ा छलावा था। लोगों को याद होगा कि जिस समय राहुल यह स्वांग रच रहे थे ठीक उसी समय कांग्रेसी वाक्योध्दाओं के बयान आ रहे थे कि कांग्रेस के सत्ताा में आने पर अबकी बार दलित प्रधानमंत्री बनाया जाएगा। इसलिए कांग्रेस को मीरा कुमार के 'पहली बार' दलित महिला स्पीकर बनाए जाने पर अपनी पीठ ठोंकना तुरंत बन्द कर देना चाहिए। अगर कांग्रेस पहली बार दलित महिला स्पीकर का श्रेय लेना चाहती है तो उसे 'पहली बार दलित प्रधानमंत्री' न बनने देने का दोष भी अपने सिर लेना होगा। ऐसा नाहक नहीं बल्कि इसलिए कि उसने स्वयं कहा था कि 'अबकी बार दलित प्रधानमंत्री'! इस सबसे परे जो बात गौर करने की है कि जिन खूबियों के कारण मीरा कुमार स्पीकर बन गईं उन्हीं खूबियों के कारण वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाईं। वरना जहां तक योग्यता का सवाल है तो मीरा कुमार मनमोहन सिंह से ज्यादा योग्य कही जा सकती हैं। मनमोहन सिंह तो विफल अर्थव्यवस्था के पैरोकार अर्थशास्त्री हैं जबकि मीरा भारतीय प्रशासनिक सेवा की सर्वोत्कृष्ट रैंक की अधिकारी रही हैं। लेकिन दलित होना और बाबू जगजीवनराम की पुत्री होना ही वह कारण है कि वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाईं। ऐसा आरोप वेवजह नहीं है और न खाली दिमाग की उपज है। मनमोहन सिंह तो सोनिया की खड़ाऊ लेकर राजगद्दी पर बैठे हैं और जब तक युवराज राहुल इस पर बैठने के लायक नहीं हो जाते तब तक बैठे रहेंगे। जब राहुल चाहेंगे तब मनमोहन आज्ञाकारी सेवक की भंति राजपाट त्याग देंगे। लेकिन अगर कांग्रेस मीरा को प्रधानमंत्री बनाने की गलती कर बैठती तो मीरा से राहुल के लिए कुर्सी खाली करा पाना गांधी परिवार के लिए टेढ़ी खीर होता। क्योंकि तब गांधी परिवार पर भी जनसंघियों की तरह दलितविरोधी होने का लेबल चस्पा हो जाता। वैसे भी मीरा, मृदुभाषी और योग्य भले ही हों लेकिन मनमोहन सिंह की तरह स्वामीभक्त तो नहीं ही हैं। वह पहले भी सोनिया से विवाद के चलते कांग्रेस छोड़ चुकी हैं। मीरा कुमार के बहाने भाजपा को अपने पाप का प्रायश्चित करने का दिखावा करने और कांग्रेस को 'सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे' कहावत चरितार्थ करने का अवसर मिल गया। अब भाजपाई सिर उठाकर कह सकेंगे कि उन्होंने बाबू जी को भले ही प्रधानमंत्री न बनने दिया हो लेकिन उनकी बेटी को स्पीकर बनाए जाने का विरोध नहीं किया है। उधर कांग्रेस को भी मीरा के बहाने मायावती के 'दलित प्रधानमंत्री' बनाए जाने के नारे की हवा निकालने का सुअवसर हाथ लग गया। अब मीरा कुमार की असल परीक्षा होनी है। उन्हें स्वयं को साबित करने का एक अवसर मिला है। स्पीकर के रूप में उनका कार्यकाल बहुत शानदार होना चाहिए। ताकि जब मनमोहन से कांग्रेस राजपाट छीने तब कांग्रेस की मजबूरी बन जाए कि वह रानी की कोख से पैदा हुए युवराज को राजगद्दी न सौंपने पाए और जिस तरह वह अब खुशियां मना रही है उसी तरह मीरा को प्रधानमंत्री बनाकर 'पहली बार दलित महिला प्रधानमंत्री' बनाने का तमगा अपने गले में लटकाने को विवश हो जाए। तभी बाबू जगजीवनराम और इस देश के करोड़ों दलितों के सपने सही मायनों में साकार होंगे। यह जिम्मेदारी अब मीरा को निभानी है। देखना यह है कि मीरा कुमार अपने को साबित कर पाती हैं या नहीं।
( लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और पाक्षिक पत्रिका 'प्रथम प्रवकता' के संपादकीय विभाग में कार्यरत हैं।)

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