एक ओंकार से निरंकार तक
अमलेन्दु उपाध्याय
मिशन जिंदा गुरु की अवधारणा में भरोसा रखता है। उसका तर्क है कि जिसे आपने देखा नहीं, उसका रास्ता कैसा? यही सिख धर्म से उसके संघर्ष का मुख्य कारण है। निरंकारी मिशन के विरुध्द संत जनरैल सिंह भिंडरावाले ने आक्रामक रुख अपनाया था। दोनों धर्मावलंबियों के बीच कई बार हिंसक टकराव भी हुए
शमशेर की एक कविता का अंश है- ''जितना ही लाउडस्पीकर चीखा/ ईश्वर उतना दूर हुआ/ उतने ही दंगे फैले/ जितने दीन धार्म फैलाए गए''। शमशेर ये पंक्तियां पंजाब के संदर्भ में सटीक बैठती हैं। पंजाब की वह धरती जिस पर गुरु नानक देव ने 'एक नूर तें सब जग उपज्यां' का उदात्ता संदेश दिया, उस पंजाब की धरती पर लंबे समय से सिख धर्मावलंबी और वहां फैले विभिन्न डेरे आपस में झगड़ते आ रहे हैं। निरंकारी मिशन, डेरा सच्चा सौदा और डेरा सचखंड जैसे कुछ बड़े समुदायों से अकालियों का निरंतर संघर्ष होता रहा है।
गुरु नानकदेव जाति से क्षत्रिय (बेदी) थे। लेकिन, वह दलित पृष्ठिभूमि से आए हुए कवियों कबीर, रैदास और दादू से प्रभावित थे। वे निम्न जातियों के उत्थान के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने कहा भी- 'नीचां अंदर नीच जाति/ नीची हूं अति नीच/ नानक तिनके संग साथ/ वडियां सयों क्या रीत'। गुरु नानकदेव ने अपने बेटों को अपना स्थान नहीं दिया, बल्कि उन्होंने अपने एक शिष्य भाई 'लहणा' को अपना अंग मानकर 'अंगद' कहा। उन्हें अपना वारिस बनाया। बाद में वे गुरु अंगद देव कहलाए। उनकी सहिष्णुता का आलम यह था कि उन्होंने मक्का और मदीना की भी सैर की। इसी तरह पांचवे गुरू, गुरु अर्जनदेव ने प्रसिध्द 'हरमंदर साहब' की नींव एक मुस्लिम फकीर 'मियां मीर' से रखवाई और जाति प्रथा का विरोध किया।
जिस निराकार की उपासना सिख करते हैं, उसी निराकार की उपासना यह डेरे भी करते हैं। फिर क्या कारण है कि अकालियों का अन्य डेरों से संघर्ष होता रहता है। वैसे जो बात अब तक समझ में आई है, उसके अनुसार इस संघर्ष की जड़ में जातीय संघर्ष है। पंजाब में दलितों की आबादी लगभग 39 प्रतिशत है और गुरुद्वारों पर प्रभुत्व सवर्ण जाट सिखों का है। जितने भी डेरे और मिशन हैं, वह सभी अन्याय के खिलाफ, गैर बराबरी और जाति के आधार पर भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं। यह सभी जमींदारों के जुल्मों के खिलाफ शुरू किए गए थे। देखने में आया है कि इन संप्रदायों के अधिकांश अनुयायी दलित समुदाय से ही आते हैं।
पंजाब में निरंकारी मिशन के अनुयायी बहुत बड़ी संख्या में हैं। एक समय में लगभग सभी बड़े दल निरंकारी मिशन का समर्थन लेना चाहते थे। हालांकि, मिशन लगातार यह दावा करता रहा है कि उसका राजनीति से कुछ लेना देना नहीं हैं। लेकिन मिशन के गुरु बाबा गुरबचन सिंह की हत्या के पीछे पंजाब की राजनीति ही कारण मानी जाती रही है। इस पंथ की शुरुआत बाबा बूटा सिंह ने पेशावर (अब पाकिस्तान में) से अपने ज्ञान प्रसार से की। बाद में देश विभाजन के पश्चात बाबा बूटा सिंह के शिष्य बाबा अवतार सिंह ने दिल्ली आकर निरंकारी मंडल की नींव रखी। चूंकि बाबा अवतार सिंह के अधिकांश अनुयायी पाक अधिकृत पंजाब के निवासी थे जो विभाजन के बाद दिल्ली और पंजाब में आकर बस गए थे। इसलिए मिशन का प्रभाव दिल्ली और पंजाब में अधिक है।
मिशन का दावा है कि यह एक आध्यात्मिक मिशन है और आध्यात्मिकता में कई रास्ते नहीं होते। इसका एक ही रास्ता है सच्चाई को प्रकट करना। मिशन यह भी कहता है कि उसने कोई नया मार्ग नहीं अपनाया है। वह तो सनातन पुरातन मार्ग पर ही चल रहे हैं और जो लोग जाने-अनजाने इस सत्य के मार्ग से हटकर विभिन्न गुटों में बंट गए हैं, उन्हें सत्य मार्ग पर लाने के लिए प्रयत्नशील हैं, जैसा कि महापुरुष पूर्व में भी करते रहे हैं। मिशन को इस बात का अफसोस है कि गुटों पर चलने वाले लोग सत्यमार्ग पर चलने वाले महापुरुषों को नए गुटों का जन्मदाता समझने की भूल कर बैठते हैं और कमोबेश मिशन के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। उनका कहना है कि मिशन किसी नए मत का प्रचार नहीं कर रहा, बल्कि वेदों और शास्त्रों में जिसे निराकार कहकर पुकारा गया है, हम उसे ही 'निरंकार' के नाम से याद करते हैं।
सिख धर्म के अनुयायियों से निरंकारियों के संघर्ष का मुख्य कारण गुरु की अवघारणा को लेकर है। सिख घर्म में मान्यता है कि गुरु गोबिंद सिंह आखिरी गुरु हैं। जबकि, निरंकारी मिशन अपने गुरू के अमर होने और अवतार लेने में यकीन रखता है। मिशन का मानना है कि गुरु अमर होता है। गुरु की कीर्ति भी अमर होती है। जब तक सिध्दांत रहते हैं, तब तक वह भी रहते हैं। मिशन का कहना है कि संसार के लोग मौत का डर दिखाते हैं, लेकिन महापुरुष मौत से कभी नहीं घबराते क्योंकि सद्गुरु ने उन्हें पहले ही मुक्त कर दिया होता है। मिशन जिंदा गुरु की अवधारणा में भरोसा रखता है। उसका तर्क है कि जिसे आपने देखा नहीं उसका रास्ता कैसा। यही सिख धर्म से उसके संघर्ष का मुख्य कारण है। निरंकारी मिशन के विरुध्द संत जनरैल सिंह भिंडरावाले ने आक्रामक रुख अपनाया था। दोनों धर्मावलंबियों के बीच कई बार हिंसक टकराव भी हुआ। अप्रैल 1978 में अमृतसर के चौक मेहता इलाके में हुए हिंसक टकराव में 13 लोग मारे गए थे। बाद में 24 अप्रैल 1980 को मिशन के गुरु बाबा गुरबचन सिंह की सिख आतंकवादियों द्वारा हत्या कर दी गई थी।
निरंकारियों के गुरु बाबा अवतार सिंह रचित 'अवतारवाणी' को धर्मग्रंथ बताने पर भी सिखों से उनका विवाद रहता है। जबकि मिशन दावा करता है कि 'अवतारवाणी' में किसी भी धर्म के विरुध्द कोई भी आपत्तिाजनक बात नहीं कही गई है। इसी तरह एक अन्य पुस्तक 'युगपुरुष' पर भी सिखों से विवाद है। लेकिन निरंकारी मिशन का कहना है कि 'युगपुरुष' हमारा कोई धर्मग्रंथ नहीं है। यह तो एक श्रध्दालु भक्त द्वारा अपने सद्गुरु बाबा अवतार सिंह जी की लिखी गई जीवनी है। इसमें भी कोई आपत्तिाजनक बात नहीं है।
मिशन सफाई देता है कि वह सभी गुरु, पीर- पैगंबर का समान आदर करता है। उसके सत्संग में सभी मजहब और जाति के लोग आते हैं। सत्संग में किसी भी धर्मग्रंथ को नहीं रखा जाता और मिशन के अनुयायी किसी भी धर्मग्रंथ को रिवाजन नहीं पूजते हैं। क्योंकि, मिशन का विश्वास है कि सभी धर्मग्रंथों में लिखे आदेशों के अनुसार आचरण करना ही इनकी वास्तविक पूजा है।
राजनीतिक संबंधों पर भी मिशन का अपना तर्क है। उसका कहना है कि मिशन का कोई राजनीतिक मकसद नहीं है। मिशन यही चाहता है कि सारे इंसान आपस में जुड़ जाएं और करुणा व स्नेह के साथ पेश आएं। मिशन किसी एक धर्म में विश्वास नहीं रखता है। उसका मानना है कि सच्चाई किसी मजहब के साथ नहीं बंधी होती है। यह एक अटल सत्य है। इसलिए जो सत्य से वाकिफ नहीं होते हैं, वे बंटे रहते हैं और दूसरों को भी बांटते चले जाते हैं। उनके लिए अल्लाह कोई और होता है और राम कोई और।
मिशन का मत है कि मायाजाल को छोड़कर प्रभु नहीं मिलेंगे। प्रभु की प्राप्ति के लिए जंगलों में तपस्या करने की जरूरत नहीं है। कर्म और फर्ज से दूर भागकर ईश्वर की प्राप्ति नहीं की जा सकती। कर्म और फर्ज के रास्ते पर चलकर ही 'निरंकार' को जाना जा सकता है।
मिशन भले ही यह दावा करे कि वह कोई नया पंथ या संप्रदाय नहीं है। लेकिन जन्म, विवाह और मृत्यु जैसे अवसरों पर उसकी पृथक पूजा प्रणाली इस विषय में संशय तो पैदा करती ही है। निरंकारी समाज में शिशु जन्मोत्सव भी सत्संग द्वारा ही मनाया जाता है। विवाह की पध्दति भी अनूठी है। विवाह, संगत के मध्य चार हरिगीतिका छंद (लावा) सामूहिक रूप से बोलकर संपन्न किया जाता है। प्रत्येक छंद के पश्चात् सद्गुरु सहित सारी साध संगत पुष्प वर्षा करती है। उसके उपरांत सदगुरु के आशीर्वाद से विवाह संपन्न होता है। अंतिम संस्कार के लिए भी मिशन का रास्ता अलग है। किसी भी व्यक्ति का देहावसान हो जाने पर तुरंत सत्संग शुरू कर दिया जाता है। शव का दाह संस्कार किया जाता है। हालांकि मिशन कहता है कि उसकी तरफ से अपनी अपनी परंपरा के अनुसार अंतिम संस्कार करने की पूरी छूट है, लेकिन निरंकारी संत तो सत्संग ही कराते हैं।
अमलेन्दु उपाध्याय
मिशन जिंदा गुरु की अवधारणा में भरोसा रखता है। उसका तर्क है कि जिसे आपने देखा नहीं, उसका रास्ता कैसा? यही सिख धर्म से उसके संघर्ष का मुख्य कारण है। निरंकारी मिशन के विरुध्द संत जनरैल सिंह भिंडरावाले ने आक्रामक रुख अपनाया था। दोनों धर्मावलंबियों के बीच कई बार हिंसक टकराव भी हुए
शमशेर की एक कविता का अंश है- ''जितना ही लाउडस्पीकर चीखा/ ईश्वर उतना दूर हुआ/ उतने ही दंगे फैले/ जितने दीन धार्म फैलाए गए''। शमशेर ये पंक्तियां पंजाब के संदर्भ में सटीक बैठती हैं। पंजाब की वह धरती जिस पर गुरु नानक देव ने 'एक नूर तें सब जग उपज्यां' का उदात्ता संदेश दिया, उस पंजाब की धरती पर लंबे समय से सिख धर्मावलंबी और वहां फैले विभिन्न डेरे आपस में झगड़ते आ रहे हैं। निरंकारी मिशन, डेरा सच्चा सौदा और डेरा सचखंड जैसे कुछ बड़े समुदायों से अकालियों का निरंतर संघर्ष होता रहा है।
गुरु नानकदेव जाति से क्षत्रिय (बेदी) थे। लेकिन, वह दलित पृष्ठिभूमि से आए हुए कवियों कबीर, रैदास और दादू से प्रभावित थे। वे निम्न जातियों के उत्थान के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने कहा भी- 'नीचां अंदर नीच जाति/ नीची हूं अति नीच/ नानक तिनके संग साथ/ वडियां सयों क्या रीत'। गुरु नानकदेव ने अपने बेटों को अपना स्थान नहीं दिया, बल्कि उन्होंने अपने एक शिष्य भाई 'लहणा' को अपना अंग मानकर 'अंगद' कहा। उन्हें अपना वारिस बनाया। बाद में वे गुरु अंगद देव कहलाए। उनकी सहिष्णुता का आलम यह था कि उन्होंने मक्का और मदीना की भी सैर की। इसी तरह पांचवे गुरू, गुरु अर्जनदेव ने प्रसिध्द 'हरमंदर साहब' की नींव एक मुस्लिम फकीर 'मियां मीर' से रखवाई और जाति प्रथा का विरोध किया।
जिस निराकार की उपासना सिख करते हैं, उसी निराकार की उपासना यह डेरे भी करते हैं। फिर क्या कारण है कि अकालियों का अन्य डेरों से संघर्ष होता रहता है। वैसे जो बात अब तक समझ में आई है, उसके अनुसार इस संघर्ष की जड़ में जातीय संघर्ष है। पंजाब में दलितों की आबादी लगभग 39 प्रतिशत है और गुरुद्वारों पर प्रभुत्व सवर्ण जाट सिखों का है। जितने भी डेरे और मिशन हैं, वह सभी अन्याय के खिलाफ, गैर बराबरी और जाति के आधार पर भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं। यह सभी जमींदारों के जुल्मों के खिलाफ शुरू किए गए थे। देखने में आया है कि इन संप्रदायों के अधिकांश अनुयायी दलित समुदाय से ही आते हैं।
पंजाब में निरंकारी मिशन के अनुयायी बहुत बड़ी संख्या में हैं। एक समय में लगभग सभी बड़े दल निरंकारी मिशन का समर्थन लेना चाहते थे। हालांकि, मिशन लगातार यह दावा करता रहा है कि उसका राजनीति से कुछ लेना देना नहीं हैं। लेकिन मिशन के गुरु बाबा गुरबचन सिंह की हत्या के पीछे पंजाब की राजनीति ही कारण मानी जाती रही है। इस पंथ की शुरुआत बाबा बूटा सिंह ने पेशावर (अब पाकिस्तान में) से अपने ज्ञान प्रसार से की। बाद में देश विभाजन के पश्चात बाबा बूटा सिंह के शिष्य बाबा अवतार सिंह ने दिल्ली आकर निरंकारी मंडल की नींव रखी। चूंकि बाबा अवतार सिंह के अधिकांश अनुयायी पाक अधिकृत पंजाब के निवासी थे जो विभाजन के बाद दिल्ली और पंजाब में आकर बस गए थे। इसलिए मिशन का प्रभाव दिल्ली और पंजाब में अधिक है।
मिशन का दावा है कि यह एक आध्यात्मिक मिशन है और आध्यात्मिकता में कई रास्ते नहीं होते। इसका एक ही रास्ता है सच्चाई को प्रकट करना। मिशन यह भी कहता है कि उसने कोई नया मार्ग नहीं अपनाया है। वह तो सनातन पुरातन मार्ग पर ही चल रहे हैं और जो लोग जाने-अनजाने इस सत्य के मार्ग से हटकर विभिन्न गुटों में बंट गए हैं, उन्हें सत्य मार्ग पर लाने के लिए प्रयत्नशील हैं, जैसा कि महापुरुष पूर्व में भी करते रहे हैं। मिशन को इस बात का अफसोस है कि गुटों पर चलने वाले लोग सत्यमार्ग पर चलने वाले महापुरुषों को नए गुटों का जन्मदाता समझने की भूल कर बैठते हैं और कमोबेश मिशन के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। उनका कहना है कि मिशन किसी नए मत का प्रचार नहीं कर रहा, बल्कि वेदों और शास्त्रों में जिसे निराकार कहकर पुकारा गया है, हम उसे ही 'निरंकार' के नाम से याद करते हैं।
सिख धर्म के अनुयायियों से निरंकारियों के संघर्ष का मुख्य कारण गुरु की अवघारणा को लेकर है। सिख घर्म में मान्यता है कि गुरु गोबिंद सिंह आखिरी गुरु हैं। जबकि, निरंकारी मिशन अपने गुरू के अमर होने और अवतार लेने में यकीन रखता है। मिशन का मानना है कि गुरु अमर होता है। गुरु की कीर्ति भी अमर होती है। जब तक सिध्दांत रहते हैं, तब तक वह भी रहते हैं। मिशन का कहना है कि संसार के लोग मौत का डर दिखाते हैं, लेकिन महापुरुष मौत से कभी नहीं घबराते क्योंकि सद्गुरु ने उन्हें पहले ही मुक्त कर दिया होता है। मिशन जिंदा गुरु की अवधारणा में भरोसा रखता है। उसका तर्क है कि जिसे आपने देखा नहीं उसका रास्ता कैसा। यही सिख धर्म से उसके संघर्ष का मुख्य कारण है। निरंकारी मिशन के विरुध्द संत जनरैल सिंह भिंडरावाले ने आक्रामक रुख अपनाया था। दोनों धर्मावलंबियों के बीच कई बार हिंसक टकराव भी हुआ। अप्रैल 1978 में अमृतसर के चौक मेहता इलाके में हुए हिंसक टकराव में 13 लोग मारे गए थे। बाद में 24 अप्रैल 1980 को मिशन के गुरु बाबा गुरबचन सिंह की सिख आतंकवादियों द्वारा हत्या कर दी गई थी।
निरंकारियों के गुरु बाबा अवतार सिंह रचित 'अवतारवाणी' को धर्मग्रंथ बताने पर भी सिखों से उनका विवाद रहता है। जबकि मिशन दावा करता है कि 'अवतारवाणी' में किसी भी धर्म के विरुध्द कोई भी आपत्तिाजनक बात नहीं कही गई है। इसी तरह एक अन्य पुस्तक 'युगपुरुष' पर भी सिखों से विवाद है। लेकिन निरंकारी मिशन का कहना है कि 'युगपुरुष' हमारा कोई धर्मग्रंथ नहीं है। यह तो एक श्रध्दालु भक्त द्वारा अपने सद्गुरु बाबा अवतार सिंह जी की लिखी गई जीवनी है। इसमें भी कोई आपत्तिाजनक बात नहीं है।
मिशन सफाई देता है कि वह सभी गुरु, पीर- पैगंबर का समान आदर करता है। उसके सत्संग में सभी मजहब और जाति के लोग आते हैं। सत्संग में किसी भी धर्मग्रंथ को नहीं रखा जाता और मिशन के अनुयायी किसी भी धर्मग्रंथ को रिवाजन नहीं पूजते हैं। क्योंकि, मिशन का विश्वास है कि सभी धर्मग्रंथों में लिखे आदेशों के अनुसार आचरण करना ही इनकी वास्तविक पूजा है।
राजनीतिक संबंधों पर भी मिशन का अपना तर्क है। उसका कहना है कि मिशन का कोई राजनीतिक मकसद नहीं है। मिशन यही चाहता है कि सारे इंसान आपस में जुड़ जाएं और करुणा व स्नेह के साथ पेश आएं। मिशन किसी एक धर्म में विश्वास नहीं रखता है। उसका मानना है कि सच्चाई किसी मजहब के साथ नहीं बंधी होती है। यह एक अटल सत्य है। इसलिए जो सत्य से वाकिफ नहीं होते हैं, वे बंटे रहते हैं और दूसरों को भी बांटते चले जाते हैं। उनके लिए अल्लाह कोई और होता है और राम कोई और।
मिशन का मत है कि मायाजाल को छोड़कर प्रभु नहीं मिलेंगे। प्रभु की प्राप्ति के लिए जंगलों में तपस्या करने की जरूरत नहीं है। कर्म और फर्ज से दूर भागकर ईश्वर की प्राप्ति नहीं की जा सकती। कर्म और फर्ज के रास्ते पर चलकर ही 'निरंकार' को जाना जा सकता है।
मिशन भले ही यह दावा करे कि वह कोई नया पंथ या संप्रदाय नहीं है। लेकिन जन्म, विवाह और मृत्यु जैसे अवसरों पर उसकी पृथक पूजा प्रणाली इस विषय में संशय तो पैदा करती ही है। निरंकारी समाज में शिशु जन्मोत्सव भी सत्संग द्वारा ही मनाया जाता है। विवाह की पध्दति भी अनूठी है। विवाह, संगत के मध्य चार हरिगीतिका छंद (लावा) सामूहिक रूप से बोलकर संपन्न किया जाता है। प्रत्येक छंद के पश्चात् सद्गुरु सहित सारी साध संगत पुष्प वर्षा करती है। उसके उपरांत सदगुरु के आशीर्वाद से विवाह संपन्न होता है। अंतिम संस्कार के लिए भी मिशन का रास्ता अलग है। किसी भी व्यक्ति का देहावसान हो जाने पर तुरंत सत्संग शुरू कर दिया जाता है। शव का दाह संस्कार किया जाता है। हालांकि मिशन कहता है कि उसकी तरफ से अपनी अपनी परंपरा के अनुसार अंतिम संस्कार करने की पूरी छूट है, लेकिन निरंकारी संत तो सत्संग ही कराते हैं।
विवाद के घेरे में और भी हैं डेरे
निरंकारी मिशन के अलावा पंजाब में लगभग
400 डेरे हैं। इनमें से अधिकांश कुछ गांवों तक ही मौजूद हैं। इन डेरों के
अनुयायियों में बड़ी संख्या दलितों की है। डेरा सच्चा सौदा, डेरा सचखंड, राधास्वामी
प्रमुख हैं। हालांकि यह सभी डेरे आध्यात्मिक होने का दावा करते हैं, लेकिन राजनीतिक
दल इन डेरों को अपने पक्ष में करने का प्रयास करते रहते हैं।
डेरा सच्चा सौदा- इसका मुख्यालय सिरसा
(हरियाणा) में है। इसके लगभग दो करोड़ अनुयायी हैं। इसकी स्थापना शाह मस्ताना ने
1948 में की थी। इसके मुखिया गुरुमीत राम रहीम के गुरु गोबिंद सिंह की तरह पोशाक
पहनने से सिखों से इनका टकराव हुआ। राम रहीम सिख आतंकवादियों की हिटलिस्ट में
हैं।
डेरा सचखंड- जालंधर के नजदीक बल्लां गांव में इनका
मुख्यालय है। इस डेरे के लोग संत रविदास को अपना आराध्य मानते हैं। इस डेरे के पास
अकूत संपत्तिा है। इनके डेरों में गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश होता है और गान भी
होता है। अंग्रेजों ने उसे अलग धर्म की मान्यता दी हुई थी।
राधास्वामी सत्संग-
अमृतसर के नजदीक व्यास कस्बे में इसका मुख्यालय है। इसके भी अनुयायी करोड़ों की
संख्या में हैं और देश भर में इसकी काफी बड़ी संपत्तिा है।
दिव्य ज्योति नारायण
संस्थान- 1983 में स्थापित इस डेरे का मुख्यालय जालंधर के निकट नूरमहल इलाके में
है। यह भी सिखों से टकराव करते रहते हैं। इसके प्रमुख आशुतोष महाराज सिख
आतंकवादियों की हिटलिस्ट में हैं।बाबा बनिहारवाला संप्रदाय&[ यह रिपोर्ट पाक्षिक पत्रिका "प्रथम प्रवक्ता" में प्रकाशित हुयी ]
bahoot hi delerana oor imandari sae dera banam sikh mamley ka postmartum kiya hai.
जवाब देंहटाएंsunilparbhakar111@gmail.com