मंगलवार, 11 अगस्त 2009

सलामत रहे मेरा वीरा

कहते हैं कि दर्द की शक्ल चाहे जैसी हो, लेकिन इसकी कसक एक जैसी होती है। दर्द का एक सैलाब दलबीर कौर के दिल में भी उमड रहा है। यह दर्द है अपने भाई से जुदा होने का, उसकी जिंदगी को बचा पाने की नाउम्मीदी का। बीस साल हो गए, भाई सरबजीत सरहद पार पाकिस्तान की जेल में बंद है और किसी भी पल उसके जीवन की डोर टूट सकती है। लेकिन बहन दलबीर की बूढी आंखों में उम्मीद की लौ आज भी झिलमिलाती है। तभी तो वे दुआ करती हैं कि वाहेगुरू... इतनी जिंदगी जरूर बाकी रखना कि मैं अपने भाई को वापस अपनी सरजमीं पर देख सकूं। आइए, राखी के इस पर्व पर एक बहन के हौसलों को मजबूती से थामने की कोशिश करें और यह दुआ मांगें कि उसकी दुआ जरूर कबूल हो।

'चंदा रे मेरे भैया से कहना, बहना याद करे...' दलबीर कौर के मोबाइल फोन पर बजती कॉलर ट्यून बरबस ही भाई-बहन के प्यार की याद दिलाती है। पाकिस्तान की जेल में बीस साल से कैद है सरबजीत सिंह। इधर बहन दलबीर जी-जान से जुटी है कि उसकी फांसी की सजा माफ हो जाए। दलबीर बार-बार कहती है, 'मेरा भाई आतंकी नहीं है, उसे फंसाया गया है, वो बेकसूर है। पाकिस्तान सरकार उसे मंजीत बताकर झूठे केस में फंसा रही है।'
पिछले बीस साल से दलबीर हर बरस रक्षाबंधन की थाली सजाती है, राखी खरीदती है, वीरा की पसंदीदा मिठाई भी खरीदती है, पर कलाई की जगह उसकी तस्वीर को राखी बांधकर दिल को दिलासा देती है। जब दलबीर का दबा हुआ दर्द आंसुओं की धार में बहता है, तो वे रूंधे हुए गले से कहती हैं, 'जब भाई साथ में था, तो मैं राखी से एक दिन पहले ही बाजार से राखी और मिठाई खरीद लाती थी, गुझिया बनाती थी। मैं उससे कहा करती थी कि जब तक मैं राखी न बांध दूं, कुछ मत खाना। उस दिन सरबजीत जानबूझकर मुझे परेशान करने और चिढाने के लिए शोर मचाता रहता कि 'दीदी जल्दी राखी बांधो, मुझे बहुत भूख लगी है... वाहे गुरू, किसी और बहन को भाई की जुदाई न सहनी पडे।'

18 साल की जुदाई, 48 मिनट का मिलन
पिछले 24 अप्रैल को अपने वीरा के साथ पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में बिताए 48 मिनट आज भी दलबीर की यादों में ताजा हैं। सरबजीत की यादें लेकर जब परिवार लौट रहा था तो कुछ आंसू खुशी के थे, तो कुछ गम के। उनकी दोनों बेटियों पूनम और स्वप्निल के लिए और बहन दलबीर कौर के लिए वे पल सपनों जैसे थे। सलाखों के एक ओर सरबजीत था और दूसरी ओर बहन दलबीर और पूरा परिवार। राखी पर दलबीर हर बार सरबजीत की राखी को सहेज कर रख लेती थी। उसे आस थी कि एक न एक दिन वह इन राखियों को भाई की कलाई पर जरूर बांधेगी। जेल में दलबीर अपने साथ पिछले 18 सालों की 18 राखियां लेकर गई थीं। जब दलबीर राखी बांधने लगी, तो सरबजीत ने पूछा- इतनी राखियां फिर बचपन की तरह उन पर झपट पडा। उसने वीरा की कलाई पर 18 राखियां बांधीं और हाथ को चूमा, तो सभी भावुक हो गए।

सरबजीत के गालों पर मोटे-मोटे आंसू भरभरा आए। उसने कहा, 'बहना, हिम्मत रख। मैं बेकसूर हूं, मैं वापस जरूर आऊंगा। आज तो मेरे पास देने के लिए कुछ नहीं है। सिवाय शुभकामना के मैं क्या दे सकता हूं।' फिर सरबजीत ने खुद अपने हाथों से चाय बनाई। 18 सालों की जुदाई में मिलन के 48 मिनट कब गुजर गए, पता ही नहीं लगा। जब विदाई का वक्त आया, तो बहन की आंखें छलछला उठीं, बाकी सब भी बिलख उठे।

उम्मीद है वो लौटकर आएगा
दलबीर बार-बार खुद से सवाल करती हैं, 'एक छोटी-सी कोठरी में मेरा भाई धरती पर कैसे सोता होगा, वहां तो न सोने के लिए बिस्तर है, न ओढने के लिए चादर। बस चारों ओर तन्हाई पसरी रहती है। जब हमारी याद आती होगी, तो दीवारों से बातें करता होगा। मैं तो इसी आस में जिंदा हूं कि एक दिन वो लौटकर घर आएगा और हमारा घर खुशियों से चहकेगा। पिछली राखी पर पाकिस्तान सरकार ने मुझे वीजा नहीं दिया था, पर इस बार दुआ करती हूं कि मेरी उम्मीद जरूर पूरी होगी।'
अमलेंदु उपाध्याय

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