पत्रकारिता के शिखर पुरुष प्रभाष जोशी
हिन्दी पत्रकारिता के भीष्म पितामह प्रभाष जोशी हमेशा के लिए इस दुनिया को छोड़ गए हैं। उनके साथ ही 'मिशन पत्रकारिता' के एक पूरे युग का अंत हो गया है। प्रभाषजी पत्रकारिता के भीष्म पितामह जरूर थे लेकिन जब-जब पत्रकारिता की द्रोपदी की लाज लुटी वह द्रोपदी की रक्षा के लिए आगे बढ़कर आए। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी वह अखबारों में कम होती संपादक की भूमिका और अखबार मालिकों के पैसे लेकर खबरें बेचने के कारनामों के खिलाफ लड़ते रहे
अमलेन्दु उपाध्याय
अब नहीं रहे। यह खबर सुनने में अटपटी लगती है पर है सच। प्रभाषजी के साथ पत्रकारिता के एक पूरे युग का अन्त हो गया और उनका यूं अचानक चले जाना उन लोगों के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं है जो पत्रकारिता को एक मिशन मानकर और आम आदमी का सच्चा प्रतिनिधिा मानकर काम करते हैं।
प्रभाषजी, राजेन्द्र माथुर के बाद उस मायने में सच्चे पत्रकार थे जो पत्रकारिता के जरिए सार्थक दिशा में समाज बदलने की चाहत रखते थे और कुल मिलाकर खांटी पत्रकार थे। ऐसा भी नहीं है कि राजेन्द्र माथुर या प्रभाषजी के अलावा समकालीन दौर में पत्रकारिता के क्षेत्र में बड़े नाम वालों की कोई कमी हो। अज्ञेय, धार्मवीर भारती, कमलेश्वर, रघुवीर सहाय कुछ ऐसे लोग रहे जिन्होंने पत्रकारिता के नए मानदण्ड स्थापित किए। लेकिन प्रभाषजी को एक बात जो बाकियों से अलग कर उन्हें राजेन्द्र माथुर की श्रेणी में रखती है, वो यह है कि प्रभाषजी सौ फीसदी पत्रकार थे। वह न तो साहित्य में नाम कमाने के बाद पत्रकारिता में आए थे और न ही साहित्य में विफल होने के बाद। जिस तरह रघुवीर सहाय की कविता को आम आदमी का रोजनामा तथा 'राजनीति और विरोधा' की कविता कहा जाता है ठीक उसी तरह प्रभाषजी की पत्रकारिता आम आदमी के दुख दर्द के लिए थी। प्रभाषजी ने अपने लगभग चार दशक की पत्रकारिता के दौर में पत्रकारों की जो एक पौधा लगाई वह भी सौ फीसदी सच्चे पत्रकारों की थी। यह प्रभाषजी का ही कौशल था कि उनकी टीम में अगर राम बहादुर राय, बनवारी थे तो अभय कुमार दुबे, अंबरीश कुमार जैसे लोग भी थे। आलोक तोमर, प्रदीप सिंह, सुशील कुमार सिंह, निरंजन परिहार, उमेश जोशी, ओम थानवी प्रभातरंजन दीन जैसे लोग प्रभाषजी की ही देन हैं।
मेरा प्रभाषजी से सीधाा कभी कोई वास्ता तो नहीं रहा लेकिन एक खुशी है कि उनके जीवन की आखिरी मुहिम, जिसमें उन पर काफी हमले भी हुए, में मैं भी शामिल रहा। विगत लोकसभा चुनाव में हिन्दी पट्टी में कई बड़े अखबारों ने पैसे लेकर खबरें छापीं। प्रभाषजी ने बाकायदा अखबारों के इस कारनामे के खिलाफ आंदोलन चलाया। उस वक्त मैं रामबहादुर राय जी द्वारा संपादित पत्रिका 'प्रथम प्रवक्ता' में था। राय साहब ने इस मुद्दे पर देश भर से जानकारी इकट्ठा करने और आई हुई खबरों को संपादित करने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर ही डाली। इस दौरान एक घटना हुई जो प्रभाषजी के साथ साथ राय साहब की पत्रकारिता की भी पहचान कराती है। हमारे झारखंड के संवाददाता की खबर आई कि 'प्रभात खबर' में भी खबरें विज्ञापन के रूप में छपीं लेकिन उनके नीचे और ऊपर पीके मीडिया इनीशिएटिव लिखकर यह बताने का प्रयास किया गया कि यह खबर नहीं है।
ऐसे समय संकट इस बात का था कि 'प्रभात खबर' के संपादक हरिवंशजी, राय साहब के भी मित्र हैं और प्रभाषजी से भी उनका नजदीकी संबंधा था। मैंने राय साहब से कहा कि झारखंड से ऐसी खबर आई है क्या देना उचित रहेगा? राय साहब ने कहा कि जरूर दिया जाएगा। अगर खबर आई है तो वह किसी ने भी किया हो दिया जाएगा। इसके बाद सारी खबरें प्रभाषजी के भी पास गईं, जिनके आधाार पर उन्होंने अपना लेख लिखा। तभी अचानक 24 जून को मैंने प्रथम प्रवक्ता छोड़ दिया। लेकिन जब जुलाई के पहले हफ्ते में 'प्रथम प्रवक्ता' का अंक आया तो सारी खबरें ज्यों की त्यों अक्षरश: वैसी ही प्रकाशित हुईं जैसी मैंने संपादित की थीं। यह था प्रभाषजी का एक पत्रकार का रूप। अगर प्रभाषजी चाहते तो झारखंड की रिपोर्ट पर सवाल कर सकते थे, राय साहब से उसे न देने के लिए भी कह सकते थे। पर मिशन में मित्रता आड़े नहीं आई।
इसी तरह एक पूरी की पूरी पीढ़ी प्रभाषजी को पढ़ सुनकर ही पत्रकारिता में जवान हुई है और उसे पत्रकारिता के यह संस्कार कि जिस समय तुम पत्रकार हो उस समय तुम्हारा पहला और आखिरी धार्म पत्रकारिता ही है, प्रभाषजी ने ही दिए। इसलिए आज पत्रकारिता का जो वीभत्स कारपोरेटीक(त स्वरूप सामने आ रहा है उसमें प्रभाषजी हम जैसे उन पत्रकारों के रक्षा कवच थे जो पत्रकारिता को मिशन मानते हैं कमीशन नहीं। जाहिर है उनके जाने के बाद पत्रकारिता का स्वरूप और बदलेगा और नई चुनौतियां भी होंगी लेकिन प्रभाषजी सच्चे पत्रकारों के लिए प्रकाश स्तम्भ का काम करते रहेंगे।
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[ Published in “The Sunday Post” 22nd November issue]
मुंबई में भारतीय हिंदी पत्रकारिता के शिखर पुरुष स्व. प्रभाष जोशी को श्रद्धा सुमन अर्पित करने 'हंस अकेला उड़ गया... नाम से कार्यक्रम आयोजित किया गया, जो इस समय पत्रकारों में चर्चा का विषय बना हुआ है। कारण है, प्रभाष जी जिस पैकेज पत्रकारिता का जीवनभर विरोध करते रहे, श्रद्धांजलि सभा का आयोजन उन्हीं लोगों द्वारा किया गया था जो इस काले धंधे में सर से पैर तक लिप्त हैं। प्रेस क्लब ऑफ मुंबई में हुए इस कार्यक्रम में प्रभाष जी को श्रद्धांजलि देते हुए आईबीएन लोकमत के संपादक निखिल वागले ने कहा कि प्रभाषजी को हमारे समय के नायक के रूप में याद किया जाएगा। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए 'नवनीत के संपादक विश्वनाथ सचदेव ने कहा कि प्रभाष जोशी ने भारतीय पत्रकारिता को मूल्यों, सिद्धांतों और आदर्शों का एक ऐसा नया स्वरूप दिया, जो बहुत ही प्रखर साबित हुआ। नवभारत टाइम्स के संपादक शचींद्र त्रिपाठी ने कहा कि पत्रकारिता को नई सोच, नया अंदाज और नए तेवर देने वाले नायक के रूप में प्रभाषजी को याद किया। गुजराती दैनिक जन्मभूमि के संपादक कुंदन व्यास ने कहा कि प्रभाष जोशी ने मूल अंग्रेजी के पत्रकार होते हुए भी सभी भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता का नाम रोशन किया। 'नूतन सवेरा के संपादक नंदकिशोर नोटियाल ने प्रभाषजी को अन्याय विरोधी पत्रकार बताया। 'दोपहर का सामना के संपादक प्रेम शुक्ल ने कहा कि पतनोन्मुख पत्रकारिता के युग में भी प्रभाषजी पैकेज पत्रकारिता के विरोध में चमकते सूरज की तरह खड़े दिखाई दिए। इसके अलावा मराठी महानगर के संपादक युवराज मोहिते, टाइम्स ऑफ इंडिया के पत्रकार नाडकर्णी, स्वतंत्र पत्रकार जतिन देसाई, प्रेस क्लब मुंबई की सेक्रेटरी स्वाति देशपांडे, दैनिक भास्कर के इंदर जैन, वरिष्ठ पत्रकार अनुराग त्रिपाठी, राकेश दुबे, सुमन सारस्वत, नई दुनिया के चंद्रकांत शिंदे, गोपाल शर्मा, फोकस टीवी के हरिगोविंद विश्वकर्मा, अमरजीत मिश्र, सहित दैनिक जागरण के ओम प्रकाश तिवारी, नवभारत टाइम्स के सिटी एटडीटर विमल मिश्र के अलावा करीब डेढ़ सौ से भी ज्यादा लोगों ने प्रभाषजी को श्रद्धांजलि दी। इस कार्यक्रम पर इसलिए मुंबई में चर्चा छिड़ गई है कि कार्यक्रम आयोजकों में नभाटा के अनुराग त्रिपाठी के अलावा पूर्व पत्रकार राकेश दुबे एवं निरंजन परिहार रहे। अब सवाल यह उठता है कि जिस पैकेज पत्रकारिता के विरोध में प्रभाषजी आखिरी दम तक लड़ते रहे। अदालत जाने तक की तैयारी कर चुके थे। उनकी श्रद्धांजलि सभा का आयोजन उस निरंजन परिहार ने किया, जो विधानसभा चुनावों में मलबार हिल से भाजपा प्रत्याशी का पैकेज करवाने सभी अखबारों व चैनलों के दफ्तर पहुंचे। खबरों के खिलाड़ी परिहार ने समाचारों का जाल बुनकर न सिर्फ लोढ़ा को जिताया, बल्कि खुद को मुंबई का सबसे बड़ा पैकेज मैन साबित कर दिया। अब वही परिहार प्रभाषजी को श्रद्धांजलि दे रहे हैं। खास बात तो यह कि कार्यक्रम के प्रेसनोट में तमाम छोटे-मोटे अखबारों के पत्रकारों व संपादकों की उपस्थिति का उल्लेख हुआ, मगर इन महाशय को जिस दैनिक अखबार ने मारवाड़ी समाज में एक संपादक के रूप में हैंसियत बख्शी, उसका नाम लेना भी भूल गए। क्या बात है....
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