भाजपा को नहीं मिलेगा लिब्राहन की रिपोर्ट का लाभ
अमलेन्दु उपाध्याय
आखिरकार सरकार को लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट संसद के पटल पर रखने को विवश होना ही पड़ा। और यह रिपोर्ट पेश होते ही इसका फायदा उठाने के लिए सियासी कुश्ती शुरू भी हो गई है। समझा जा रहा है कि यह रिपोर्ट डूबती भाजपा के लिए संजीवनी का काम करेगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या भाजपा को इस रिपोर्ट के आने से कोई फायदा मिलेगा? लगता तो नहीं है।
प्रथम दृष्टया तो यह सरकार की तरफ से चला गया दांव ही लग रहा है। भले ही रिपोर्ट लीक मामले पर गृहमंत्री पी चिदंबरम यह आश्वासन दें कि गृह मंत्रालय से किसी ने भी इस बारे में किसी से बातचीत नहीं की है और इसकी एक ही प्रति है और वह पूरी हिफाजत से रखी गई है। लेकिन समझने वाले समझते हैं कि कहीं न कहीं इस रिपोर्ट लीक के पीछे हाथ कांग्रेस और केंद्र सरकार का ही है। क्योंकि बाबरी मस्जिद (ढांचा नहीं मस्जिद ही पढ़ा जाए) को शहीद किया जाना कोई छोटी मोटीे घटना नहीं थी। 6 दिसंबर 1992 स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा मोड़ था जिसने भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल दी। तब ऐसे मौके पर कांग्रेस भला क्यों भाजपा को इस रिपोर्ट का फायदा उठानें देना चाहेगी? वैसे भी सत्रह साल बाद लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट का कोई बहुत मतलब नहीं रह जाता.
जहां तक मस्जिद विध्वंस के दोषियों का सवाल है तो आज अपनी रिपोर्ट में अगर लिब्राहन ने किसी राजनीतिक व्यक्ति को इस ञ्टना के लिए षडयंत्र का दोषी माना भी है तो अब इससे क्या होगा? जितने लोगों की गवाही इस आयोग के सामने हुई है और जिन 68 को आयोग ने दोषी ठहराया है, उनमें से अधिकांश लोगों पर रायबरेली की कोर्ट में मुकदमा पहले से ही चल रहा है. फिर किसी एक ञ्टना में एक ही व्यक्ति पर दो मुकदमें नहीं चलाए जा सकते. रायबरेली की अदालत से कोई फैसला आने के बाद ही उस पर आगे की कार्रवाई तय होगी. जबकि इनमें से कई अब अल्लाह मियां को प्यारे हो चुके हैं।
इसलिए इस रिपोर्ट का कोई कानूनी मतलब नहीं रह गया है हां इसके राजनीतिक निहितार्थ जरूर हैं और उन्हें पूरा करने के लिए ही भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में युध्द छिड़ा है।
हां सवाल है कि लिब्राहन आयोग का प्रतिवेदन केंद्र सरकार और स्वयं आयोग के पास था। यह प्रतिवेदन कार्रवाई रिपोर्ट के साथ संसद में पेश किया जाना चाहिए था, लेकिन इससे पहले ही यह मीडिया को लीक कैसे हो गया? अब अगर चिदंबरम सच बोल रहे हैं कि सरकार ने यह रिपोर्ट लीक नहीं की है तो किसने की? क्या गश्ह मंत्री का इशारा जस्टिस लिब्राहन की तरफ है? तो सरकार उनके खिलाफ क्या कदम उठाएगी? यह मामला इसलिए भी गम्भीर है कि संसद का सत्र चल रहा है और जो रिपोर्ट इस सत्र में पेश की जानी थी उसका मीडिया में लीक हो जाना संसद की तौहीन है और जाहिर है कि इस तौहीन का इल्जाम सरकार पर ही आयद होता है। जस्टिस लिब्रहान के विषय में आम धाारण्ाा है कि वह बहुत ईमानदार हैं और रिपोर्ट लीक करने जैसा घटिया काम कतई नहीं कर सकते। अखबार ने भी 'गश्ह मंत्रालय के सूत्रों' का उल्लेख किया है। इसलिए संदेह के घेरे में तो चिदंबरम का मंत्रालय ही है।
फिर सवाल यह है कि इस रिपोर्ट के समय से पहले लीक होने से फायदा किसे है? जाहिर है कि जबर्दस्त अंदरूनी कलह से जूझ रही भाजपा इस रिपोर्ट का कुछ भी फायदा लेने की स्थिति में नहीं है। ऐसा नहीं है कि वह इसका फायदा लेना नहीं चाहती लेकिन ऐसा अवसर फिलहाल तो उसके पास नहीं है। हालांकि अडवाणी जी इसका व्यक्तिगत फायदा उठाना चाहते हैं जैसा उनके लोकसभा में भाषण से स्पष्ट भी हो गया लेकिन क्या भाजपा इसका फायदा उन्हें उठाने देगी? हालांकि उदार दिखने की चाहत में अडवाणी जी आयोग के सामने जो बयान दे बैठे थे वह उन्हें इसका लाभ लेने से रोकेगा, जिसमें उन्होंने कहा था कि बाबरी मस्जिद तोड़े जाने का दिन उनकी जिंदगी का सबसे दुखदाई दिन था। उन्होंने इस ञ्टना की तुलना 1984 के सिख विरोधी दंगों से करते हुए आयोग से कहा था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के दंगे में सिखों के खिलाफ भड़की हिंसा 6 दिसंबर से ज्यादा शर्मनाक थी। अब किस मुंह से अडवाणी इसका लाभ उठा पाएंगे?
वैसे यह रिपोर्ट भाजपा के लिए एक सुनहरा अवसर साबित हो सकती थी लेकिन सत्ताा के लालच में वह यह अवसर स्वयं गंवा चुकी है। उसकी राम मंदिर की काठ की हांडी एक नहीं तीन तीन बार आग पर चढ़ चुकी है और अब चढ़ने से रही। भाजपा अपनी असल सूरत छिपाने के चक्कर में लगातार ऊहापोह की शिकार रही है। एक तरफ अटल अडवाणी की मंडली लगातार 6 दिसंबर 1992 के लिए माफी भी माँगती रही है और दूसरी तरफ भाजपा 6 दिसंबर को शौर्य दिवस भी मनाती रही है। आखिर बाबरी मस्जिद शहीद किए जाने की जिम्मेदारी स्वीकार करने से भाजपा शरमाती क्यों रही है? और अगर यह काम उसने नहीं किया था तो हर 6 दिसंबर को शौर्य किस बात का?
भाजपा को इस प्रकरण का कोई लाभ न मिल पाने का एक महत्वपूर्ण कारण है। भाजपा अभी तक इसी उधोड़बुन में है कि अडवाणी जी को अपना नेता माने या न माने। पिछले एक वर्ष में जिस तरह से अडवाणी जी के ऊपर संघ परिवार ने हमले किए हैं वह भाजपा की अंदरूनी कलह को उजागर करते हैं। भाजपा को इस रिपोर्ट का फायदा मिल भी सकता था अगर उसके सेनापति अडवाणी जी बने रहें। लेकिन अडवाणी जी से तख्त-औ-ताज और उनका चैन-औ-करार छीनने को बेताब राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरूण जेटली वैंकेया नायडू और गडकरी की कंपनी क्या ऐसा होने देगी? भाजपा की सैकेण्ड लाइन लीडरशिप बहुत जल्दी में है। अगर अडवाणी जी दो चार साल ही और टिक गए तो उसके तो सारे अरमानों पर पानी फिर जाएगा। इसलिए यह मंडली कभी नहीं चाहेगी कि अडवाणी जी को इसका कोई फायदा व्यक्तिगत रूप से मिले और जब तक अडवाणी जी को इसका लाभ नहीं मिलेगा तब तक भाजपा को भी इसका कोई लाभ मिलने से रहा।
फिर भाजपा अटल और अडवाणी के बाद कोई भी गंभीर और हद दर्जे का चतुर नेता पैदा नहीं कर पाई है जो कारगिल में हुई अपनी थुक्का फजीहत को भी 'विजय' के रूप में कैश कर सके और खूंखार आतंकवादियों की दामाद की तरह खातिरदारी कर कंधाार छोड़ आने के बाद भी अडवाणी जी को 'लौह पुरूष' की तरह प्रोजेक्ट कर सके।
इसके अलावा भी भाजपा की समस्याएं कम नहीं है। हर सांप्रदायिक और कट्टर आंदोलन का उभार एक निश्चित समय के लिए होता है उसके बाद उसका पराभव होता है। राम मंदिर आंदोलन के बहाने भाजपा ने जिस सांप्रदायिक और फासीवादी उभार को पाला पोसा था उसका गुब्बारा 6 दिसंबर 1992 के साथ ही फूटा और उसकी सारी हवा उस दिन निकल गई जब भाजपा ने सत्ता में आने के लिए राम मंदिर, धाारा 370 और यूनिफॉर्म सिविल कोड जैसे मुद्दों को छोड़ा। उग्र हिंदू तबके में उसकी विश्वसनीयता उसके इस कृत्य से घट गई। अब अगर लिब्रहान के बहाने भाजपा ऊंगली कटाकर शहीद होने का नाटक करती भी है तो भी यह उग्र हिंदू तबका उसके हाथ आने से रहा।
दूसरे इन सत्रह सालों में गंगा में बहुत पानी बह चुका है। सबसे बड़ी बात यह है कि पिछले डेढ़ दशक में भारत का आर्थिक परिदृश्य बड़ी तेजी से बदला है। उदारीकरण और वैश्वीकरण के आने के बाद वह मधय वर्ग जो भाजपा का हिमायती समझा जाता है उसकी एक नई पीढ़ी तैयार हो चुकी है। यह नई पीढ़ी सांप्रदायिक तो है पर है शुध्द व्यावसायिक और पेशेवर। पेप्सी, कोला, पिज्जा बर्गर और मिनरल वाटर पर पलने वाली यह पीढ़ी दंगों से अपने आर्थिक हितों पर होने वाली चोट को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। जबकि भाजपा समेत हर फासीवादी सांप्रदायिक उभार के लिए दंगे अनिवार्य शर्त हैं। इसका गंभीर पहलू यह भी है कि इस आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण को भाजपा ने भी कांग्रेस के साथ साथ पाला पोसा है।
हालांकि भाजपा ने इस रिपोर्ट का लाभ उठाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। राज्यसभा में जिस तरह से एसएस अहलूवालिया और भाजपा के परम मित्र और कल तक कल्याण सिंह के परम सखा रहे और कल्याण सिंह की तुलना जनाब-ए- हुर से करने वाले अमर सिंह में जिस तरह नूरा कुश्ती हुई उससे संकेत मिल गया है कि भाजपा अब मुलायम सिंह की मदद से इस मुद्दे पर देश के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने का प्रयास करेगी। ताज्जुब इस बात का है कि मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी जो लगातार बाबरी मस्जिद की कमाई खाती रही है, इस मुद्दे पर चुप लगा गई थी क्यों कि तब कल्याण सिंह उसके साझीदार हो गए थे और मुलायम सिंह ने तो यहां तक कह दिया था कि बाबरी मस्जिद का मुद्दा अब पुराना पड़ गया है। लेकिन अब फिर सपा को भी इस रिपोर्ट के बहाने बाबरी मस्जिद याद आने लगी है।
कुल मिलाकर कांग्रेस ने इस रिपोर्ट को सही वक्त पर लीक कराकर एक बार फिर बाजी मार ली दिखती है। क्योंकि हाल फिलहाल में कहीं चुनाव भी नहीं होना है और लोकसभा चुनाव भी दूर हैं। और अगर यह रिपोर्ट ऐसे समय लीक होती जब संसद सत्र नहीं चल रहा होता तो जो हंगामा भाजपा अपनी मित्र समाजवादी पार्टी के साथ सदन में कर रही है तब सड़कों पर कर रही होती। साथ ही अभी भाजपा इसी उलझन में फंसी हुई है कि अडवाण्ाी जी को अपना नेता माने या न माने और अगर इसका कुछ फायदा अडवाणी जी के खाते में जाता भी है तो उससे भाजपा को कोई लाभ नहीं होना है। दूसरी तरफ उत्तार प्रदेश जहां कांग्रेस इस समय चौतरफा लड़ाई लड़ रही है वहां उसे फायदा होगा क्योंकि वह मुलायम सिंह जो कल तक कह रहे थे कि बाबरी मस्जिद विधवंस मामले में कल्याण सिंह दोषी नहीं हैं वह अब किस मुंह से लिब्राहन की रिपोर्ट पर हाय तौबा मचाएंगे? अब कांग्रेस के पास उन्हें उत्तार प्रदेश में घेरने का आधाार होगा। वैसे भी अब मुलायम सिंह के सारे पुराने साथी साथ छोडत्र चुके हैं और दलालों को जनता जानती है।
उधार कल्याण सिंह भी जो अभी कुछ दिन पहले ही छह दिसंबर 1992 के लिए मुसलमानों से माफी मांग रहे थे तुरंत हिन्दू हो गए हैं और जोर शोर से अपने शहीद होने का बखान कर रहे हैं॥ बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के समय कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। हालांकि वे लिब्राहन कमीशन के सामने पेश होने से ग्यारह साल तक बचते रहे। उन्होंने इसके खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर करके कहा था कि आयोग के सामने पेश होने पर सीबीआई कोर्ट में उनके खिलाफ चल रहे मुकदमे पर प्रभाव पड़ेगा। पर कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी तो उन्हें गवाही देने पेश होना पड़ा। तब उन्होंने दावा किया था कि उनकी सरकार ने बाबरी मस्जिद को बचाने के पूरे इंतजाम किए थे लेकिन केंद्र की कांग्रेस सरकार ने ऐसी परिस्थिति तैयार की जिससे मस्जिद टूटी।
हालांकि दिक्कतें कांग्रेस के सामने भी हैं। ऐसे में लगता नहीं कि कांग्रेस ईमानदारी से इस रिपोर्ट पर कार्रवाई करेगी? क्योंकि सवाल तो कांग्रेस से भी होंगे ही। सरकार ने जो एटीआर प्रस्तुत की है उससे उसकी मंशा जाहिर हो गई है। नरसिंहा राव ने आयोग को दिए अपने बयान में कहा था कि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार के हाथ बंधक बन गई थी। अयोध्या में कारसेवकों की भीड़ बढ़ने के साथ-साथ हालात खराब होते गए। उन्होंने सफाई दी थी कि केंद्र सरकार के हाथ बंधे हुए थे। राव ने कहा था कि इतिहास उनके साथ न्याय करेगा। लेकिन सवाल यह है कि यह न्याय कैसा होगा जब उनकी पार्टी ही अब उनका नाम लेने से कतराती है?
मानना पड़ेगा चिदंबरम भाजपा के नेताओं के मुकाबले कहीं अधिाक चतुर सुजान हैं जिन्होंने एक छोटी सी चाल चलकर भाजपा समेत अपने सारे विरोधिायों को चित्ता कर दिया है। आयोग की रिपोर्ट लीक होने से कांग्रेस को सीधा राजनीतिक फायदा मिलेगा वहीं भाजपा को इस रिपोर्ट से अब कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि अब वह अपनी सारी ऊर्जा इस बात पर खर्च कर देगी कि रिपोर्ट लीक कैसे हुई?
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