चिदंबरम के पीआर मीडिया धुरंधर
अमलेन्दु उपाधयाय
मानना पड़ेगा कि गृह मंत्री पी चिदंबरम का मीडिया प्रबंधन बहुत कमाल का है। कोई महीना भर भी तो नहीं हुआ होगा जब देश के चुनिन्दा संपादकों के साथ उनकी भेंटवार्ता हुई थी और नक्सलवाद को समूल नष्ट करने का इरादा गृह मंत्री ने इस भेंटवार्ता में जताया था। लेकिन इस भेंटवार्ता का अच्छा परिणाम लगभग दो हफ्ते बाद ही सामने आने लगा जब इन बड़े संपादकों में से कई चिदंबरम की नक्सलियों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई करने के विचार के समर्थन में बहुत निर्लज्जता के साथ उतर आए और तथाकथित विकास के नाम पर निरीह आदिवासियों पर प्राणघातक हमले और देश में एक युध्द की वकालत करने लगे।
एक संपादक महोदय जो गुजरात दंगों के दौरान अपनी निष्पक्ष रिपोर्टिंग के लिए सुर्खियों में आए थे और बाद में मनमोहन सरकार के विश्वासमत के दौरान सांसदों की खरीद फरोख्त का स्टिंग ऑपरेशन का प्रसारणा अपने चैनल पर न करने के लिए सवालों के घेरे में आए थे, ने तो चाटुकारिता की सारी हदें पार करते हुए चिदंबरम की तुलना सरदार वल्लभ भाई पटेल से ही कर डाली। जबकि एक अन्य दूसरे बड़े संपादक महोदय, जिनके अखबार के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले कई संस्करण प्रारम्भ हुए और अब बन्द होने वाले हैं तथा जो बहुत जल्दी मनमोहन सिंह- चिदंबरम के आशीर्वाद से राज्यसभा सदस्य बनने वाले हैं, ने भी बाकायदा लेख लिखकर सवाल खड़ा कर दिया कि पड़ोसी देश श्रीलंका की सरकार जब बड़ी सैनिक कार्रवाई करते हुए लिट्टे आतंकवादियों की पूरी जमीन साफ कर सकती है तो क्या भारत सरकार और सेना कुछ हजार नक्सलियों को हथियार डालने के लिए बाध्य नहीं कर सकती है?
इस प्रश्न का सम्यक उत्तर सिर्फ इतना हो सकता है कि श्रीलंका ने तो आज लिट्टे का सफाया किया है लेकिन हमारे देश ने ऐसी सैन्य कार्रवाई का खमियाजा डेढ़ दशक पहले ही राजीव गांधी की शहादत देकर और ऑपरेशन ब्लू स्टार का खमियाजा इंदिरा जी की शहादत देकर उठाया था। पता नहीं हमारे यह तथाकथित बुध्दिजीवी अब क्या चाहते हैं? शायद हमारे बंधुआ बुर्जुआवादी बुध्दिजीवियों ने इतिहास और दुनिया से सबक लेना सीखा नहीं है या जान-बूझ कर सीखना नहीं चाहते हैं। हमारे बगल में पाकिस्तान है, जहां पिछले साठ सालों से फौज अपने ही लोगों के खिलाफ इस्तेमाल की जाती रही है। नतीजा सामने है। आज पाकिस्तान जबर्दस्त टूट के मुहाने पर बैठा है।
यह इत्तेफाक है या चिदम्बरम का मीडिया मैनेजमेन्ट, पता नहीं! पीसीपीए नेता छत्रधर महतो की रिहाई की मांग करते हुए आदिवासियों ने राजधानी एक्सप्रेस रोक ली। सारे समाचार चैनल शोर मचाने लगे कि नक्सलवादियों ने राजधानी एक्सप्रेस अगुवा कर ली। लेकिन पूरे दिन भर किसी भी हमारे पत्रकार साथी ने यह खुलासा नहीं किया कि ट्रेन रोकने वाले उस पीसीपीए के समर्थक थे, जो कांग्रेस की बगलबच्चा तृणमूल कांग्रेस का सहयोगी संगठन है और छत्रधर महतो भी नक्सलवादी नहीं बल्कि तृणमूल नेता हैं। बहुत बाद में धीरे से यह सूचना दी गई कि ट्रेन रोकने वाले आदिवासी थे जो तीर कमान लिए हुए थे और लूट के नाम पर उन्होंने या तो कम्बल लूटे या खाने के पैकेट। इससे पहले भी हमारे मीडिया के साथी अपनी सोच का नमूना दे चुके हैं जब 6 दिसम्बर 1992 को अयोधया में बाबरी मस्जिद गिराने वाले गुण्डों को 'कारसेवक' कहकर महिमामंडित किया गया था।
सवाल उठाया गया है कि छत्तीसगढ़, आंध्र, उड़ीसा जैसे राज्यों के कुछ जिलों में नागरिक प्रशासन की बात तो दूर रही, सरकारी सेवा का कोई शिक्षक, डॉक्टर, कंपाउंडर, नर्स इंजीनियर और पटवारी तक नहीं घुस पा रहे हैं, ऐसी स्थिति में इन क्षेत्रों में आर्थिक विकास न होने का रोना रोना अपने आप को धोखा देना है। ऐसे तर्क देने वाले बुध्दिजीवियों से बहुत विनम्रता से एक सवाल किया जा सकता है कि ठीक है जहां नक्सलवादी हैं वहां यह सरकारी अमला नहीं जा पा रहा लेकिन जहां नक्सलवादी नहीं हैं वहां यह सरकारी तंत्र नजर क्यों नहीं आता? देश भर के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की क्या हालत है, पटवारी और इंजीनियर का मतलब देहात में क्या होता है? दिल्ली में मिनरल वाटर और कोला पीने वाले बुध्दिजीवी नहीं समझ सकते हैं।
आरोप लगाए जा रहे हैं कि नक्सलवादी, ठेकेदारों और इंजीनियरों से लेवी वसूलते हैं और मारने की धमकी देते हैं। लेकिन अभी तक यह बताने वाला कोई भद्र पुरूष नहीं मिला जो बताए कि एस मंजुनाथ और सत्येन्द्र दुबे को मारने वाले भी क्या नक्सलवादी थे? हमारे संपादक महोदय जब राज्य सभा सदस्य बन जाएंगे और उनकी सांसद निधि का पैसा जब विकास कार्य में लगेगा तब शायद उनका कोई चहेता ठेकेदार हुआ तो उन्हें बताएगा कि काम शुरू होने से पहले ही चालीस प्रतिशत की रकम तो इंजीनियर साहब की भेंट चढ़ जाती है।
अगर निष्पक्ष जांच करवाई जाए कि जिन पुलों और स्कूलों को उड़ाने का आरोप नक्सलियों के सिर पर है, उनमें से कितने ऐसे थे जो दो या चार माह पुराने ही थे। नतीजा सामने आ जाएगा कि अधिकांशत: नए बने हुए थे और उनके बिलों का भी भुगतान ठेकेदारों को हो चुका था। खगड़िया में सामूहिक नरसंहार हुआ। तुरन्त आरोप लगाया गया कि नक्सलियों ने किया। लेकिन मालूम पड़ा कि यह काम तो जातीय गिरोहों का था।
बात विकास की की जा रही है लेकिन यह विकास किसका हो रहा है? किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है, आदिवासियों से जंगल छीने जा रहे हैं और उन जमीनों पर बड़े बड़े पूंजीपतियों के संयंत्र लग रहे हैं। तमाशा यह है कि जिस किसान की जमीन छीनकर छह और आठ लेन का हाईवे बनाया जा रहा है उस हाईवे पर वह किसान अपनी बैलगाड़ी या साइकिल लेकर नहीं चल सकता और अगर उस सड़क पर वह चलना चाहेगा तो उसे टोल टैक्स देना होगा चूंकि उसके चलने के लिए पैरेलल सड़क समाप्त की जा चुकी है। उत्तर प्रदेश में जेपी समूह ताज एक्सप्रेस वे बना रहा है। जिन किसानों की जमीनें छीनी गई हैं वह प्रतिवाद करते हैं तो किसानों पर गुण्डा एक्ट लगा दिया जाता है। लेकिन हमारे तथाकथित बड़े संपादकों की नजर में यह विकास है। यह विकास का ही रूप है कि झारखण्ड में जिन आदिवासियों को खदेड़कर सरकार पूंजीपतियों से एमओयू साइन करती है उनका थोड़े से दिन का मुख्यमंत्री कई हजार करोड़ रूपये की खदानें विदेशों में खरीद लेता है। लेकिन हमारे वरिष्ठ पत्रकार सैन्य कार्रवाई की आवश्यकता नक्सलियों के खिलाफ महसूस करते है?
फ्रांसिस इंदवार नाम का एक पुलिस इंस्पैक्टर बेरहमी के साथ मारा गया। इस तरह के कामों की कड़ी भर्त्सना होनी चाहिए और हुई भी। लेकिन जो हमारे बुध्दिजीवी इंदवार की हत्या पर क्रोधित हो रहे हैं और इसके लिए नक्सलियों पर सैन्य हमले की वकालत कर रहे हैं, वह यह बताना भूल जाते हैं कि इंदवार को पिछले छह माह से तनख्वाह नहीं मिली थी और उसकी तनख्वाह रोकने वाले नक्सली नहीं थे बल्कि देश के गृह मंत्री पी चिदंबरम के कारकुन ही थे। शायद मालूम हो कि झारखण्ड में पिछले लगभग नौ माह से राष्ट्रपति शासन है और सारा प्रशासन गृह मंत्री के ही अधीन है।
गृह मंत्री ने एक जोरदार तर्क दिया और उसकी हिमायत बड़े संपादकों ने की। कहा गया कि अगर नक्सली व्यवस्था बदलना चाहते हैं तो चुनाव लड़कर क्यों नहीं आते? तर्क है तो जानदार लेकिन है बेहद बेहूदा। पहली बात तो चुनाव, व्यवस्था नहीं सरकारें बदलने का माधयम है। चिदंबरम साहब स्वयं गवाह हैं कि इस देश में चार प्रतिशत मत पाकर सरकारें बन जाया करती हैं। क्या यह सरकारें जनभावनाओं की सही प्रतिनिधि होती हैं।
एक तरफ कहा जा रहा है कि कुछ हजार नक्सली हैं। दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि सारे जंगलों पर एक साथ हमला करो। अगर नक्सली कुछ हजार ही हैं तो सारे जंगलों पर एक साथ हमला करने की क्या जरूरत है? अगर ऐसा हमला हुआ तो सबसे ज्यादा जानें किसकी जाएंगी? निरीह आदिवासियों की ही? तमाशा यह है कि लोंगोवाल से बात की जा सकती है, लालडेंगा से बात की जा सकती है, परेश बरूआ से बात की जा सकती है, एनएससीएन से बात की जा सकती है, संघ- विहिप और हुर्रियत कांफ्रेंस से भी बात की जा सकती है लेकिन नक्सलियों से बात नहीं की जानी चाहिए उनके खिलाफ तो सिर्फ और सिर्फ सैन्य कार्रवाई ही एकमात्र विकल्प है। और यह सैन्य कार्रवाई इसलिए भी जरूरी हो जाती है क्योंकि खनन कंपनियों का लॉ अफसर रहा एक व्यक्ति अब इस देश का गृह मंत्री है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें