कोड़ा न पहले हैं और न आखिरी
मध़ु कोड़ा के लगभग सौ ठिकानों पर आयकर विभाग के छापों के बाद राजनीतिज्ञों का भ्रष्टाचार एक बार फिर गर्म बहस का मुद्दा बन गया है। लेकिन जहां तक राजनीति में भ्रष्टाचार का सवाल है, कोड़ा न पहले हैं और न आखिरी। ऐसा भी नहीं है कि जिनके मामले सामने नहीं आए हैं उनके ईमानदार होने की कोई गारंटी दी जा सकती हो। क्या जरूरी है जिनके मामले आज नहीं खुले कल भी उनके मामले नहीं खुलेंगे या जिनके मामले नहीं खुलेंगे वह दूधा के धाुले ही होंगे। कोड़ा का मामला इस मामले में अद्भुत है कि इस मामले से यह राज उजागर हो गया है कि कुछ दिनों का मुख्यमंत्री किस तरह चुटकियों में अरबों रूपया बना सकता है।
मात्र डेढ़ दशक पहले एक ठेका मजदूर की हैसियत से अपने कैरियर की शुरूआत करने वाले कोड़ा शुरू में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े और उसके चरित्रवान कार्यकर्ता रहे। बाद में भाजपा के टिकट पर विधाायक चुन लिए गए। जब राज्यसभा चुनाव में उन्होंने क्रॉस वोटिंग की तो भाजपा ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। लेकिन तब तक चतुर सुजान कोड़ा भारतीय राजनीति की कमजोर नब्ज को पहचान चुके थे। वह निर्दलीय चुनाव लड़ गए और चुनकर आए। उनके भाग्य ने पलटा खाया और भाजपा को उन्हीं कोड़ा की शरण में जाकर सरकार बनानी पड़ी जिन्हें उसने कुछ दिन पहले ही बाहर का रास्ता दिखाया था। कोड़ा ने अपनी पूरी कीमत भाजपा से वसूली और समय आने पर अपने पुराने अपमान का बदला अर्जुन मुंडा की सरकार गिराकर ले लिया। कांग्रेस ने उनका सहयोग किया और कोड़ा ने निर्दलीय विधाायक की हैसियत से मुख्यमंत्री बनने का कीर्तिमान स्थापित किया। कोड़ा जिस दिन मुख्यमंत्री बने थे उसी दिन यह तय हो गया था कि झाारखंड पतन के रास्ते चल पड़ा है।
ऐसा भी नहीं है कि कोड़ा के यह कारनामे एकदम सामने आए हों। बल्कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को इनकी जानकारी रही ही होगी। जिस साधाारण से आदमी दुर्गा उरांव की शिकायत पर कोड़ा के खिलाफ जांच की गई उसने यह शिकायत काफी पहले की थी। लेकिन कोड़ा के खिलाफ आयकर विभाग ने कार्रवाई तब की जब झारखण्ड में चुनाव का बिगुल फुंक चुका है और कोड़ा की जरूरत यूपीए को न केन्द्र में है और न इस वक्त झाारखण्ड में। ऐसे में कोड़ा पर कानून का कोड़ा कई शंकाओं को भी जन्म देता है। पूर्व प्रधाानमंत्री वीपी सिंह की पुस्तक 'मंजिल से ज्यादा सफर' में उन्होंने याद दिलाया है कि कैसे एक समय ऐसा भी आया था जब प्रणव मुखर्जी कांग्रेस से बाहर चले गए थे और उस समय उनके भी ठिकानों पर छापे पड़े थे।
कहा जाता है कि राजनीति देश की अर्थव्यवस्था की दिशा तय करती है और राजनीति इतना सरल विषय नहीं है जितना इसका मजाक उड़ाया जाता है। लेकिन हमारे राजनीतिज्ञों ने राजनीति की धाारा ही बदल दी है अब 'अर्थ' राजनीति की दिशा तय कर रहा है। अगर संसद में मुलायम सिंह यादव, अनिल अंबानी के समर्थन में दलीलें दे रहे हैं तो एस्सार समूह के हितों की रक्षा सुषमा स्वराज कर रही हैं। नाथवानी, मुकेश अंबानी के पैरोकार हैं तो बुध्ददेव भट्टाचार्य टाटा के दोस्त बने हुए हैं। इस मामले में किसी को भी बेदाग नहीं कहा जा सकता। 'डिफरेन्ट विद अदर्स' का राग अलापने वाली भाजपा की पोल तो काफी पहले ही खुल चुकी है और कांग्रेस में तो कृष्णा मेनन के समय से ही ऐसे लोगों की कमी नहीं है। हां वामपंथी दल अभी तक इस बीमारी से अछूते थे लेकिन अब वहां भी पी विजयन पैदा होने लगे हैं। समाजवादियों की तो बात ही छोड़ दीजिए। उनका समाजवाद ही पूंजीपतियों का पिछलग्गू है।
धोटालों ओर राजनीति का चोली दामन का साथ स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही रहा है। सबसे पहले घोटाले का पर्दाफाश तत्कालीन प्रधाानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू के दामाद फिरोज गांधाी ने किया था और हरिदास मूंदड़ा के खिलाफ संसद में आवाज उठाई थी। इस घटना से पं नेहरू की सरकार को असहज स्िथिति का सामना करना पड़ा था और तत्कालीन वित्ता मंत्री को त्यागपत्र देना पड़ा था। 1957 में हुए इस घोटाले को धोटाला युग का सूत्रधाार कहा जा सकता है। इससे पहले आजादी के तुरन्त बाद जीप घोटाला भी हुआ था और उस समय ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त कृष्णा मेनन के ऊपर इस घोटाले को लेकर उंगलियां उठी थीं। तब से चला सिलसिला 1980 में तेल कुंआ घोटाला, 1982 में अंतुले प्रकरण, फिर चुरहट लाटरी कांड जिसमें कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह पर भी उंगलियां उठी थीं, नब्बे के दशक में शेयर घोटाला, चारा घोटाला, हवाला कांड, नरसिंहाराव का सांसद रिश्वत कांड, अब्दुल करीम तेलगी का स्टाम्प घोटाला, तहलका का रक्षा सौदा भंडाफोड़ से होता हुआ मधाु कोड़ा तक जा पहुंचा है।
पूर्व केन्द्रीय मंत्री सुखराम को आय से अधिाक संपत्तिा के मामले में दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने तीन साल की सजा सुनाई व दो लाख रूपये का जुर्माना भी सुनाया। लेकिन उन्हें सजा भुगतने के लिए जेल नहीं जाना पड़ा क्योंकि अदालत ने पचास हजार रूपये के निजी मुचलके पर उन्हें जमानत दे दी। बारह साल तक चले इस केस में अदालत में यह साबित हो गया था कि नरसिम्हाराव सरकार में संचार मंत्री रहते हुए सुखराम ने ठेके देते वक्त भ्रष्टाचार किया था। सीबीआई ने उनके घर छापा मारकर 3 करोड़ 61 लाख रूपये पकड़े थे। तब सुखराम ने इन रूपयों को पार्टी का चंदा बताया था लेकिन कांग्रेस द्वारा इस धान से पल्ला झाड़ लेने के कारण सुखराम मुसीबत में पड़ गए थे। बाद में पं. सुखराम हिमाचल में कांग्रेस से बदला लेने के लिए भाजपा के साथ हो गए थे और भाजपा की सरकार उनके आशीर्वाद से ही चली। बताया जाता है कि सुखराम राजनीति में कदम रखने से पहले मंडी के स्कूल में क्लर्क थे।
हाल ही में सबसे ज्यादा गम्भीर मामला संचार मंत्री ए राजा का सामने आया। बीती 21 अक्टूबर को एक प्राथमिकी दर्ज की गई जिसमें दूर संचार विभाग के अज्ञात अधिाकारियों व्यक्तियों/ कंपनियों पर सरकार को धाोखा देने का आरोप लगाया गया और कहा गया कि स्पेक्ट्रम को बिना नीलामी किए सस्ती दर पर बेचा गया। अगले ही दिन सीबीआई ने दूर संचार विभाग के अधिाकारियों के ठिकानों पर छापे मारे। जब विपक्ष ने संचार मंत्री ए राजा के इस्तीफे की मांग की तो प्रधाानमंत्री ने कह दिया कि कोई घोटाला हुआ ही नहीं है। दरअसल कांग्रेस राजा के खिलाफ कुछ भी करने से इसलिए डर गई क्योंकि राजा ने कह दिया था कि जो कुछ हुआ वह मंत्रिमंडलीय समिति की जानकरी में था और '' लाइसेंस मुद्दे की प्रक्रिया की पूरी जानकारी प्रधाानमंत्री को दे दी गई थी।''
बोफोर्स तोप घोटाले का जिन्न भी दो दशक से भारतीय राजनीति का पीछा करता आ रहा है। हालांकि इसमेें स्व. राजीव गांधाी के दामन पर जो दाग पड़े थे अब वह धाुल चुके हैं और इस मुद्दे को उठाने वाले स्व. वीपी सिंह भी अपने जीवन के अंतिम क्षणों में ऐसा आरोप लगाने के लिए एक तरह से अपराधाबोधा का इजहार करने लगे थे। लेकिन क्वात्रोची को बचाने की कोशिशें करने पर कांग्रेस बार बार सवालों के घेरे में आ जाती है। पूर्व विदेश मंत्री कुंवर नटवर सिंह भी वोल्कर समिति की रिपोर्ट आने के बाद इराक को तेल के बदले अनाज के घोटालें में घिर चुके हैं।
इनेलो नेता ओमप्रकाश चौटाला भी सीबीआई की नजर में लगभग 2000 करोड़ की संपत्तिा के मालिक हैं और इनकी सरकार में शिक्षक भर्ती घोटाले के आरोप लग चुके हैं। इसी तरह पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल भी भ्रष्टाचार के मामलों में फंस चुके हैं। उन पर भी कई स्थानोें पर होटल और अवैधा संपत्तिा जमा करने के आरोप हैं। जबकि उनके प्रतिद्वन्दी पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह भी ऐसे ही आरोपों का सामना कर रहे हैं।
राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव का चारा घोटाला तो काफी चर्चा में रहा। इस केस में कई लोगों को सजाएं हो चुकी हैं और लालू को कब सजा होती है देखना पड़ेगा। इसी तरह राममनोहर लोहिया के समाजवाद के थोक विक्रेता मुलायम सिंह यादव भी आय से अधिाक संपत्तिा के मामलों का सामना कर रहे हैं। उनके मामले में भी कई दिलचस्प मोड़ आए। वही सीबीआई जिसने उन पर मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी थी यूपीए सरकार को सपा के समर्थन के बाद कहने लगी कि अब मुकदमा चलाने की कोई जरूरत नहीं है। इतना ही नहीं वह विश्वमोहन चतुर्वेदी जिन्होंने अदालत में मुलायम सिंह को घसीटा था अब स्वयं अदालत से गैर हाजिर चल रहे हैं। इसी तरह मुलायम सिंह की धाुर विरोधाी मायावती भी ताज कोरीडोर मामले और आय से अधिाक संपत्तिा के मामलों का सामना कर रही हैं। इसी तरह अनुसूचित जाति आयोग के अधयक्ष सरदार बूटा सिंह के सुपुत्र स्वीटी सिंह एक ठेकेदार से तीन करोड़ रूपये की रिश्वत मांगने पर पकड़े गए।
तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता भी अकूत संपत्तिा की मालकिन हैं। वह तांसी भूमि घोटाले में फंसी। लेकिन एक तकनीकी फॉल्ट के कारण सुप्रीम कोर्ट से बरी हो गईं। बताया जाता है कि जब उनकी मां की मृत्यु हुई थी तब उनके पास अपनी मां का अन्तिम संस्कार करने के लिए पैसे नहीं थे लेकिन जब उनके दत्ताक पुत्र का विवाह हुआ और उनके धर पर छापे में उनके गहने और कपड़े पकड़े गए तो सारी दुनिया ने आश्चर्य से अपनी अंगुली दांतो तले दबा ली।
उत्तार प्रदेश के परिवहन मंत्री रामअचल राजभर भी आरोपों के घेरे में हैं। बताया जाता है कि अम्बेडकरनगर बार एसोसिएशन ने राजभर की संपत्तिायों की सीबीआई जांच कराने का अनुरोधा करते हुए एक याचिका दायर करके कहा है कि राजभर किसी समय साइकिल पर घूम-घूमकर चूहा मार दवा बेचा करते थे ऐसे में उनके पास अकूत संपत्तिा कहां से आ गई?
एनडीए सरकार में एक वेबसाइट तहलका डॉट कॉम ने रक्षा सौदों में दलाली का भंडाफोड़ किया था। जिसमें तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज, उनकी सखी और समता पार्टी अधयक्षा जया जेटली व भाजपा अधयक्ष बंगारू लक्ष्मण्ा फंसे थे। लेकिन एनडीए सरकार ने बहुत निर्लज्जता के साथ सीबीआई को यह जांच करने का आदेश दे दिया कि तहलका की यह स्टिंग आपरेशन करने की मंशा क्या थी? इतना ही नहीं सीबीआई ने तहलका के पत्रकारों के खिलाफ उत्तार प्रदेश में वन्य जीवों का अवैधा शिकार करने का मुकदमा कायम कर दिया था। बाद में कारगिल शहीदों के लिए ताबूत खरीदने में घोटाले के आरोप भी एनडीए सरकार पर लगे थे।
इस कड़ी मे एक और चौंकाने वाला नाम माकपा की केरल इकाई के सचिव पी विजयन का है। अभी तक यह धाारणा थी कि वामपंथी दलों के नेताओं में नैतिकता है और वह ऐसे कारनामों में लिप्त नहीं रहते हैं। लेकिन विजयन ने इस मिथक को तोड़ा है। इसी तरह माकपा सांसद नीलोत्पल बसु का एनजीओ भी सवालों के घेरे में है।
विगत लोकसभा में सांसदों का कैश फॉर क्वैरी कांड की गूंज भी काफी तेज रही। एक निजी टीवी चैनल के स्टिंग ऑपरेशन में कई सांसद पैसा लेकर संसद में सवाल पूछते पकड़े गए। लेकिन तत्कालीन लोकसभा अधयक्ष सोमनाथ चटर्जी के कड़े रुख के बाद संसद ने इन सांसदों का सदस्यता रद्द कर दी। इसमें भी एक दिलचस्प पहलू यह है कि बसपा के एक सांसद राजाराम पाल जो इस कांड में अपनी सदस्यता गंवा बैठे थे वर्तमान सदन में कांग्रेस के माननीय सदस्य हैं। इसलिए भ्रष्टाचार की इस गंगा में डुबकी लगाने वाले हर दल के सदस्य हैं। यह सत्ताा का चरित्र है।
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं।)
‘डेली न्यूज’ जयपुर में प्रकाशित
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