गुरुवार, 17 सितंबर 2009

लोकतंत्र की हत्या की पटकथा जगनमोहन के बहाने

लोकतंत्र की हत्या की पटकथा
जगनमोहन के बहाने


अमलेन्दु उपाध्याय
आंधा्र प्रदेष के मुख्यमंत्री वाईएस राजषेखर रेड्डी की असमय मृत्यु के बाद जिस तरह से उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग उठी और इसके लिए बाकायदा लॉबिंग की गई उससे कांग्रेस का हाई कमान बहुत चिंतित है। होना भी चाहिए। चिंता कांग्रेस आला कमान को इस बात की है कि अभी तक कांग्रेस में युवराजों को राजतिलक का विषेशाधिकार सिर्फ गांधी-नेहरू खानदान को ही हासिल था। अगर जगनमोहन को आंधा्र की कुर्सी थमा दी गई तब तो राज्यों में राजतिलक की परंपरा चल निकलेगी और ऐसी स्थिति में कांग्रेस को बांधे रखने वाली ताकत गांधी परिवार का रुतबा कम हो जाएगा क्योंकि तब राज्यों के क्षत्रप भी अपने बेटों को सत्ताा सौंपने की मांग करने लगेंगे।
वीरप्पा मोइली ने अभी कहा कि सोनिया गांधी आंधा्र प्रदेष के विशय में फैसला लेंगी। याद होगा कि लोकसभा चुनाव के समय भाजपा ने आरोप जगाया था कि मनमोहन सिंह कठपुतली प्रधानमंत्री हैं और सोनिया सुपर प्रधानमंत्री। उस समय कांग्रेस ने इस आरोप को बहुत बुरा माना था। ठीक इसी तरह मध्य प्रदेष में चुनाव के समय जब भाजपा ने सवाल किया कि कांग्रेस का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है तब कांग्रेस ने कहा था कि मुख्यमंत्री चुनना विधायकों का अधिकार है और चुनाव बाद नवनिर्वाचित विधायक अपना उम्मीदवार चुनेंगे। अब सवाल यह हो सकता है कि जब मध्य प्रदेष के लिए मुख्यमंत्री चुनना विधायकों ाक विषेशाधिकार है तो आंधा्र प्रदेष के लिए सोनिया का फैसला अंतिम क्यों होगा? और अगर सोनिया ही मुख्यमंत्रियों के भाग्य का फैसला करती हैं तब तो भाजपा का आरोप सही है कि मनमोहन सिंह कठपुतली प्रधाानमंत्री हैं।
लेकिन कांग्रेस आलाकमान की चिंताओं से इतर हमारी चिंता इस प्रकरण पर और सवाल को लेकर है। हमारी चिंता यह है कि इस लॉबिंग के बीच आम कार्यकर्ता कहां खड़ा है और क्या अब कार्यकर्ता का रोल किसी राजनीतिक दल में बचा है और अगर बचा है तो वह रोल क्या है। क्या राजनीति अब कुछ परिवाारों का जन्मसिध्द अधिकार है? क्यों कार्यकर्ता आज निचले पदों पर ही काबिज हैं? हर दल और उसके शिखर नेता चुनाव के मौके पर जिस तरह से अपने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करके टिकट बांटने लगे हैं और जगनमोहन प्रकरण के तरीके से नेतृत्व निर्माण के लिए कार्यकर्ताओं को दरकिनार किया जा रहा है क्या यह लोकतंत्र के लिए षुभ समाचार है? जगनमोहन प्रकरण के बाद यह स्वाभाविक प्रश्न पैदा हो रहा है कि राजनैतिक कार्यकर्ता के लिए भारतीय लोकतंत्र में आखिर कोई जगह बची है या नहीं?
एक समय था जब पार्टियों के मूल्य और आदर्श हुआ करते थे। दल के नेता और नीतियों को देखकर लोग उससे जुड़ते थे। पार्टी भी किसी आदमी को उसके गुण, स्वभाव और चाल चलन के आधार पर पद दिया करती थी। इसलिए परिवारवाद कम हावी था। यह एक कटु सत्य है कि आज केवल उन वामपंथी दलों में परिवारवाद ने जड़े नहीं जमाई हैं जिन वामपंथी दलों के ऊपर आरोप लगते रहे हैं कि उनका सिध्दान्त तो 'सत्ताा बन्दूक की नाल से निकलती है' रहा है। पहले पार्टियां आंदोलन करती थीं और उसके बाद सदस्यता अभियान चलाती थीं। उस समय कॉलेजों से ऐसे विद्यार्थियों को जो पार्टी में आंदोलनों के अगुवा हुआ करते थे, पार्टियां अपना प्रत्याषी बनाया करती थीं। सभी दल युवा, मजदूर, किसान और विभिन्न तबकों से संबन्धित लोगों के संगठन बनाते थे। वरिष्ठ पदों पर बैठे लोगों के बच्चे दल के आदर्शों, नीतियों और मूल्यों से अगर अपरिचित होते थे तो उन्हें पार्टी में पीछे की सीट मिलती थी। मगर अब लोकतंत्र की परंपरा खत्म हो रही है। जिसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब पार्टियों के पास मुद्दे नहीं हैं। जनता में जो ज्यादा लोग जागरूक होते थे, पहले जो समाज के लिए कुछ करना चाहते थे, जिनके मन में जोश होता था, जिनका समाज से कुछ सरोकार होता था, और जो मुद्दों को समझना चाहते थे, वही लोग राजनीतिक कार्यकर्ता बनते थे और बाद में नेतृत्व भी संभालते थे। आज पार्टी में शामिल होने वालों का स्वार्थ होता है और पहले कार्यकर्ता को एक ख्याति की आवश्यकता होती थी। अब क्योंकि जातिवाद हावी है तो विद्यार्थी से लेकर आम नागरिक कार्यकर्ता बनने से बचने लगा है। जो नेता जिस समुदाय का होता है वह उसी समुदाय के लोगों को खोजकर कार्यकर्ता के रूप में पार्टी से जोड़ लेता है। अभी तक राजनीतिक कार्यकर्ता की जगह राजनीति में बची हुई थी क्योंकि अभी तक केवल पार्टी के ऊंचे पदों पर ही परिवारवाद हावी था। यह तमाषा है कि जिला और ब्लॉक स्तर पर तो अभी भी छोटे राजनीतिक कार्यकर्ता को ही पदासीन किया जाता है।
पहले कार्यकर्ता नेता चुनते थे। मगर अब नेता जो चाहता है वही होता है। इसलिए आम कार्यकर्ता कमजोर हुआ है। इसके अलावा जिसके पास पैसा नहीं है उसे कोई पद नहीं दिया जाता। क्योंकि पहले देहात और गांव में वहां के विकास कार्यो को हल कराने के लिए पार्टियों से जुड़ते थे मगर अब दल वहां के लिए पैसे से कार्यकर्ता खरीद लेते हैं। अब असली राजनीतिक कार्यकर्ता पसोपेश में हैं कि वह क्या करे? ईमानदारों को या तो अब चाटुकारों की तरह पार्टी के बड़े नेताओं की बात मान कर चलना होता है या फिर वह राजनीति छोड़कर घर बैठ जाता है। एक समय में गांव का कार्यकर्ता भी बड़े से बड़े नेता को साफ-साफ मुद्दों और नीतियों पर घेर लिया करते थे। मगर अब स्थिति यह है कि समाजवादी पार्टी परमाणु करार पर यू टर्न लेते हुए रात ही रात में कांग्रेस का समर्थन करने का फैसला ले लेती है और उसके बड़े से बड़े नेताओं को यह मालूम ही नहीं पड़ पाता कि ऐसा फैसला कहां ले लिया गया। यही कारण है कि जब सपा उत्तार प्रदेष में मायावती के खिलाफ आंदोलन का बिगुल बजाती है तो उसे कार्यकर्ता नहीं मिल पाते।
आदमी अपने कर्मों से राजनीतिक कार्यकर्ता बनता है। क्योंकि उसे अपने लक्ष्य के बारे में ठीक से पता होता है और उसी दिशा में वह चलना भी चाहता है। उसे हर समय एक अच्छे मंच की की तलाश भी रहती है। तो उसे राजनीति में लाने के लिए लोग आगे आ जाते हैं। ग्रामीण अंचलों में जो गांव का बच्चा समझदार होता था, पढ़ने-लिखने के बाद वह वहां की समस्याओं के लिए कदम उठाता था तो गांव के लोग उसे प्रोत्साहन देते थे। गांव के सहारे ही वह आगे बढ़ने लगता था। जब बड़ी पार्टियों के नेताओं की नजर उस पर पड़ती थी तो उसे पार्टी में शामिल हो जाने के लिए आमंत्रित करते थे। गांव के लोग भी उसे प्रेरित करते थे कि वह उनके लिए कुछ करेगा तो वह बिना किसी हिचक के उसका समर्थन करते थे। यही कारण था िकवह कांग्रेस जहां आज जगनमोहन पैदा हो रहे हैं उसी कांग्रेस में एक बैण्ड मास्टर सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष के पद तक पहुंचा। क्या आज कल्पना की जा सकती है कि कोई सीताराम केसरी कांग्रेस में पैदा होगा?
जो लोग देश की तस्वीर बदलने के लिए घर से गुड़ खाकर मीलों पैदल चलते थे वही असली राजनीतिक कार्यकर्ता होते थे। आज भी जो वंचितों, भौतिक साधनों, अवसरों को आम जनता को देने के लिए उसके दिल में दर्द होता है वही राजनीतिक कार्यकर्ता बनता है। आज भी ग्रामीण और विद्यार्थी वर्ग ही सबसे ज्यादा राजनीति में आता है और पहले भी आया करता था। पहले भी वे विधायक बनने के लिए नहीं आते थे और न ही कोई पदाधिकारी बनने के लिए। मगर अब समय बदल गया है अब दूसरी तरह का कार्यकर्ता भी बन रहा है। यह सबसे पहले किसी पद पर इसलिए बैठना चाहता है कि वहां से कुछ अर्जित कर सके। और उसे यह सिखाया है जगनमोहन जैसों ने।
आज राजनीति का संदर्भ और उद्देश्य दोनों बदल रहे हैं। इसका लोगों के राजनीतिक निर्माण प्रक्रिया में असर पड़ रहा है। 1990 के उदारीकरण के दौर आर्थिक व सामाजिक अन्यायों के खिलाफ आवाज को उभारना था। इसलिए राजनैतिक कार्यकर्ता बनने की जरूरत होती थी। लोग सामाजिक सरोकारों के लिए समर्पित थे। यह समर्पण दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी और वामपंथी सभीं के लिए ही बराबर लागू था। जो लोग इनके महत्व को समझते थे वे ही राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में जन्म लेते थे। पूंजीपति अपने दल की विचारधाराओं को अपनाकर ही राजनीति से जुड़ते थे। मगर 1990 के बाद से राजनैतिक मूल्यों में बदलाव आया है। आज उस तरह के राजनीतिक कार्यकर्ता बन भी नहीं रहे हैं और जो सही कार्यकर्ता हैं वह हाषिए पर धाकेल दिए गए हैं। बिल्डर, माफिया और पूंजीपति मिलकर राजनीतिक दलों का एजेन्डा तय कर रहे हैं। अगर अनिल अंबानी और मुकेष अंबानी के चहेते कांग्रेस में हें तो भाजपा में भी हैं। यही कारण है कि अगर जगनमोहन को मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए आंधा्र के बिल्डर्स लॉबिंग करते हैं तो समाजवादी पार्टी को फिरोजाबाद में लोकसभा चुनाव लड़ाने के लिए मुलायम के पुत्र अखिलेष की पत्नी ही उम्मीदवार मिलती हैं और सारे कार्यकर्ता दरकिनार कर दिए जाते हैं। वे अध्यापक, छात्र और पढ़े लिखे लोग जो व्यवस्था की कमियों से दुखी होते थे भ्रष्टाचार को खत्म करने के अरमान मन में पाले रहते थे वे अब हाषिए पर हैं और आने वाला समय या तो जगनमोहन, चौटाला, राबड़ी, डिम्पल यादव जैसों का होगा या फिर अनु टण्डन, निषिकांत और नाथवानी जैसे पूंजीपतियों के नुमाइन्दों का। जगनमोहन प्रकरण लोकतंत्र की हत्या की पटकथा लिखे जाने की गवाही दे रहा है।

( लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और 'दि संडे पोस्ट' में सह संपादक हैं।)


शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

भाजपा का भविष्य



भाजपा का भविष्य
प्रदीप सिंह

जिन्ना के बहाने भाजपा में इन दिनों जो द्घमासान मचा है, उससे भाजपा के भविष्य पर कई तरह के सवाल खड़े किए जाने लगे हैं। जसवंत सिंह को पार्टी ने यह सोच कर निकाला कि अनुशासन का डंडा देख बाकी बागी सहम जाएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अरुण शौरी ने भाजपा की ऐसी-तैसी कर दी। उत्तराखण्ड के भुवनचन्द्र खण्डूड़ी ने भी राष्ट्रीय अध्यक्ष को शिकायत-पत्र लिखा। अब सब कुछ जैसे संद्घ के हवाले है। वह बैक डोर से भाजपा को इस तूफान में कैसे संभालेगा और उसे क्या रूप देगा इसका सब लोगों को इंतजार है
जिन्ना पर जसवंत सिंह की किताब के बाद भाजपा और संद्घ में जो तूफान आया है वह थमने का नाम नहीं ले रहा। इस तूफान ने भाजपा के दरख्त की जड़ों को हिला दिया है। तूफान का वेग इतना तेज है कि वह संद्घ की फुलवारी में उगी तमाम झाड़ियों को उखाड़ फेंकने से पहले थमता नजर नहीं आता। संद्घ के नेता अभी ऐसे लोगों को चिन्हित करने में लगे हैं, जिन्होंने भाजपा के सत्ता में आने के बाद सत्ता सुख के लिए अपना चोला बदल लिया था। अब वह महत्वपूर्ण पदों पर संद्घ पृष्ठभूमि के व्यक्ति को ही बैठाना चाहते हैं। इसके लिए छानबीन जारी है।
सुलह-सफाई का फतवा संद्घ ने जारी कर दिया है। अनुशासन हीनता, वैचारिक विचलन को बर्दाश्त के बाहर बताया जा रहा है।जिन्ना विवाद के चलते संद्घ भाजपा को ओवरटेक करने पर आमादा है। अभी तक पर्दे के पीछे से राजनीतिक पार्टी भाजपा को संचालित करने वाला 'सांस्कृतिक संगठन' संद्घ अब खुलेआम राजनीति में हस्तक्षेप करता नजर आ रहा है। संद्घ के 'सांस्कृतिक विचारों' से दूरी बना कर रखने वाले नेताओं को राजनीति से दूर करने का एजेंडा संद्घ ने लागू करना शुरू कर दिया है। जसवंत सिंह द्वारा मोहम्मद अली जिन्ना का अपनी किताब में बखान करना न तो संद्घ परिवार को रास आया, और न ही भारतीय जनता पार्टी को। भाजपा जिस पार्टी कांग्रेस का विकल्प बनना चाहती है, उसके दो पूर्व दिग्गजों सरदार बल्लभ भाई पटेल और जवाहर लाल नेहरू को बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराने पर सबसे ज्यादा भाजपा ने ही तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की।
जिन्ना ग्रंथि संद्घ और भाजपा के लिए नई नहीं थी। भारतीय उपमहाद्वीप का ६२ वर्ष पहले हुआ बंटवरा कुछ वर्षों के बाद भूल जाने वाला नहीं था। अभी तक इस भयानक त्रासदी के लिए जिम्मेदार व्यक्ति राजनीतिक, सामाजिक और अकादमिक संस्थानों द्वारा चिंहित नहीं किया जा सका है, जिसको एक सिरे से सब मानने को तैयार हों। भारत में मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग को इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है, तो वहीं पाकिस्तान में नेहरू, पटेल और 'हिन्दू कांग्रेस' जिम्मेदार बताए जाते हैं।
हिन्दुस्तान के अकादमिक संस्थानों और राजनीतिक पार्टियों में बंटवारे के समय से ही यह बहस चलती रही है कि सावरकर, हिन्दू महासभा और कांग्रेस के कई हिन्दूवादी नेता भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। १७ अगस्त को नेहरू स्मारक सभागार में अपनी नई पुस्तक 'जिन्नाः भारत विभाजन के आइने में' के विमोचन के अवसर पर जसवंत सिंह के साथ उनकी ३० वर्ष पुरानी पार्टी का कोई मित्र नहीं था। वहां एक भी भाजपा नेता मौजूद नहीं था। उनके पूर्व कैबिनेट सहयोगी अरुण शौरी को पुस्तक विमोचन के दौरान चर्चा में शरीक होना था। लेकिन ऐन वक्त पर वह भी कन्नी काट गए।
भाजपा को वर्तमान स्थिति से उबारने के लिए शिमला में हुई चिंतन बैठक में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को बुलाया गया। इस बैठक में उन वरिष्ठों को जान बूझ कर दरकिनार किया गया जो असहज सवाल उठा सकते थे। जसवंत सिंह ने दिल्ली से शिमला तक का ३५० किमी का सफर तय किया। भाजपा कार्यकारिणी ने सदस्य के तौर पर उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध पाई, और अगले दिन १९ अगस्त को पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने जवसंत सिंह को फोन से सूचित किया कि पार्टी संसदीय बोर्ड ने उन्हें भाजपा से निष्कासित कर दिया है।
भाजपा के नेताओं का इतिहास और जिन्ना के साथ यह पहला विवाद नहीं है। इसके पहले २००५ में पाकिस्तान गए लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की मजार पर उन्हें, उनके एक भाषण का हवाला देते हुए सेकुलर बताया। आडवाणी के भारत आने से पहले ही संद्घ, भाजपा की त्यौरियां चढ़ गयीं। उन्हें पार्टी के अध्यक्ष पद से हटना पड़ा। इस द्घटना के बाद पार्टी और संद्घ में लालकृष्ण आडवाणी का वह आभा मंडल नहीं रहा जिसको लेकर संद्घ अपने इस स्वयंसेवक पर गर्व करता था। संद्घ और आडवाणी की आपसी रिश्तों की गर्माहट उसी एक बयान के बाद ठंडी पड़ गयी।जसवंत सिंह ने जिन्ना पर आई अपनी किताब की शुरुआत २००४ में ही कर दी थी। बाजार में आने में वक्त लगा। संद्घ के आंतरिक सूत्रों का कहना है कि जसवंत सिंह तो लालकृष्ण आडवाणी से पहले ही यह मान चुके थे कि भारत विभाजन के मोहम्मद अली जिन्ना नहीं, बल्कि सरदार वल्लभाई पटेल और जवाहर लाल नेहरू जिम्मेदार हैं। संद्घ सूत्रों का कहना है कि जिन्ना पर जसवंत सिंह की परिभाषा अक्षम्य है। जिस जिन्ना को पाकिस्तान के शासक, जनता और हिन्दुस्तान के मुसलमान तक भूलना चाहते हैं, आखिर क्या मजबूरी है कि भाजपा में कई नेता उसे नायक बनाने पर तुले हैं।
गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी ने जसवंत सिंह की किताब को, सरदार पटेल पर की गयी टिप्पणी के कारण प्रतिबंधित कर दिया। वे अपनी बात भाजपा और संद्घ को बताने के सफल रहे कि पटेल पर की गयी टिप्पणी के कारण गुजरात का धनाढ्य और सामाजिक, राजनीतिक रूप से सजग पटेल समुदाय नाराज हो जायेगा।लालकृष्ण आडवाणी के पाकिस्तान यात्रा के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना पर दिए गए बयान और जसवंत सिंह की किताब से पहले भी संद्घ में इस तरह के लोग मौजूद थे जिन्होंने जिन्ना को अपनी नजर से देखने का दुस्साहस किया। हो ़बि ़शेषाद्रि ने वर्षों पहले 'और देश बंट गया' नाम की किताब लिखी थी। वे संद्घ या भाजपा के मामूली कार्यकर्ता नहीं थे। संद्घ के दूसरे बड़े पद सह सरसंद्घ चालक के पद पर विराजमान थे। जिन्ना के बारे में उन्होंने भी वही लिखा जो जसवंत सिंह और लालकृष्ण आडवाणी लिख-बोल चुके हैं।
भाजपा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता और ऐसे तमाम पदों पर कर्त्तव्यनिष्ठ स्वयंसेवक की तलाश जारी है। तलाश में तराशा हुआ नेता ही चाहिए, जो भाजपा के साथ संद्घ के मंदिर में भी प्रतिष्ठा पाए। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का कार्यकाल दिसंबर में समाप्त हो रहा है। इसके पहले ही नए अध्यक्ष के लिए जिन नामों की चर्चा है उनमें शिवराज सिंह चोैहान और बाल आप्टे के नामों को प्रमुखता से लिया जा रहा है। जसवंत सिंह को ठिकाने लगाने के बाद संद्घ लालकृष्ण आडवाणी के पंख कतरने को तत्पर दिख रहा है। भाजपा और संद्घ दोनों के लिए यह काम आसान नहीं है। पूरे राजनीतिक जीवन में एक विवाद को छोड़कर आडवाणी का राजनीतिक और पारिवारिक जीवन निर्विवाद रहा है। लेकिन उम्र का तकाजा, पार्टी की हार और नए नेताओं को आगे करने के नाम पर संद्घ उनको सिर्फ सलाहकार की भूमिका तक सीमित करना चाहता है। राजनाथ सिंह को लेकर भी संद्घ में माथापच्ची जारी है। दिसंबर के बाद संद्घ राजनाथ सिंह का उपयोग कहां करे, इसको लेकर असमंजस की स्थिति में है। ऊपरी तौर पर तो सरसंद्घ चालक मोहन भागवत भाजपा को आपस में बैठकर सुलह करने की बात कहते हैं। लेकिन संद्घ ने अब मान लिया है कि पानी सिर से ऊपर निकल रहा है।
भारत ही नहीं भारतीय उपमहाद्वीप के लिए भारत का विभाजन इतिहास की सबसे अनसुलझी पहेली है। इस पहेली को हर बूझने वाला अपनी तरह से ही अर्थ लगाता है। जिन्ना, नेहरू और पटेल को लेकर सत्ता के गलियारे से सड़क तक विभाजन के तमाम तर्क और किस्से मौजूद हैं। एक पीए और एक टाइपराइटर के सहारे पाकिस्तान को फतह करने वाला जिन्ना बताना इतिहास का सरलीकरण होगा। इतिहासकारों की नजर में 'नेहरू मुसलमानों के दिलों में पनपे उस अमिट खौफ को पूरी तरह नहीं भांप सके जिसे जिन्ना ने आवाज प्रदान की। 'यह खौफ कि लोकतांत्रिक शासन में उन्हें अल्पसंख्यक के तौर पर रहना होगा।'
प्रसिद्ध इतिहासकार अनिल सील की छात्रा रहीं और पाकिस्तानी विद्वान एवं इतिहासकार आयशा जलाल का कहना है कि 'इतिहास में जिन्ना को गलत ढंग से पेश करने के चलन ने बड़ा आयाम हासिल कर लिया है। क्योंकि यह धर्मनिरपेक्ष भारत और इस्लामी पाकिस्तान के प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रवाद की पवित्र शब्दावली से जुड़ा है।' आयशा जलाल अपनी दलील में कहती हैं कि मोहम्मद अली जिन्ना संप्रभु राष्ट्र के तौर पर पाकिस्तान नहीं बनाना चाहते थे। जिन्ना का उद्देश्य प्रांतीय सरकारों, जिन पर मुसलमान अपना ज्यादा नियंत्रण पाने की उम्मीद करते थे के लिए ज्यादा स्वायत्तता हासिल करते हुए भारतीय मुसलमानों के हितों की रक्षा करना था। जिन्ना मजबूत केंद्रीय राष्ट्र बनाने की कांग्रेसी नेताओं की महत्वाकांक्षा से भयभाीत थे, जो उनके मुताबिक हिन्दू बहुसंख्यकों के हितों की नुमाइंदगी का दावा करने वाले लोगों के हाथों में जा सकता था।
इतिहासकार एमजीएस नारायणन कहते हैं कि 'जहां तक एक नेता की जिम्मेदारी है तो जिन्ना को विभाजन की जिम्मेदारी लेनी होगी, हालांकि वे पहले अभियुक्त नहीं हैं। पहली अभियुक्त तो निश्चित रूप से ब्रिटिश सरकार है और जिन्ना दूसरे नंबर के अभियुक्त। इतिहासकार मानेंगे कि बड़ी द्घटनाओं का श्रेय किसी एक कारक को नहीं दिया जा सकता। ऐसे मामलों में व्यक्तिगत पार्टी नेता और अनुयायियों के अलावा दूर दराज में और तात्कालिक कारण भी हो सकते हैं। लेकिन नेहरू को भी विभाजन की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया जा सकता। आखिर वे वह शख्स थे जिनके साथ भारी-भरकम कांग्रेस थी। उन्होंने विभाजन के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए और सत्ता शिखर पर जा बैठे। उन्हें चर्चिल और जिन्ना के बाद तीसरा अभियुक्त माना जाना चाहिए। हालांकि अपने देश और दुनिया के लिए उन्होंने जो किया उसके लिए वे सारी गलतियों से ऊपर उठ जाते हैं।'
संद्घ के सूत्रों से मिली खबरों के अनुसार भाजपा को संद्घ के सुझाव मानने होंगे। जो लोग वरिष्ठता और राजनीति में अनुभव का हवाला देकर संद्घ को नजरअंदाज करना चाहते हैं वे मुगालते में हैं। संद्घ के बिना भाजपा का कोई अस्तित्व नहीं है। भाजपा कार्यकर्ता संद्घ का भी कार्यकर्ता होता है। जब संद्घ ने भारतीय जनसंद्घ को भारतीय जनता पार्टी में विलय करने की बात कही तब बलराज मधोक ने इसका विरोध किया था। अपने साथ कुछ लोगों को रख कर जनसंद्घ को बनाए रखा। आज जनसंद्घ में बलराज मधोक का कोई नाम लेने वाला नहीं है। इसी तरह यदि भाजपा में कुछ लोग संद्घ को अनदेखा करते हैं, तब उन्हें परिणाम भुगतने को भी तैयार रहना होगा। सारे विवाद पर भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर का कहना है कि जसवंत सिंह को पार्टी से इसलिए निकाला गया क्योंकि वे पार्टी की बुनियादी विचारों से दूर चले गए थे। जहां तक पार्टी में उठापटक का सवाल है तो ऐसा कुछ हमारी जानकारी में नहीं है।
साभार ‘दि संडे पोस्ट’

शनिवार, 5 सितंबर 2009

पूरे देश में श्रम कानून का उल्लंद्घन'



पूरे देश में श्रम कानून का उल्लंद्घन'

दीपांकर मुखर्जी कीशुरुआती शिक्षा मथुरा में हुई। बनारस से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने देश के कई नामी गिरामी संस्थानों में काम किया। इसी दौरान वह ट्रेड यूनियन की राजनीति से जुड़ गए।



सीपीएम के मजदूर संगठन सीटू के वह सचिव हैं। मजदूरों के हक और हितों की लड़ाई के लिए नौकरी छोड़ कर वह सक्रिय राजनीति में आये। सीपीएम से वह राज्य सभा सदस्य भी रहे। मौजूदा दौर में देश भर में हो रही मजदूरों की मौतों से वह काफी विचलित हैं। किसान, मजदूर और युवाओं से जुड़े मुद्दों पर संद्घर्ष करने के साथ वह देश की अन्य समस्याओं पर भी अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए जाने जाते हैं। यहां प्रस्तुत है हमारे संवाददाता प्रदीप सिंह के साथ हुई उनकी बातचीत के प्रमुख अंश

इस समय पूरे देश में दुर्द्घटनाओं से मजदूरों की मौत हो रही है। सरकार कुछ मुआवजा राशि देकर मामले को रफा-दफा कर देती है।

बात मुआवजे और पैसे की नहीं है। पूरे देश में श्रम कानूनों का खुला उल्लंद्घन हो रहा है। डीएमआरसी से लेकर कॉमनवेल्थ गेम्स में काम करने वाले मजदूरों की संख्या की लिस्ट किसी के पास नहीं है। ये मजदूर कहां से आये हैं, कौन हैं, जब इसकी पहचान नहीं है तब आप किसको पैसा बांट रहे हैं? मजदूर अधिकतर अकेले रहता है। उसका परिवार उसके साथ नहीं रहता। दुर्द्घटना में मौत होने के बाद सरकार किसको मुआवजा दे रही है। यह बताना मुश्किल है। मेट्रो में लगातार हादसे हो रहे हैं। सरकार आंख मूंदे बैठी है। इस सारे प्रोजेक्ट में काम करने वाले मजदूरों को लेबर लॅा के मुताबिक सुविधाएं मिलनी चाहिए। संख्या और पहचान के लिए एक रजिस्टर होना चाहिए।

आप किस तरह की कार्रवाई चाहते हैं?

डीएमआरसी में अभी हादसा हुआ। कई मजदूरों की जानें गयी। इसके पहले मध्य प्रदेश के सिंगरौली में हादसा हुआ। जिसमें १८ मजदूर जिंदा जल गए। आज भी ४० से ज्यादा लापता हैं। ऐसे में इसके लिए जिम्मेदार कौन हैं? मालिकों के ऊपर क्रिमिनल केस चलाना चाहिए। पांच लाख या एक लाख देने से काम नहीं चलेगा। ऐसी द्घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं हो इसके लिए जरूरी है सुविधाओं का इंतजाम किया जाये।

आज लेबर यूनियनों की भूमिका समाप्त सी लगने लगी है।

उदारीकरण के बाद लगातार सरकारी उपक्रमों में छंटनी की जा रही है। संविदा पर नियुक्ति हो रही है। संगठित क्षेत्र के मजदूरों को असंगठित किया जा रहा है। इसके चलते मजदूरों की संगठन बनाने की क्षमता कम होती जा रही है। उदारीकरण और बाजारीकरण का दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा मजदूरों पर पड़ा है। एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जिसके कारण संगठित मजदूर अंसगठित हो रहा है।श्रमिक और मालिक के बीच का संबंध लगातार अमानवीय होता जा रहा है। पहले सरकार श्रमिकों के हित के लिए कदम उठाती थी। अब वह मालिकों के हितों का पोषण कर रही है।

मजदूर संगठन यह दावा करते हैं कि उनकी सदस्य संख्या बढ़ रही है।

संगठनों की सदस्य संख्या बढ़ रही है यह बात सही है। लेकिन यह संख्या संगठित क्षेत्र के मजदूरों की नहीं है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या मजदूर संगठनों में बढ़ती जा रही है। सीटू में २४ लाख असंगठित क्षेत्र के मजदूर सदस्य हैं।

आप मजदूरों के लिए क्या सुविधाएं चाहते हैं?

बहुत से संस्थानों में प्रोविडेंट फंड, ग्रेच्युटी आदि बंद हो चुकी है । डेली वेजेस पर काम हो रहा है। यह रुकना चाहिए। सबसे जरूरी है इंडस्ट्रियल डेमोक्रसी। लगातार कारखानों से स्वतंत्रता गायब हो रही है। मजदूर अपने हकों के पक्ष में आवाज नहीं उठा सकते। हर वर्ष सेफ्टी ऍाडिट होना चाहिए। संस्थान में कितनी सुरक्षा है औेर कितनी जरूरत है इसकी जांच हो। इसके लिए प्रशिक्षित लोगों की सेवाएं ली जाएं।

उद्योगधंधो से इंस्पेक्टर राज को भी समाप्त करने की बात की जा रही है। कहा जा रहा है कि इससे उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है।

लेबर इंस्पेक्टर और ऐसी जांच से मिल मालिक द्घबराते हैं। कांटे्रक्ट वर्क में जंगल राज चल रहा है। प्रधानमंत्री भी कहते हैं कि अब इंस्पेक्टर राज नहीं चलेगा। 'माइग्रेट वर्कर' यूनियन नहीं बना पा रहे हैं। औद्योगिक लोकतंत्र बहुत जरूरी है। औद्योगिक सामंतवाद ऐसे चलता रहा तो मजदूरों का आक्रोश एक दिन फट पड़ेगा। मनमोहन सिंह सरकार उसी रास्ते पर जा रही है जिससे मजदूरों का आक्रोश लावा बन कर फूटे।

अभी जो श्रम कानून है क्या वह पर्याप्त है?

मौजूदा समय में जो श्रम कानून हैं यदि उनका ईमानदारी से पालन हो तो मजदूरों का काफी हित-संरक्षण हो सकता है। बहुत कड़ा कानून बना दिए जाए और व्यवहारिक धरातल पर उसे लागू न किया जाये, तो क्या मतलब है।

उदारीकरण और बाजारीकरण का मजदूरों पर क्या प्रभाव पड़ा है।

पूंजी निवेश के लिए सरकार उद्योगपतियों की शर्तों पर काम कर रही है। देशी विदेशी कारपोरेट द्घराने न तो कोई श्रम कानून और न ही कोई यूनियन चाहते हैं। कारपोरेट द्घराने श्रम कानूनों का खुलेआम उल्लंद्घन करते हैं। अब सरकार इसे निष्प्रभावी कर रही है। यह सब विनिवेश के लालच में किया जा रहा है। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जिसमें कहा जा रहा है कि देश की प्रगति में श्रम कानून बाधक है। यूनियन और श्रम कानून मजदूर हितों में काम करते हैं। इसके न रहने का खामियाजा आप देख रहे हैं। अभी हम गुना की उर्वरक फैक्ट्री में गये थे। वहां के मजदूरों की दुर्दशा देखने लायक थी। वहां प्रबंधक की तरफ से मजदूरों को हाथ में लगाने के लिए न तो कोई ग्लब्स दिया गया है और न कोई सुरक्षा। हर जगह सेफ्टी, मिनिमम वेजेस और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है।

आप कहते हैं कि असंगठित क्षेत्र में मजदूरों को यूनियन नहीं बनाने दिया जाता है। जबकि संविआँाान के अनुसार संगठन बनाने पर कोई रोक नहीं लगा सकता है। यह कैसे संभव है?

यह बात तो सही है कि संगठन बनाना संवैधानिक अधिकार है। इसे समाप्त या इस पर रोक नहीं लगाई जा सकती। प्रबंधन और सरकार से लड़ झगड़कर यूनियन बनायी जाती है। आज जब रोजगार में अवसर की भारी कमी है, काम के घंटे बढ़ते जा रहे हैं, महंगाई चरम पर है। अप्रवासी मजदूर काम के दौरान ही एक दूसरे के सम्पर्क में रहते हैं। उसके बाद कौन क्या करता है, कैसे रहता है, दूसरे को नहीं पता। निजी कंपनियों में यूनियन बनाने पर नौकरी से निकाल दिया जाता है। ऐसे में यह संभव नहीं हो पा रहा।

सरकार यह दावा कर रही है कि विकास का लाभ मिल रहा है।

ये जो विकास का मॉडल है वह दिखावटी है। यह पूंजीपतियों और संपन्न लोगों को फायदा पहुंचा रहा है। सरकार आकड़ों के खेल में आम जनता को उलझाये रखना चाहती है। देश की अधिकार जनता का जीवन कष्टमय होता जा रहा है। यह कैसा विकास है?
साभार "दी सन्डे पोस्ट"

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

चिंतन से सजी चिता

चिंतन से सजी चिता
अमलेन्दु उपाध्याय
अपनी स्थापना के समय से ही 'डिफरेन्ट विद अदर्स' का राग अलापती रही भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव में करारी हार क्या मिली पार्टी में ही सिर फुटौवल षुरू हो गया। इस सिर फुटौव्वल को रोकने के लिए भाजपा ने तस किया कि चिंतन किया जाएगा लेकिन चिंतन की षुरूआत ही भाजपा की चिता सजाने हुई। इस चिता पर पहली आहुति दी गई किसी जमाने में अटल बिहारी वाजपेयी के हनुमान रहे जसवंत सिंह की।
पार्टी जिन लालकृश्ण अडवाणी को पीएम इन वेटिंग घोशित करके लोकसभा चुनाव में उतरी उन लालकृश्ण अडवाणी पर अब पार्टी को भरोसा नहीं रहा है। हालांकि अभी तक भाजपा, पार्टी के मामलों में राश्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के किसी भी सीधे हस्तक्षेप से इंकार करती रही है और संघ से अपना नाभि नाल का संबंध बताती रही है, लेकिन चिंतन बैठक ने साफ कर दिया कि अब खुले तौर पर संघ का पार्टी पर षिकंजा कसा जाएगा और गैर संघी पृश्ठभूमि के नेता भाजपा में एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पाएंगे। पार्टी में बढ़ती अनुषासनहीनता, लगातार घटता जनाधार और दूसरी व तीसरी लाइन के गंभीर और समर्पित नेताओं की तलाष कुछ ऐसे मुद्दे थे जिन पर भाजपा में चिंतन की मांग बढ़ रही थी। लोकसभा चुनाव में हार की जिम्मेदारी तय करने के लिए पार्टी के अंदर जोरदार मांग उठ रही थी और इस तरह की खबरें मीडिया के जरिए बाहर भी आ रही थीं। ऐसे में सारे मसलों पर चिंतन करने के लिए पार्टी के कोर ग्रुप ने 'चिंतन बैठक' करने का फैसला लिया।
हार के बाद संक्रमण से गुजर रही पार्टी को नई दिषा और नया लुक देने के लिए किसी सही मंत्र की तलाष में भाजपा की चिंतन बैठक बीती 19 अगस्त को षिमला में षुरू हुई। चिंतन बैठक में मैराथन चिंतन करने के लिए भाजपा कुल 25 धुरंधर चिंतकों का जुगाड़ करने में सफल रही।
बड़े नेताओं के बगावती तेवरों से पार्टी का निचले स्तर का कार्यकर्ता हताष और निराष है। इसमें ताजा प्रकरण में राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया के बगावती तेवर पर भी चर्चा हुई। पार्टी के इतिहास में संभवत: यह पहला अवसर था कि किसी राज्य स्तर के नेता ने पार्टी हाई कमान के फैसले को मानने से इंकार कर दिया हो और संकट के इस दौर में पार्टी की यह मजबूरी बन गई कि उसे वसुंधरा के सामने नतमस्तक होकर उनकी षर्तों पर ही पद छोड़ने के लिए कहना पड़ा। कहा जा रहा है कि वसुंधरा ने तर्क दिया था कि लालकृश्ण अडवाणी को पार्टी ने पीएम इन वेटिंग घोशित किया था और पार्टी लोकसभा में बुरी तरह हार गई इसके बावजूद अडवाण्ाी को लोकसभा में नेता विपक्ष बनाया गया। फिर उन्हें (वसुंधरा) क्यों राजस्थान विधानसभा में नेता विरोधी दल से हटने के लिए कहा जा रहा है? वसुंधरा के तर्क से पार्टी सकते में थी। क्योंकि अडवाणी को पार्टी ने एक समझौते के तहत नेता विपक्ष बनाया था और कहा जाता है कि संघ ने अडवाणी से स्पश्ट कह दिया था कि वह अस्थायी व्यवस्था हैं, जब उनके विकल्प पर सहमति बन जाएगी तब उन्हें यह पद छोड़ना होगा। चर्चा है कि वसुंधरा के सवाल के बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अडवाणी को बुलाकर समझा दिया था कि वह अपना उत्ताराधिकारी चुन लें, लेकिन अडवाणी खेमे ने घोशणा कर दी कि अडवाणी पूरे पांच साल नेता विपक्ष बने रहेंगे। संघ प्रमुख ने इसे अपनी तौहीन माना और चिंतन बैठक में अडवाणी से इस बावत सवाल भी किए गए।
भाजपा की चिंतन बैठक हालांकि बुलाई तो गई थी इसलिए ताकि हार के कारण तलाषे जाएं और उन पर सुधार की क्या गुंजाइष हो सकती है उन उपायों पर चर्चा की जाए। लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि बाल आप्टे समिति की रिपोर्ट को चिंतकों ने सिरे से खारिज कर दिया और बैठक का सारा ध्यान इस बात पर रहा कि किसके ऊपर हार का ठीकरा फोड़ा जाए? अडवाणी हार की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हैं और होना भी नहीं चाहिए। राजनाथ का हार से क्या मतलब? उनके नाम पर कहां पार्टी को वोट मिलता है? और मिलता होता तो क्या अब तक राजनाथ लोकसभा के सदस्य नहीं चुन लिए जाते और क्यों अपने घर में पांच बार हारते? वह तो भला हो गाजियाबाद का कि राजनाथ अपनी जिन्दगी में पहली बार लोकसभा सदस्य तो बन गए, क्या यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है?
असल में भाजपा का जो संकट है वह उसका अपना पैदा किया हुआ नहीं है। इस संकट के लिए भी संघ जिम्मेदार है जो भाजपा को एक संपूर्ण राजनीतिक दल नहीं बनने देता। संघ भाजपा को अपनी कठपुतली बना कर रखना चाहता है। इसीलिए भाजपा के पास अपना कैडर नहीं है। कैडर के नाम पर जो कार्यकर्ता भाजपा के पास हैं वह संघ के कार्यकर्ता हैं। असल चिंतन का विशय तो यह होना चाहिए था कि संघ की काली छाया से भाजपा कब मुक्त होगी और कब एक मुकम्मल राजनीतिक दल बनेगी? लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार, उसकी हार कम बल्कि संघ की हार ज्यादा है। लेकिन समस्या यह है कि न तो संघ इस तथ्य को स्वीकार करने का हौसला दिखाएगा और न भाजपा इस सच को उगलने को तैयार होगी। फिर चिंतन का क्या मतलब?
चिंतन की आवष्यकता भाजपा से ज्यादा संघ को है। उसका कारण साफ है। संघ में भी अब समर्पित कार्यकर्ता नहीं आ रहे हैं। जो लोग भी संघ में अब आ रहे हैं वह सत्ताा की लालसा में ही आ रहे हैं। हालांकि संघ स्वयं सत्ताा का भूखा है लेकिन वह तब तक सीधे सीधे राजनीति में नहीं आना चाहता जब तक कि उसे अपने बल पर सत्ताा पर कब्जा करने का अवसर नहीं मिल जाए और संघ की यह मुराद कभी पूरी नहीं होगी। उसका कारण साफ है। राजनीति सिर्फ सत्ताा पाने के लिए ही नहीं होती है। राजनीति का असल मकसद जनता की भलाई करना है और सत्ताा उसका एक जरिया है। यह बात दीगर है कि सत्ताा पाते ही हर राजनीतिक दल का चरित्र बदल जाता है और वह जनता पर ही जुल्म करने लगता है, लेकिन जाहिर तौर पर उसका उद्देष्य जनता की सेवा ही होता है। लेकिन भाजपा का या यूं कहिए संघ का उद्देष्य ही सत्ताा प्राप्त करना है जनता की भलाई नहीं। एक और कारण संघ और भाजपा के रिष्तों में खटास का है कि संघ के अधिकांष नए नेताओं की उम्र भाजपा नेताओं की तुलना में कम है इसलिए भाजपा नेता संघ नेताओं को कम भाव देते हैं।
समझा जाता है कि बैठक में अडवाणी के विकल्प के रूप में युवा नेतृत्व को तैयार करने के प्रष्न पर भी चर्चा हुई। चूंकि बैठक से पहले ही संघ प्रमुख मोहनराव भागवत का साक्षात्कार एक समाचार चैनल पर प्रसाारित हुआ जिसमें उन्होंने कहा कि भाजपा को युवा नेतृत्व को बागडोर सौंपने पर विचार करना होगा। हालांकि भागवत ने यह मानने से इंकार कर दिया था कि उन्होंने या संघ ने अडवाणी को पद छोड़ने के लिए कहा था। लेकिन संघ के सामने भी संकट यह है कि अडवाणी के बाद किसे बागडोर सौंपे, क्योंकि चाहे राजनाथ हों या अरूण जेटली या फिर वैंकेया नायडू अथवा सुशमा स्वराज, किसी की भी स्वीकार्यता न तो पार्टी के अंदर है और न जनता में है। इसलिए संघ की मजबूरी अडवाणी को तब तक ढोने की है जब तक उनका कोई मजबूत विकल्प तैयार नहीं हो जाए। हालांकि संघ ने अपने प्रतिनिधि के तौर पर किसी बड़े पदाधिकारी को चिंतन बैठक में नहीं भेजा, लेकिन भाजपा के संगठन मंत्री रामलाल, सह संगठन मंत्री सौदान सिंह और बी. सतीष की उपस्थिति यह साबित करने के लिए काफी थी कि भाजपा के बड़े नेता संघ का आदेष समझ लें कि जब तक अडवाणी का मजबूत विकल्प नहीं है तब तक उछल-कूद न मचाएं और अडवाणी भी समझ लें कि उन्हें हटना तो है इसलिए ज्यादा पैर न फैलाएं।
तमाषा यह है कि जो लोग चिंतन कर रहे थे उन में से अधिकांष का जनता की राजनीति से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है। वह या तो संघ के चंपू हैं या राज्यसभा की राजनीति करने वाले बड़े जुगाड़ू। ऐसे में जनता ने क्यों भाजपा को नकार दिया इस प्रष्न पर स्वस्थ और ईमानदार चर्चा कैसे हो सकती है?
जसवंत सिंह प्रकरण और यषवंत सिन्हा का चिट्ठी प्रकरण भी चिंतन बैठक का एक और प्रष्न रहा। पार्टी में सवाल उठ रहा है कि क्या पार्टी की कार्य षैली में कोई खोट है? क्योंकि भाजपा अकेले संघ के निर्देष और विचारधारा के बल पर कांग्रेस का विकल्प नहीं बन सकती और पार्टी को एक राश्ट्रीय विकल्प बनाने में बहुत बड़ी भूमिका उन नेताओं की है जो संघ की पृश्ठभूमि से नहीं आए हैं। लेकिन यह नेता जो बाहर से आते हैं या तो पार्टी में लम्बे समय तक रह नहीं पाते और पार्टी के कल्चर कोे आत्मसात नहीं कर पाते और जो टिक भी जाते हैं, तो वह अपनी कामयाबी को ज्यादा पचा नहीं पाते या उनमें अपने राजनीतिक भविश्य के प्रति हमेषा एक भय बना रहता है। चिंतन का विशय यह भी था कि एक संपूर्ण विकल्प बनने के लिए पार्टी को दक्षिणी राज्यों में भी अपना आधार बढ़ाना होगा जो कि एक बड़ी चुनौती है। क्योंकि पष्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेष, तमिलनाडु, और केरल में तो पार्टी का सूपड़ा ही साफ है। इन प्रदेषों की लगभग 150 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां पार्टी का कोई नामलेवा भी नहीं हैं। ऐसे में किस आधार पर पार्टी अपने दम पर कांग्रेस का विकल्प बन पाएगी?
चिंतन बैठक में पार्टी की हार के बाद सवाल खड़ा करने वाले यषवंत सिंहा, अरूण षौरी, को तो बुलाया ही नहीं गया और जसवंत सिंह को बुलाया भी गया तो चिंतन षुरू होने से पहले ही उन्हें पार्टी से बेदखल कर दिया गया। अब षौरी ने खुद बगावत का रास्ता अख्तयार कर लिया है। इसलिए हार के कारणों पर कोई सार्थक चर्चा ही नहीं हुई। अडवाणी भी इस बात का संकेत पहले ही दे चुके थे कि चिंतन इस बात पर नहीं होगा कि पार्टी क्यों हारी बल्कि चिंता इस बात पर है कि पार्टी आगे कैसे बढ़े? समझा जाता है कि इस विशय पर चिंतन हुआ कि पार्टी में नए सिरे से कैसे जान फूंकी जाए और जहां पार्टी बिखर रही है वहां बिखराव कैसे रोका जाए।
उत्तार प्रदेष जहां से पार्टी ऊर्जा प्राप्त करती रही है, वहीं उसका आधार खिसक रहा है। जबकि पार्टी अघ्यक्ष राजनाथ सिंह स्वयं उत्तार प्रदेष से आते हैं। वहां वरूण गांधी का अचानक उदय भी क्या भाजपा की हार का कारण्ा रहा? इस प्रष्न पर भी चिंतन होना स्वाभाविक है। एक तरफ संघ हिन्दुत्व की राह पर चलने के लिए दबाव बना रहा है तो दूसरी तरफ वरूण के बयानों को लेकर पार्टी के वरिश्ठ नेता आपस में उलझते रहे हैं। चुनाव में हार के लिए पार्टी के एक तबके ने मुस्लिम वोटों का कांग्रेस की तरफ रूझान को बताया और इसके लिए वरूण के भाशण को जिम्मेदार ठहराया। इस तरह के सवाल भाजपा के राश्ट्रवादी कहे जाने वाले मुस्लिम नेताओं मुख्तार अब्बास नकवी, षहनवाज हुसैन ने उठाए थे। मध्य प्रदेष के मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चौहान भी चुनाव में हार के लिए मुसलमानों की भूमिका को जिम्मेदार ठहरा चुके हैं। अब भाजपा के सामने धर्मसंकट यह है कि वह अगर यह स्वीकार करती है कि वरूण प्रकरण हार का एक बड़ा कारण रहा तो फिर संघ की हिन्दुत्व लाइन का क्या होगा? क्या भाजपा यह स्वीकार कर ले कि हिन्दुत्व के मुद्दे के कारण हार हुई? लेकिन मजेदार बात यह रही कि सार्वजनिक तौर पर स्वयं को हिन्दुओं की पार्टी मानने से इंकार करने वाली भाजपा की चिंतन बैठक में बड़े मुस्लिम नेता षहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी और नजमा हेपतुल्ला जैसे लोग चिंतन बैठक में घुस ही नहीं पाए। समझा जा सकता है कि भला उनके सवालों पर क्या चिंतन हुआ होगा जब पूरे चिंतन में एक भी मुस्लिम नेता मौजूद नहीं था।
कुल मिलाकर यह चिंतन बैठक भाजपा के
अनुषासन का मुद्दा भी चिंतन का बड़ा विशय है। यह पहला अवसर नहीं है कि वसुंधरा राजे ने हाईकमान के आदेष को मानने से इंकार कर दिया। इससे पहले भी उत्ताराखण्ड के मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खण्डूड़ी ने पहले तो खुद ही हाईकमान को अपने इस्तीफे की पेषकष की थी और बाद में जब उनसे इस्तीफा देने के लिए कहा गया तो उन्होंने ना नुकुर करना षुरू कर दिया। इसीलिए चिंतन बैठक से पहले भाजपा ने जसवंत सिंह की राजनीतिक चिता सजाने से बैठक का आगाज करके एक तीर से कई निषाने साधे। पहला संदेष तो वसुधरा राजे को ही दिया गया कि पार्टी जब जसवंत सिंह जैसे कद्दावर नेता को बाहर का रास्ता दिखा सकती है तो महारानी भी जरा पार्टी की मर्यादा में रहें अन्यथा उनके लिए भी बाहर का रास्ता कभी भी खुल सकता है। दूसरा संदेष उन नेताओं के लिए था जो संघ की पृश्ठभूमि से नहीं आए हैं। उनके लिए साफ संदेष दिया गया कि उन्हें संघ के बताए रास्ते पर ही चलना होगा और भाजपा को कांग्रेस बनाने का प्रयास किया तो हश्र जसवंत सिंह जैसा होगा। तीसरा संदेष षहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी और नजमा हेपतुल्ला जैसों के लिए दिया गया कि भाजपा का अंतिम पड़ाव संघ का बताया हुआ उग्र हिन्दुत्व ही है, इसलिए भाजपा में यदि रहना होगा तो संघ को सहना ही होगा।
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं।)

'चरणदास चोर' और उदय प्रकाष

'चरणदास चोर' और उदय प्रकाष

अमलेन्दु उपाध्याय
अभी कुछेक दिन पहले एक ई मेल मिला। ई मेल में 'कबाड़खाना' ब्लॉग से एक जरूरी सूचना दी गई थी। 'जन संस्कृति मंच' के महासचिव प्रणय कृष्ण का एक वक्तव्यनुमा लेख था, जिसमें सूचित किया गया था कि छत्ताीसगढ़ सरकार ने हबीब तनवीर के प्रख्यात नाटक 'चरणदास चोर' पर प्रतिबंध लगा दिया है।

प्रणय कृष्ण के लेख पर तुरंत प्रतिक्रियाएं आना शुरू हो गईं और बड़ी संख्या में बुध्दिजीवियों ने छत्ताीसगढ़ सरकार की आलोचना की। वरिष्ठ पत्रकार राजकिषोर ने तो यहां तक लिखा कि सारे कलाकारों को इकट्ठा होकर छत्ताीसगढ़ चलना चाहिए और वहां 'चरणदास चोर' का मंचन करना चाहिए। राजकिषोर ने लिखा कि वह छत्ताीसगढ़ चलने के लिए तैयार हैं।

छत्ताीसगढ़ की भाजपा सरकार अपने कुत्सित कारनामों के लिए पहले से ही मषहूर है। मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ. विनायक सेन छत्ताीसगढ़ सरकार की तानाषाही के चलते एक लम्बा वक्त जेल में गुजार कर आए हैं और आए दिन फर्जी मुठभेड़ों में निरीह और गरीब आदिवासियों को नक्सली बताकर मार देने की खबरें भी छत्ताीसगढ़ में आम बात हो गई है। उधर हबीब साहब के ऊपर भी सांस्कृतिक राष्ट्रवादी गुंडे हमले कर चुके थे और कई बार उनके नाटकों में इन भगवा आतंकवादियों ने विघ्न डाला था। लिहाजा प्रणय कृष्ण की सूचना पर बौध्दिक जमात का उध्दिग्न होना लाजिमी था। लेकिन इसी बीच रविवार डॉट कॉम के संपादक आलोक पुतुल का एक मेल मिला जिसमें बताया गया कि छत्ताीसगढ़ में 'चरणदास चोर' पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया है बल्कि सतनामी समाज ने मुख्यमंत्री से मिलकर उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी और उस मांग पर सरकार की चुप्पी से यह भ्रम फैला।

दरअसल 'चरणदास चोर' मूलत: राजस्थानी लोककथा पर आधारित नाटक है, जिसे विजयदान देथा ने लिखा था और उसे 'फितरती चोर' नाम दिया था। हबीब तनवीर ने इसे छत्ताीसगढ़ी भाषा, संस्कृति, लोकनाटय और संस्कृति परंपरा में ढालने के क्रम में मूल नाटक में काफी परिवर्तन किए और छत्ताीसगढ़ में लोकप्रिय हुए इस नाटक को अंतर्राष्टी्रय ख्याति प्राप्त हुई।

यहां तक तो ठीक था। लेकिन बाद में एक मेल और मिला जिसमें बताया गया कि चर्चित साहित्यकार उदय प्रकाष ने भी इस प्रकरण पर अपनी कलम चला दी है। अब उदय प्रकाष जी वामपंथ के बड़े पुरोधा हैं। एक समय में दिल्ली आकर जो वामपंथी बड़ा साहित्यकार बन जाता था वह वसंत कुंज, फ्रेंड्स कॉलोनी में रहने लगता था। आजकल बड़े साहित्यकार गाजियाबाद के वैषाली में बसने लगे हैं और वहीं से सर्वहारा, दलित और स्त्रियों की मुक्ति की क्रान्ति का शंखनाद करने लगे हैं। सुना है कि उदय प्रकाष जी को भी ''पीली छतरी वाली लड़की'' का इल्हाम वैषाली में ही हुआ था।

उदय प्रकाष जी ने 'चरणदास चोर' पर जो कहा है उसका लब्बो लुबाव है कि अगर छत्ताीसगढ़ की भाजपा सरकार हबीब साहब से कोई दुर्भावना रखती तो क्या उनकी मृत्यु पर इक्कीस बन्दूकों की सलामी देती? उदय प्रकाष जी का तर्क लाजवाब है। एक बड़े बड़े वामपंथी साहित्यकार से इसी तर्क की आषा की जा सकती थी!

अभी थोड़े ही दिन हुए हैं जब उदय प्रकाष जी भगवा उग्रवाद के ब्राण्ड एम्बेसडर योगी आदित्यनाथ के हाथों पुरस्कार लेकर लौटे हैं। तब उदय प्रकाष की काफी आलोचना हुई थी कि उन्होंने योगी के हाथों यह सम्मान क्यों ले लिया? तब उदय प्रकाष ने अपनी पीड़ा व्यक्त की थी कि उनकी एक चूक को सामने रखकर उनके पूरे व्यक्तित्व और कृतित्व को खंडित किया जा रहा है।

उन्होंने साहित्य में सक्रिय सवर्णों पर यह तोहमत भी जड़ दी थी कि उन्हें कटघरे में खड़ा करने वाले लोग अनपढ़, सामंती और घटिया लोग हैं जिनके भीतर- जैन, बौध्द, नाथ, सिध्द, ईसाईयत, दलित, इस्लाम आदि तमाम आस्थाओं और आइडेंटिटीज के प्रति गहरी घृणा और द्वेष है। अब उदय प्रकाष जी की महानता है कि उन पर ऊॅंगली उठाने वाले अनपढ़, सामंती, कट्टर वर्णाश्रम-व्यवस्थावादी हैं, लेकिन योगी अब विद्वान, साम्यवादी, कट्टर वर्णाश्रम विरोधी और दलितों, इस्लाम के प्रति गहरा प्रेम रखने वाले हो गए हैं, चूंकि उदय प्रकाष ने उनके कर कमलों से पुरस्कार जो प्राप्त कर लिया है।

उस समय लगा था कि शायद उदय प्रकाष के साथ नाइंसाफी हो रही है। चूंकि पुरस्कार गोरखपुर में दिया गया था और गोरखपुर में नारा गूंजता रहता है कि -'' पूर्वांचल में रहना होगा तो योगी योगी कहना होगा'' इसलिए आयोजकाें ने डर कर योगी को बुला लिया होगा। फिर धर्मवीर भारती व्यास पुरस्कार ले चुके हैं, 'सहमत' ने कांग्रेसी सरकार से अनुदान लेकर 'अनहद गरजे' किया तो उदय प्रकाष का यह गुनाह एक बार माफ किया जा सकता है।

लेकिन जब 'चरणदास चोर' पर उदय प्रकाष की दलील पढ़ी तो लगा कि दाल में कुछ काला है और योगी का प्रभाव अब उदय प्रकाष पर असर दिखाने लगा है। वैसे अगर उदय प्रकाष अपने अन्तर्मन से ईमानदार होते तो आर्थिक संकटों के बीच बीमारी से जूझ रहे अरूण प्रकाष की तरह पुरस्कार लेने से मना कर सकते थे ( बताया जाता है अरूण प्रकाष ने बिहार सरकार का पुरस्कार लेने से इसलिए इंकार कर दिया था कि वहां भाजपा सरकार में शामिल है)

अब यह महज एक संयोग है या कुछ और कि उदय प्रकाष जी पुरस्कार 'कुंवर नरेन्द्र प्रताप सिंह' के नाम पर बनी संस्था का लेने गए। योगी भी कुंवर साहब हैं और जिन डॉ. रमन सिंह के पैरोकार उदय जी बने हैं वह भी कुंवर साहब हैं। यह इल्जाम नहीें है, संदेह है। अक्सर ऐसा होता है। हमें याद है जब मंडल कमीषन की सिफारिषें लागू की गई थीं, तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेता हुआ करते थे कामरेड रामसजीवन सिंह।

कई बार सांसद भी रहे थे और बहुत जुझारू भी थे, वैषाली में नहीं रहते थे, बांदा में रहते थे और मजलूमों के लिए संघर्शरत रहते थे। वाकई में ईमानदार आदमी थे। उन्होंने उस समय मंडल कमीषन की
शान में भाकपा के मुखपत्र 'मुक्ति संघर्श' और 'जनयुग' में कई पन्ने काले किए और जमकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को गालियां दीं।

थोड़े समय बाद ही रामसजीवन तो बसपा में चले गए और उनके दूसरे अनुयायी मित्रसेन यादव तुरंत यादव हो गए और समाजवादी पार्टी में चले गए। लेकिन जिन ब्राह्मणवादियों को रामसजीवन और मित्रसेन यादव गालियां दे रहे थे, वे सारे ब्राह्मणवादी आज भी भाकपा का झण्डा उठा रहे हैं। क्या रामसजीवन जैसा ही कुछ उदय प्रकाष के साथ तो नहीं हो रहा?

लगता यही है कि उदयप्रकाष के लाल झण्डे का रंग नीला करते करते पुरस्कारों की बौछार में भगवा पड़ता जा रहा है और उदय प्रकाष को पुरस्कार देते वक्त भगवा मंडली उसी परम सुख का अनुभव कर रही है जिस सुख का अनुभव 'पीली छतरी वाली लड़की' का 'राहुल', 'सुधा जोषी' को 'झटके' देते हुए हर झटके पर महसूस करता है। उदय जी जरा जोर से बोलें- जय श्री........

कॉरपोरेट वार में फंसी सरकार


कॉरपोरेट वार में फंसी सरकार
प्रदीप सिंह
यह पहला कारपोरेट वार है जब किसी औद्योगिक प्रतिष्ठान ने सीधो सत्ताा को कटघरे में खड़ा किया है। बात पत्राचार और सुलह-सफाई से बाहर निकल कर विज्ञापन वार का रूप ले चुकी है। इस युध्द में प्रतिद्वंद्वी कोई दूसरा नहीं, बल्कि अनिल अंबानी के अपने ही बड़े भाई मुकेश अंबानी हैं।
किसी कारपोरेट हाउस द्वारा किसी सौदे में सीधे सरकार को दोषी ठहराने का यह पहला और अनूठा मामला है। गौरतलब है कि रिलायंस नेचुरल रिसोर्सेस लिमिटेड के चेयरमैन अनिल अंबानी ने पेट्रोलियम मंत्रालय पर पक्षपात करने का आरोप लगाया है। जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एनटीपीसी को 30,000 करोड़ का घाटा और रिलायंस इंडस्ट्रीस को लगभग 50,000 करोड़ का सुपर नार्मल मुनाफा होने की बात कही गई है। वहीं सरकार को इस पूरे मामले में सिर्फ 500 करोड़ का फायदा होगा। अनिल अंबानी ने विश्व की सबसे बड़े शेयरधारक कंपनी रिलायस अनिल धाीरूभाई अंबानी ग्रुप के 80 लाख शेयर धाारकों की तरफ से इस सौदे के औचित्य पर सवाल खड़ा किया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हिन्दी, अंग्रेजी के लगभग सभी समाचार पत्रों में जारी विज्ञापन के जरिए सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा करते हुए कहा गया है कि किसी सार्वजनिक उपक्रम जहां सरकार और उस कंपनी का भी घाटा हो रहा हो, तब क्या यह सौदेबाजी देशहित में है।
गौरतलब है कि सार्वजनिक क्षेत्र और नवरत्न की श्रेणी में आने वाला एनटीपीसी मुकेश अंबानी को मिला है। सरकार ने अनिल अंबानी की कंपनी की निविदा को धता बताते हुए बड़े भाई मुकेश अंबानी की कंपनी के पक्ष में निर्णय दिया। इससे खफा अनिल अंबानी ने इस पूरे मामले में जनहित की दुहाई देते हुए सरकार पर पक्षपात का आरोप लगाया है। घटनाक्रम में नया मोड़ देते हुए अनिल अंबानी ने इससे पहले ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे को भी पत्र लिखा था जब उनको क(ष्णा-गोदावरी बेसिन से नेचुरल गैस प्लांट लगाने की निविदा ओवर प्राइस लगाने पर भी नहीं दी गई थी। तब भी अनिल अंबानी ने पेट्रोलियम मंत्रालय पर पक्षपात पूर्ण रवैया का आरोप लगाया था। अपनी कंपनी के शेयर धाारकों को संबोधिात करते हुए अनिल अंबानी ने कहा था कि आंधा्र प्रदेश सरकार को वह 2 .34 डॉलर प्रति यूनिट की दर से सप्लाई करेंगे। इस पर भी सरकार का एक पैसा नुकसान नहीं होगा। अनिल अंबानी ने अपने भाई की कंपनी पर गैस के क्षेत्र में एकाधिाकार रखने और उसका दुरुपयोग करने का आरोप लगाते हुए मुंबई उच्च न्यायालय की शरण ली थी।
उसके कुछ ही दिनों बाद अनिल अंबानी ने पेट्रोलियम मंत्रालय पर 'प्रधाानमंत्री कार्यालय' को गुमराह करने का आरोप लगाया। रिलायंस कंपनी का यह भी दावा रहा है कि वह सरकार की 'गैस यूटीलाइजेशन पॉलिसी' को पूरा करने में सक्षम है। रिलायंस नेचुरल रिसोर्सेस का कहना है कि ''पेट्रोलियम मंत्रालय ने जानबूझकर और जल्दबाजी में ऐसा कदम उठाया। वह प्रधाानमंत्री कार्यालय के साथ ही बड़े पैमाने पर जनता को भी गुमराह कर रही है। रिलायंस पीएससी (प्रोडक्शन शेयरिंग कॉट्रेक्ट) जो नेचुरल गैस के लिए होनी चाहिए और गैस यूटीलाइजेशन पॉलिसी को पूरा करने में सक्षम है''
रिलायंस नेचुरल गैस कंपनी का यह भी दावा है कि पेट्रोलियम मंत्रालय की पूरी जानकारी में यह बात है कि गैस सप्लाई के लिए जो समझौता हुआ था वह जून 2006 का है। इसकी कॉपी पेट्रोलियम मंत्रालय को भी सौंपी गयी थी। अनिल अंबानी अपने भाई मुकेश अंबानी के साथ चल रहे कानूनी विवाद के कारण पेट्रोलियन मंत्री मुरली देवड़ा पर पक्षपात करने का आरोप लगाते हैं, जो मुकेश अंबानी के साथ खड़े नजर आते हैं।
हैरतअंगेज बात यह है कि दो कंपनियाें के निजी हितों की लड़ाई में सरकार की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। एक कंपनी सार्वजनिक रूप से अखबारों में सरकार के निर्णय को चुनौती दे रही है। दूसरी तरफ सरकार और दूसरी कंपनी चुप्पी साध कर बैठ गयी है। विश्वस्त सूत्रों के मुताबिक इस पूरे मामले में सत्ताा पक्ष के साथ-साथ विपक्षी पार्टियों के भी कई नेता शामिल हैं। ऐसे नेता जिनको सत्ताा के गलियारों और समृध्दि की रोशनी में पार्टी का धन प्रबंधाक कहा जाता है।
बीते मानसून सत्र में एनटीपीसी को लेकर विपक्षी भाजपा और सपा के सदस्यों ने संसद में बवाल किया था। लेकिन सरकार की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला।
अनिल अंबानी के इस अभियान से कांग्रेस पार्टी में खलबली है। वरिष्ठ कांग्रेस नेता आर के धवन ने इस मामले में विशेष सावधानी बरतने को कहा है। आर के धवन ने रिलायंस नेचुरल रिसोर्सेस लिमिटेड के विज्ञापन अभियान पर शिंदे को पत्र लिखा है कि अपने विज्ञापन में रिलायंस यह आरोप लगा रहा है कि पेट्रोलियम मंत्रालय ने एनटीपीसी के हितों के साथ समझौता किया है।
वामपंथी नेता दीपंकर मुखर्जी कहते हैं कि रिलायंस क्या कहता है, इससे मतलब नहीं है। सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने का जो सिलसिला चल रहा है और जनता का इससे फायदा बताया जा रहा है, वह इसका नमूना भर है। अब सारे लोग देख समझते हैं कि इसमें किसका लाभ है। जब अनिल अंबानी की कंपनी के पक्ष में यह सौदा नहीं हुआ तब वह देश और जनहित की बात कर रहे हैं।
सीपीआई नेत्री अमरजीत कौर कहती हैं, राष्ट्रहित और जनहित की बात करने वाले अनिल अंबानी ने जब रिलायंस कम्यूनिकेशन शुरू किया था तब आईएसडी कॉल्स को लोकल कर दिया था। जिससे भारत संचार निगम लिमिटेड को 1200 करोड़ की चपत लगायी थी। बीएसएनएल के लाख कहने पर भी वह ने राशि जमा नहीं कर रहे थे। जब ट्राई यह आदेश दिया कि यदि निर्धारित तिथि पर आप यह राशि जमा नहीं करते तो कम्यूनिकेशन में दिया गया आपका लाइसेंस रद्द कर दिया जायेगा। तब अगले ही दिन रिलायंस कम्यूनिकेशन ने बीएसएनएल को 1200 करोड़ अदा किया।