शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

भाजपा का भविष्य



भाजपा का भविष्य
प्रदीप सिंह

जिन्ना के बहाने भाजपा में इन दिनों जो द्घमासान मचा है, उससे भाजपा के भविष्य पर कई तरह के सवाल खड़े किए जाने लगे हैं। जसवंत सिंह को पार्टी ने यह सोच कर निकाला कि अनुशासन का डंडा देख बाकी बागी सहम जाएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अरुण शौरी ने भाजपा की ऐसी-तैसी कर दी। उत्तराखण्ड के भुवनचन्द्र खण्डूड़ी ने भी राष्ट्रीय अध्यक्ष को शिकायत-पत्र लिखा। अब सब कुछ जैसे संद्घ के हवाले है। वह बैक डोर से भाजपा को इस तूफान में कैसे संभालेगा और उसे क्या रूप देगा इसका सब लोगों को इंतजार है
जिन्ना पर जसवंत सिंह की किताब के बाद भाजपा और संद्घ में जो तूफान आया है वह थमने का नाम नहीं ले रहा। इस तूफान ने भाजपा के दरख्त की जड़ों को हिला दिया है। तूफान का वेग इतना तेज है कि वह संद्घ की फुलवारी में उगी तमाम झाड़ियों को उखाड़ फेंकने से पहले थमता नजर नहीं आता। संद्घ के नेता अभी ऐसे लोगों को चिन्हित करने में लगे हैं, जिन्होंने भाजपा के सत्ता में आने के बाद सत्ता सुख के लिए अपना चोला बदल लिया था। अब वह महत्वपूर्ण पदों पर संद्घ पृष्ठभूमि के व्यक्ति को ही बैठाना चाहते हैं। इसके लिए छानबीन जारी है।
सुलह-सफाई का फतवा संद्घ ने जारी कर दिया है। अनुशासन हीनता, वैचारिक विचलन को बर्दाश्त के बाहर बताया जा रहा है।जिन्ना विवाद के चलते संद्घ भाजपा को ओवरटेक करने पर आमादा है। अभी तक पर्दे के पीछे से राजनीतिक पार्टी भाजपा को संचालित करने वाला 'सांस्कृतिक संगठन' संद्घ अब खुलेआम राजनीति में हस्तक्षेप करता नजर आ रहा है। संद्घ के 'सांस्कृतिक विचारों' से दूरी बना कर रखने वाले नेताओं को राजनीति से दूर करने का एजेंडा संद्घ ने लागू करना शुरू कर दिया है। जसवंत सिंह द्वारा मोहम्मद अली जिन्ना का अपनी किताब में बखान करना न तो संद्घ परिवार को रास आया, और न ही भारतीय जनता पार्टी को। भाजपा जिस पार्टी कांग्रेस का विकल्प बनना चाहती है, उसके दो पूर्व दिग्गजों सरदार बल्लभ भाई पटेल और जवाहर लाल नेहरू को बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराने पर सबसे ज्यादा भाजपा ने ही तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की।
जिन्ना ग्रंथि संद्घ और भाजपा के लिए नई नहीं थी। भारतीय उपमहाद्वीप का ६२ वर्ष पहले हुआ बंटवरा कुछ वर्षों के बाद भूल जाने वाला नहीं था। अभी तक इस भयानक त्रासदी के लिए जिम्मेदार व्यक्ति राजनीतिक, सामाजिक और अकादमिक संस्थानों द्वारा चिंहित नहीं किया जा सका है, जिसको एक सिरे से सब मानने को तैयार हों। भारत में मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग को इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है, तो वहीं पाकिस्तान में नेहरू, पटेल और 'हिन्दू कांग्रेस' जिम्मेदार बताए जाते हैं।
हिन्दुस्तान के अकादमिक संस्थानों और राजनीतिक पार्टियों में बंटवारे के समय से ही यह बहस चलती रही है कि सावरकर, हिन्दू महासभा और कांग्रेस के कई हिन्दूवादी नेता भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। १७ अगस्त को नेहरू स्मारक सभागार में अपनी नई पुस्तक 'जिन्नाः भारत विभाजन के आइने में' के विमोचन के अवसर पर जसवंत सिंह के साथ उनकी ३० वर्ष पुरानी पार्टी का कोई मित्र नहीं था। वहां एक भी भाजपा नेता मौजूद नहीं था। उनके पूर्व कैबिनेट सहयोगी अरुण शौरी को पुस्तक विमोचन के दौरान चर्चा में शरीक होना था। लेकिन ऐन वक्त पर वह भी कन्नी काट गए।
भाजपा को वर्तमान स्थिति से उबारने के लिए शिमला में हुई चिंतन बैठक में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को बुलाया गया। इस बैठक में उन वरिष्ठों को जान बूझ कर दरकिनार किया गया जो असहज सवाल उठा सकते थे। जसवंत सिंह ने दिल्ली से शिमला तक का ३५० किमी का सफर तय किया। भाजपा कार्यकारिणी ने सदस्य के तौर पर उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध पाई, और अगले दिन १९ अगस्त को पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने जवसंत सिंह को फोन से सूचित किया कि पार्टी संसदीय बोर्ड ने उन्हें भाजपा से निष्कासित कर दिया है।
भाजपा के नेताओं का इतिहास और जिन्ना के साथ यह पहला विवाद नहीं है। इसके पहले २००५ में पाकिस्तान गए लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की मजार पर उन्हें, उनके एक भाषण का हवाला देते हुए सेकुलर बताया। आडवाणी के भारत आने से पहले ही संद्घ, भाजपा की त्यौरियां चढ़ गयीं। उन्हें पार्टी के अध्यक्ष पद से हटना पड़ा। इस द्घटना के बाद पार्टी और संद्घ में लालकृष्ण आडवाणी का वह आभा मंडल नहीं रहा जिसको लेकर संद्घ अपने इस स्वयंसेवक पर गर्व करता था। संद्घ और आडवाणी की आपसी रिश्तों की गर्माहट उसी एक बयान के बाद ठंडी पड़ गयी।जसवंत सिंह ने जिन्ना पर आई अपनी किताब की शुरुआत २००४ में ही कर दी थी। बाजार में आने में वक्त लगा। संद्घ के आंतरिक सूत्रों का कहना है कि जसवंत सिंह तो लालकृष्ण आडवाणी से पहले ही यह मान चुके थे कि भारत विभाजन के मोहम्मद अली जिन्ना नहीं, बल्कि सरदार वल्लभाई पटेल और जवाहर लाल नेहरू जिम्मेदार हैं। संद्घ सूत्रों का कहना है कि जिन्ना पर जसवंत सिंह की परिभाषा अक्षम्य है। जिस जिन्ना को पाकिस्तान के शासक, जनता और हिन्दुस्तान के मुसलमान तक भूलना चाहते हैं, आखिर क्या मजबूरी है कि भाजपा में कई नेता उसे नायक बनाने पर तुले हैं।
गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी ने जसवंत सिंह की किताब को, सरदार पटेल पर की गयी टिप्पणी के कारण प्रतिबंधित कर दिया। वे अपनी बात भाजपा और संद्घ को बताने के सफल रहे कि पटेल पर की गयी टिप्पणी के कारण गुजरात का धनाढ्य और सामाजिक, राजनीतिक रूप से सजग पटेल समुदाय नाराज हो जायेगा।लालकृष्ण आडवाणी के पाकिस्तान यात्रा के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना पर दिए गए बयान और जसवंत सिंह की किताब से पहले भी संद्घ में इस तरह के लोग मौजूद थे जिन्होंने जिन्ना को अपनी नजर से देखने का दुस्साहस किया। हो ़बि ़शेषाद्रि ने वर्षों पहले 'और देश बंट गया' नाम की किताब लिखी थी। वे संद्घ या भाजपा के मामूली कार्यकर्ता नहीं थे। संद्घ के दूसरे बड़े पद सह सरसंद्घ चालक के पद पर विराजमान थे। जिन्ना के बारे में उन्होंने भी वही लिखा जो जसवंत सिंह और लालकृष्ण आडवाणी लिख-बोल चुके हैं।
भाजपा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता और ऐसे तमाम पदों पर कर्त्तव्यनिष्ठ स्वयंसेवक की तलाश जारी है। तलाश में तराशा हुआ नेता ही चाहिए, जो भाजपा के साथ संद्घ के मंदिर में भी प्रतिष्ठा पाए। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का कार्यकाल दिसंबर में समाप्त हो रहा है। इसके पहले ही नए अध्यक्ष के लिए जिन नामों की चर्चा है उनमें शिवराज सिंह चोैहान और बाल आप्टे के नामों को प्रमुखता से लिया जा रहा है। जसवंत सिंह को ठिकाने लगाने के बाद संद्घ लालकृष्ण आडवाणी के पंख कतरने को तत्पर दिख रहा है। भाजपा और संद्घ दोनों के लिए यह काम आसान नहीं है। पूरे राजनीतिक जीवन में एक विवाद को छोड़कर आडवाणी का राजनीतिक और पारिवारिक जीवन निर्विवाद रहा है। लेकिन उम्र का तकाजा, पार्टी की हार और नए नेताओं को आगे करने के नाम पर संद्घ उनको सिर्फ सलाहकार की भूमिका तक सीमित करना चाहता है। राजनाथ सिंह को लेकर भी संद्घ में माथापच्ची जारी है। दिसंबर के बाद संद्घ राजनाथ सिंह का उपयोग कहां करे, इसको लेकर असमंजस की स्थिति में है। ऊपरी तौर पर तो सरसंद्घ चालक मोहन भागवत भाजपा को आपस में बैठकर सुलह करने की बात कहते हैं। लेकिन संद्घ ने अब मान लिया है कि पानी सिर से ऊपर निकल रहा है।
भारत ही नहीं भारतीय उपमहाद्वीप के लिए भारत का विभाजन इतिहास की सबसे अनसुलझी पहेली है। इस पहेली को हर बूझने वाला अपनी तरह से ही अर्थ लगाता है। जिन्ना, नेहरू और पटेल को लेकर सत्ता के गलियारे से सड़क तक विभाजन के तमाम तर्क और किस्से मौजूद हैं। एक पीए और एक टाइपराइटर के सहारे पाकिस्तान को फतह करने वाला जिन्ना बताना इतिहास का सरलीकरण होगा। इतिहासकारों की नजर में 'नेहरू मुसलमानों के दिलों में पनपे उस अमिट खौफ को पूरी तरह नहीं भांप सके जिसे जिन्ना ने आवाज प्रदान की। 'यह खौफ कि लोकतांत्रिक शासन में उन्हें अल्पसंख्यक के तौर पर रहना होगा।'
प्रसिद्ध इतिहासकार अनिल सील की छात्रा रहीं और पाकिस्तानी विद्वान एवं इतिहासकार आयशा जलाल का कहना है कि 'इतिहास में जिन्ना को गलत ढंग से पेश करने के चलन ने बड़ा आयाम हासिल कर लिया है। क्योंकि यह धर्मनिरपेक्ष भारत और इस्लामी पाकिस्तान के प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रवाद की पवित्र शब्दावली से जुड़ा है।' आयशा जलाल अपनी दलील में कहती हैं कि मोहम्मद अली जिन्ना संप्रभु राष्ट्र के तौर पर पाकिस्तान नहीं बनाना चाहते थे। जिन्ना का उद्देश्य प्रांतीय सरकारों, जिन पर मुसलमान अपना ज्यादा नियंत्रण पाने की उम्मीद करते थे के लिए ज्यादा स्वायत्तता हासिल करते हुए भारतीय मुसलमानों के हितों की रक्षा करना था। जिन्ना मजबूत केंद्रीय राष्ट्र बनाने की कांग्रेसी नेताओं की महत्वाकांक्षा से भयभाीत थे, जो उनके मुताबिक हिन्दू बहुसंख्यकों के हितों की नुमाइंदगी का दावा करने वाले लोगों के हाथों में जा सकता था।
इतिहासकार एमजीएस नारायणन कहते हैं कि 'जहां तक एक नेता की जिम्मेदारी है तो जिन्ना को विभाजन की जिम्मेदारी लेनी होगी, हालांकि वे पहले अभियुक्त नहीं हैं। पहली अभियुक्त तो निश्चित रूप से ब्रिटिश सरकार है और जिन्ना दूसरे नंबर के अभियुक्त। इतिहासकार मानेंगे कि बड़ी द्घटनाओं का श्रेय किसी एक कारक को नहीं दिया जा सकता। ऐसे मामलों में व्यक्तिगत पार्टी नेता और अनुयायियों के अलावा दूर दराज में और तात्कालिक कारण भी हो सकते हैं। लेकिन नेहरू को भी विभाजन की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया जा सकता। आखिर वे वह शख्स थे जिनके साथ भारी-भरकम कांग्रेस थी। उन्होंने विभाजन के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए और सत्ता शिखर पर जा बैठे। उन्हें चर्चिल और जिन्ना के बाद तीसरा अभियुक्त माना जाना चाहिए। हालांकि अपने देश और दुनिया के लिए उन्होंने जो किया उसके लिए वे सारी गलतियों से ऊपर उठ जाते हैं।'
संद्घ के सूत्रों से मिली खबरों के अनुसार भाजपा को संद्घ के सुझाव मानने होंगे। जो लोग वरिष्ठता और राजनीति में अनुभव का हवाला देकर संद्घ को नजरअंदाज करना चाहते हैं वे मुगालते में हैं। संद्घ के बिना भाजपा का कोई अस्तित्व नहीं है। भाजपा कार्यकर्ता संद्घ का भी कार्यकर्ता होता है। जब संद्घ ने भारतीय जनसंद्घ को भारतीय जनता पार्टी में विलय करने की बात कही तब बलराज मधोक ने इसका विरोध किया था। अपने साथ कुछ लोगों को रख कर जनसंद्घ को बनाए रखा। आज जनसंद्घ में बलराज मधोक का कोई नाम लेने वाला नहीं है। इसी तरह यदि भाजपा में कुछ लोग संद्घ को अनदेखा करते हैं, तब उन्हें परिणाम भुगतने को भी तैयार रहना होगा। सारे विवाद पर भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर का कहना है कि जसवंत सिंह को पार्टी से इसलिए निकाला गया क्योंकि वे पार्टी की बुनियादी विचारों से दूर चले गए थे। जहां तक पार्टी में उठापटक का सवाल है तो ऐसा कुछ हमारी जानकारी में नहीं है।
साभार ‘दि संडे पोस्ट’

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