शनिवार, 5 सितंबर 2009

पूरे देश में श्रम कानून का उल्लंद्घन'



पूरे देश में श्रम कानून का उल्लंद्घन'

दीपांकर मुखर्जी कीशुरुआती शिक्षा मथुरा में हुई। बनारस से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने देश के कई नामी गिरामी संस्थानों में काम किया। इसी दौरान वह ट्रेड यूनियन की राजनीति से जुड़ गए।



सीपीएम के मजदूर संगठन सीटू के वह सचिव हैं। मजदूरों के हक और हितों की लड़ाई के लिए नौकरी छोड़ कर वह सक्रिय राजनीति में आये। सीपीएम से वह राज्य सभा सदस्य भी रहे। मौजूदा दौर में देश भर में हो रही मजदूरों की मौतों से वह काफी विचलित हैं। किसान, मजदूर और युवाओं से जुड़े मुद्दों पर संद्घर्ष करने के साथ वह देश की अन्य समस्याओं पर भी अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए जाने जाते हैं। यहां प्रस्तुत है हमारे संवाददाता प्रदीप सिंह के साथ हुई उनकी बातचीत के प्रमुख अंश

इस समय पूरे देश में दुर्द्घटनाओं से मजदूरों की मौत हो रही है। सरकार कुछ मुआवजा राशि देकर मामले को रफा-दफा कर देती है।

बात मुआवजे और पैसे की नहीं है। पूरे देश में श्रम कानूनों का खुला उल्लंद्घन हो रहा है। डीएमआरसी से लेकर कॉमनवेल्थ गेम्स में काम करने वाले मजदूरों की संख्या की लिस्ट किसी के पास नहीं है। ये मजदूर कहां से आये हैं, कौन हैं, जब इसकी पहचान नहीं है तब आप किसको पैसा बांट रहे हैं? मजदूर अधिकतर अकेले रहता है। उसका परिवार उसके साथ नहीं रहता। दुर्द्घटना में मौत होने के बाद सरकार किसको मुआवजा दे रही है। यह बताना मुश्किल है। मेट्रो में लगातार हादसे हो रहे हैं। सरकार आंख मूंदे बैठी है। इस सारे प्रोजेक्ट में काम करने वाले मजदूरों को लेबर लॅा के मुताबिक सुविधाएं मिलनी चाहिए। संख्या और पहचान के लिए एक रजिस्टर होना चाहिए।

आप किस तरह की कार्रवाई चाहते हैं?

डीएमआरसी में अभी हादसा हुआ। कई मजदूरों की जानें गयी। इसके पहले मध्य प्रदेश के सिंगरौली में हादसा हुआ। जिसमें १८ मजदूर जिंदा जल गए। आज भी ४० से ज्यादा लापता हैं। ऐसे में इसके लिए जिम्मेदार कौन हैं? मालिकों के ऊपर क्रिमिनल केस चलाना चाहिए। पांच लाख या एक लाख देने से काम नहीं चलेगा। ऐसी द्घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं हो इसके लिए जरूरी है सुविधाओं का इंतजाम किया जाये।

आज लेबर यूनियनों की भूमिका समाप्त सी लगने लगी है।

उदारीकरण के बाद लगातार सरकारी उपक्रमों में छंटनी की जा रही है। संविदा पर नियुक्ति हो रही है। संगठित क्षेत्र के मजदूरों को असंगठित किया जा रहा है। इसके चलते मजदूरों की संगठन बनाने की क्षमता कम होती जा रही है। उदारीकरण और बाजारीकरण का दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा मजदूरों पर पड़ा है। एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जिसके कारण संगठित मजदूर अंसगठित हो रहा है।श्रमिक और मालिक के बीच का संबंध लगातार अमानवीय होता जा रहा है। पहले सरकार श्रमिकों के हित के लिए कदम उठाती थी। अब वह मालिकों के हितों का पोषण कर रही है।

मजदूर संगठन यह दावा करते हैं कि उनकी सदस्य संख्या बढ़ रही है।

संगठनों की सदस्य संख्या बढ़ रही है यह बात सही है। लेकिन यह संख्या संगठित क्षेत्र के मजदूरों की नहीं है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या मजदूर संगठनों में बढ़ती जा रही है। सीटू में २४ लाख असंगठित क्षेत्र के मजदूर सदस्य हैं।

आप मजदूरों के लिए क्या सुविधाएं चाहते हैं?

बहुत से संस्थानों में प्रोविडेंट फंड, ग्रेच्युटी आदि बंद हो चुकी है । डेली वेजेस पर काम हो रहा है। यह रुकना चाहिए। सबसे जरूरी है इंडस्ट्रियल डेमोक्रसी। लगातार कारखानों से स्वतंत्रता गायब हो रही है। मजदूर अपने हकों के पक्ष में आवाज नहीं उठा सकते। हर वर्ष सेफ्टी ऍाडिट होना चाहिए। संस्थान में कितनी सुरक्षा है औेर कितनी जरूरत है इसकी जांच हो। इसके लिए प्रशिक्षित लोगों की सेवाएं ली जाएं।

उद्योगधंधो से इंस्पेक्टर राज को भी समाप्त करने की बात की जा रही है। कहा जा रहा है कि इससे उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है।

लेबर इंस्पेक्टर और ऐसी जांच से मिल मालिक द्घबराते हैं। कांटे्रक्ट वर्क में जंगल राज चल रहा है। प्रधानमंत्री भी कहते हैं कि अब इंस्पेक्टर राज नहीं चलेगा। 'माइग्रेट वर्कर' यूनियन नहीं बना पा रहे हैं। औद्योगिक लोकतंत्र बहुत जरूरी है। औद्योगिक सामंतवाद ऐसे चलता रहा तो मजदूरों का आक्रोश एक दिन फट पड़ेगा। मनमोहन सिंह सरकार उसी रास्ते पर जा रही है जिससे मजदूरों का आक्रोश लावा बन कर फूटे।

अभी जो श्रम कानून है क्या वह पर्याप्त है?

मौजूदा समय में जो श्रम कानून हैं यदि उनका ईमानदारी से पालन हो तो मजदूरों का काफी हित-संरक्षण हो सकता है। बहुत कड़ा कानून बना दिए जाए और व्यवहारिक धरातल पर उसे लागू न किया जाये, तो क्या मतलब है।

उदारीकरण और बाजारीकरण का मजदूरों पर क्या प्रभाव पड़ा है।

पूंजी निवेश के लिए सरकार उद्योगपतियों की शर्तों पर काम कर रही है। देशी विदेशी कारपोरेट द्घराने न तो कोई श्रम कानून और न ही कोई यूनियन चाहते हैं। कारपोरेट द्घराने श्रम कानूनों का खुलेआम उल्लंद्घन करते हैं। अब सरकार इसे निष्प्रभावी कर रही है। यह सब विनिवेश के लालच में किया जा रहा है। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जिसमें कहा जा रहा है कि देश की प्रगति में श्रम कानून बाधक है। यूनियन और श्रम कानून मजदूर हितों में काम करते हैं। इसके न रहने का खामियाजा आप देख रहे हैं। अभी हम गुना की उर्वरक फैक्ट्री में गये थे। वहां के मजदूरों की दुर्दशा देखने लायक थी। वहां प्रबंधक की तरफ से मजदूरों को हाथ में लगाने के लिए न तो कोई ग्लब्स दिया गया है और न कोई सुरक्षा। हर जगह सेफ्टी, मिनिमम वेजेस और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है।

आप कहते हैं कि असंगठित क्षेत्र में मजदूरों को यूनियन नहीं बनाने दिया जाता है। जबकि संविआँाान के अनुसार संगठन बनाने पर कोई रोक नहीं लगा सकता है। यह कैसे संभव है?

यह बात तो सही है कि संगठन बनाना संवैधानिक अधिकार है। इसे समाप्त या इस पर रोक नहीं लगाई जा सकती। प्रबंधन और सरकार से लड़ झगड़कर यूनियन बनायी जाती है। आज जब रोजगार में अवसर की भारी कमी है, काम के घंटे बढ़ते जा रहे हैं, महंगाई चरम पर है। अप्रवासी मजदूर काम के दौरान ही एक दूसरे के सम्पर्क में रहते हैं। उसके बाद कौन क्या करता है, कैसे रहता है, दूसरे को नहीं पता। निजी कंपनियों में यूनियन बनाने पर नौकरी से निकाल दिया जाता है। ऐसे में यह संभव नहीं हो पा रहा।

सरकार यह दावा कर रही है कि विकास का लाभ मिल रहा है।

ये जो विकास का मॉडल है वह दिखावटी है। यह पूंजीपतियों और संपन्न लोगों को फायदा पहुंचा रहा है। सरकार आकड़ों के खेल में आम जनता को उलझाये रखना चाहती है। देश की अधिकार जनता का जीवन कष्टमय होता जा रहा है। यह कैसा विकास है?
साभार "दी सन्डे पोस्ट"

2 टिप्‍पणियां:

  1. ab to unke bhee juban me tale lag gaye hain jo kabhi muzduron ke hitaishi bante nahin thakte the.

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  2. दीपंकर मुकर्जी ने जो कुछ कहा है वह सही है। लेकिन खुद उन के संगठन सीटू से संबद्ध यूनियनों ने मजदूरों के हितों को गिरवी रख कर मालिकों से समझौते किए हैं और हजारों मजदूर परिवारों की दुर्दशा और उन के व उन के परिजनों द्वारा की गई आत्महत्याओं के लिए जिम्मेदार हैं।

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