चिंतन से सजी चिता
अमलेन्दु उपाध्याय
अपनी स्थापना के समय से ही 'डिफरेन्ट विद अदर्स' का राग अलापती रही भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव में करारी हार क्या मिली पार्टी में ही सिर फुटौवल षुरू हो गया। इस सिर फुटौव्वल को रोकने के लिए भाजपा ने तस किया कि चिंतन किया जाएगा लेकिन चिंतन की षुरूआत ही भाजपा की चिता सजाने हुई। इस चिता पर पहली आहुति दी गई किसी जमाने में अटल बिहारी वाजपेयी के हनुमान रहे जसवंत सिंह की।
पार्टी जिन लालकृश्ण अडवाणी को पीएम इन वेटिंग घोशित करके लोकसभा चुनाव में उतरी उन लालकृश्ण अडवाणी पर अब पार्टी को भरोसा नहीं रहा है। हालांकि अभी तक भाजपा, पार्टी के मामलों में राश्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के किसी भी सीधे हस्तक्षेप से इंकार करती रही है और संघ से अपना नाभि नाल का संबंध बताती रही है, लेकिन चिंतन बैठक ने साफ कर दिया कि अब खुले तौर पर संघ का पार्टी पर षिकंजा कसा जाएगा और गैर संघी पृश्ठभूमि के नेता भाजपा में एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पाएंगे। पार्टी में बढ़ती अनुषासनहीनता, लगातार घटता जनाधार और दूसरी व तीसरी लाइन के गंभीर और समर्पित नेताओं की तलाष कुछ ऐसे मुद्दे थे जिन पर भाजपा में चिंतन की मांग बढ़ रही थी। लोकसभा चुनाव में हार की जिम्मेदारी तय करने के लिए पार्टी के अंदर जोरदार मांग उठ रही थी और इस तरह की खबरें मीडिया के जरिए बाहर भी आ रही थीं। ऐसे में सारे मसलों पर चिंतन करने के लिए पार्टी के कोर ग्रुप ने 'चिंतन बैठक' करने का फैसला लिया।
हार के बाद संक्रमण से गुजर रही पार्टी को नई दिषा और नया लुक देने के लिए किसी सही मंत्र की तलाष में भाजपा की चिंतन बैठक बीती 19 अगस्त को षिमला में षुरू हुई। चिंतन बैठक में मैराथन चिंतन करने के लिए भाजपा कुल 25 धुरंधर चिंतकों का जुगाड़ करने में सफल रही।
बड़े नेताओं के बगावती तेवरों से पार्टी का निचले स्तर का कार्यकर्ता हताष और निराष है। इसमें ताजा प्रकरण में राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया के बगावती तेवर पर भी चर्चा हुई। पार्टी के इतिहास में संभवत: यह पहला अवसर था कि किसी राज्य स्तर के नेता ने पार्टी हाई कमान के फैसले को मानने से इंकार कर दिया हो और संकट के इस दौर में पार्टी की यह मजबूरी बन गई कि उसे वसुंधरा के सामने नतमस्तक होकर उनकी षर्तों पर ही पद छोड़ने के लिए कहना पड़ा। कहा जा रहा है कि वसुंधरा ने तर्क दिया था कि लालकृश्ण अडवाणी को पार्टी ने पीएम इन वेटिंग घोशित किया था और पार्टी लोकसभा में बुरी तरह हार गई इसके बावजूद अडवाण्ाी को लोकसभा में नेता विपक्ष बनाया गया। फिर उन्हें (वसुंधरा) क्यों राजस्थान विधानसभा में नेता विरोधी दल से हटने के लिए कहा जा रहा है? वसुंधरा के तर्क से पार्टी सकते में थी। क्योंकि अडवाणी को पार्टी ने एक समझौते के तहत नेता विपक्ष बनाया था और कहा जाता है कि संघ ने अडवाणी से स्पश्ट कह दिया था कि वह अस्थायी व्यवस्था हैं, जब उनके विकल्प पर सहमति बन जाएगी तब उन्हें यह पद छोड़ना होगा। चर्चा है कि वसुंधरा के सवाल के बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अडवाणी को बुलाकर समझा दिया था कि वह अपना उत्ताराधिकारी चुन लें, लेकिन अडवाणी खेमे ने घोशणा कर दी कि अडवाणी पूरे पांच साल नेता विपक्ष बने रहेंगे। संघ प्रमुख ने इसे अपनी तौहीन माना और चिंतन बैठक में अडवाणी से इस बावत सवाल भी किए गए।
भाजपा की चिंतन बैठक हालांकि बुलाई तो गई थी इसलिए ताकि हार के कारण तलाषे जाएं और उन पर सुधार की क्या गुंजाइष हो सकती है उन उपायों पर चर्चा की जाए। लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि बाल आप्टे समिति की रिपोर्ट को चिंतकों ने सिरे से खारिज कर दिया और बैठक का सारा ध्यान इस बात पर रहा कि किसके ऊपर हार का ठीकरा फोड़ा जाए? अडवाणी हार की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हैं और होना भी नहीं चाहिए। राजनाथ का हार से क्या मतलब? उनके नाम पर कहां पार्टी को वोट मिलता है? और मिलता होता तो क्या अब तक राजनाथ लोकसभा के सदस्य नहीं चुन लिए जाते और क्यों अपने घर में पांच बार हारते? वह तो भला हो गाजियाबाद का कि राजनाथ अपनी जिन्दगी में पहली बार लोकसभा सदस्य तो बन गए, क्या यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है?
असल में भाजपा का जो संकट है वह उसका अपना पैदा किया हुआ नहीं है। इस संकट के लिए भी संघ जिम्मेदार है जो भाजपा को एक संपूर्ण राजनीतिक दल नहीं बनने देता। संघ भाजपा को अपनी कठपुतली बना कर रखना चाहता है। इसीलिए भाजपा के पास अपना कैडर नहीं है। कैडर के नाम पर जो कार्यकर्ता भाजपा के पास हैं वह संघ के कार्यकर्ता हैं। असल चिंतन का विशय तो यह होना चाहिए था कि संघ की काली छाया से भाजपा कब मुक्त होगी और कब एक मुकम्मल राजनीतिक दल बनेगी? लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार, उसकी हार कम बल्कि संघ की हार ज्यादा है। लेकिन समस्या यह है कि न तो संघ इस तथ्य को स्वीकार करने का हौसला दिखाएगा और न भाजपा इस सच को उगलने को तैयार होगी। फिर चिंतन का क्या मतलब?
चिंतन की आवष्यकता भाजपा से ज्यादा संघ को है। उसका कारण साफ है। संघ में भी अब समर्पित कार्यकर्ता नहीं आ रहे हैं। जो लोग भी संघ में अब आ रहे हैं वह सत्ताा की लालसा में ही आ रहे हैं। हालांकि संघ स्वयं सत्ताा का भूखा है लेकिन वह तब तक सीधे सीधे राजनीति में नहीं आना चाहता जब तक कि उसे अपने बल पर सत्ताा पर कब्जा करने का अवसर नहीं मिल जाए और संघ की यह मुराद कभी पूरी नहीं होगी। उसका कारण साफ है। राजनीति सिर्फ सत्ताा पाने के लिए ही नहीं होती है। राजनीति का असल मकसद जनता की भलाई करना है और सत्ताा उसका एक जरिया है। यह बात दीगर है कि सत्ताा पाते ही हर राजनीतिक दल का चरित्र बदल जाता है और वह जनता पर ही जुल्म करने लगता है, लेकिन जाहिर तौर पर उसका उद्देष्य जनता की सेवा ही होता है। लेकिन भाजपा का या यूं कहिए संघ का उद्देष्य ही सत्ताा प्राप्त करना है जनता की भलाई नहीं। एक और कारण संघ और भाजपा के रिष्तों में खटास का है कि संघ के अधिकांष नए नेताओं की उम्र भाजपा नेताओं की तुलना में कम है इसलिए भाजपा नेता संघ नेताओं को कम भाव देते हैं।
समझा जाता है कि बैठक में अडवाणी के विकल्प के रूप में युवा नेतृत्व को तैयार करने के प्रष्न पर भी चर्चा हुई। चूंकि बैठक से पहले ही संघ प्रमुख मोहनराव भागवत का साक्षात्कार एक समाचार चैनल पर प्रसाारित हुआ जिसमें उन्होंने कहा कि भाजपा को युवा नेतृत्व को बागडोर सौंपने पर विचार करना होगा। हालांकि भागवत ने यह मानने से इंकार कर दिया था कि उन्होंने या संघ ने अडवाणी को पद छोड़ने के लिए कहा था। लेकिन संघ के सामने भी संकट यह है कि अडवाणी के बाद किसे बागडोर सौंपे, क्योंकि चाहे राजनाथ हों या अरूण जेटली या फिर वैंकेया नायडू अथवा सुशमा स्वराज, किसी की भी स्वीकार्यता न तो पार्टी के अंदर है और न जनता में है। इसलिए संघ की मजबूरी अडवाणी को तब तक ढोने की है जब तक उनका कोई मजबूत विकल्प तैयार नहीं हो जाए। हालांकि संघ ने अपने प्रतिनिधि के तौर पर किसी बड़े पदाधिकारी को चिंतन बैठक में नहीं भेजा, लेकिन भाजपा के संगठन मंत्री रामलाल, सह संगठन मंत्री सौदान सिंह और बी. सतीष की उपस्थिति यह साबित करने के लिए काफी थी कि भाजपा के बड़े नेता संघ का आदेष समझ लें कि जब तक अडवाणी का मजबूत विकल्प नहीं है तब तक उछल-कूद न मचाएं और अडवाणी भी समझ लें कि उन्हें हटना तो है इसलिए ज्यादा पैर न फैलाएं।
तमाषा यह है कि जो लोग चिंतन कर रहे थे उन में से अधिकांष का जनता की राजनीति से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है। वह या तो संघ के चंपू हैं या राज्यसभा की राजनीति करने वाले बड़े जुगाड़ू। ऐसे में जनता ने क्यों भाजपा को नकार दिया इस प्रष्न पर स्वस्थ और ईमानदार चर्चा कैसे हो सकती है?
जसवंत सिंह प्रकरण और यषवंत सिन्हा का चिट्ठी प्रकरण भी चिंतन बैठक का एक और प्रष्न रहा। पार्टी में सवाल उठ रहा है कि क्या पार्टी की कार्य षैली में कोई खोट है? क्योंकि भाजपा अकेले संघ के निर्देष और विचारधारा के बल पर कांग्रेस का विकल्प नहीं बन सकती और पार्टी को एक राश्ट्रीय विकल्प बनाने में बहुत बड़ी भूमिका उन नेताओं की है जो संघ की पृश्ठभूमि से नहीं आए हैं। लेकिन यह नेता जो बाहर से आते हैं या तो पार्टी में लम्बे समय तक रह नहीं पाते और पार्टी के कल्चर कोे आत्मसात नहीं कर पाते और जो टिक भी जाते हैं, तो वह अपनी कामयाबी को ज्यादा पचा नहीं पाते या उनमें अपने राजनीतिक भविश्य के प्रति हमेषा एक भय बना रहता है। चिंतन का विशय यह भी था कि एक संपूर्ण विकल्प बनने के लिए पार्टी को दक्षिणी राज्यों में भी अपना आधार बढ़ाना होगा जो कि एक बड़ी चुनौती है। क्योंकि पष्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेष, तमिलनाडु, और केरल में तो पार्टी का सूपड़ा ही साफ है। इन प्रदेषों की लगभग 150 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां पार्टी का कोई नामलेवा भी नहीं हैं। ऐसे में किस आधार पर पार्टी अपने दम पर कांग्रेस का विकल्प बन पाएगी?
चिंतन बैठक में पार्टी की हार के बाद सवाल खड़ा करने वाले यषवंत सिंहा, अरूण षौरी, को तो बुलाया ही नहीं गया और जसवंत सिंह को बुलाया भी गया तो चिंतन षुरू होने से पहले ही उन्हें पार्टी से बेदखल कर दिया गया। अब षौरी ने खुद बगावत का रास्ता अख्तयार कर लिया है। इसलिए हार के कारणों पर कोई सार्थक चर्चा ही नहीं हुई। अडवाणी भी इस बात का संकेत पहले ही दे चुके थे कि चिंतन इस बात पर नहीं होगा कि पार्टी क्यों हारी बल्कि चिंता इस बात पर है कि पार्टी आगे कैसे बढ़े? समझा जाता है कि इस विशय पर चिंतन हुआ कि पार्टी में नए सिरे से कैसे जान फूंकी जाए और जहां पार्टी बिखर रही है वहां बिखराव कैसे रोका जाए।
उत्तार प्रदेष जहां से पार्टी ऊर्जा प्राप्त करती रही है, वहीं उसका आधार खिसक रहा है। जबकि पार्टी अघ्यक्ष राजनाथ सिंह स्वयं उत्तार प्रदेष से आते हैं। वहां वरूण गांधी का अचानक उदय भी क्या भाजपा की हार का कारण्ा रहा? इस प्रष्न पर भी चिंतन होना स्वाभाविक है। एक तरफ संघ हिन्दुत्व की राह पर चलने के लिए दबाव बना रहा है तो दूसरी तरफ वरूण के बयानों को लेकर पार्टी के वरिश्ठ नेता आपस में उलझते रहे हैं। चुनाव में हार के लिए पार्टी के एक तबके ने मुस्लिम वोटों का कांग्रेस की तरफ रूझान को बताया और इसके लिए वरूण के भाशण को जिम्मेदार ठहराया। इस तरह के सवाल भाजपा के राश्ट्रवादी कहे जाने वाले मुस्लिम नेताओं मुख्तार अब्बास नकवी, षहनवाज हुसैन ने उठाए थे। मध्य प्रदेष के मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चौहान भी चुनाव में हार के लिए मुसलमानों की भूमिका को जिम्मेदार ठहरा चुके हैं। अब भाजपा के सामने धर्मसंकट यह है कि वह अगर यह स्वीकार करती है कि वरूण प्रकरण हार का एक बड़ा कारण रहा तो फिर संघ की हिन्दुत्व लाइन का क्या होगा? क्या भाजपा यह स्वीकार कर ले कि हिन्दुत्व के मुद्दे के कारण हार हुई? लेकिन मजेदार बात यह रही कि सार्वजनिक तौर पर स्वयं को हिन्दुओं की पार्टी मानने से इंकार करने वाली भाजपा की चिंतन बैठक में बड़े मुस्लिम नेता षहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी और नजमा हेपतुल्ला जैसे लोग चिंतन बैठक में घुस ही नहीं पाए। समझा जा सकता है कि भला उनके सवालों पर क्या चिंतन हुआ होगा जब पूरे चिंतन में एक भी मुस्लिम नेता मौजूद नहीं था।
कुल मिलाकर यह चिंतन बैठक भाजपा के
अनुषासन का मुद्दा भी चिंतन का बड़ा विशय है। यह पहला अवसर नहीं है कि वसुंधरा राजे ने हाईकमान के आदेष को मानने से इंकार कर दिया। इससे पहले भी उत्ताराखण्ड के मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खण्डूड़ी ने पहले तो खुद ही हाईकमान को अपने इस्तीफे की पेषकष की थी और बाद में जब उनसे इस्तीफा देने के लिए कहा गया तो उन्होंने ना नुकुर करना षुरू कर दिया। इसीलिए चिंतन बैठक से पहले भाजपा ने जसवंत सिंह की राजनीतिक चिता सजाने से बैठक का आगाज करके एक तीर से कई निषाने साधे। पहला संदेष तो वसुधरा राजे को ही दिया गया कि पार्टी जब जसवंत सिंह जैसे कद्दावर नेता को बाहर का रास्ता दिखा सकती है तो महारानी भी जरा पार्टी की मर्यादा में रहें अन्यथा उनके लिए भी बाहर का रास्ता कभी भी खुल सकता है। दूसरा संदेष उन नेताओं के लिए था जो संघ की पृश्ठभूमि से नहीं आए हैं। उनके लिए साफ संदेष दिया गया कि उन्हें संघ के बताए रास्ते पर ही चलना होगा और भाजपा को कांग्रेस बनाने का प्रयास किया तो हश्र जसवंत सिंह जैसा होगा। तीसरा संदेष षहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी और नजमा हेपतुल्ला जैसों के लिए दिया गया कि भाजपा का अंतिम पड़ाव संघ का बताया हुआ उग्र हिन्दुत्व ही है, इसलिए भाजपा में यदि रहना होगा तो संघ को सहना ही होगा।
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं।)
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