'चरणदास चोर' और उदय प्रकाष
अमलेन्दु उपाध्याय
अभी कुछेक दिन पहले एक ई मेल मिला। ई मेल में 'कबाड़खाना' ब्लॉग से एक जरूरी सूचना दी गई थी। 'जन संस्कृति मंच' के महासचिव प्रणय कृष्ण का एक वक्तव्यनुमा लेख था, जिसमें सूचित किया गया था कि छत्ताीसगढ़ सरकार ने हबीब तनवीर के प्रख्यात नाटक 'चरणदास चोर' पर प्रतिबंध लगा दिया है।
प्रणय कृष्ण के लेख पर तुरंत प्रतिक्रियाएं आना शुरू हो गईं और बड़ी संख्या में बुध्दिजीवियों ने छत्ताीसगढ़ सरकार की आलोचना की। वरिष्ठ पत्रकार राजकिषोर ने तो यहां तक लिखा कि सारे कलाकारों को इकट्ठा होकर छत्ताीसगढ़ चलना चाहिए और वहां 'चरणदास चोर' का मंचन करना चाहिए। राजकिषोर ने लिखा कि वह छत्ताीसगढ़ चलने के लिए तैयार हैं।
छत्ताीसगढ़ की भाजपा सरकार अपने कुत्सित कारनामों के लिए पहले से ही मषहूर है। मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ. विनायक सेन छत्ताीसगढ़ सरकार की तानाषाही के चलते एक लम्बा वक्त जेल में गुजार कर आए हैं और आए दिन फर्जी मुठभेड़ों में निरीह और गरीब आदिवासियों को नक्सली बताकर मार देने की खबरें भी छत्ताीसगढ़ में आम बात हो गई है। उधर हबीब साहब के ऊपर भी सांस्कृतिक राष्ट्रवादी गुंडे हमले कर चुके थे और कई बार उनके नाटकों में इन भगवा आतंकवादियों ने विघ्न डाला था। लिहाजा प्रणय कृष्ण की सूचना पर बौध्दिक जमात का उध्दिग्न होना लाजिमी था। लेकिन इसी बीच रविवार डॉट कॉम के संपादक आलोक पुतुल का एक मेल मिला जिसमें बताया गया कि छत्ताीसगढ़ में 'चरणदास चोर' पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया है बल्कि सतनामी समाज ने मुख्यमंत्री से मिलकर उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी और उस मांग पर सरकार की चुप्पी से यह भ्रम फैला।
दरअसल 'चरणदास चोर' मूलत: राजस्थानी लोककथा पर आधारित नाटक है, जिसे विजयदान देथा ने लिखा था और उसे 'फितरती चोर' नाम दिया था। हबीब तनवीर ने इसे छत्ताीसगढ़ी भाषा, संस्कृति, लोकनाटय और संस्कृति परंपरा में ढालने के क्रम में मूल नाटक में काफी परिवर्तन किए और छत्ताीसगढ़ में लोकप्रिय हुए इस नाटक को अंतर्राष्टी्रय ख्याति प्राप्त हुई।
यहां तक तो ठीक था। लेकिन बाद में एक मेल और मिला जिसमें बताया गया कि चर्चित साहित्यकार उदय प्रकाष ने भी इस प्रकरण पर अपनी कलम चला दी है। अब उदय प्रकाष जी वामपंथ के बड़े पुरोधा हैं। एक समय में दिल्ली आकर जो वामपंथी बड़ा साहित्यकार बन जाता था वह वसंत कुंज, फ्रेंड्स कॉलोनी में रहने लगता था। आजकल बड़े साहित्यकार गाजियाबाद के वैषाली में बसने लगे हैं और वहीं से सर्वहारा, दलित और स्त्रियों की मुक्ति की क्रान्ति का शंखनाद करने लगे हैं। सुना है कि उदय प्रकाष जी को भी ''पीली छतरी वाली लड़की'' का इल्हाम वैषाली में ही हुआ था।
उदय प्रकाष जी ने 'चरणदास चोर' पर जो कहा है उसका लब्बो लुबाव है कि अगर छत्ताीसगढ़ की भाजपा सरकार हबीब साहब से कोई दुर्भावना रखती तो क्या उनकी मृत्यु पर इक्कीस बन्दूकों की सलामी देती? उदय प्रकाष जी का तर्क लाजवाब है। एक बड़े बड़े वामपंथी साहित्यकार से इसी तर्क की आषा की जा सकती थी!
अभी थोड़े ही दिन हुए हैं जब उदय प्रकाष जी भगवा उग्रवाद के ब्राण्ड एम्बेसडर योगी आदित्यनाथ के हाथों पुरस्कार लेकर लौटे हैं। तब उदय प्रकाष की काफी आलोचना हुई थी कि उन्होंने योगी के हाथों यह सम्मान क्यों ले लिया? तब उदय प्रकाष ने अपनी पीड़ा व्यक्त की थी कि उनकी एक चूक को सामने रखकर उनके पूरे व्यक्तित्व और कृतित्व को खंडित किया जा रहा है।
उन्होंने साहित्य में सक्रिय सवर्णों पर यह तोहमत भी जड़ दी थी कि उन्हें कटघरे में खड़ा करने वाले लोग अनपढ़, सामंती और घटिया लोग हैं जिनके भीतर- जैन, बौध्द, नाथ, सिध्द, ईसाईयत, दलित, इस्लाम आदि तमाम आस्थाओं और आइडेंटिटीज के प्रति गहरी घृणा और द्वेष है। अब उदय प्रकाष जी की महानता है कि उन पर ऊॅंगली उठाने वाले अनपढ़, सामंती, कट्टर वर्णाश्रम-व्यवस्थावादी हैं, लेकिन योगी अब विद्वान, साम्यवादी, कट्टर वर्णाश्रम विरोधी और दलितों, इस्लाम के प्रति गहरा प्रेम रखने वाले हो गए हैं, चूंकि उदय प्रकाष ने उनके कर कमलों से पुरस्कार जो प्राप्त कर लिया है।
उस समय लगा था कि शायद उदय प्रकाष के साथ नाइंसाफी हो रही है। चूंकि पुरस्कार गोरखपुर में दिया गया था और गोरखपुर में नारा गूंजता रहता है कि -'' पूर्वांचल में रहना होगा तो योगी योगी कहना होगा'' इसलिए आयोजकाें ने डर कर योगी को बुला लिया होगा। फिर धर्मवीर भारती व्यास पुरस्कार ले चुके हैं, 'सहमत' ने कांग्रेसी सरकार से अनुदान लेकर 'अनहद गरजे' किया तो उदय प्रकाष का यह गुनाह एक बार माफ किया जा सकता है।
लेकिन जब 'चरणदास चोर' पर उदय प्रकाष की दलील पढ़ी तो लगा कि दाल में कुछ काला है और योगी का प्रभाव अब उदय प्रकाष पर असर दिखाने लगा है। वैसे अगर उदय प्रकाष अपने अन्तर्मन से ईमानदार होते तो आर्थिक संकटों के बीच बीमारी से जूझ रहे अरूण प्रकाष की तरह पुरस्कार लेने से मना कर सकते थे ( बताया जाता है अरूण प्रकाष ने बिहार सरकार का पुरस्कार लेने से इसलिए इंकार कर दिया था कि वहां भाजपा सरकार में शामिल है)
अब यह महज एक संयोग है या कुछ और कि उदय प्रकाष जी पुरस्कार 'कुंवर नरेन्द्र प्रताप सिंह' के नाम पर बनी संस्था का लेने गए। योगी भी कुंवर साहब हैं और जिन डॉ. रमन सिंह के पैरोकार उदय जी बने हैं वह भी कुंवर साहब हैं। यह इल्जाम नहीें है, संदेह है। अक्सर ऐसा होता है। हमें याद है जब मंडल कमीषन की सिफारिषें लागू की गई थीं, तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेता हुआ करते थे कामरेड रामसजीवन सिंह।
कई बार सांसद भी रहे थे और बहुत जुझारू भी थे, वैषाली में नहीं रहते थे, बांदा में रहते थे और मजलूमों के लिए संघर्शरत रहते थे। वाकई में ईमानदार आदमी थे। उन्होंने उस समय मंडल कमीषन की
शान में भाकपा के मुखपत्र 'मुक्ति संघर्श' और 'जनयुग' में कई पन्ने काले किए और जमकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को गालियां दीं।
थोड़े समय बाद ही रामसजीवन तो बसपा में चले गए और उनके दूसरे अनुयायी मित्रसेन यादव तुरंत यादव हो गए और समाजवादी पार्टी में चले गए। लेकिन जिन ब्राह्मणवादियों को रामसजीवन और मित्रसेन यादव गालियां दे रहे थे, वे सारे ब्राह्मणवादी आज भी भाकपा का झण्डा उठा रहे हैं। क्या रामसजीवन जैसा ही कुछ उदय प्रकाष के साथ तो नहीं हो रहा?
लगता यही है कि उदयप्रकाष के लाल झण्डे का रंग नीला करते करते पुरस्कारों की बौछार में भगवा पड़ता जा रहा है और उदय प्रकाष को पुरस्कार देते वक्त भगवा मंडली उसी परम सुख का अनुभव कर रही है जिस सुख का अनुभव 'पीली छतरी वाली लड़की' का 'राहुल', 'सुधा जोषी' को 'झटके' देते हुए हर झटके पर महसूस करता है। उदय जी जरा जोर से बोलें- जय श्री........
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