सोमवार, 30 अगस्त 2010

हिन्दुत्व की अवधारणा ही आतंकी है

हिन्दुत्व की अवधारणा ही आतंकी है
अमलेन्दु उपाधयाय
कांग्रेस के साथ आरंभ से दिक्कत यह रही है कि वह किसी भी मुद्दे पर कोई भी स्टैण्ड चुनावी गुणा भाग लगाकर लेती है और अगर मामला गांधी नेहरू खानदान के खिलाफ न हो तो उसे पलटी मारने में तनिक भी हिचक नहीं होती है। उसकी इसी कमजोरी का फायदा उठाकर देश में सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतें अपना विस्तार करती रही हैं और कांग्रेस फौरी नुकसान देखकर अहम मसलों पर अपने कदम पीछे हटाती रही है जिसका बड़ा नुकसान अन्तत: देश को उठाना पड़ा है। कुछ ऐसा ही मामला फिलहाल 'भगवा आतंकवाद' के मसले पर हुआ जब राज्य पुलिस महानिदेशकों के एक तीन दिवसीय सम्मेलन में गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने धयान दिलाया कि देश में भगवा आतंकवाद भी है। बस भगवा गिरोह ने जब शोर मचाना शुरू किया तो कांग्रेस बैकफुट पर आ गई और चिदंबरम से उसने अपना पिण्ड छुड़ा लिया। नतीजतन हिन्दुत्ववादी  आतंकवादियों  के हौसले बुलन्द हैं।
    यहां सवाल यह है कि क्या वास्तव में भगवा आतंकवाद जैसा कुछ है? और क्या आतंकवाद का कोई धर्म होता है? जाहिर सी बात है कि समझदार लोगों का जवाब यही होगा कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और न कोई रंग होता है। लेकिन चिदंबरम ने जो कहा उससे भी असहमत होना आसान नहीं है। चिदंबरम के शब्द प्रयोग में असावधानी हो सकती है लेकिन भावना एकदम सही है। जिस आतंकवाद की तरफ चिदंबरम ने इशारा किया उसकी आमद तो आजादी के तुरंत बाद हो गई थी और इस आतंकवाद ने सबसे पहली बलि महात्मा गांधी की ली। उसके बाद भी यह धीरे धीरे बढ़ता रहा और 6 दिसम्बर 1992 को इसका विशाल रूप सामने आया।
    हाल ही में जब साध्वी प्रज्ञा, दयानन्द पाण्डेय और कर्नल पुरोहित नाम के दुर्दान्त आतंकवादी पकड़े गए तब यह फिर साबित हो गया कि ऐसा आतंकवाद काफी जड़ें जमा चुका है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी का चिदंबरम के बयान पर हो- हल्ला मचाना 'चोर की दाड़ी में तिनका' वाली कहावत को चरितार्थ करता है।
    पहली बात  तो यह है कि भगवा रंग पर किसी राजनीतिक दल का अधिकार नहीं है और न करने दिया जाएगा। यह हमारी सदियों पुरानी आस्था का रंग है। लेकिन चिदंबरम के बयान के बाद भाजपा और संघ यह दर्शाने का प्रयास कर रहे हैं गोया भगवा रंग उनका ही हो। अगर ऐसा है तो भाजपा का झण्डा भगवा क्यों नहीं है?
    अब संघी भाई कह रहे हैं कि हिन्दू कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता। बात सौ फीसदी सही है और हम भी यही कह रहे हैं कि हिन्दू आतंकवादी नहीं हो सकता और आतंकवादी गतिविधिायों में जो आतंकवादी पकड़े गए हैं या अभी पकड़ से बाहर हैं वह किसी भी हाल में हिन्दू नहीं हो सकते वह तो 'हिन्दुत्व' की शाखा के हैं। दरअसल 'हिन्दुत्व' की अवधारणा ही आतंकी है और उसका हिन्दू धर्म से कोई लेना देना नहीं है। कोई भी धर्मग्रंथ, वेद, पुराण, गीता रामायण हिन्दुत्व की बात नहीं करता न किसी भी धर्मग्रंथ में 'हिन्दुत्व' शब्द का प्रयोग किया गया है।
हिन्दुत्व एक राजनीतिक विचार धारा है जिसकी बुनियाद फिरकापरस्त, देशद्रोही और अमानवीय है। आज हमारे संधी जिस हिन्दुत्व के अलम्बरदार बन रहे हैं, इन्होंने भी इस हिन्दुत्व को विनायक दामोदर सावरकर से चुराया है। जो अहम बात है कि सावरकर का हिन्दुत्व नास्तिक है और उसकी ईश्वर में कोई आस्था नहीं है। जबकि हिन्दू धर्म पूर्णत: आस्तिक है। उसकी विभिन्न शाखाएं तो हैं लेकिन ईश्वर में सभी हिन्दुओ की आस्था है। लिहाजा ईश्वर के बन्दे आतंकी तो नहीं हो सकते पर जिनकी ईश्वर में आस्था नहीं है वही आतंकी हो सकते हैं। 
    जो अहम बात है कि हिन्दू धर्म या किसी भी धर्म के साथ कोई 'वाद' नहीं जुड़ा है क्योंकि 'वाद' का कंसेप्ट ही राजनीतिक होता है जबकि 'हिन्दुत्व' एक वाद है। और आतंकवाद भी एक राजनीतिक विचार है। दुनिया में जहां कहीं भी आतंकवाद है उसके पीछे राजनीति है। दरअसल आतंकवाद, सांप्रदायिकता के आगे की कड़ी है। जब धर्म का राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए हथियार की तरह प्रयोग किया जाता है तब सांप्रदायिकता का उदय होता है और जब सांप्रदायिकता के जुनून को पागलपन की हद तक ले जाया जाता है तब आतंकवाद पैदा होता है। 
 भारत में भी जिसे भगवा आतंकवाद कहा जा रहा है वस्तुत: यह 'हिन्दुत्ववादी आतंकवाद'  है, जिसे आरएसएस और उसके आनुषंगिक संगठन पालते पोसते रहे हैं। संघ की शाखाओं में बाकायदा आतंकवादी प्रशिक्षित किए जाते हैं जहां उन्हें लाठी- भाला चलाना और आग्नेयास्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। दशहरे वाले दिन आतंकवादी अपने हथियारों की शस्त्र पूजा करते हैं।
    फिर प्रतिप्रश्न यह है कि भाजपा और संघ को चिदंबरम के बयान पर गुस्सा क्यों आता है? 'मजहबी आतंकवाद', 'जिहादी आतंकवाद' और 'वामपंथी उग्रवाद' जैसे शब्द तो संघ के शब्दकोष की ही उपज हैं न! अगर मजहबी आतंकवाद होता है तो भगवा आतंकवाद क्यों नहीं हो सकता? अगर वामपंथी उग्रवाद होता है तो दक्षिणपंथ का तो मूल ही उग्रवाद है। अगर 'जिहादी आतंकवाद' और 'इस्लामिक आतंकवाद' का अस्तित्व है तब तो 'भगवा आतंकवाद' भी है। अब यह तय करना भाजपा- आरएसएस का काम है कि वह 'किस आतंकवाद' को मानते हैं?

सोमवार, 16 अगस्त 2010

ममता माओवादी !

ममता माओवादी !
इस दहर में सब कुछ है पर इन्साफ नहीं है।



इन्साफ हो किस तरह कि दिल साफ नहीं है।



राजनीति के विषय में अक्सर कई कहावतें सुनने को मिलती हैं। जैसे राजनीति में दो और दो चार नहीं होते या राजनीति में कुछ सही गलत नहीं होता या फिर राजनीति और अवसरवादिता एक दूसरे के पर्याय हैं। राजनीति के इन मुहावरों और सिद्धान्तहीन – अवसरवादी राजनीति की ताजा मिसाल रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी ने हाल ही में पेश की है। एक समय में अटल बिहारी वाजपेयी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार की आंखों का तारा रहीं और हिन्दू हृदय सम्राट नरेन्द्र मोदी के कारनामों को समर्थन देने वाली ममता दीदी अब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पार्ट-2 में प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह और संप्रग मुखिया सोनिया गांधी के जिगर का टुकड़ा हैं।



बीती नौ अगस्त को पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में एक रैली में ममता दीदी का प्यार गृह मंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दुश्मन न. एक माओवादियों के लिए उमड़ पड़ा। ममता ने लालगढ़ में ऐलान किया कि माओवादी नेता आजाद का फर्जी एनकाउन्टर किया गया है। बात सही भी हो सकती है क्योंकि ममता केन्द्र सरकार में महत्वपूर्ण पद पर आसीन हैं और सरकार के अन्दर जो चलता है उसकी पल पल की जानकारी उन्हें रहती है। क्योंकि आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है और लोग अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस की प्रदेश सरकारें अपने हाईकमान के इशारे पर ही चलती हैं। लिहाजा जब दीदी कह रही हैं कि आजाद का फर्जी एन्काउन्टर हुआ, तो यकीन न करने का भला कौन सा कारण हो सकता है?



लेकिन सवाल यह है कि दीदी जो बात आज सरेआम कह रही हैं वह उन्होंने सरकार के अन्दर क्यों नहीं की? दूसरा जब आजाद का फर्जी एन्काउन्टर करने का षड्यन्त्र रचा जा रहा था उस समय दीदी ने आजाद को बचाने का प्रयास क्यों नहीं किया? इसलिए ममता को अपने गिरेबान में भी झांक कर देखना चाहिए कि आजाद की हत्या के लिए जितने दोषी मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और चिदंबरम हैं, ममता उनसे कम गुनाहगार नहीं हैं। क्योंकि मनमोहन सरकार को बैसाखी अब ममता दीदी की लगी हैं उनके दुश्मन माकपाइयों की नहीं। इसलिए अगर आजाद का फर्जी एन्काउन्टर हुआ है, जैसा कि दीदी का आरोप है और अपना भी मानना है, तो आजाद की हत्या के जुर्म से ममता भी बरी नहीं हो सकती हैं।



लोगों को याद होगा कि जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस हादसा हुआ था उस समय ममता बनर्जी ही वह पहली शख्स थीं जिन्होंने आरोप लगाया था कि ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को विस्फोट से उड़ाया गया है और उन्होंने माओवादियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया था। जबकि गृह मंत्रालय ने साफ कहा था कि विस्फोट के कोई सुबूत नहीं है। यानी जब जरूरत होगी तब ममता माओवादियों को हत्यारा भी कहेंगी और जब जरूरत होगी तब उनके समर्थन से रैली भी करेंगी। यह राजनीति की बेशर्म अवसरवादिता का जीता जागता उदाहरण है।



ममता बनर्जी का यह कोई नया कारनामा नहीं है। वह इससे पहले भी ऊट-पटांग हरकतें करती रही हैं। याद है न समाजवादी पार्टी के तत्कालीन महासचिव अमर सिंह के साथ दिल्ली के जामियानगर में ममता गईं थीं और उन्होंने बटला हाउस एन्काउन्टर को फर्जी करार दिया था और मौके पर ही कुछ पत्रकारों की पिटाई भी करवा दी थी। लेकिन लोकसभा चुनाव में वह बटला हाउस फर्जी मुठभेड़ के लिए जिम्मेदार कांग्रेस के साथ ही मैदान में उतरीं।



मीडिया में जो खबरें आई हैं उनके अनुसार ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस हादसे के मुख्य आरोपियों में से कई ममता की रैली की कमान संभाल रहे थे। इतना ही नहीं ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस की दुर्घटना के लिए जिस पीसीपीए को दोशी ठहराया जा रहा है, ममता की रैली उसी पीसीपीए के बैनर तले हुई। ममता के बहाने सवाल तो गृह मंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और माओवादी नेता किशन जी से भी हो सकते हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब चिदंबरम माओवादियों का समर्थन करने वाले बुद्धिजीवियों को पुलिसिया भाषा में हड़का रहे थे। अब चिदम्बरम साहब माओवादियों की खुलकर हिमायत करने वाली ममता बनर्जी के खिलाफ क्या कदम उठाएंगे? नक्सलवाद को देश का दुश्मन न. एक करार देने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्या ममता बनर्जी को अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने और उनके माओवादियों से संबंधों की जांच कराने की हिम्मत जुटा पाएंगे? लालगढ़ दौरे पर जाकर मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को कानून व्यवस्था का उपदेश देने वाले गृह मंत्री क्या अपनी मंत्रिमंडलीय सहयोगी को भी कुछ ज्ञान देंने की जहमत उठाएंगे?



जो अहम सवाल है वह माओवादी नेता किशन जी और पूरे माओवादी नेतृत्व से है। माओवादी लगातार माकपा और भाकपा को इसलिए कोसते रहे हैं कि इन दोनों दलों ने संसदीय जनतंत्र का रास्ता अपना लिया है। जहां तक माकपा-भाकपा और माओवादियों के अन्तिम लक्ष्य का सवाल है, दोनों के लक्ष्य में कोई अन्तर नहीं है, झगड़ा लक्ष्य को पाने के रास्ते का है। क्या किशन जी यह बता सकते हैं कि नरेन्द्र मोदी का समर्थन करने वाली, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की जिगर का टुकड़ा रहीं ममता बनर्जी का समर्थन करने से देश में साम्यवाद आ जाएगा? क्या जिस संसदीय जनतंत्र को माओवादी लगातार कोसते रहे हैं, उनका यह कदम उसी भ्रष्ट व्यवस्था को पोषित करने वाला नहीं है? क्या यही नई जनवादी क्रांति है? क्या किशन जी यह गारंटी दे सकते हैं कि माकपा को उखाड़ कर और तृणमूल कांग्रेस को सत्ता में लाकर माओवादियों का लक्ष्य पूरा हो जाएगा? अब यह तय करना माओवादी नेतृत्व का काम है कि क्या वह ममता बनर्जी के साथ खड़े होकर देश भर में अपने समर्थकों को खोना चाहेंगे?



नौ अगस्त की लालगढ़ रैली ने सवाल तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश और मेधा पाटकर के लिए भी खड़े किए हैं। अभी तक दोनों ही लोग स्वयं को सामाजिक कार्यकर्ता घोषित करते आए हैं। लेकिन ममता बनर्जी के साथ उनका मंच साझा करना उनकी नीयत पर भी सवाल खड़ा करता है। एक आरोप अक्सर लगता रहा है कि देश के अन्दर कम्युनिस्ट पार्टियों के खिलाफ पूंजीवादी ताकतें पिछले दरवाजे से काम कर रही हैं और अब माओवादी भी जाने अनजाने इन ताकतों के हाथ का खिलौना बन रहे हैं। यह आरोप ममता की लालगढ़ रैली के बाद अब काफी हद तक सही लगने लगा है। अगर स्वामी अग्निवेश, मेधा पाटकर, ममता और माओवादी एक साझे मंच पर आते हैं तो क्या कहा जाएगा?



ममता बनर्जी का ताजा बयान सिर्फ राजनीतिक अवसरवादिता की ही बानगी नहीं है, बल्कि यह मौजूदा मनमोहन सरकार के ऊपर कई सवालिया निशान लगाती है। ममता रेल मंत्री हैं और किसी भी मंत्री का बयान पूरे मंत्रिमंडल का बयान समझा जाता है। यूपीए-2 के ही कई मंत्रियों को मंत्रिमंडल की भावना के खिलाफ जाकर बयानबाजी करने के कारण सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पड़ी है। क्या प्रधानमंत्री ममता से भी माफी मंगवाएंगे? अगर नही तो यही संदेश जाएगा कि केन्द्र सरकार का भी मानना है कि आजाद का एन्काउन्टर नहीं हुआ है बल्कि हत्या हुई है। अब गेंद प्रधानमंत्री के पाले में है। देखना अब यह है कि प्रधानमंत्री में कितना दम है?

बुधवार, 28 जुलाई 2010

मुद्दों पर हावी रणनीति

संसद का मानसून सत्र सोमवार को प्रारंभ हो गया। सत्र प्रारंभ होने से पहले देश का राजनीतिक माहौल साफ संकेत दे रहा है कि मौजूदा सत्र खासा हंगामेदार होगा। घरेलू और बाहरी तमाम मोर्चो पर बुरी तरह विफल रही सरकार हमलावर विपक्ष से निपटने के लिए अनेक उपाय ढूंढ़ रही है। महंगाई के मुद्दे पर सफल भारत बंद के आयोजन और इस मुद्दे पर मिले अपार जनसमर्थन से गदगद विपक्ष इस सत्र में भी महंगाई को अपना प्रमुख हथियार बनाएगा।

प्रमुख विपक्षी दल भाजपा गुजरात के अमित शाह की सीबीआई द्वारा गिरफ्तारी को मुख्य मुद्दा बनाना चाहती थी, लेकिन इस मुद्दे पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में ही दरार दिखने पर भाजपा को बैक होना पड़ा है। समाजवादी पार्टी और वामपंथी दल तो पहले से ही इस मसले पर भाजपा के विरोध में थे, लेकिन भाजपा का जूनियर पार्टनर जनता दल (यू) भी शाह प्रकरण पर असहज है। दरअसल बिहार में अगले साल विधानसभा चुनाव हैं और वहां सड़क से लेकर विधानसभा तक चुनाव की रिहर्सल चल रही है। ऎसे में अगर जद (यू) संसद में भाजपा के साथ शाह प्रकरण पर खड़ा होता है, तो बिहार में उसे मुस्लिम मतों से हाथ धोना पड़ेगा। लिहाजा भाजपा ने भी महंगाई को ही विपक्षी एकता का पहला हथियार बनाया है। इस मसले पर वामपंथी दल, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल भी सरकार को घेरेंगे, लेकिन उनकी कोशिश होगी कि उन्हें भाजपा को साथ न समझा जाए। भाजपा ने मंगलवार 27 जुलाई को महंगाई पर कार्य स्थगन प्रस्ताव लाने की घोषणा की है, जबकि सरकार की मंशा साफ है कि वह कार्य स्थगन पर चर्चा कराने को तैयार नहीं है। इसलिए सत्र की शुरूआत ही नारेबाजी, बायकाट के साथ होने के पूरे आसार हैं। महंगाई के बाद भोपाल गैस कांड दूसरा ऎसा बड़ा मुद्दा होगा, जिस पर सरकार घिरी नजर आएगी। विपक्ष कांग्रेस पर आरोप लगाता रहा है कि तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने ही वारेन एंडरसन को सुरक्षित देश से निकाला था। जाहिर है सरकार इस मसले पर तमाम किंतु-परंतु करेगी और अपनी जवाबदेही से बचना चाहेगी। बताया जाता है भारतीय जनता पार्टी ने इस विषय पर नियम 184 के तहत चर्चा कराने के लिए नोटिस दिया है और सरकार इस नियम के तहत चर्चा कराना नहीं चाहेगी, क्योंकि 184 के तहत चर्चा पर मतदान कराया जाता है। मामूली अंतर से बहुमत प्राप्त सरकार के लिए बार-बार वोट प्रबंधन टेढ़ा काम है। लिहाजा भोपाल गैस त्रासदी पर सरकार और विपक्ष टकराएंगे।

भोपाल गैस त्रासदी मसले पर सरकार के सामने दोहरी चुनौती है। एक तरफ तो उसे विपक्ष के वार झेलने होंगे, दूसरी ओर सरकार के अंदर यूनियन कार्बाइड और उसकी सहयोगी डाउ केमिकल्स के मददगार समझे जाने वाले कमलनाथ और अभिषेक मनु सिंघवी सरीखों को आउट ऑफ कंट्रोल होने से रोकना बड़ी चुनौती होगा। इससे भी बड़ा सकंट सरकार के सामने अर्जुन सिंह होंगे। अभी तक तो कांग्रेस उनकी चुप्पी बरकरार रखने में कामयाब रही है, लेकिन अर्जुन सिंह ने अगर इस मुद्दे पर मुंह खोल दिया, तो सरकार की खासी फजीहत हो सकती है। बड़े मुद्दों में भारत-पाक वार्ता की विफलता भी शामिल होगी। कृष्णा-कुरैशी वार्ता के ऎन पहले गृह सचिव जीके पिल्लई ने जिस तरह बयानबाजी करके माहौल खराब किया, वह विपक्ष के निशाने पर होगा। हालंाकि विपक्ष इस मसले पर साफ बंटा होगा। भाजपा जहां पिल्लई के समर्थन और कृष्णा के विरोध में होगा, तो शेष विपक्ष पिल्लई के खिलाफ होगा।

स्पेक्ट्रम नीलामी में कथित गड़बडियों के चलते संचार मंत्री ए राजा सरकार की नई मुसीबत बनेंगे। हालांकि सरकार के मैनेजर अंदरूनी तौर पर तो चाहते हैं कि राजा की मुसीबतें बढ़ती ही जाएं, लेकिन राजा के बहाने घिरेगी तो सरकार भी। सरकार के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द रेल मंत्री ममता बनर्जी बनेंगी। विपक्ष खासतौर पर वामपंथी दल सैंथिया रेल हादसे के मद्देनजर ममता के इस्तीफे की मांग करेंगे। विपक्ष यह आरोप लगाता रहा है कि बडे रेल हादसे होने के बाद भी ममता अपने मंत्रालय पर ध्यान नहीं दे रही हैं और रेल मंत्रालय का प्रयोग वह बंगाल में अपनी राजनीति चमकाने के लिए कर रही हैं। वामपंथी दल जहां माओवादियों से ममता के दोस्ताना संबंधों की पोल पट्टी खोलेंगे, तो तृणमूल के कुछ सांसद फिर संसद को अखाड़ा बनाना चाहेंगे। बिहार विधानसभा के आसन्न चुनाव की छाया भी संसद के मानसून सत्र पर पडेगी। लालू प्रसाद यादव अपने कुल जमा चार सांसदों के बल पर बिहार के टे्रजरी घोटाले को उठाना चाहेंगे, लेकिन कितना सफल होंगे, यह तो समय बताएगा। राष्ट्रीय महत्व का एक और मुद्दा प्रमुख रूप से केंद्र में होगा। वह यह कि कश्मीर में हाल ही की हिंसा सबका ध्यान खींचेगी। भाजपा इसके बहाने फिर से तुष्टिकरण, धारा 370 का राग अलापेगी और स्वयं को राष्ट्रवादी और बाकी सारे देश को राष्ट्रविरोधी घोषित करेगी। जाहिर है कश्मीर समस्या के समाधान पर चर्चा कम होगी, बल्कि इस समस्या का राजनीतिक दोहन अधिक होगा।

महिला आरक्षण विधेयक व जनगणना में जाति एक बार फिर टकराव का कारण बन सकते हैं। हालांकि महिला आरक्षण का जिन्न सरकार खुद बोतल में बंद रखना चाहेगी, क्योंकि यह विधेयक यूपीए सरकार के लिए बवाल-ए-जान साबित हो सकता है। पिछले सत्र में बड़ी मुश्किल से इस पर सरकार ने अपनी जान बचाई थी। इसी तरह जनगणना में जाति पर भी समाजवादी विपक्ष अपने विरोध की इतिश्री पिछले सत्र में कर चुका है। अगर कोई मुद्दा न मिला, तो फिर इस मुद्दे पर भी हाथ आजमाया जा सकता है। लगता है सरकार की तरफ से भी विपक्ष खासतौर पर भाजपा को घेरने के लिए कमर कसी जा रही है। इसके लिए कर्नाटक में भाजपा के मंत्री रेड्डी बंधुओं का अवैध खनन और एक अंग्रेजी टीवी चैनल के स्टिंग ऑपरेशन के जरिए फिर चर्चा में आया भगवा आतंकवाद भाजपा के लिए परेशानी का सबब बनेंगे। सोहराबुद्दीन फर्जी एनकाउंटर, भगवा आतंकवाद व अवैध खनन पर खुद को घिरता देख भाजपा संसद को बाधित करने का प्रयास करेगी। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में हालांकि सभी दलों ने सदन को सुचारू रूप से चलाए जाने के लिए सहयोग देने का औपचारिक वादा तो किया, लेकिन विरोधी दल के नेताओं के तेवर बता रहे थे कि यह वादा झूठा साबित होगा। सरकार इस सत्र में कुल नौ विधेयक रखने वाली है, जबकि 26 नए विधेयक पेश किए जाएंगे। रेल बजट और आम बजट की पूरक व अनुदान मांगों पर विचार कर इन्हें भी पास किया जाएगा, लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि क्या 26 जुलाई से 27 अगस्त तक एक माह चलने वाला मानसून सत्र जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतरेगा?

लंबे समय से संसद में जनता के सवालों पर स्वस्थ बहस की परंपरा समाप्त होती जा रही है। संभवत: जनता दल (यू) अध्यक्ष शरद यादव ने पिछले दिनों एक संवाददाता के सवाल के जवाब में खीझकर कहा था कि संसद में राजनीति नहीं होगी, तो क्या कीर्तन होगा? बात बहुत माकूल थी, लेकिन सवाल तो यह है कि राजनीति किसके लिए और किसके सवालों पर होगी? ऎसा क्यों होता है कि अंबानी बंधुओं के सवाल पर तो संसद में काफी बहस होती है, लेकिन जब जनता के सवाल महंगाई पर चर्चा होती है, तो आधे से ज्यादा सांसद गायब होते हैं। संसद के कार्य दिवस में सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्नकाल होता है, जो सीधे जनता से जुड़ा होता है। विपक्ष को अपनी बात रखने, सदन में नारेबाजी व बायकाट करने और सदन न चलने देने का हक है, लेकिन अगर प्रश्नकाल में हंगामा किया जाता है, तो यह सीधे उस आम आदमी के हितों पर हमला है, जिसका प्रतिनिधित्व करने का दावा हर राजनैतिक दल करता है। संसद आम आदमी के सवाल उठाने के लिए है।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

गुस्से के इजहार का एक जरिया

गुस्से के इजहार का एक जरिया


महंगाई के विरोध में वामपंथी दलों और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के बीती 5 जुलाई के भारत बंद के बाद अचानक देश के तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया और सरकार के संवेदनहीन समर्थकों के दिल मेे आम आदमी के लिए प्यार उमड़ आया है। भारत बंद के बहाने बडे पूंजीपतियों के पैसे पर पलने वाला देश का मीडिया अब आम आदमी की परिभाषा बदलना चाहता है। अब इस देश की गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाली चालीस फीसदी जनता को आम आदमी की श्रेणी से बाहर करके कारों और हवाई जहाज में सफर करने वाले उच्च मध्यम वर्ग को आम आदमी घोषित करने की कुटिल चालें चली जा रही हैं।

बंद के विरोध में तर्क दिया गया कि इससे आम आदमी को कष्ट होता है और रोज कमाकर रोटी खाने वालों के सामने दिक्कतें आती हैं। यह तर्क सोलह आना झूठ का पुलिंदा है, क्योंकि जिस रोज कमाने वाले की चिंता की जा रही है, उस रोज कमाने वाले को तो साल मेे पचास दिन भी रोजगार नहीं मिलता है। यह दावा सिर्फ हवाई नहीं है, बल्कि यूपीए सरकार जिस महानरेगा को अपनी उपलब्घि बताती है, वही महानरेगा इस सचाई को बयां कर रहा है। महानरेगा साल में सिर्फ सौ दिन रोजगार की गारंटी देती है, जिससे साफ जाहिर होता है कि आम गरीब आदमी को साल में सौ दिन भी रोजगार नहीं मिलता है। फिर हमारे मीडिया के बंधु किस रोज कमाने वाले के दर्द की बात कर रहे हैं?

फिर हड़ताल और बंद लोकतांत्रिक अधिकार हैं। जब सरकार निरंकुश, निरी संवेदनहीन और पूंजीपतियों की गुलाम हो जाए, तब बंद और राष्ट्रव्यापी हड़ताल ही आम आदमी के लोकतांत्रिक हथियार बनते हैं। 5 जुलाई का भारत बंद समूचे विपक्ष के आह्वान पर किया गया था और इसका आह्वान करने वाले विपक्ष को कुल मिलाकर सरकार से ज्यादा वोट मिले हैं। सरकार के खिलाफ आम आदमी के गुस्से को समझा जा सकता है, जिसने स्वत: स्फूर्त इस बंद में हिस्सा लिया और बेरहम निरंकुश सरकार के खिलाफ अपनी आवाज उठाई। वैसे भी अतीत में बंद जैसे लोकतांत्रिक हथियारों से ही सरकारों को झुकना पड़ा है। ऎसे में देश के मीडिया का बंद पर स्यापा उसके जनविरोधी चरित्र को उजागर करता है। तमाशा यह है कि सरकार और कांग्रेस का दावा है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह योग्य अर्थशास्त्री हैं और उनके नेतृत्व में देश आर्थिक तरक्की कर रहा है। विकास दर दस फीसदी का आंकड़ा पार कर रही है, लेकिन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के पिछले सवा साल के कार्यकाल में खाद्य पदार्थो के दाम तीन गुने तक हो गए। आम आदमी के रोजगार के अवसर दिनोंदिन छिनते ही जा रहे हैं। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में डेढ़ लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। छोटे किसान अपनी जमीनें बेचकर दिहाड़ी मजदूर बन रहे हैं, लेकिन जुए की अर्थव्यवस्था पर चलने वाला सेंसेक्स बीस हजारी बन रहा है। क्या यही सफल अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की योग्यता है कि वह महंगाई कम करने के लिए मानसून का रास्ता देख रहे हैं? सरकार के कान खोलने के लिए आम आदमी के पास बंद और हड़ताल के सिवा कोई चारा नहीं बचता, जब सरकार को तेल कंपनियों के घाटे की तो चिंता सताने लगे और इसके लिए वह आम आदमी का गला काटने पर उतारू हो जाए, लेकिन टाटा, बिरला, अंबानी और उन जैसे सैकड़ों पूंजीपतियों को सरकार करों में खरबों रूपये की छूट देने लगे और किसानों की जमीनें छीनकर इन्हें सस्ते दामों में देने लगे। चिंता जताई गई कि एक दिन में बीस हजार करोड़ रूपये के कारोबार का नुकसान हो गया, तो इससे आम आदमी को क्या फर्क पड़ता है। इस बीस हजार करोड़ में देश की सवा अरब आबादी का तो बीस रूपया भी नहीं था।

हां, एक बात जरूर हुई कि देश के मीडिया की बेशर्मी और बेहयाई खुलकर सामने आ गई। ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस हादसे और भोपाल कांड पर फैसले के राष्ट्रव्यापी शोक के बीच टीआरपी के लिए राजू श्रीवास्तव की फूहड़ कॉमेडी और राखी सावंत के ठुमके दिखाने वाले हमारे न्यूज चैनल्स खुलकर आम आदमी के खिलाफ सरकार के समर्थन में उतर आए। जिस मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, वह आम जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के खिलाफ सरकारी भौंपू बन गया। महंगाई पर चिंता जताते वक्त भी इस मीडिया को बस, ऑटो के किराए में वृद्धि की चिंता नहीं होती, बल्कि हवाई यात्रा के किराए में वृद्धि की चिंता होती है।

हार की खीज में लड़खड़ाई जुबां

हार की खीज में लड़खड़ाई जुबां


भारतीय जनता पार्टी के नए-नवेले अध्यक्ष नितिन गडकरी की जुबान एक बार फिर फसल गई है। लालू-मुलायम को कुत्ता कहने के बाद अब गडकरी कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की वल्दियत पूछ रहे हैं। लिहाजा दिग्विजय सिंह भी अपनी वल्दियत न बताकर अब गडकरी से उन्हीं की जुबान में उनकी वल्दियत पूछ रहे हैं। पिछले कुछ समय में भारतीय राजनीति में जबरदस्त गिरावट देखने को मिल रही है और तथाकथित राष्ट्रीय नेता सड़कछाप शब्दावली में एक-दूसरे पर वार कर रहे हैं। इन नेताओं की भाषा सुनकर गली के लफंगे भी शर्मिदा हो रहे हैं। ऎसा नहीं है कि गडकरी ने ऎसा पहली बार ही किया हो। भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद वह कई बार गंदी शब्दावली सामने ला चुके हैं। अभी उन्होंने अफजल गुरू को कांग्रेस का दामाद बताया था। अब गडकरी जी यह भूल गए कि अफजल गुरू तो अब राष्ट्रवादी हो गया है। उसे राष्ट्रवादी होने का प्रमाण-पत्र तो राम जेठमलानी के मार्फत संघ कबीले से मिल चुका है, फिर अफजल गुरू किसका दामाद है?

गडकरी की गंदी जुबान पर संघ कबीला या भाजपा शर्मिदा हो, ऎसा कतई नहीं है, क्योंकि गडकरी जो बक रहे हैं, उसे संघ कबीले का मौन समर्थन है। मिलती-जुलती शब्दावली भाजपा के "पीएम इन वेटिंग" लालकृष्ण आडवाणी पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान प्रयोग कर चुके हैं। आडवाणी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को निकम्मा कहा था। हालांकि संघ कबीला स्वयं को सांस्कृतिक राष्ट्रवादी कहता है और उसका दावा है कि उसकी टकसाल में चरित्रवान स्वयंसेवक गढ़े जाते हैं, लेकिन गडकरी को देखकर समझा जा सकता है कि संघ कबीले का चरित्र और संस्कार क्या है? गडकरी की जुबान लगातार फिसल रही है और संघ के कर्ता-धर्ता मौन साधे बैठे हैं। कहीं ऎसा तो नहीं कि संघ की शाखाओं में इन्हीं संस्कारों की ट्रेनिंग दी जाती है, जो विपक्षी नेताओं का चरित्रहनन करने का कार्य कर रहे हैं। हां, यह जरूर है कि उन्हें जबाव देने के लिए कांग्रेसी नेता भी जिस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वह भी संस्कारित और मर्यादित नहीं है।

जहां तक भाजपा का सवाल है, संघ ने महात्मा गांधी को भी नहीं बख्शा। इंदिरा गांधी के खिलाफ तो सड़कों पर जिस अभद्र और निहायत घटिया शब्दावली का प्रयोग संघ और भाजपा के नेता करते रहे, उसका गवाह सारा देश है। वरूण गांधी, प्रवीण तोगडिया, अशोक सिंघल, विनय कटियार, उमा भारती और ऋतंभरा की शब्दावली का नमूना सारा देश देख चुका है, इसलिए इस समय सिर्फ गडकरी को दोष देना उचित नहीं है, क्योंकि वह तो परंपरा को ही आगे बढ़ा रहे हैं। हां, गडकरी की गंदी जुबान में छिपी संघ-भाजपा की हताशा को समझा जा सकता है। केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने से पहले उसके नेता शालीनता का एक नकली आवरण ओढ़े रहते थे, लेकिन सत्ता में आने के बाद उनका यह नकली आवरण उतर गया और वह अपनी मूल संस्कृति पर उतर आए। भाजपा सरकार के दौरान संसद में सबसे ज्यादा शोरशराबा और हंगामा उसके सांसद करते पाए गए। भाजपा के सांसदों और विधायकों के असभ्य आचरण के कारण सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी हो। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को उम्मीद थी कि वह सता में लौट आएगी, लेकिन जनता ने उसकी सांप्रदायिक और विघटनकारी नीतियों को ठुकराकर सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया और बड़े अरमानों से प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे आडवाणी जी की वेटिंग लिस्ट अंतहीन बन गई। सत्ता में आने का सपना चकनाचूर हो गया।

लोकसभा चुनाव में मात खाई भाजपा की बौखलाहट अब गडकरी जैसे भाजपा नेताओं की बोली में झलक रही है। उधर गडकरी समेत सभी भाजपा नेताओं में खुद को बड़ा हिंदू समर्थक साबित करने की होड़ मची हुई है। इसके लिए उन्हें लगता है कि जो जितना उग्र, हिंसक और असभ्य होगा, वही बड़ा स्वयंसेवक सिद्ध होगा। दूसरा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इन असभ्य नेताओं के बयानों को प्रमुखता देता है, इसलिए चर्चा में बने रहने के लिए भी यह नेता ऊटपटांग बयान देते रहते हैं। गडकरी के साथ एक और दिक्कत यह है कि वह जनता की राजनीति में कभी नहीं रहे हैं।

बुधवार, 14 जुलाई 2010

भारत ने प्रचंड की स‌रकार गिरवाई-आनंद स्वरुप वर्मा

आनन्द स्वरूप वर्मा देश के जाने माने पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। संभवत: नेपाल की राजनीति और खासतौर पर वहां की माओवादी राजनीति पर भारत में उनसे ज्यादा गहराई के साथ कम ही लोग जानते हैं। अपनी बेबाक बयानी के लिए जाने जाने वाले वर्मा जी जब रौ में बोलते हैं तो इतना सच कि जुबां कड़वी हो जाए। जाहिर है सच कड़वा ही होता है। छपास डॉट कॉम के राजनीतिक संपादक अमलेन्दु उपाध्याय ने उनसे नेपाली माओवाद और भारत नेपाल संबंधों पर लम्बी बातचीत की। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के प्रमुख अंश :-

आपकी फिल्म ‘फ्लेम्स ऑफ स्नो’ पर सेंसर बोर्ड ने पाबंदी क्यों लगा दी?




सेंसर बोर्ड का कहना है कि इस देश में अभी जो माओवादी आन्दोलन है, उसका जो विस्तार हुआ है उसे देखते हुए हम इस फिल्म पर रोक लगा रहे हैं। लेकिन हमारा कहना है कि इस फिल्म में भारत के माओवादी आन्दोलन के विषय में एक शब्द भी नहीं कहा गया है, कोई फुटेज भी नहीं है कोई स्टिल भी नहीं है। ऐसी स्थिति में अगर नेपाल के आन्दोलन पर, केवल माओवादी आन्दोलन पर नहीं बल्कि वहां के समग्र आन्दोलन पर कोई फिल्म बनाई जा रही है तो उसको यह बहाना देकर रोकना एकदम अनुचित है। क्योंकि यह फिल्म माओवादी आंदोलन के ऊपर नहीं है बल्कि उसके ऊपर केन्द्रित है। क्योंकि इस फिल्म की शुरूआत होती है जब पृथ्वीनारायण शाह ने नेपाल की स्थापना की थी यानि दो सौ ढाई सौ साल के दौरान जो आन्दोलन हुए उनकी झलक देते हुए यह माओवादी आन्दोलन पर केन्द्रित हो जाती है। क्योंकि यह मुख्य आन्दोलन था जिसने वहां राजशाही को समाप्त किया। अब अगर आप यह कहते हैं कि इस फिल्म से यहां के माओवादियों को प्रेरणा मिलेगी तो किसी एक जनतांत्रिक देश में इस तरह की बात कहकर किसी फिल्म को रोकना अनुचित है। तब तो अगर नेपाल के आन्दोलन पर कोई पुस्तक लिखी जाएगी तो भी प्रेरणा मिलेगी? यह स्थिति तो बिल्कुल जो हमारा फन्डामेन्टल राइट यानि अभिव्यक्ति की आजादी है उसका गला घोंटना है।



क्या भारत का माओवाद और नेपाल का माओवाद अलग-अलग है?



मेरे विचार में हर देश का माओवाद अलग-अलग होता है। क्योंकि जितने भी विचारक रहे हैं मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओत्से तुंग या आज के दौर में प्रचण्ड, सबका यही कहना है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद जो एक सिद्धान्त है, उसको आप अपने देश की सांस्कृतिक, भौगोलिक, राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुरूप लागू कीजिए। हर देश की राजनीतिक सामाजिक पृष्ठभूमि अलग होती है। नेपाल में राजतंत्र था और वहां एक जबर्दस्त सामंती राजनैतिक व्यवस्था थी। उसमें उन्होंने वहां किस परिस्थिति में माओवाद को लागू किया यह उनका मामला है। भारत के माओवाद और नेपाल के माओवाद में बहुत फर्क है। क्योंकि उन्होंने तो चुनाव में भी हिस्सा लिया और सरकार बनाई। जबकि भारत में अभी ऐसी स्थिति नहीं है। दोनों स्थितियों में फर्क तो काफी है। लेकिन नेपाल के माओवादी आन्दोलन से भारत के माओवादी आन्दोलन को प्रेरणा लेने का सवाल है, जैसा कि सेंसर बोर्ड कहता है तो वह यह भी प्रेरणा ले सकते हैं कि किस तरह कोई आन्दोलन आम जनता के बीच न केवल आदिवासियों के बीच पॉपुलर हो सकता है, मध्यवर्ग को भी प्रभावित कर सकता है, मध्यवर्ग को भी अपने दायरे में ले सकता है और वह एक निरंकुश व्यवस्था के खिलाफ सफल हो सकता है। तो दोनों में फर्क तो है। अब भारत में जो लोग हैं जो सत्ता में बैठे हैं जो सेंसर बोर्ड देख रहे हैं उनकी अकल इतनी नहीं है कि इतना विश्लेषण कर सकें।



क्या आपको लगता है कि भारत की सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था माओवादियों के खिलाफ हो चुकी है?



भारत के माओवादियों के?



जी भारत के माओवादियों के



नहीं यह तो एक दूसरा सवाल हो गया क्योंकि इसका मुझसे कोई मतलब नहीं है। ( हंसते हुए) अगर आप हमसे भारत के माओवादी आन्दोलन पर बातचीत करना चाहते हैं तो एक अलग बात है। हमसे तो नेपाल पर ही बात करें।



चलिए नेपाल पर ही केन्द्रित होते हैं। अक्सर यह आरोप लगते रहे हैं कि नेपाल के माओवादियों से भारत के माओवादियों को समर्थन और मदद मिलती रही है और नेपाली माओवादियों का रुख हमेशा से भारत विरोधी रहा है। क्या नेपाली माओवादी वास्तव में भारत विरोधी हैं?




इसके लिए तो आपको यह देखना होगा कि भारत के माओवादियों की केन्द्रीय समिति और उनके बड़े नेता गणपति के हस्ताक्षर से अब से एक डेढ़ साल पहले खुली चिट्ठी नेपाल के माओवादियों को लिखी गई जिसमें नेपाली माओवादी आन्दोलन की तीखी आलोचना की गई। इस पत्र में यह आलोचना की गई कि नेपाली माओवादी क्रांति का रास्ता छोड़ करके संशोधानवादी हो गए। यह तो दोनों के संबंधों की बात है। जहां तक नेपाल के माओवादियों से मदद मिलते रहने की बात है तो वह इस स्थिति में कभी नहीं रहे कि भारत जैसे किसी विशाल देश के किसी संगठन को मदद कर सकें। अगर आप दोनों देशों के एरिया और आबादी की और रिसोर्सेस से तुलना करें तो देखेंगे कि वह भारत के मुकाबले कहीं ठहरते ही नहीं हैं। ऐसे में वह अपने को संभालेंगे कि भारत के माओवादियों की मदद करेंगे। इसलिए कोई भौतिक मदद या इस तरह की मदद की बात नहीं है लेकिन बिरादराना संबंध वह मानते हैं। वह तो भारत के माओवादियों के साथ, पेरू के माओवादियों के साथ, कोलंबिया के माओवादियों के साथ, हर देश के माओवादियों के साथ एक बिरादराना संबंध मानते हैं। वैसे ही भारत के माओवादियों के साथ मानते हैं। इससे ज्यादा उनका कोई लेना देना नहीं है।



लेकिन प्रचण्ड प्रधानमंत्री बनते ही पहले चीन गए जबकि परंपरा रही है कि नेपाल का राजनेता पहले भारत आता है। वैसे भी हम नेपाल के ज्यादा नजदीक हैं, क्योंकि हमारे सदियों पुराने संबंधा नेपाल से हैं। इस कदम से नहीं लगा कि प्रचण्ड के मन में भारत के प्रति कोई गांठ है?



देखिए यह कौन सी परंपरा है कि कोई प्रधानमंत्री जो बनेगा वह पहले भारत आएगा? भारत कोई मंदिर है जो वहां जाएगा और मत्था टेकेगा? जहां तक मेरा सवाल है मैं इस परंपरा के एकदम खिलाफ हूं। दूसरी बात किन परिस्थितियों में प्रचण्ड भारत न आकर चीन गए उसे देखना पड़ेगा। किसी भी विषय पर बात करते समय उस पूरी प्रक्रिया को देख लीजिए न कि केवल परिणिति। केवल परिणिति को देखने पर सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंचेंगे। वह पूरी प्रक्रिया क्या थी मैं आपको थोड़ा संक्षेप में बता दूं। वहां पर बीजिंग में ओलंपिक खेल चल रहे थे चीन में। खेलों के उद्धाटन के समय चीन ने वहां के राष्ट्रपति को निमंत्रण दिया। रामबरन यादव को, जो नेपाली कांग्रेस के हैं। वह जब निमंत्रण मिला तो भारत के नेपाल में राजदूत राकेश सूद ने राष्ट्रपति से कहा कि आप चीन मत जाइए, इससे भारत को अच्छा नहीं लगेगा। तो राष्ट्रपति ने कहा कि हम नहीं जाएंगे। अब केवल बात राष्ट्रपति और राकेश सूद के बीच की होती तो यह किसी भी तरह स्वीकार्य हो सकती थी। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह भी स्वीकार्य नहीं है। लेकिन डिप्लोमैटिक रूप से एकबारगी यह स्वीकार्य हो सकता है। लेकिन राकेश सूद ने यह जानकारी प्रेस को दी कि हमने मना कर दिया और राष्ट्रपति नहीं गए। अब नेपाल की आम जनता को यह बात बहुत अच्छी नहीं लगी कि हमारे राष्ट्रपति को एक, मतलब राष्ट्रपति तो बहुत बड़ा पद है न, राष्ट्रपति को एक ब्यूरोक्रेट भारत का मना कर दे और वह मान जाए। जब समापन समारोह के लिए, तब यह प्रचण्ड प्रधानमंत्री नहीं बने थे, 15 अगस्त 2008 को बने हैं, और उनको जाना था 16 या 17 अगस्त को, इनको भी निमंत्रण मिला समापन समारोह के लिए और प्रचण्ड ने स्वीकृति दे दी थी। राकेश सूद ने उन्हें भी मना किया कि आप मत जाइए। तब प्रचण्ड ने कहा कि मैंने स्वीकृति दे दी है तो फिर सूद ने कहा कि आप मत जाइए भारत को अच्छा नहीं लगेगा। उन्होंने कहा मैं क्यों नहीं जाऊं जब मैंने स्वीकृति दे दी है मैं जाऊंगा। और वह चले गए। मान लीजिए कि प्रचण्ड उस समय नहीं जाते और राकेश सूद इस बात को भी प्रेस में देता ही कि हमने मना किया तो एक संप्रभु राष्ट्र के राष्ट्रपति और प्रधाानमंत्री को भारत का राजदूत मना कर दे कि आप यह न करें वह न करो, यह उचित नहीं है। इसलिए अपनी देश की जनता की भावनाओं को देखते हुए प्रचण्ड के लिए चीन जाना जरूरी हो गया था। अगर राकेश सूद ने यह गड़बड़ियां नहीं की होतीं तो शायद वह इसको एवायड भी कर सकते थे। इसलिए इस घटना का विश्लेषण पूरी परिस्थिति देखकर ही करना चाहिए। हालांकि प्रचण्ड ने भी इसके बाद जो कहा मैं उससे भी बहुत सहमत नहीं हूं कि ‘मेरी पहली राजनीतिक यात्रा तो भारत की ही होगी। क्या जरूरत थी यह भी कहने की। नेपाल एक संप्रभु राष्ट्र है वह भारत का कोई सूबा नहीं है कोई प्रॉविंस नहीं है कोई प्रांत नहीं है।



देखने में आ रहा है कि माओवादियों का आन्दोलन नेपाल में भी कुछ कमजोर पड़ता जा रहा है और आम जनता पर उनकी पकड़ कुछ ढीली पड़ती जा रही है। क्या कारण हैं कि माओवादी कमजोर पड़ रहे हैं?



यह कहने का आधार कोई है?



जी बिल्कुल। अभी उन्होंने हड़ताल का आह्वान किया और लोगों ने सड़को पर उतरकर उसका विरोधा किया तो उन्हें हड़ताल वापस लेनी पड़ी?



नहीं। एक मई को जो हड़ताल का आह्वान किया था, वह आप नेपाल के किसी भी सोर्स से पता कर लीजिए अखबार से, जो बुर्जुआ अखबार हैं उनसे मालूम कीजिए वह अब तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन था। रहा सवाल यह हड़ताल वापस लेने का तो वैसे भी उस को चार पांच दिन से अधिक नहीं चलाते क्योंकि उससे वहां की आम जनता को काफी दिक्कतें उठानी पड़तीं। लेकिन एक चीज का ध्यान दीजिए कि राजतंत्र समाप्त तो हो गया, भौतिक रूप से समाप्त हो गया। लेकिन अभी तमाम राजावादी तत्व सभी पार्टियों में मौजूद हैं। सामन्तवाद वहां अभी मौजूद है, वह तो समाप्त नहीं हुआ है। तो बहुत सारे ऐसे तत्व हैं जो इस समय अपने को माओवादियों के खिलाफ लामबंद कर रहे हैं। पिछले एक वर्ष के दौरान माओवाद विरोधी ताकतों को नजदीक आने का एक अच्छा मौका मिला है। इसमें बहुत सारी अन्तर्राष्ट्रीय ताकतें जिसमें अमेरिका और स्वयं भारत भी शामिल है, इन्होंने माओवाद के खिलाफ तत्वों की मदद की है। निश्चित रूप से जो खबरें आई हैं वह सही हैं कि कुछ प्रदर्शन हुए हैं काठमांडू में लेकिन काठमांडू और शहर तो कभी भी माओवादियों के आधार नहीं रहे उनका आधार तो ग्रामीण इलाका है। काठमांडू में जरूर इस तरह के तत्व हैं लेकिन केवल इस आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि उनकी पकड़ कमजोर पड़ गई है। क्योंकि जिस दिन माओवादियों की पकड़ कमजोर पड़ जाएगी उन्हें नष्ट करने में एक मिनट का भी समय वह ताकतें नहीं लगाएंगी जो उनकी विरोधी हैं।



प्रचण्ड ने बीच में एक बार आरोप लगाया था कि उनकी सरकार गिराने में विदेशी ताकतों का हाथ था और खासतौर पर उन्होंने भारत की तरफ इशारा किया था और आपने सुना भी होगा कि योगी आदित्यनाथ ने बयान दिया था कि राजतंत्र की बहाली के लिए वह नेपाल जाएंगे, बाबा रामदेव भी वहां गए और आरएसएस के प्रचारक इन्द्रेश जी के भी नेपाल में पड़े रहने की खबरें आई थीं। तो क्या आपको लगता है कि भारत की दक्षिणपंथी ताकतें माओवादियों के खिलाफ नेपाल में काम कर रही हैं?



जी हां, प्रचण्ड ने केवल संकेत ही नहीं दिया था बल्कि उन्होंने खुलकर कहा था कि भारत ने उनकी सरकार गिराने में पूरी मदद की थी। और उसकी वजह थी कि सेनाध्यक्ष रुकमांगद कटवाल वाला प्रकरण। कटवाल को जब प्रचण्ड ने बर्खास्त किया तो तीन-तीन बार कटवाल ने प्रधानमंत्री के आदेशों की अवहेलना की थी। इसलिए जरूरी हो गया था उन्हें बर्खास्त करना। उस समय भी राकेश सूद ने प्रचण्ड से कहा था कि अगर आप कटवाल को बर्खास्त करेंगे तो इसके बहुत गम्भीर परिणाम होंगे। अपमानजनक शब्दावली प्रयोग की थी हमारे राजदूत ने। इस राजदूत ने तो ठेका ले रखा है नेपाल की जनता को भारत विरोधी बनाने का। जबकि हम लोग लगातार यह प्रयास करते हैं कि दोनों देशों की जनता के बीच एक सद्भाव बना रहे। लेकिन राकेश सूद की वजह से यह सद्भाव बहुत समय तक बना नहीं रह पाएगा। इसके बाद प्रचण्ड ने कटवाल को बर्खास्त किया। एक निर्वाचित प्रधानमंत्री को यह अधिकार है कि वह सेनाधयक्ष को बर्खास्त कर सके। उन्होंने बर्खास्त किया और राष्ट्रपति ने उन्हें बहाल कर दिया। उन राजनीतिक दलों ने खासतौर पर नेकपा एमाले जो वहां की प्रमुख राजनीतिक दल है उसके अधयक्ष झलनाथ खनाल ने, जिनकी पार्टी सरकार में शामिल थी, वायदा किया कि कटवाल की बर्खास्तगी का वह समर्थन करेंगे। लेकिन जब प्रचण्ड ने बर्खास्त किया तो उन्होंने समर्थन वापस ले लिया। यह प्रचण्ड का मानना है और वहां की जनता का मानना है कि नेकपा एमाले ने जो समर्थन वापिस लिया वह भारत के इशारे पर वापिस लिया। अब यह बात सही है या गलत मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। लेकिन आम नेपाली जनता के अन्दर धारणा यही है, राकेश सूद की हरकतों की वजह से, कि भारत ने ही प्रचण्ड की सरकार गिराने में मदद की। और यही बात प्रचण्ड ने भी कही है। तो एक बात तो है कि भारत की भूमिका इस समय अच्छी नहीं रही। जिस समय नवंबर 2005 में बारह सूत्रीय समझौता हुआ था उसके बाद से भारत की बहुत अच्छी गुडविल बन गई थी नेपाल में। और नेपाली जनता भारत सरकार के प्रति सकारात्मक रुख अख्तियार कर रही थी। लेकिन कटवाल प्रसंग के बाद से लगातार एक के बाद एक कई घटनाएं ऐसी हो चुकी हैं जिनसे नेपाली जनता को लग रहा है कि भारत उसके हितों के खिलाफ काम कर रहा है। हाल के ही अखबार उठाकर देखिए, कांतिपुर और काठमांडू पोस्ट जो वहां के दो बड़े अखबार हैं, और यह माओवादी अखबार नहीं हैं। बाकायदा अखबार हैं जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया है या इंडियन एक्सप्रेस है, इनके प्रिन्ट के कोटा को अट्ठाइस दिन से यहां रोक रखा है कलकत्ता बंदरगाह पर भारत सरकार के अधिकारियों ने। महज इसलिए कि इस अखबार ने लगातार यह लिखा कि मौजूदा परिस्थिति में माधाव नेपाल को इस्तीफा दे देना चाहिए ताकि एक आम सहमति की सरकार बन सके। माधाव नेपाल की सरकार को चूंकि भारत सरकार समर्थन कर रही है इसलिए इनको यह चीज नागवार लगी। इतना ही नहीं राकेश सूद ने वहां के उद्योगपतियों को जो भारतीय उद्योगपति हैं, बुलाकर कहा कि आप लोग कांतिपुर को, काठमांडू पोस्ट को और कांतिपुर टेलीविजन को विज्ञापन देना बन्द कर दें। तो यह सारी चीजें जो हो रही हैं वह दोनों देशों की जनता के संबंधों को बहुत खराब करेंगी। मेरी चिन्ता यह है और अगर दोनों देशों के संबंध तनावपूर्ण होते हैं तो उससे नेपाल का नुकसान तो होगा ही क्योंकि वह छोटा देश है लेकिन भारत का भी कोई बहुत भला नहीं होने जा रहा है।



अगर प्रचण्ड यह समझ लेते कि कटवाल को बर्खास्त करने से भारत की तरफ से इस तरह का हस्तक्षेप हो सकता है तो क्या स्थिति थोड़ी सुधार सकती थी?



नहीं प्रचण्ड को तो यह मालूम पड़ गया था कि अगर हम कटवाल को बर्खास्त करेंगे तो ऐसा होगा क्योंकि उन्हें बहुत खुलकर धामकी दी थी राकेश सूद ने और शायद इस धामकी के जवाब में ही उन्हें कटवाल को बर्खास्त करना और ज्यादा जरूरी हो गया था। क्योंकि अतीत में भारत सरकार के राजदूतों के या भारत सरकार के ब्यूरोक्रेट्स की यह आदत पड़ गई थी कि वह नेपाल के प्रधानमंत्रियों को कुछ भी कह कर अपनी मनमर्जी करवाते थे। कम से कम प्रचण्ड के साथ यह बात नहीं है। उन्होंने कभी यह नहीं कहा, देखिए अगर आज नेपाल के अन्दर साक्षात् माओत्से-तुंग भी शासन करने आ जाएं तो भारत के साथ किसी तरह की दुश्मनी एफोर्ड नहीं कर सकते। इसको प्रचण्ड अच्छी तरह जानते हैं कि भारत से नेपाल तीन तरफ से घिरा हुआ है, यूं कहिए इण्डिया लॉक्ड कंट्री है। ठीक है। भारत से यह नाराजगी मोल लेंगे तो भारत उनकी जनता को कितना कष्ट पहुंचाएगा? तो अगर कोई पार्टी या कोई पार्टी का राजनेता जो सचमुच जनता के हितों की परवाह करता होगा, मैं यह मानता हूं कि माओवादी जनता की हितों की ज्यादा परवाह करते हैं और पार्टियों के मुकाबले, तो वह कभी नहीं चाहेगा कि भारत के साथ शत्रुतापूर्ण संबंधा हों, और प्रचण्ड ने कई मौकों पर यह कहा है कि हमारे पड़ोसी दो जरूर हैं चीन और भारत। हम राजनीतिक तौर से एक समान इक्वल डिस्टेंस रखेंगे दोनों से। लेकिन भारत के साथ हमारे जो संबंध हैं, सांस्कृतिक संबंध, भौगोलिक संबंध, इनकी कोई तुलना ही नहीं हो सकती चीन से। हमारे और भारत के बीच में रोटी और बेटी का संबंध है, यह शब्द प्रचण्ड ने इस्तेमाल किए थे। तो जब पूरा कल्चरली एक है, दोनों की खुली सीमा है। बिहार का एक बहुत बड़ा हिस्सा खुले रूप से नेपाल आता जाता है। तो ऐसी स्थिति में प्रचण्ड खुद ऐसा नहीं चाहेंगे कि भारत के साथ हमारे संबंधा कटु हों। लेकिन उसके साथ-साथ एक संप्रभु राष्ट्र होने के नाते प्रचण्ड यह जरूर चाहेंगे कि भारत हमारी संप्रभुता का सम्मान करे। छोटे देश और बड़े देश में आकार तो हो सकता है कि अलगृअलग हों लेकिन कहीं यह नहीं होता है कि छोटे देश की संप्रभुता छोटी हो और बड़े देश की संप्रभुता बड़ी हो। अगर ऐसा होता तो इंग्लैण्ड की संप्रभुता तो बड़ी छोटी होती, जो ढाई सौ तीन सौ साल तक भारत पर शासन कर सकी। इसलिए संप्रभुता छोटी बड़ी नहीं होती है देश का आकार छोटा बड़ा होता है। इस बात को भारत का ब्यूरोक्रेट नहीं समझता है। इसलिए जरूरत यह है रूलिंग क्लास के माइंड सेट को बदलने की।



एक आरोप यह लगता रहा है कि जैसा आपने भी कहा कि यहां का जो रूलिंग क्लास ब्यूरोक्रेट है, यह भारत की विदेश नीति के साथ हमेशा कुछ न कुछ गड़बड़ करता रहता है। कहीं न कहीं इसके पीछे इस वर्ग के अपने कुछ निहित स्वार्थ होते हैं या कुछ और इंट्रैस्ट होते हैं? क्या यह आरोप सही है?



देखिए प्रमाण तो कोई नहीं हैं। लेकिन निश्चित तौर पर आखिर क्या वजह है कि किसी भी पड़ोसी देश के साथ हमारे संबंधा अच्छे नहीं हैं। कुछ चीजें तो हैं जो हमारे वश में नहीं हैं। भौगोलिक सीमा, ठीक है भारत एक बड़ा देश है, उसके लिए हम कुछ नहीं कर सकते। बड़े देश का एरोगेन्स तो हम रोक सकते हैं न! तो यह जो प्रॉब्लम है। भूटान के राजतंत्र को हम लगातार समर्थन देते रहे हैं। आप समर्थन दीजिए लेकिन किसकी कॉस्ट पर? वहां की जनता जो रिफ्यूजी बना दी गई जनतंत्र की मांग करने पर! यह हमारी नीति है। और हम दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र हैं और हम दुनिया के सबसे सड़े गले राजतंत्र को समर्थन देते रहे आम जनता के साथ धोखा करके। तो यह बड़ी शर्मनाक स्थिति है और यह हमारी विदेश नीति की असफलता है कि आज सारे पड़ोसी देश हमसे खतरा महसूस करते हैं। बजाय इसके कि अगर आप एक बड़े भाई की तरह रहते या जुड़वां भाई की तरह रहते तो वह चीज नहीं है।

शुक्रवार, 18 जून 2010

दामन छुड़ाने की बेकरारी

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने प्रतिद्वन्दी लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के संबंधों को लेकर अभी कुछेक दिन पहले ही कहा था कि लालू जी पटना में कुछ बोलते हैं और दिल्ली में कुछ और। लेकिन अब यही बात नीतीश कुमार के ऊपर भी फिट बैठ रही है। नीतीश भी लुधियाना में कुछ करते हैं और पटना में अगर लुधियाना को याद कर लिया जाए तो उन्हें क्रोध आ जाता है।




पिछले दिनों पटना में आयोजित भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान नरेन्द्र मोदी और नीतीश का हाथ पकड़े लुधियाना के पोस्टर जारी होने पर नीतीश कुमार आग बबूला हो गए और एकबारगी तो ऐसा लगा कि जद-यू और भाजपा गठबंधन की गांठ खुलने की घड़ी आ गई है। लेकिन जैसा कि तय था यह जोड़ इतनी आसानी से नहीं टूटने वाला था और नहीं टूटा। हालांकि दोनों ही दल एक दूसरे से दामन छुड़ाना भी चाहते हैं क्योंकि यह गठबंधन स्वाभाविक नहीं है। दोनों के बीच सत्ता की मजबूरी है इसीलिए दोनों एक दूसरे से अलग होना तो चाहते हैं लेकिन हो नहीं पाते।

लोकसभा चुनाव में जद-यू को मिली अपार सफलता से नीतीश कुमार का हौसला एकाएक काफी बढ़ गया था और उन्हें लगने लगा था कि अगर दलित और मुसलमानों के वोट उनके लिए पक्के हो जाएं तो उन्हें भाजपा को ढोने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। लेकिन उसके बाद हुए उपचुनावों में लालू को मिली जबर्दस्त सफलता और जद-यू की करारी हार से नीतीश को हकीकत जल्दी ही समझ में आ गई। दरअसल लोकसभा चुनाव में मुसलमान वोट भाजपा की केन्द्र में बन रही संभावनाओं से घबराकर कांग्रेस की झोली में चला गया था जिसके चलते लालू को हार का मुंह देखना पड़ा और इसका सीधा फायदा जद-यू को हुआ। लेकिन विधानसभा चुनाव में निश्चित तौर पर यह स्थिति नहीं रहने वाली है। क्योंकि अब कांग्रेस उतना बड़ा फैक्टर नहीं होगी कि लालू को कुछ नुकसान और नीतीश को फायदा पहुंचा पाए। ऐसे में नीतीश की हरचंद कोशिश है कि उन्हें कुछ मुस्लिम वोट भी मिल जाएं। लेकिन भाजपा के मोदी प्रचार ने नीतीश की सारी संभावनाओं पर एकाएक पानी फेर दिया। इसी से आग बबूला नीतीश ने भाजपा नेताओं को दिया जाने वाला भोज भी रद्द कर दिया।



नीतीश-मोदी

नीतीश की नाराजगी भाजपा से इतनी नहीं थी जितना उन्हें मुस्लिम वोटों के छिटकने का डर था। इसीलिए उन्होंने पोस्टर छापने वालों के खिलाफ कानूनी धमकी दी। लेकिन इसमें भी चालाकी चली गई। नीतीश अच्छी तरह समझ गए हैं कि अकेले उन्हें सत्ता में वापसी करना नामुमकिन है और बाद में भी उन्हें भाजपा की आवश्यकता हो सकती है लेकिन मजबूरी यह है कि अगर थोड़ा मुस्लिम वोट नहीं मिला तो वापसी नामुमकिन है। इसलिए पोस्टर जारी करने वाली विज्ञापन एजेंसी के खिलाफ कार्रवाई की गई ताकि मोदी से नाराजगी का नाटक भी पूरा हो जाए और भाजपा से संबंध भी न बिगड़े। दूसरे नीतीश चाहते हैं कि भाजपा से पिंड तो छूटे लेकिन इसका इलजाम उनके सिर न आए बल्कि भाजपा के सिर ही यह ठीकरा फूटे।



उधर भाजपा की अपनी परेशानी यह है कि उसे राष्टीय पार्टी और कांग्रेस का विकल्प बनने के लिए उत्तर प्रदेश जैसे दोनों बड़े हिन्दी प्रदेशों में नम्बर एक बनना पड़ेगा। उत्तर प्रदेश में उसकी ऐसी कोई संभावना हाल फिलहाल नहीं है। वहां मायावती और मुलायम ने उसके लिए कोई स्पेस नहीं छोड़ा है और जो थोड़ा बहुत स्पेस बनता भी है उसे कांग्रेस छीने ले रही है। बचा बिहार। वहां भी वह अकेले कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है। वहां से नीतीश जैसा विश्वस्त सहयोगी उसे चाहिए। जिसके कंधे पर सवार होकर वह बिहार में अपनी नैया पार लगा सके। लेकिन बीच बीच में नीतीश की कांग्रेस से बढ़ती नजदीकियों की चर्चा और भाजपा से हाथ छुड़ाने की अकुलाहट से भगवा नेतृत्व चिंतित है। इसी के मद्देनजर भाजपा नेतृत्व एक विकल्प बनाकर रखना चाहता है कि अगर ऐन वक्त पर नीतीश बांह झटककर जाते हैं तो कम से कम उसकी छीछालेदर न हो और वह यह बता सके कि वह तो पहले से ही अकेले लड़ने को तैयार थी। इसी रणनीति के तहत भाजपा का दोयम दर्जे का नेतृत्व तो नीतीश के खिलाफ हमलावर रहा लेकिन पहली लाइन के नेताओं ने नीतीश के खिलाफ कुछ बोलने से बचना ही बेहतर समझा और नीतीश के स्थान पर अपने नेता सुशील मोदी की तारीफ के पुल बांधे और नीतीश को यह संदेश देने का प्रयास किया कि अगर वह जाना चाहते हैं तो जाएं। इस तरह भाजपा नेतृत्व ने एक कदम आगे दो कदम पीछे की रणनीति अपनाई और नीतीश ने भी भाजपा से झगड़ा करना उचित नहीं समझा और मामले को नीतीश बनाम नरेन्द्र मोदी बनाने का प्रयास किया और कहा कि उनका संबंध तो बिहार भाजपा से है, नरेन्द्र मोदी का बिहार में क्या काम है?



ऐसा नहीं है कि नीतीश को नरेन्द्र मोदी से कोई बड़ी नाराजगी है या वह उन्हें नापसन्द करते हैं या मोदी उनके लिए अछूत हैं। लेकिन क्या करें वोट बैंक जो सवाल है। वरना जब लुधियाना में वह नरेन्द्र मोदी से गलबाहियां कर रहे थे तब सिद्धान्त कहां चले गए थे? दूसरा नीतीश साबित क्या करना चाहते हैं? यही कि भाजपा पाक साफ है और केवल मोदी ही अछूत हैं? याद होगा लुधियाना से पटना लौटने पर मोदी के साथ हाथ मिलाने के प्रश्न पर नीतीश ने कितनी मासूमियत से उत्तर दिया कि जब मोदी ने हाथ पकड़ लिया तो क्या करता? जबकि नीतीश ने लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी को बिहार नहीं आने दिया था और कहा था कि वह मोदी के साथ एक मंच पर नहीं आएंगे। दरअसल राजनेताओं को यह गलतफहमी होती है कि जनता मूर्ख है और वह उसे जिस तरह हांकेंगे वह हंक जाएगी। लेकिन यह भ्रम ही है। जाहिर सी बात है कि नरेन्द्र मोदी संघ की पौधशाला की उपज हैं और उतने ही बड़े स्वयंसेवक हैं जितने बड़े वाजपेयी या अडवाणी। फिर मोदी से इतनी ही नाराजगी थी तो उन्हें बिहार सरकार ने राज्य के अतिथि का दर्जा क्यों दिया? यह तो वही बात हुई गुड़ खाए और गुलगुलों से परहेज!



दरअसल यह झगड़ा प्रायोजित कार्यक्रम था। भाजपा और नीतीश दोनों इस बात पर रजामंद थे कि ऐसा दिखाया जाए। ताकि भाजपा से मेलजोल के चलते नीतीश के मुस्लिम वोट पर कोई आंच नहीं आने पाए। इसमें दोनों कामयाब भी रहे। लेकिन जनता यह स्वीकार कर ले तभी यह प्रहसन कामयाब है। वैसे दोहरा चरित्र समाजवादियों का अन्तर्राष्ट्रीय चरित्र है। यह जर्मनी में हिटलर के साथ खड़े थे, डॉ. लोहिया जनसंघ के साथ खड़े थे, मुलायम सिंह कल्याण सिंह के साथ खड़े थे और नीतीश, शरद, जार्ज ,मोदी, तोगड़िया और अडवाणी के साथ खड़े हैं।

सोमवार, 14 जून 2010

सुधरते क्यों नहीं लाशों के सौदागर

भोपाल गैस कांड के सबसे बड़े मुजरिम वारेन एंडरसन को भारत से भगाने को लेकर आरोप- प्रत्यारोप का दौर जारी है। इस मामले में एकमात्र जीवित बचे अहम गवाह अर्जुन सिंह की चुप्पी और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का अपनी ही तत्कालीन केन्द्र सरकार पर अप्रत्यक्ष वार भी मामले को गम्भीर बना रहा है। इस राजनीति के खेल में असल सवाल पीछे छूटते जा रहे हैं और भोपाल के पीड़ितों के जख़्म और हरे होते जा रहे हैं। सवाल यह है कि अगर यह सच सामने आ भी जाए कि एंडरसन को भगाने में किसकी मुख्य भूमिका थी, तो क्या पीड़ितों के जख्म भर जाएंगे? क्या इससे एंडरसन भारत को मिल जाएगा?




मीडिया की रिपोर्ट्स में यह बात तो खुलकर सामने आ गई है कि एंडरसन को भगाने के लिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के आदेश थे। लेकिन अकेले अर्जुन सिंह के बल पर एंडरसन भारत छोड़कर नहीं भाग सकता था, जब तक कि केन्द्र सरकार का वरदहस्त उसे हासिल नहीं हो। भले ही आज अर्जुन सिंह उसी तरह का दबाव महसूस कर रहे हों जैसा कि एंडरसन को भगाते वक्त महसूस कर रहे थे, लेकिन एक बात तो साफ है कि अगर अर्जुन सिंह इसके अकेले गुनाहगार होते तो एंडरसन गिरफ्तार ही नहीं हुआ होता। फिर एंडरसन अकेले अर्जुन के दम पर तत्कालीन राष्ट्रपति का मेहमान नहीं बन सकता था।



अब भले ही कांग्रेसजन दलील दें कि तत्कालीन राज्य सरकार ने ही एंडरसन को भागने दिया। लेकिन यह राज्य सरकार थी किसकी ? कांग्रेस की ही न ? तो कांग्रेस अपनी नैतिक जिममेदारी से कैसे मुंह चुरा सकती है ? जो लोग कांग्रेसी कल्चर से वाकिफ हैं वह अच्छी तरह जानते हैं कि उस समय एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री की औकात गांधी दरबार में एक थाने के दरोगा से ज्यादा नहीं होती थी और इतना बड़ा फैसला लेने के बाद तो उसका मुख्यमंत्री बने रहना संभव ही नहीं था।



इसलिए एक बात तो साफ है कि एंडरसन को बचाने में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता, भले ही आरके धवन, जयंती नटराजन और सत्यव्रत चतुर्वेदी कुछ भी सफाई देते रहें। इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि अगर अर्जुन सिंह पर दबाव ज्ञानी जैल सिंह की तरफ से होता तो उन्हें जुबान खोलने में एक मिनट भी नहीं लगता। क्योंकि उस समय तक ज्ञानी जी की हैसियत आज से दो साल पहले तक के मनमोहन सिंह से ज्यादा नहीं थी। उनकी चुप्पी ही बयां कर रही है कि उनके ऊपर उस समय भी गांधी (राजीव) का दबाव था और आज भी गांधी ( सोनिया) का दबाव है। वैसे भी अर्जुन सिंह गांधी परिवार के बहुत वफादार रहे हैं इसलिए यह तय है कि वह मरते समय सच बोलकर अपनी जिन्दगी भर की वफादारी पर पानी नहीं फेरेंगे।



यह तो तय होता रहेगा कि एंडरसन को बचाने वाले कौन लोग थे। लेकिन अहम सवाल यह है कि भोपाल के पीड़ितों के साथ लगातार छल कौन कर रहा है? क्या कांग्रेस कर रही है या भाजपा कर रही है? ईमानदार उत्तर यही है कि दोनों ही अपनी ओछी हरकतों से आज भी बाज नहीं आ रहे हैं और दोनों ही छह लाख पीड़ितों के उतने ही गुनाहगार हैं जितना एंडरसन।



यूनियन कार्बाइड को खरीदने वाली डाउ कैमिकल्स को उसकी जिम्मेदारियों से मुक्ति तो मनमोहन सिंह सरकार ने ही दी है जबकि भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने अदालत के बाहर यूनियन कार्बाइड से तयशुदा रकम से काफी कम पर समझौता कर लिया। भारत सरकार ने मुआवजे के लिए 3.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर का मुकदमा दायर किया था लेकिन वाजपेयी सरकार ने 470 मिलियन अमेरिकी डॉलर पर ही उससे समझौता कर लिया। इतना ही नहीं डाउ कैमिकल्स से भारतीय जनता पार्टी ने चन्दा भी लिया और वह हिन्दुत्व की प्रयोगशाला गुजरात की मोदी टाइप अस्मिता में चार चांद लगा रही है।



आज एंडरसन को भारत लाना जितना जरूरी है उससे ज्यादा पीड़ितों का पुनर्वास और उनका उपचार जरूरी है। क्या कांग्रेस और भाजपा दोनों ही इस बात का उत्तर दे सकती हैं कि पिछले पच्चीस सालों में उनकी सरकारों ने गैस पीड़ितों के उपचार के लिए कितने नए अस्पताल खोले? कितने पीड़ितों को रोजगार मुहैया कराया?



इसलिए बेहतर यही है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही भोपाल की लाशों पर कम से कम अब तो राजनीति बन्द कर दें। क्योंकि कुदरत अपने तरीके से इंतकाम लेती है। ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं हैं। सारी दुनिया राजीव गांधी का हश्र देखा है। क्या यह भोपाल के पीड़ितों की आह का असर था? अगर ऐसा है तो लाशों के सौदागरों को सुधर जाना चाहिए।

मंगलवार, 8 जून 2010

15000 बेगुनाहों का पद्म भूषण हत्यारा

अस्सी के दशक में मेरठ के दंगों के बाद मशहूर शायर बशीर बद्र ने कहा था- 'तेग़ मुंसिफ हो जहां दारो रसन हो शाहिद/ बेगुनाह कौन है इस शहर में क़ातिल के सिवा?' (यानी जहां तलवार जज हो और फांसी का फंदा गवाह हो, उस शहर में क़ातिल के अलावा बेगुनाह कौन है)। अजब इत्तेफाक है कि बद्र साहब मेरठ को छोड़कर नवाबों के शहर भोपाल में जा बसे। लेकिन आज जब भोपाल गैस त्रासदी का 25 वर्ष बाद फैसला आया तो उनका मेरठ पर कहा गया शेर भोपाल पर भी फिट बैठा।




पन्द्रह हजार लोगों के क़ातिलों को 25 वर्ष चले मुकदमे के बाद महज दो साल की सजा सुनाई गई जिसे कुल जमा 25 हजार रुपये के मुचलके पर उन्हें तत्काल रिहा भी कर दिया गया। तमाशा यह है कि भोपाल के सबसे बड़े मुजरिम एंडरसन को भारत सरकार आज तक अमरीका से मांगने की जुर्रत भी नहीं कर पाई। भगोड़ा एंडरसन भारत सरकार और भोपाल गैस पीड़ितों को मुंह चिढ़ाते हुए आज भी अमरीका में ऐश-ओ-आराम से रह रहा है और हमारे प्रधानमंत्री जब अमरीका जाते हैं तो जॉर्ज बुश को भारत का प्यार देकर आते हैं ताकि फिर कोई यूनियन कार्बाइड भोपाल कांड को अंजाम दे। जबकि भोपाल के पीड़ित हर पल तड़प् तड़प् कर जी रहे हैं और पिछले पच्चीस सालों से सजा भुगत रहे हैं।



भोपाल गैस त्रासदी पर आया अदालत का फैसला हमारे लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था के मुंह पर करारा तमाचा है। इस फैसले ने साबित कर दिया है कि मुल्क में ताकतवर अमीरों के लिए कानून अलग ढंग से काम करता है और जिस न्यायपालिका के निष्पक्ष होने का ढिंढोरा पीटा जाता है वह दुनिया का सबसे बड़ा झूठ है। क्या न्यायपालिका क्या सरकार क्या सीबीआई सब के सब भोपाल के क़ातिलों के हक़ में खड़े दिखाई दिए हैं।



मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा है कि वह सजा बढ़वाए जाने के लिए कानून बनाए जाने का अनुरोध प्रधानमंत्री से करेंगे और कानून मंत्री वीरप्पा मोइली भी कड़ी सजा दिलाए जाने की बात कर रहे हैं। लेकिन जब तक यह कानून बनेगा (पता नहीं कब बनेगा?) भोपाल के बेगुनाहों के क़ातिल आरामतलब ज़िन्दगी पूरी करके अल्लाह को प्यारे हो चुके होंगे और पीड़ितों की आने वाली नस्लें भी सजा भुगत रही होंगी?



आज भले ही कानून मंत्री वीरप्पा मोइली कह रहे हों कि यह फैसला पीड़ितों के साथ मज़ाक है लेकिन यह भी कड़वा सच है कि यह मजाक करवाने के लिए भी तत्कालीन और वर्तमान कांग्रेसी सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं है। आखिर कैसे बिना तत्कालीन कांग्रेस सरकार के सहयोग के मुख्य हत्यारा एंडरसन भारत छोड़कर भाग निकला? कैसे बिना सरकार के सहयोग के यूनियन कार्बाइड अपना हिस्सा बेचने में सफल हो गई? जाहिर है क़ातिलों के हाथ बहुत लम्बे थे इतने लम्बे कि उच्चतम न्यायालय का एक फैसला भी उनको बचाने में मददगार ही साबित हुआ।



भोपाल का फैसला हमारे पूरे सिस्टम पर सवालिया निशान लगाता है। इस फैसले से न्यायपालिका की भी साख गिरी है। सीबीआई और सरकार को तो लोग क़ातिलों के हमराही मान ही चुके हैं लेकिन उच्चतम न्यायालय की साख को भी बट्टा लगा है। सवाल यहां सियासी जमातों से हो सकता है कि अफजल गुरू को फांसी के फंदे पर लटकवा देने को बेकरार लोगों की जुबां पर पिछले पच्चीस सालों में एक बार भी एंडरसन को फांसी पर चढ़ा देने की बात क्यों नहीं आई? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि अफजल की फांसी से कुछ सियासतदानों को फायदा हो सकता है और भोपाल के बेगुनाहों के क़ातिलों को सजा मिलने से सियासी फायदा नहीं होगा?



भारत सरकार रोज पाकिस्तान से हाफिज़ सईद और लखवी को मांगती है। लेकिन क्या एक बार भी एंडरसन को अमरीका से मांगने का हौसला दिखाया गया। अमरीका से परमाणु करार करने के लिए अपनी सरकार को दांव पर लगा देने वाले अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री क्यों अमरीका से यह कहने का हौसला नहीं जुटा पाए कि जब तक हमें एंडरसन नहीं दोगे तुमसे कोई बात नहीं होगी? सईद और लखवी तो फिर भी कुछ लोगों को मारने के लिए अपने कुछ लोगों को मरवाते भी हैं लेकिन एंडरसन तो एक रात में पन्द्रह हजार लोगों का क़त्ल कर देता है। एंडरसन निश्चित रूप से लखवी और सईद और लादेन से बड़ा हत्यारा है।



दो दिसंबर 1982 के बाद से इस मुल्क में कई दफा कांग्रेस की सरकार रही, भारतीय जनता पार्टी की सरकार रही, राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा की सरकार रही लेकिन किसी भी सरकार ने क़ातिलों को सजा दिलाना तो दूर बल्कि उन्हें महिमामंडित किया। सजायाफ्ता हत्यारों में से एक केशव महिन्द्रा, जो त्रासदी के समय यूनियन कार्बाइड का चेयरमैन था, की सत्ता के गलियारों में तूती बोलती रही। भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद आज सरकार से भोपाल कांड के फैसले के आलोक में भले ही परमाणु दायित्व विधेयक पर चर्चा की मांग कर रहे हों लेकिन राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने वाली भारतीय जनता पार्टी की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने वर्ष 2002 में इसी केशव महिन्द्रा को पद्म भूषण पुरस्कार देने का ऐलान किया था। क्या तब वाजपेयी सरकार को नहीं मालूम था कि केशव महिन्द्रा पर भोपाल के 15000 बेगुनाहों के क़त्ल का मुकदमा चल रहा है?



महिन्द्रा का सफ़र यहीं खत्म नहीं होता है। वह सरकार की कई बड़ी महत्वपूर्ण और निर्णायक समितियों का भी सम्मानित सदस्य रहा है। वह ‘सेन्ट्रल एडवायजरी काउन्सिल ऑफ इंडस्ट्रीज' का सदस्य और कम्पनी मामलों के महत्वपूर्ण आयोग ‘सच्चर कमीशन ऑन कम्पनी लॉ एण्ड एमआरटीपी’ का सदस्य रहा। इससे भी बढ़कर बात यह है कि महिन्द्रा, प्रधानमंत्री की व्यापार और उद्योग पर बनी सलाहकार परिषद का सदस्य रहा है। अब समझा जा सकता है कि कैसे यह फैसला आने में पच्चीस साल लग गए? एंडरसन और केशव महिन्द्रा का गैंग भविष्य की विश्व की आर्थिक शक्ति बनते भारत (जिसका दावा प्रधानमंत्री और उनके प्रशंसक करते हैं) का मज़ाक उड़ा रहा है। क्या आपने भी सुना मनमोहन सिंह जी????

सोमवार, 31 मई 2010

ममता मीडिया की कारस्तानी और सरडीहा का सच

ममता मीडिया की कारस्तानी और सरडीहा का सच


अमलेन्दु उपाध्याय

ममता मीडिया की कारस्तानी और सरडीहा का सच


अमलेन्दु उपाध्याय

पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले में सरडीहा के पास हुई रेल दुर्घटना के तुरंत बाद देश भर में मचे बवंडर ने एक बारगी यह सोचने को मजबूर कर दिया था कि क्या वास्तव में भारत के नक्सलवादी नरपिशाच हैं? दुर्घटना स्थल पर पहुंची रेल मंत्री ममता बनर्जी ने जिस बेशर्मी और बेहूदगी से इसके लिए नक्सलवादियों को जिम्मेदार ठहराते हुए अपनी और अपने विभाग के निकम्मेपन से पल्ला झाड़ा और हमारे लोकतंत्र के तथाकथित चैथे स्तंभ बड़े पूंजीपतियों के टुकड़ों पर पलने वाले राष्ट्रीय मीडिया ने जिस निर्लज्जता के साथ इस दुर्घटना को नक्सली हमला करार दिया उसने मीडिया, नक्सलवाद और लोकतंत्र में नैतिकता के प्रश्नों पर एकबारगी फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है।

पहली बात तो नक्सलियों की ही की जाए। नक्सलवादियों के लाख दावे के बावजूद कि वह आम आदमी की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके हथियारबंद संघर्ष को जायज नहीं ठहराया जा सकता। सिर्फ इसलिए नहीं कि भारत में लोकतंत्र नाम की कोई चीज सुनाई पड़ती है। बल्कि इसलिए भी कि नक्सली जिस क्रांति की बात करते हैं वह क्रांति उनके इस तरह के रास्ते से नहीं आ सकती है। क्रांति की भूमिका के लिए जो तीन चार प्रमुख कारण बताए जाते है,ं उनमें से कई महत्वपूर्ण कारण अभी भारत में मौजूद नहीं हैं और जब तक यह कारण नहीं होंगे क्रांति सफल नहीं हो सकती है। क्रांति की अनिवार्य षर्त है कि देश के अंदर गृह युद्ध के हालात होने चाहिए और राजनीतिक उठापटक का माहौल होना चाहिए, किसी बाहरी देश के आक्रमण का खतरा हो और राजसत्ता लाचार हो। लेकिन भारत में इस तरह के कोई हालात अभी तो नहीं हैं। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की आर्थिक नीतियां एक सी हैं और उनमें नीतिगत कोई मतभेद नहीं है बल्कि दोनों एक ही हैं। वहीं देश के अंदर बड़ी तेजी से एक संस्कारविहीन, फर्जीवाड़े की अर्थव्यवस्था की कोख से एक ऐसा उच्च मध्य वर्ग पैदा हुआ है जो स्वयं को पढ़ा लिखा कहता तो है लेकिन है फूहड़। इस वर्ग को नरसिंहराव- मनमोहन- वाजपेयी की तिकड़ी ने फलने फूलने का अवसर दिया है। यह वर्ग राजसत्ता का हिमायती हेै और उसके हर जुल्म- औ- सितम का हिमायती है। ऐसे में गरीबों के हितों की खातिर की जाने वाली कोई भी सशस्त्र क्रांति फलीभूत नहीं हो सकती है।

तो क्या नक्सलियों को आम आदमी की लड़ाई लड़ना बंद कर देना चाहिए? बिल्कुल नहीं! लेकिन उन्हें अपना रास्ता बदल देना चाहिए। पहले आम जनता के बीच जाकर समझाएं कि वह करना क्या चाहते हैं और उनका आम आदमी से कोई बैर नहीं है और पूंजीवादी मीडिया उनके खिलाफ मिथ्या प्रचार कर रहा है। वरना यही होगा जो सरडीहा के मामले में मीडिया ने ममता बनर्जी के सहयोग से किया। ममता ने घटनास्थल पर जाकर कहा कि विस्फोट किया गया है। जबकि खुद गृह मंत्रालय और वित्त मंत्री इस आरोप से सहमत नहीं हैं। मीडिया में ही जो रिपोर्ट्स आईं उनके मुताबिक वहां पचास मीटर तक फिश प्लेट्स उखाड़ी गई थीं और मौके पर लगता था कि ट्रैक की कई घंटों से जांच नहीं की गई थी। लेकिन हमारे न्यूज चैनल्स ममता बनर्जी के बयान को ही ले उड़े। हर चैनल चिल्ला रहा था नक्सली हमले में 76 मरे, रेलवे पर लाल हमला। बताया गया कि घटनास्थल से नक्सली समर्थक पीसीपीए के पोस्टर मिले हैं जिसमें इस घटना की जिम्मेदारी ली गई है। लेकिन किसी भी समाचार वाचक ने यह रहस्य खोलने की जहमत नहीं उठाई कि पीसीपीए नक्सलवादी नहीं है, उसे सिर्फ नक्सलियों की हिमायत हासिल है। पीसीपीए मुखिया छत्रधर महतो बाकायदा तृणमूल कांग्रेस का पदाधिकारी था और पिछले विधानसभा चुनाव में पीसीपीए ने तृणमूल कांग्रेस को समर्थन दिया था। इस लिहाज से अगर यह पीसीपीए का काम है तब तो इसके लिए ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ही ज्यादा जिम्मेदार है। वैसे भी तृणमूल जब तब बंगाल में रेलवे ट्रैक पर हमला करती रहती है और फिश प्लेट्स उखाड़ने में उसे महारत हासिल है।

वैसे भी अभी तक की घटनाओं में जब भी नक्सलियों ने रेलवे को कोई नुकसान पहुंचाया है तो तत्काल नजदीक के केबिन और रेलवे स्टेषन को सूचना पहुंचाई है ताकि कोई दुर्घटना न हो। सवाल यह है कि क्या हमारा मीडिया सकलडीहा का ठीकरा नक्सलियों के सिर फोड़कर ममता बनर्जी को निर्दोष साबित करना चाहता है? क्या यह सही नहीं है कि मृतकों में से पचास से भी अधिक ने दुर्धटना के 48 घंटे बाद सरकारी अव्यवस्था के चलते दम तोड़ा है? क्या यह भी सही नहीं है कि राहत ट्रेन दुर्घटनास्थल पर दो धंटे बाद और क्रेन आठ घंटे बाद पहुंची? क्या यह भी सही नहीं है कि रेलवे के सभी बड़े अफसर दुर्घटना स्थल पर ममता बनर्जी के साथ ही अगले दिन पहुंचे ? क्या इसके लिए भी नक्सली ही जिम्मेदार हैं? कायदे से इस दुर्घटना के लिए ममता बनर्जी को ततकाल त्यागपत्र दे देना चाहिए और प्रधानमंत्री को भी चाहिए कि इस हादसे की जांच में ममता की लापरवाही और साजिष की भी निष्पक्ष जांच करवाएं। एक तरफ ममता का कहना है कि घटना स्थल पर फिश प्लेटें बैल्ड की गई थीं और पेंड्रोल क्लिप या फिश प्लेट उखाड़े जाने का कोई प्रश्न ही नहीं है जबकि हमारे मीडिया के साथी ही मौके से बता रहेे हैं कि फिश प्लेटें उखड़ी हुई थीं। फिश प्लेटें उखड़ना रेलवें के लिए कोई नई बात नहीं है। एक अखबार ने खुलासा किया है कि देश की राजधानी दिल्ली से बीस किलोमीटर दूर गाजियाबाद के रास्ते के ट्रैक पर वर्ष 2010 में ही पांच हजार फिश प्लेटें उखड़ी पाई गई हैं। इतना ही नहीं उखड़ी हुई फिश प्लेटों के ऊपर से राजधानी एक्सप्रेस गुजर जाने की भी खबरें पिछले दिनों आई थीं। जाहिर है दिल्ली में अभी नक्सली नहीं पहुंचे हैं ममता आपा!!

लगातार तीन दिन तक हमारे समाचारपत्रों ने सरडीहा की दुर्घटना पर तो दस बीस लाइनें ही लिखी होंगी लेकिन नक्सलियों पर कई कई पन्ने काले किए। हमारे बड़े पत्रकारों ने अपनी लेखनी का सारा कला कौशल नक्सलियो पर ही खर्च कर दिया। किसी ने लिखा- ‘नक्सलियों ने फिर ढाया कहर’, तो किसी ने लिख डाला- ‘ भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनते जा रहे नक्सलियों ने पं. बंगाल में ट्रेन को निशाना बनाकर 76 मुसाफिरों को मार डाला’। गोया भूख गरीबी अषिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे अब भारत के लिए चुनौती रहे ही नहीं बस नक्सली ही रह गए हैं।

वह तो गनीमत है कि कुछ दिन पहले ही एयर इंडिया का विमान मंगलौर में दुर्घटनाग्रस्त हुआ। कहीं इत्तेफाक से यह दंतेवाड़ा या मिदनापुर में दुर्घटनाग्रस्त हुआ होता तो हमारे मीडिया के धुरंधर इसका इलजाम भी नक्सलियों के सिर रखते। तमाषा यह है कि पूरे मीडिया ने नक्सलियों को दोष मढ़ने में तो कोई देरी नहीं की लेकिन भाकपा माओवादी के मयूरभंज-पूर्वी सिंहभूम बाॅर्डर एरियेा कमेटी के प्रवक्ता मंगल सिंह के इस बयान कि ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के विस्फोट में भाकपा माओवादी का हाथ नहीं हैं ऐसी घटनाओं से आम आदमी के साथ साथ माओवादी संगठन को भी नुकसान होता है ऐसी स्थिति में उनका संगठन ऐसी घटना को क्यों अंजाम देगा, को एक दो अखबारों ने ही कहीं कोने में लगाया। मीडिया के शोर में मंगल सिंह की यह आवाज कि ‘हम आम आदमी के हित में उनके अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करते हैं न कि उन्हें नुकसान पहुंचाने के लिए?’ दबकर रह गई।

सरडीहा दुर्घटना की एफआईआर में नक्सलवादियों का जिक्र न होने पर स्यापा करने वाले हमारे बड़े पत्रकार साथी क्या अपनी असली जिम्मेदारी पर भी ध्यान देंगे????

शनिवार, 8 मई 2010

फायदे से ज्यादा होगा नुकसान

फायदे से ज्यादा होगा नुकसान
अमलेंदु उपाध्याय


वर्श 2011 में होने वाली जनगणना के लिए जाति को भी आधार बनाए जाने के सवाल पर प्रमुख विपक्षी दल और सत्तारूढ़ दल उलझे हुए हैं। जहां जाति को आधार बनाए जाने की मांग करने वालों के अपने तर्क हैं तो वहीं इसकी खिलाफत करने वालों के भी अपने तर्क हैं लेकिन मजेदार बात यह है कि जाति के आधार पर जनगणना की मांग करने वाले लोग उन डाॅ. राम मनोहर लोहिया के षिश्य और वारिस होने का दावा करते हैं जिन डाॅ लोहिया ने ‘जाति तोड़ो - दाम बांधो’ का नारा दिया था।

हालांकि अगर जनगणना में जाति को भी एक आधार बना लिया जाएगा तो तैयारियों के लिहाज से कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा। लेकिन खुद सरकार के बड़े लोग इस मसले पर आपस में उलझे हुए लगते हैं। बताया जाता है कि कैबिनेट की बैठक में ही मंत्रीगण आपस में इस मसले पर बुरी तरह उलझ गए। जबकि भारतीय जनता पार्टी को इस बहाने आरएसएस का एजेंडा सदन में लागू करने और देषभक्ति के प्रमाणपत्र बांटने का अच्छा मौका हाथ लग गया। लेकिन इससे असल मुद्दा पीछे छूट गया।

वैसे समाजवादी धड़े से नाइत्तेफाकियों के बावजूद उनके तर्क में कुछ असर भी है। मसलन जब जनगणना में बहुत सी बेवजह बातों को भी पूछा जाता है तो जाति पूछने में हर्ज ही क्या है? एक समाजवादी नेता ने व्यक्तिगत बातचीत में कहा कि ‘कांग्रेस को इसमें परेषानी क्या है? यही कि पिछड़े तबके के लोगों को अपनी वस्तुस्थिति मालूम पड़ जाएगी और वह राजनीति और नौकरियों में अपनी ज्यादा हिस्सेदारी मांगेंगे?’ तर्क है जानदार। क्योंकि जाति की गणना होने पर नुकसान सवर्णाें को हो सकता है और देष भर में यह मांग उठ सकती है कि जब इनकी आबादी कम है तो यह नौकरियों में ज्यादा क्यों हैं,? यही कारण है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों अन्दरूनी तौर पर जाति की गणना कराए जाने के खिलाफ हैं क्योंकि दोनों ही दलों का नेतृत्व सवर्ण है और जो पिछड़ा और दलित नेतृत्व उनके यहां है भी तो वह केवल षो पीस है, निर्णय ले सकने की स्थिति में नहीं है।

हां जाति आधारित जनगणना का एक लाभ जरूर मिल सकता है। अभी हर जाति अपनी तादाद अपने हिसाब से बताती है और नौकरियों और राजनीति में हिस्सेदारी मांगती है। तब इस रंगदारी में थोड़ा फर्क पड़ेगा और यह बात साबित हो जाएगी कि पिछड़े तबके की जातियों के लोग 52 प्रतिषत हैं भी या नहीं।

लेकिन अगर निहित राजनीतिक स्वार्थों को छोड़कर बात की जाए तो जाति आधारित जनगणना के बहुत से दूरगामी दुश्परिणाम होंगे। पहली बात तो भारतीय समाज वैसे ही धोर जातिवादी है और हर जाति खुद को दूसरे से श्रेश्ठ साबित करने पर जुटी रहती है। ऐसी जनगणना से जाति के बंधन और मजबूत होंगे। जिस जाति प्रथा को तोड़ने और समाज में समरसता लाने की हवाई बातें बार बार की जाती हैं तब तो वह हवाई बातें भी होना बन्द हो जाएंगी। फिर हिन्दुओं में ही लगभग चार हजार जातियां हैं। इसके बाद हर जाति में किरोणीमल बैंसला और किरोड़ी लाल मीणा पैदा हो जाएंगे जो देष को चैन से नहीं बैठने देंगे। अभी तो बिहार में दलितों में महादलित और पिछड़ों में अति पिछड़े ही छांटे जा रहे हैं, तब हर जाति खुद को महादलित और लुप्तप्राय प्रजाति साबित करते हुए अधिक संरक्षण की मांग करेगी। जिसका दुश्परिणाम यह होगा कि देष का विकास और आर्थिक उन्नति की बातें पीछे छूट जाएंगी और जातिगत समीकरणों के लिहाज से ही महत्वपूर्ण फैसले होने लगेंगे।

इसका जो सबसे बड़ा खतरा है वह यह है कि राश्ट्रीय भावना का एकदम लोप हो जाएगा और राजनेता राश्ट्रहित की बातें न सोचकर जातिहित की ही बातें करने लगेंगेे। ऐसा स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलन के दौरान हो भी चुका है। इतिहास साक्षी है कि डाॅ भीमराव अम्बेडकर ने अंगेजों से कहा था कि वह देष छोड़कर तब तक न जाएं जब तक कि दलितों को हिन्दुओं के षोशण से मुक्ति न मिल जाए। और इस बहाने अंग्रेज इस देष में चैथाई सदी तक ज्यादा रुके रहे। जिसका खमियाजा हमने देष विभाजन के रूप में भी देखा और देष को जबर्दस्त नुकसान उठाने पड़े। अगर समाजवादी धड़ा इस बात की गारंटी दे कि इस तरह का कोई दुरूपयोग इस जनगणना का नहीं होगा तो जाति आधारित जनगणना भी कराई जा सकती है अन्यथा इसका फायदा तो बहुत कम होगा और देष को नुकसान बहुत बड़ा होगा ।


इस बहाने अंग्रेज इस देश में चौथाई सदी तक ज्यादा रूके रहे, जिसका खमियाजा हमने देश विभाजन के रूप में भी देखा और देश को जबरदस्त नुकसान उठाने पड़े। अगर समाजवादी धड़ा इस बात की गारंटी दे कि इस तरह का कोई दुरूपयोग इस जनगणना का नहीं होगा, तो जाति आधारित जनगणना भी कराई जा सकती है, अन्यथा इसका फायदा तो बहुत कम होगा। देश को नुकसान बहुत बड़ा होगा।

बुधवार, 5 मई 2010

सड़क पर दुष्मन संसद में यार

सड़क पर दुष्मन संसद में यार


अमलेन्दु उपाध्याय

अकसर कहा जाता है कि राजनीति में दो ओर दो चार नहीं होते हैं और राजनीति में जो दिखता है वह होता नहीं हैं और जो होता है वह दिखता नहीं है। इन कहावतों को एक बार फिर मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और मायावती ने विपक्ष के कटौती प्रस्ताव पर कांग्रेस का दामन थाम कर सही साबित कर दिया है। अभी कुल जमा चार दिन भी तो नहीं बीते हैं जब डॉ. अम्बेडकर के जन्म दिवस पर कार्यक्रम को लेकर कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी में उत्तर प्रदेष में जमकर युद्ध हुआ था और कांग्रेस के इतिहास की पुस्तक में डॉ. अम्बेडकर का जिक्र न होने और अम्बेडकर जयंती के कांग्रेसी पोस्टर पर अम्बेडकर का चित्र न होने पर बसपा ने कांग्रेस पर हमला बोला था।

उधर मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी और लालू प्रसाद यादव का कुनबा राश्ट्रीय जनता दल, न केवल महिला आरक्षण बिल पर किसी भी हद तक कांग्रेस के खिलाफ जाने पर आमादा थे बल्कि 27 अप्रैल को ही वामपंथी दलों द्वारा आहूत भारत बन्द में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे, वही सपा और राजद भी ठीक उसी दिन 27 अर्पैल को लोकसभा के अन्दर कांग्रेस के तारणहार बन बैठे। यानी सड़क पर कांग्रेस के विरोध में और सदन में कांग्रेस के एजेन्ट। इससे भी ज्यादा आष्चर्य इस बात पर है कि मायावती और मुलायम सिंह की रंजिष किसी से छिपी नहीं है। दोनों एक म्यान में दो तलवार की तरह साथ नहीं रह सकते। लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार बचाने के लिए दोनों को एक प्लेटफार्म पर आने से भी कोई एतराज नहीं रहा। माया मुलायम का ऐसा प्रेम भाव किसी समीकरण की वजह से नहीं है। बल्कि इसके पीछे दोनों के अपने अपने भय हैं और इस कदम के पीछे सबसे बड़ा कारक सीबीआई है।

याद होगा आईपीएल धोटाले की गूंज जब जोर षोर से हो रही थी ठीक उसी समय मायावती ने एक बहुत ही मार्मिक बयान दिया था कि सबको छोड़कर सीबीआई उनके पीछे ही पड़ी है। ठीक है कि मायावती ने आर्थिक गड़बड़ियां की हैं, लेकिन यूपीए सरकार के जो छह मंत्री आईपीएल घोटाले की जद में आ रहे थे उन पर सरकार की खामोषी न केवल मायावती के आरोपों को सही साबित करती है बल्कि कटौती प्रस्ताव पर लोकसभा में कांग्रेस के समर्थन के असल कारण को भी बिन बोले बयां कर देती है।

इसी तरह याद होगा लोकसभा चुनाव के समय कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का मायावती को धमकाने वाला बयान कि कांग्रेस के पास सीबीआई है काफी चर्चा में रहा था और उसके बाद देखने में आया कि जब जब मायावती ने कांग्रेस से पंगा लेने की या उसके षिकंजे से निकलने की जुर्रत करने की हिमाकत की सीबीआई का डंडा मायावती पर चलने लगा।

लालू प्रसाद यादव तो खैर हमेषा से सीबीआई के निषाने पर रहे हैं और कभी अपनों तो कभी गैरों के द्वारा सीबीआई से प्रताड़ित होते रहे हैं। जाहिर है कि जब लोकसभा में उनकी ताकत कम हो गई है औॅर कुछ महीनों बाद ही बिहार में विधानसभा का चुनाव होना है, ऐसे में भला क्यों लालू प्रसाद यादव कांग्रेस से पंगा लेकर अपने और अपने परिजनों के लिए मुसीबत खड़ा करना चाहेंगे? कुछ दिन पहले ही वह झारखण्ड में कांग्रेस का सीबीआई का तुरुप का पत्ता मधु कोड़ा पर चलते हुए देख ही चुके हैं।

लालू और माया जैसी ही कुछ मजबूरियां मुलायम सिंह की भी हैं। अपने अन्तःकरण से तो मुलायम सिंह कांग्रेस से दो हाथ करना भी चाहते हैं लेकिन सीबीआई का खौफ उन्हें भी पीछे धकेल देता है। मुलायम और उनके परिजनों के खिलाफ एक कांग्रेसी नेता विष्वनाथ चतुर्वेदी उर्फ मोहन की एक षिकायत पर आय से अधिक संपत्ति का मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। मजेदार बात यह है कि सीबीआई ने ही उन पर मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी थी लेकिन यूपीए पार्ट वन सरकार बचाने के लिए जिस तत्परता से मुलायम सिंह आगे आए उसका इनाम देते हुए वही सीबीआई कहने लगी कि अब मुकदमा चलाने की आवष्यकता नहीं है। इतना ही नहीं बल्कि बताया तो जाता है कि षिकायतकर्ता कांग्रेसी नेता विष्वनाथ चतुर्वेदी उर्फ मोहन उस दिन के बाद से अदालत ही नहीं पहुंचे हैं। अब अगर मुलायम सिंह कटौती प्रस्ताव पर कांग्रेस के खिलाफ मत दे देते तो सीबीआई को अदालत में यह कहने कि मुकदमा चलाने की जरूरत है और मोहन को अदालत में उपस्थित होने में कितना समय लगता, यह मुलायम सिंह अच्छी तरह जानते हैं। मुलायम सिंह पर ऐसे दबाव हैं। इसका पता उनके पुराने सखा रहे अमर सिंह की एक धमकी से चलता है। अभी कुछ दिन पहले अमर सिंह ने बयान दिया था कि यदि मुलायम के सिपहसालारों ने उनके (अमर) ऊपर हमले बन्द नहीं किए तो वह आय से अधिक संपत्ति के मामले में स्वयं अदालत पहुंचकर जांच मेें सहयोग करेंगे। देखने में आया कि इस बयान के बाद अमर सिंह के खिलाफ सपा नेताओं ने बोलना बन्द कर दिया। इसका मतलब है कि सीबीआई का कुछ न कुछ मामला है जरूर।

ल्ेाकिन उत्तर प्रदेष की जंग में इस घटनाक्रम का सबसे ज्यादा फायदा मुलायम सिंह को पहुंचा और केन्द्र में मनमोहन सरकार बचा ले जाने के बावजूद यूपी में सर्वाधिक नुकसान कांग्रेस को हुआ। लोकसभा चुनाव से ऐन पहले मुलायम सिंह की कुछ बड़ी गल्तियों का साीधा लाभ कांग्रेस को पहुंचा था और वह यूपी में एक बड़ी ताकत बनकर उभरी थी। उसके बाद प्रदेष कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोषी के मायावती के खिलाफ आग उगलते बयान ने कांग्रेस का ग्राफ काफी ऊंचा उठा दिया था जिसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस प्रत्याषी राज बब्बर फिरोजाबाद के उपचुनाव में मुलायम की पुत्रवधु को हराकर जीत गए। मायावती से रोज रोज की तू-तू, मैं-मैं से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में एक जोष आ गया था और राहुल बाबा के दलितों के धर जाकर भोजन करने की नौटंकी भी कुछ कमाल करती दिख रही थी और कांग्रेस का मिषन 2012 भी कुछ सफल होता दिख रहा था। लेकिन मनमोहन सरकार बचाने के लिए की गई कांग्रेसी जुगलबन्दी ने यूपी में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की कमर तोड़ कर रख दी। उन्हें लग रहा है कि सड़क पर तो कांग्रेसी नेतृत्व कार्यकताओं को मायावती की पुलिस की लाठियों से पिटवा रहा है और खुद दिल्ली में बैठकर मायावती की चिरौरी कर रहा हेै

कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की इसी उधेड़बुन का सर्वाधिक फायदा मुलायम सिंह को हुआ है। मायावती और कांग्रेस की तकरार से समाजवादी पार्टी बैकफुट पर जाने लगी थी और मायावती के विरोध के लोग कांग्रेस के साथ गोलबन्द होने लगे थे। लेकिन अब इस तबके का तेजी से कांग्रेस से मोहभंग होने लगा है और उसे लगने लगा है कि मायावती से लड़ाई तो मुलायम सिंह ही लड़ सकते हैं। इधर सपा ने भी 27 अप्रैल को भले ही भारत बन्द का नारा महंगाई और कांग्रेस के विरोध में दिया हो लेकिन सड़कों पर जिस तरह उसके कार्यकर्ता उतरे उन्होंने टारगेट कांग्रेस को कम और मायावती और राज्य सरकार को ही ज्यादा बनाया। नतीजतन बैकफुट पर जा रही सपा एक बार फिर फ्रन्टफुट पर आ गई और कांग्रेस अपने किए पर पछताने के लिए नेपथ्य में चली गई। भले ही कांग्रेसी इस बात पर खुष हो रहे हों कि उन्होंने विपक्ष के दांव को विफल करते हुए मनमोहन सिंह की सरकार बचा ली लेकिन यूपी की जंग में कांग्रेस ने जो खोया है उसकी भरपााई आने वाले बीस सालों में भी मुष्किल है। कांग्रेस ने यूपी में न केवल अपने कार्यकर्ताओं के अरमानों का गला धोटा है बल्कि रीता जोषी और दिग्विजय सिंह की मेहनत पर भी पानी फेर दिया है। अब राहुल बाबा चाहे कलावती के धर जाएं या जलवर्शा के उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है।

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

दंतेवाड़ा का अपराधी कौन

दंतेवाड़ा का अपराधी कौन




अमलेन्दु उपाध्याय



छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों के हमले में सीआरपीएफ के 76 जवानों के मारे जाने के बाद देष भर में गम और गुस्से का माहौल है। देष के असफल गृह मंत्री और कॉरपोरेट जगत के अच्छे वकील पी चिदंबरम भी काफी गुस्से में बताए जाते हैं। यहां तक कि चिदंबरम अपने इस्तीफे की भी पेषकष कर चुके हैं। लेकिन, जैसा कि तय था, प्रधानमंत्री ने उनका इस्तीफा नामंजूर कर दिया है और उन्हें खून की होली खेलने की मौन स्वीकृति दे दी है।

जाहिर है एक सभ्य समाज में ऐसे नृषंस हमले की इजाजत किसी भी आधार पर नहीं दी जा सकती है। लेकिन इस हमले की पृश्ठभूमि और उसके मूल कारण पर भी सम्यक विचार की जरूरत है। कई रक्षा विषेशज्ञ और पुलिस के बड़े अफसरों समेत प्रधानमंत्री और यहां तक कि लोकतंत्र के तथाकथित चौथे स्तंभ मीडिया के कई बड़े पत्रकार भी नक्सलवाद को देष के लिए सबसे गंभीर चुनौती बता चुके हैं। इसके बावजूद सर्वाधिक गंभीर चुनौती से निपटने के लिए सरकार के पास कोई कारगर योजना नहीं है बल्कि सरकार गृह मंत्री के नेतृत्व में स्वयं खून की होली खेल रही है।

अब आवाजें उठ रही हैं कि नक्सलियों के खिलाफ वायुसेना को उतारा जाया जाना चाहिए। इस तर्क के समर्थन में बहुत निर्लज्जता के साथ देष के कई बड़े पत्रकार और राजनेता उतर आए हैं। पुलिस के रिटायर्ड अफसर तो खैर हैं ही चिदंबरम के समर्थन में। पूर्व डीजीपी प्रकाष सिंह का कहना है- ‘छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने जिस प्रकार से जवानों का खून बहाया है वह देष के लिए गंभीर चुनौती है। ऐसी चुनौती जिसका जवाब उन्हीं की भाशा में देना होगा’। लेकिन सवाल यह है कि क्या हवाई हमले से नक्सलवाद खत्म हो जाएगा? अगर इस बात की गारंटी दी जाए तो क्या बुराई है? नक्सलवाद के इतिहास पर नजर डालें तो यह बात सामने आती है कि अतीत में जितनी बार भी दमन और हत्याओं और फर्जी एन्काउन्टरों की झड़ी लगाई गई, नक्सलवाद उतनी ही तेजी से फैला क्योंकि हमारी सरकारों की नीयत नहीं बदली। जिस कदम के लिए चिदंबरम की पीठ थपथपाई जा रही है वैसा कदम तो सिद्धार्थ षंकर रे बहुत पहले ही उठा चुके हैं, लेकिन नतीजा क्या निकला? यही कि बंगाल के एक गांव से षुरू हुआ आंदोलन आज पन्द्रह राज्यों में फैल गया। अब जब चिदंबरम दो तीन साल में नक्सलवाद के सफाए की बात कर रहे हैं तो तय मानिए कि इन दो तीन सालों में ही पूरा देष नक्सलवाद की गिरत में होगा, बस दुआ कीजिए चिदंबरम सही सलामत देष के गृह मंत्री बने रहें।

फिर हम यह स्वीकार करने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं कि नक्सली हिंसा हमारी 60 सालों की राजनीतिक और प्रषासनिक असफलता का नतीजा है। आजादी के बाद विकास का जो पूंजीवादी रास्ता अपनाया गया उसकी परिणिति यह होनी ही थी। यहां यह भी याद रखना चाहिए कि नक्सलवादी आंदोलन जम्मू-कष्मीर, पंजाब और पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह या ‘हिन्दू राश्ट्र’ की तरह अलगाववादी आंदोलन नहीं है। लेकिन देष के बाहरी षत्रु इस फिराक में जरूर बैठे हैं कि कब नक्सलियों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई हो और फिर सारी दुनिया को बताया जाए कि भारत में गृह युद्ध छिड़ गया है। ऐसी स्थिति बनने के लिए केवल और केवल एक षख्स जिम्मेदार होगा जिसका नाम पी चिदंबरम है और जो दुर्भाग्य से इस समय देष का गृह मंत्री है। फिर नक्सलवादी अलगाववादी नहीं हैं उन्होंने अलग मुल्क बनाने की बात नहीं की है। वह व्यवस्था बदलने की बात करते हैं, संविधान बदलने की बात करते हैं। संविधान बदलने की बात तो राश्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी करता है, नक्सलियों ने कोई बाबरी मस्जिद नहीं गिराई है।

हालांकि चिदंबरम ने बहुत सधे हुए पत्ते फेंके थे। मसलन ऑपरेषन ग्रीन हंट प्रारंभ करने से पहले अखबारों और प्रचार माध्यमों के जरिए नक्सलियों के खिलाफ मिथ्या प्रचार की न केवल संघी और गोयबिल्स नीति अपनाई गई बल्कि नीचता की पराकाश्ठा पार करते हुए एक विज्ञापन जारी किया गया जिसमें कहा गया -”पहले माओवादियों ने खुषहाल जीवन का वायदा किया/ फिर, वे पति को अगवा कर ले गये/ फिर, उन्होंने गांव के स्कूल को उड़ा डाला/ अब, वे मेरी 14 साल की लड़की को ले जाना चाहते हैं।/ रोको, रोको भगवान के लिए इस अत्याचार को रोको“।

यह विज्ञापन गृह मंत्रालय द्वारा जनहित में जारी किया गया जिसके मुखिया चिदंबरम हैं। जाहिर है उनकी सहमति से ही यह जारी हुआ। लेकिन प्रष्न यह है कि इसमें उस महिला का नाम क्यों नहीं खोला गया जिसकी 14 साल की लड़की को नक्सली ले जाना चाहते हैं? क्या चिदंबरम साहब बताने का कश्ट करेंगे कि नक्सली किसकी लड़की को ले जाना चाहते हैं। इसके तुरंत बाद गृह मंत्री गली के षोहदों की स्टाइल में कह रहे थे कि नक्सलियों को दौड़ा दौड़ा कर मारेंगे। एक तरफ वह नक्सलियों को मारने की बात कह रहे थे तो दूसरी तरफ ‘ऑपरेषन ग्रीन हंट’ जैसे किसी ऑपरेषन के जारी होने को नकार भी रहे थे। जबकि ठीक उसी समय छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री ननकीराम कंवर बयान दे रहे थे कि ऑपरेषन ग्रीन हंट के दौरान 25 मार्च तक 90 माओवादी छत्तीसगढ़ में मारे गए हैं। जब चिदंबरम की सेना आदिवासियों को मारने जाएगी तो क्या वे फूल माला लेकर स्वागत करेंगे? जाहिर है वे वही करेंगे जो उन्होंने दंतेवाड़ा में किया। फिर किस आधार पर इस कांड के लिए अब नक्सली ही जिम्मेदार हैं? क्या दंतेवाड़ा के लिए वह षख्स जिम्मेदार नहीं है जो एक दिन पहले ही पं बंगाल में कह रहा था कि नक्सली कायर हैं सामने क्यो नहीं आते? अब जब वे सामने आ गए तो चिदंबरम रोते क्यों हैं? और अब यह बात सामने भी आ गई है कि चिदंबरम की कारगुजारियों की खुद कांग्रेस के अंदर जबर्दस्त मुखालिफत हो रही है।

इस घटना के तुरंत बाद चिदंबरम ने बयान दिया कि -‘ये माओवादी हेैं जिन्होंने राज्य को ‘दुष्मन’ और संघर्श को ‘युद्ध’ का नाम दिया है। हमने इस षब्द का कभी इस्तेमाल नहीं किया । ऐसे लोगों ने राज्य पर युद्ध थोपा है जिनके पास हथियार रखने और मारने का कानूनी अधिकार नहीं है।’ क्या कहना चाहते हैं हमारे गृह मंत्री? यही कि राज्य के पास हथियार रखने और निरीह आदिवासियों को मारने का कानूनी अधिकार है?

ताज्जुब यह है कि दुर्गा वाहिनी, बजरंग दल जैसे खूंखार कबीले बनाने वाला और दषहरे के रोज षस्त्र पूजन करने वाले उस आरएसएस ने भी जिसके पूर्वजों ने 15 अगस्त 1947 को बेमिसाल गद्दारी का दिन कहा था , दंतेवाड़ा कांड को भारत के लोकतांत्रिक सत्ता प्रतिश्ठान को माओवाद, नक्सलवाद की खुली चुनौती और माओवादियों को नृषंस हत्यारा बताया है।

दंतेवाड़ा कांड पर गुस्से का इजहार करने वाले यह सवाल क्यों नहीं पूछते कि सीआरपीएफ के यह जवान घटना स्थल के पास क्या करने गए थे जबकि वह स्थान ऑपरेषन के लिए चिन्हित नहीं था। अखबारों में आई रिपोर्ट्स बताती हैं कि गृह मंत्रालय के अधिकारी स्वयं इस बात पर हैरान हैं कि जब हमले वाला इलाका कार्रवाई के लिए चिन्हित केंद्रीत जगहों में नहीं था तो इतनी संख्या में जवान जंगल के अंदर तक क्यों गए? इतना ही नहीं दंतेवाड़ा पर लानत मलानत करने वाले मीडिया ने एक दिन पहले ही यह खबर क्यों नहीं दी कि जवान इस घटना से पहले आदिवासियों की एक बस्ती में गए थे और नक्सलियों की सर्च के नाम पर उन्होंने 26 महिलाओं के साथ बदसुलूकी की थी और एक महिला का हाथ भी तोड़ दिया था। यह खबर सिर्फ एक समाचार एजेंसी के द्वारा तब जारी की गई जब नक्सलियों ने दंतेवाड़ा को अंजाम दे दिया। जरा सवाल देष पर मर मिटने वाले सरकारी षहीदों के साथियों से भी पूछ लिया जाना चाहिए कि घटनास्थल से कुल चार किलोमीटर दूरी पर ही सीआरपीएफ का कैंप था लेकिन घटनास्थल पर कोई सहायता इस कैंप से क्यों नहीं पहुंचाई गई?

जब तक नक्सलवाद की असल वजह पर ध्यान नहीं दिया जाएगा, जल-जंगल-जमीन का सही बंटवारा नहीं होगा और बड़े पूंजीपतियों के दलाल हमारे भ्रश्ट राजनेता जब तक यह सच्चाई स्वीकार नहीं कर लेते कि नक्सलवाद कानून व्यवस्था की समस्या नहीं है बल्कि राजनीतिक समस्या है तब तक चिदंबरम मार्का खून खराबे से कुछ हासिल नहीं होने वाला। एक वाकया इस बात को समझाने के लिए काफी है कि पष्चिम बंगाल के षालबनी में जिंदल स्टील पांच हजार करोड़ रूपये की लागत से इस्पात संयंत्र लगा रही है और माओवादी यहां जिंदल के चार कर्मचारियों को मार चुके हैं। लेकिन जिंदल का एक पाइप निर्माण संयंत्र दिल्ली के नजदीक गाजियाबाद में कई वर्शों से बंद पड़ा है वहां मजदूरों की छंटनी की जा चुकी है और कई एकड़ में फैले संयंत्र में प्लॉटिंग करने की जिंदल योजना बना रहा है। सवाल यह है कि जिंदल गाजियाबाद के संयंत्र को चालू न करके बंगाल में नया संयंत्र क्यो लगा रहा है? अगर इस सवाल का जवाब ईमानदारी से दे दिया जाए तो नक्सलवाद को समझने में बहुत मदद मिलेगी।

सारे प्रकरण के दौरान स्वयं को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ घोशित करने वाले उस मीडिया का रोल, (जिसके लिए दंतेवाड़ा से ज्यादा महत्वपूर्ण सानिया और षोएब की षादी और आईपीएल है) बहुत ही घातक और चिदंबरम के एजेंट का रहा। थोड़े दिन पहले ही चिदंबरम को लौह पुरूश सरदार वल्लभ भाई पटेल का अवतार घोशित करने वाले एक पत्रकार के संपादकत्व में चलने वाले एक चैनल के रायपुर से रिपोर्टर ने फतवा जारी कर दिया कि अब सुरक्षा बलों को पूरी छूट दे देनी चाहिए। तो चाट पकौड़ी के ठेलों पर खड़े होकर इंडिया का जायका बताने वाले एक समाचार वाचक ( उन्हें पत्रकार कहते हुए षर्म आती है) ने भी ऐसी घोशणा कर डाली। जबकि एक बड़े पत्रकार जिन्होंने टाईम्स समूह की नौकरी इसलिए छोड़ दी थी कि वहां ब्रांड मैनेजर संपादकीय में दखलंदाजी करते हैं, लिखा- ‘माओवादी भारत के लोकतंत्र को नकली लोकतंत्र या दिखावटी लोकतंत्र मानते हैं और कहते हैं कि जैसे माओत्से तुंग ने बंदूक के बल पर चीन में सत्ता पर कब्जा किया, वैसे ही भारत में भी जरूरी है। आज जब नक्सलवादी बाकायदा सेना बनाकर हमारे अर्द्धसैनिक बलों के निषना बना रहे हैं, प्रष्न और सारे मुद्दे गौण हो गए हैं। माओवादियों ने बड़ा हमला करके युद्ध का बिगुल बजाया है, उन्हें कड़ा जवाब देना जरूरी हैं’। यानी अब यह मुद्दा रहा ही नहीं कि चिदंबरम कभी उन खनिज कंपनियों के वकील रहे हैं जिनके हितों की रक्षा के लिए ऑपरेषन ग्रीन हंट चलाया जा रहा है? वह आगे लिखते हैं- ”हममें से अनेक सिर्फ आधार पर कि ये माओवादी आदिवासियों के हमदर्द हैं, इनकी सषस्त्र संघर्श की भूमिका से सहमत न होते हुए भी इनसे सहानुभूति रखते आए है। क्योंकि यह दावा किया जा रहा था कि ये उन आदिवासियों के लिए काम करते हैं जो बार बार विस्थापित होते रहे हैं। जो लगातार षोशण का षिकार हैं। हम यह मानते आए हैं कि अगर आदिवासी इलाकों का विकास हो जाए, उनकी अपने इलाके के संसाधनों के बंटवारे पर आवाज सुनी जाने लगे तो नक्सलवाद या माओवाद की समस्या का हल निकल आए लेकिन हम गलत थे और यह गलती हमें स्वीकार करनी चाहिए।’ कितनी ईमानदारी के साथ इन्होंने अपनी गलती स्वीकार कर ली है। इसी तरह एक खुफिया अफसर की तरह पटना से एक पत्रकार ने रिपोर्ट दी- ‘नक्सली संगठन अब नेपाल के रास्ते चीन से हथियार मंगाने लगे हैं। नेपाल के माओवादियों से बिहार के नक्सली संगठनों का गठजोड़ हो गया है।’

यह गृह मंत्री का कमाल है कि गृह सचिव जीके पिल्लई की हैसियत लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरूंधती राय को धोखेबाज करार देने की हो गई है। एक अंग्रेजी दैनिक से बात में उन्होंने कहा कि राय ने संसदीय लोकतंत्र की उस गरिमा को ठेस पहुचाई है जो उन्हें स्वतंत्र रूप से मनमाफिक राय जाहिर करने की छूट देती है।

कभी नक्सली आंदोलन के बड़े कमांडर रहे असीम चटर्जी ने हाल ही में कहीं कहा था कि-‘ भारत में संसदीय प्रणाली है। इतिहास साक्षी है जिन जगहों पर संसदीय प्रणाली है वहां कभी भी क्रांतिकारी आंदोलन सफल नहीं रहा।’ असीम दा के विचारों से इत्तेफाक रखते हुए भी एक सवाल यहां छोड़ा जा रहा है कि जहां सूरत मुबई अहमदाबाद की सड़कों पर कांच की बोतलों पर लड़कियां नंगी करके नचाई जाती हों और उनसे सामूहिक बलात्कार की वीडियो रिकॉर्डिंग की जाती हो, जहां गुलबर्ग सोसाइटी, नरोदा पाटिया और बेस्ट बेकरी कांड के हत्यारे षासक हों, जहां बेलछी, लक्ष्मणपुर बाथे आबाद हों, जहां 1984 के सिखों के कातिल अभी तक छुट्टा घूम रहे हो, जहां मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद डेढ़ लाख किसान आत्महत्या कर चुके हों, जिस मुल्क की लगभग चालीस फीसदी आबादी गरीबी की रेखा से नीचे रह रही हो, क्या यही लोकतंत्र है? अगर यही लोकतंत्र है जिसकी रक्षा करने का दावा किया जा रहा है तो ऐसे लोकतंत्र को जितना जल्दी हो सके आग के हवाले कर देना चाहिए।