मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

यूपी का विभाजन देश बांटने की पटकथा लिखेगा

यूपी का विभाजन देश बांटने की पटकथा लिखेगा


अमलेन्दु उपाध्याय

तेलंगाना राज्य बनाने की केन्द्र सरकार ने घोषणा क्या की पूरे देश में नए राज्य बनाने की पुरानी मांगों ने जोर पकड़ लिया। गोरखालैण्ड, बोडोलैण्ड, विदर्भ, हरित प्रदेश, बुन्देलखण्ड समेत लगभग दो दर्जन नए राज्य बनाए जाने की मांग सामने आ गई है। लगे हाथ उत्तार प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने भी प्रदेश को चार हिस्सों में बांटने की मांग कर डाली है। 'राहुल बाबा और सोनिया' की कांग्रेस भी पहले से ही इस मांग का समर्थन करती रही है। आखिर मामला क्या है? सारा देश एकदम बंटने को क्यों तैयार है? तेलंगाना की घोषणा के साथ ही उत्तर प्रदेश के विभाजन की बहस फिर से शुरू होर् गई है। सन 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग कर उत्तरांचल बनाया गया था उसके बाद भी उत्तर प्रदेश के बचे हुए भूभाग से कम से कम तीन और राज्य बनाने की मांग उठ रही है। थोड़े समय पहले ही केंद्रीय गृहमंत्रालय ने स्वीकार किया था कि बिहार से मिथिलांचल, गुजरात से सौराष्ट्र और कर्नाटक से कूर्ग राज्य अलग बनाने सहित कम से कम दस नए प्रदेशों के गठन की मांग की गई है। जबकि कई ऐसे राज्यों की भी मांगें उठ रही हैं जो बमुश्किल दो या तीन जिलों के बराबर हैं और उनकी दिल्ली तक आवाज अभी सुनाई नहीं पड़ी है। जैसे पश्चिम उड़ीसा में कौशलांचल राज्य या फिर हरियाणा में मेवात प्रदेश की मांग उठ रही है।

यहां यह जिक्र करना उचित होगा कि पं. जवाहर लाल नेहरू भाषाई आधार पर राज्यों के गठन का विरोध करते रहे थे लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामालू की मद्रास से आंधा्र प्रदेश को अलग किए जाने की मांग को लेकर 58 दिन के आमरण अनशन के बाद मौत और संयुक्त मद्रास में कम्युनिस्ट पार्टियों के बढ़ते वर्चस्व ने उन्हें अलग तेलुगू भाषी राज्य बनाने पर मजबूर कर दिया था। 22 दिसंबर 1953 में न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ। इस आयोग ने 30 सितंबर 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस आयोग के तीनं सदस्य-जस्टिस फजल अली, हृदयनाथ कुंजरू और केएम पाणिक्कर थे। 1955 में इस आयोग की रिपोर्ट आने के बाद ही 1956 में नए राज्यों का निर्माण हुआ और 14 राज्य व 6 केन्द्र शासित राज्य बने। फिर 1960 में पुनर्गठन का दूसरा दौर चला, जिसके परिणामस्वरूप 1960 में बंबई राज्य को तोड़कर महाराष्ट्र और गुजरात बनाए गए। 1966 में पंजाब का बंटवारा हुआ और हरियाणा और हिमाचल प्रदेश दो नए राज्यों का गठन हुआ। इसके बाद अनेक राज्यों में बंटवारे की मांग उठी लेकिन कांग्रेस ने अपने राजनीतिक हितों को धयान में रखकर बड़े राज्यों के विभाजन पर विचार किया और अपरिहार्य होने पर ही धीरे- धीरे इन्हें स्वीकार किया। फिर 1972 में मेघालय, मणिपुर, और त्रिपुरा बनाए गए। 1987 में मिजोरम का गठन किया गया और केन्द्र शासित राज्य अरूणाचल व गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। आखिर में वर्ष 2000 में भाजपा की मेहरबानी से उत्ताराखण्ड, झारखण्ड और छत्ताीसगढ़ अस्तित्व में आए।

1950 के दशक में बने पहले राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश में राज्यों के बंटवारे का आधार भाषाई था। इसके पीछे तर्क दिया गया कि स्वतंत्रता आंदोलन में यह बात शिद्दत के साथ उठी थी कि जनतंत्र में प्रशासन को आम लोगों की भाषा में काम करना चाहिए ताकि प्रशासन लोगों के नजदीक आ सके। इसी वजह से तब भाषा के आधार पर राज्य बने। अगर उस समय भाषा आधार न होता और तेलंगाना या उत्ताराखण्ड जैसी दबाव की राजनीति काम कर रही होती तो संकट हो सकता था। लेकिन उस समय भी इस फार्मूले पर ईमानदारी से काम नहीं किया गया। उस समय भी दो राज्य बंबई जिसमें गुजराती व मराठी लोग थे तथा दूसरा पंजाब जहां पंजाबी-हिंदी और हिमाचली भाषी थे, नहीं बाँटे गए। आखिरकार इन्हें भी भाषाई आधार पर महाराष्ट्र व गुजरात तथा पंजाब, हिमाचल व हरियाणा में बांटना ही पड़ा।

लेकिन भाषा के आधाार पर राज्यों के गठन का फार्मूला पूर्ण और तार्किक आधार नहीं था। अगर भाषा ही आधाार था तो विदर्भ को महाराष्ट्र से उसी समय अलग क्यों नहीं किया गया? आंधा्र को उसी समय क्यों नहीं तोड़ा गया? या सारे हिन्दी भाषी राज्यों को मिलाकर एक राज्य क्यों नहीं बनाया गया? क्या सभी हिन्दी भाषी राज्यों को मिलाकर एक राज्य बना देने से विकास किया जा सकेगा?

छोटे प्रदेश की वकालत करने वालों का तर्क है कि जनसंख्या एवं क्षेत्रफल की दृष्टि से कई राज्यों के आकारों में बड़ी विषमता है। एक तरफ़ तो बीस करोड़ से भी अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश जैसे भारी भरकम राज्य तो वहीं सिक्किम जैसे छोटे प्रदेश जिसकी जनसंख्या मात्र छ: लाख है। इसी तरह एक ओर राजस्थान जैसा लंबा चौडा राज्य जिसका क्षेत्रफल साढे तीन लाख वर्ग किमी है वहीं लक्षद्वीप मात्र 32 वर्ग किमी ही है । किंतु तथ्य बताते हैं कि छोटे प्रदेशों में विकास की दर कई गुना अधिक है। उदाहरण के लिए बिहार की प्रति व्यक्ति आय आज मात्र 3835 रु है जबकि हिमाचल जैसे छोटे राज्य में यही 18750 रु है । तर्क दिया जा रहा है कि छोटे राज्य बनने के बाद आर्थिक प्रगति होती है। इसके लिए हरियाणा और हिमाचल का उदाहरण दिया जाता है। लेकिन यह तर्क मिथ्या है। अच्छे प्रशासन के लिए छोटे राज्य ठीक हो सकते हैं लेकिन ये ही विकास की एकमात्र गारंटी कैसे हो सकते हैें? हरियाणा को छोड़ दिया जाए तो झारखण्ड, उत्ताराखण्ड और छत्ताीसगढ़ के संबंधा में विकास और अच्छे प्रशासन की बातें बेमानी साबित हुई हैं। किसी भी राज्य की प्रगति के लिए राजनीतिक स्थिरता जरूरी है, मगर झारखंड में नौ साल में छह मुख्यमंत्री बदले गए और भ्रष्टाचार व सार्वजनिक धान की जिस तरह से लूट खसोट की गई वह यह तर्क झुठलाने के लिए काफी है। इसी तरह छत्ताीसगढ़ में नक्सलवाद और राज्य प्रायोजित आतंकवाद 'सलवां जुड़ूम' इसका उदाहरण हैं जबकि उत्ताराखण्ड नौ वर्षों में अपनी राजधाानी ही तय नहीं कर पाया है। मणिपुर नगालैंड मिजोरम जैसे छोटे राज्य भी राजनीतिक तौर पर लगातार अस्थिर बने रहे हैं।

फिर जिस तरीके से प्रांतीयता के सवाल पर महाराष्ट्र में राज ठाकरे का आतंक फैला और मधय प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बाहरी लोगों को लेकर जो भाषा प्रयोग की या दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जिस तरह से अक्सर यूपी बिहार से आने वाले लोगों के लिए जहर उगलती रही हैं, वह संघीय गणतंत्र के स्वास्थ्य के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है। ऐसे में छोटे राज्य क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काने वाले और हमारे संञ्ीय ढांचे को तोड़ने वाले भी साबित हो सकते हैं।

जहां तक नए राज्यों की मांग का सवाल है तो काफी हद तक यह केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों की विफलता का नतीजा हैं। क्योंकि पिछड़े क्षेत्रों के लोगों को लगता है कि उनके साथ भाषा जाति, या क्षेत्र के नाम पर भेदभाव किया जा रहा है और नया राज्य बन जाने से उनका विकास होगा। असम से पृथक् किए गए नगालैंड, मणिपुर मिजोरम हों या मेञलय सभी छोटे हैं और सबकी अलग-अलग किस्म की जनजातीय आबादी और पहचान है। उनका असम के साथ रहना मुश्किल होता गया इसलिए इन्हें अलग राज्य बनाया गया। लेकिन क्या इन राज्यों का विकास हो पाया?

नए राज्यों की मांग के पीछे असल कारण राजनीतिक दलों व नेताओं की क्षेत्रीय राजनीतिक डॉन और मुख्यमंत्री बनने की इच्छा है। फिर ऐसी मांग करने वाले चाहे चौधारी अजित सिंह हों या मायावती। उत्तार प्रदेश को विभाजित करके हरित प्रदेश बनाए जाने की मांग कर रहे राष्ट्रीय लोकदल के नेता चौधारी अजित सिंह का सपना प्रदेश का मुख्यमंत्री बनना रहा है जिसके लिए उन्होंने कई अतार्किक समझौते भी किए हैं और कला बाजियां भी खाई हैं। उन्हें लगता है कि उत्तार प्रदेश के एक रहते वह जिंदगी भर मुख्यमंत्री नहीं बन सकते इसलिए हरित प्रदेश बन जाना चाहिए। तेलंगाना बुंदेलखंड हो या फिर हरित प्रदेश नए छोटे राज्यों की ऐसी तमाम मांगें जोर पकड़ रही हैं। इनके पीछे सामाजिक और आर्थिक और प्रशासनिक कारण तो हो सकते हैं लेकिन मुख्य कारण राजनीतिक ही हैे। स्वयं उत्तर प्रदेश कांग्रेस अधयक्ष रीता जोशी के इस कथन कि ' पहले मुलायम और अब मायावती उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य का प्रशासन चलाने में असमर्थ हैं। इसीलिए बुंदेलखंड सहित राज्य के दूसरे हिस्सों (पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पूर्वान्चल) के लोग अलग प्रदेश की मांग कर रहे हैं।' से नए राज्यों की मांग के पीछे छिपा राजनीतिज्ञों का दर्द समझा जा सकता है। कांग्रेस समझती है कि उत्तार प्रदेश के एक रहते वह वहां कभी अब पूर्ण बहुमत में नहीं आ सकती इसलिए प्रदेश तोड़ दिया जाए। यही कारण है कि अब केन्द्रीय राज्यमंत्री और हाल ही तक झांसी के विधायक प्रदीप जैन 'आदित्य' ने राज्य विधानसभा में पृथक बुंदेलखंड बनाने का प्रस्ताव रखा। मायावती भी इसी डर में यूपी के चार हिस्से चाहती हैं। उन्हें लगता है कि अगर पश्चिमी उ.प्र. अलग राज्य अन जाए तो वहां पच्चीस प्रतिशत दलित मतों के सहारे वह जिन्दगी भर मुख्यमंत्री बनी रह सकती हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बांदा चित्रकूट झांसी ललितपुर और सागर जिले को मिलाकर बुंदेलखंड राज्य बनाने की मांग उठती रही है। कांग्रेस भी इस की आग पर अपनी रोटियां सेंकती रही है। राहुल गांधाी ने बुन्देलखण्ड को जो स्पेशल आर्थिक पैकेज दिलवाया उसके पीछे विकास नहीं बल्कि कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की राजनीति है। इसी लालच में मायावती भी उ.प्र. को तोड़ने की बात कर रही हैं। क्योंकि उन्हें भी लगता है कि उ.प्र. बंट गया तो वह जिन्दगी भर मुख्यमंत्री बनी रहेंगी।

पहले पुनर्गठन आयोग ने यूपी के विभाजन के खिलाफ राय जताई थी तथा पं. नेहरू व गोविंद वल्लभ पंत भी उसके तर्को से सहमत थे। दिल्ली के प्रथम मुख्यमंत्री चौधारी ब्रह्म सिंह दिल्ली, हरियाणा, पश्चिमी उत्तार प्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्सों को मिलाकर 'वृहत्तार दिल्ली' बनाए जाने के पक्षधार थे। उनकी सोच थी कि यह जाट प्रदेश बन जाए तो उनकी पांचों ऊंगलियां घी में रहेंगी। उनका पं गोबिन्द वल्लभ पंत ने जोरदार विरोधा किया था। समय के साथ साथ यह मांग पीछे चली गई।

नए राज्यों के पुनर्गठन के लिए सुझाव देते वक्त 'राज्य पुनर्गठन आयोग' ने ही कई विवादों को जन्म दे दिया। आयोग की राय के खिलाफ जाकर उत्तर प्रदेश के टुकड़े कर छोटे राज्य बनाने का सुझाव फजल अली आयोग के सदस्य सरदार केएम पणिक्कर ने ही दिया था। उत्तर प्रदेश के बंटवारे के वह पहले प्रस्तावक थे। अपने प्रसिध्द असम्मति-पत्र, में पणिक्कर ने उत्तर प्रदेश को अंविभाजित रखने के आयोग के फैसले से असहमति जताते हुए देश की कुल आबादी के छठे भाग को एक ही राज्य में रखने को नासमझी करार दिया था।? अब उनकी इस टिप्पणी को आधाार बनाकर शासन कर पाने में असमर्थ नाकारा राजनेता उत्तार प्रदेश को बांटने की सिफारिश कर रहे हैं। उधार पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों को मिलाकर 'भोजपुर' राज्य बनाने की मांग भी की जा रही है जबकि मिथिला भाषी हिस्से को 'मिथिलांचल 'राज्य बनाने की मांग भी हो रही है।

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा जीजेएम पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग और आसपास के क्षेत्रों को मिलाकर गोरखालैण्ड बनाने की मांग कर रहा है और भाजपा इसका समर्थन कर रही है। भाजपा का सोचना है कि गोरखालैण्ड बन जाने से उसकी ताकत में थोड़ा इजाफा हो जाएगा क्योंकि जीजेएम के सहयोग से ही पं बंगाल के रास्ते लोकसभा में पहुंचने का उसका खाता पहली बार खुला है।

पश्चिम बंगाल और असम के क्षेत्रों को मिलाकर 'वृहद कूच बिहार' बनाए जाने की मांग उठती रही है। पं. बंगाल के ही उत्तारी जिलों को मिलाकर 'कामतापुर राज्य' बनाए जाने की मांग भी उठ रही है। तो असम के कछार, हैलाकांडी, और करीम गंज सहित कुछ जिलों को मिलाकर बराक घाटी राज्य की मांग भी उठती रहती है। जबकि बोडोलैण्ड की मांग तो काफी हिंसक रूख अख्तयार कर चुकी है।

मध्य प्रदेश में भी कई राज्य बनाए जाने की मांग की जा रही है। 'गोंडवाना' क्षेत्र को अलग करके गोंडवाना राज्य की मांग की जा रही है तो महाकोशल क्षेत्र को अलग करके 'महाकोशल* राज्य बनाए जाने की मांग भी की जा रही है।

इतना ही नहीं उत्तार प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कुछ जिलों को मिलाकर 'चंबल राज्य' बनाए जाने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू हो चुका है। राजस्थान में भी 'मरू प्रदेश' और 'मेवाड़' की मांग यदा-कदा उठती रहती है। ताजा मांग उदयपुर में हाईकोर्ट बेंच के बहाने 'मेवाड़' प्रदेश की है जिसे भाजपा नेता किरण माहेश्वरी हवा दे रही हैं।

आंधा्र प्रदेश में ही तेलंगाना के अलावा तटीय जिलों को मिलाकर रायलसीमा और काकतीय राज्य की मांग भी जोर पकड़ रही है। महाराष्ट्र में विदर्भ की अलग राज्य की मांग बहुत पुरानी है। जबकि इसके बरार क्षेत्र को भी अलग राज्य की मांग की जाती रही है। गुजरात से सौराष्ट्र राज्य अलग बनाने की है जो पिछले कई वर्ष से गृह मंत्रालय के समक्ष लंबित है।

कुल मिलाकर नए राज्यों की मांग विशुध्द राजनीतिक है और इसका विकास या अच्छे प्रशासन से कोई लेना देना नहीं है। प्रदेशों को बांटने की मुहिम क्या देश तोड़ने की मंजिल पर जाकर रूकेगी? खासतौर पर उ.प्र. बंटा तो मुल्क बंटने की पटकथा लिखी जाएगी।









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मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

जिन्हें राष्ट्रपति ने गुण्डे कहा अखबार ने उन्हें शहीद कहा

जिन्हें राष्ट्रपति ने गुण्डे कहा अखबार ने उन्हें शहीद कहा


अमलेन्दु उपाधयाय

6 दिसंबर बीत गया लेकिन बहुत से जख्मों को कुरेद गया। अखबारों में छपी खबरों को देखकर यह साफ हो गया कि सांप्रदायिक ताकतों ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर कब्जा कर लिया है।

याद होगा जब 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद शहीद की गई थी तब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा ने बाबरी मस्जिद गिराने वालों को 'गुण्डे' कहा था। लेकिन 6 दिसंबर 2009 के एक अखबार ने जो गांधी जी के समय से कांग्रेस समर्थित अखबार कहा जाता है, इन गुण्डों के लिए 'शहीद' शब्द का प्रयोग किया है। ऐसा तब है जब यही अखबार बाबरी मस्जिद शहीद किए जाने की निन्दा भी कर रहा है। बाबरी मस्जिद गिराने वाले गुण्डों को शहीद कहना इस देश पर मर मिटने वाले देशभक्त शहीदों का अपमान है।

वैसे तो लगभग हर अखबार ने बाबरी मस्जिद के लिए 'विवादित ढांचा' शब्द का प्रयोग किया है। मीडिया इस विषय में स्वयंभू जज बन गया है। सवाल यह है कि ढांचा विवादित कैसे हो गया? विवादित तो वह तथाकथित मंदिर है जिसने अपने निर्माण से पहले ही हजारों बेगुनाह इंसानों की बलि ले ली है और जहां बिना प्राण प्रतिष्ठा के मूर्तियों की पूजा होने लगी है।

सोमवार, 30 नवंबर 2009

भाजपा को नहीं मिलेगा लिब्राहन की रिपोर्ट का लाभ

भाजपा को नहीं मिलेगा लिब्राहन की रिपोर्ट का लाभ




अमलेन्दु उपाध्याय



आखिरकार सरकार को लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट संसद के पटल पर रखने को विवश होना ही पड़ा। और यह रिपोर्ट पेश होते ही इसका फायदा उठाने के लिए सियासी कुश्ती शुरू भी हो गई है। समझा जा रहा है कि यह रिपोर्ट डूबती भाजपा के लिए संजीवनी का काम करेगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या भाजपा को इस रिपोर्ट के आने से कोई फायदा मिलेगा? लगता तो नहीं है।






प्रथम दृष्टया तो यह सरकार की तरफ से चला गया दांव ही लग रहा है। भले ही रिपोर्ट लीक मामले पर गृहमंत्री पी चिदंबरम यह आश्वासन दें कि गृह मंत्रालय से किसी ने भी इस बारे में किसी से बातचीत नहीं की है और इसकी एक ही प्रति है और वह पूरी हिफाजत से रखी गई है। लेकिन समझने वाले समझते हैं कि कहीं न कहीं इस रिपोर्ट लीक के पीछे हाथ कांग्रेस और केंद्र सरकार का ही है। क्योंकि बाबरी मस्जिद (ढांचा नहीं मस्जिद ही पढ़ा जाए) को शहीद किया जाना कोई छोटी मोटीे घटना नहीं थी। 6 दिसंबर 1992 स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा मोड़ था जिसने भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल दी। तब ऐसे मौके पर कांग्रेस भला क्यों भाजपा को इस रिपोर्ट का फायदा उठानें देना चाहेगी? वैसे भी सत्रह साल बाद लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट का कोई बहुत मतलब नहीं रह जाता.






जहां तक मस्जिद विध्वंस के दोषियों का सवाल है तो आज अपनी रिपोर्ट में अगर लिब्राहन ने किसी राजनीतिक व्यक्ति को इस ञ्टना के लिए षडयंत्र का दोषी माना भी है तो अब इससे क्या होगा? जितने लोगों की गवाही इस आयोग के सामने हुई है और जिन 68 को आयोग ने दोषी ठहराया है, उनमें से अधिकांश लोगों पर रायबरेली की कोर्ट में मुकदमा पहले से ही चल रहा है. फिर किसी एक ञ्टना में एक ही व्यक्ति पर दो मुकदमें नहीं चलाए जा सकते. रायबरेली की अदालत से कोई फैसला आने के बाद ही उस पर आगे की कार्रवाई तय होगी. जबकि इनमें से कई अब अल्लाह मियां को प्यारे हो चुके हैं।






इसलिए इस रिपोर्ट का कोई कानूनी मतलब नहीं रह गया है हां इसके राजनीतिक निहितार्थ जरूर हैं और उन्हें पूरा करने के लिए ही भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में युध्द छिड़ा है।


हां सवाल है कि लिब्राहन आयोग का प्रतिवेदन केंद्र सरकार और स्वयं आयोग के पास था। यह प्रतिवेदन कार्रवाई रिपोर्ट के साथ संसद में पेश किया जाना चाहिए था, लेकिन इससे पहले ही यह मीडिया को लीक कैसे हो गया? अब अगर चिदंबरम सच बोल रहे हैं कि सरकार ने यह रिपोर्ट लीक नहीं की है तो किसने की? क्या गश्ह मंत्री का इशारा जस्टिस लिब्राहन की तरफ है? तो सरकार उनके खिलाफ क्या कदम उठाएगी? यह मामला इसलिए भी गम्भीर है कि संसद का सत्र चल रहा है और जो रिपोर्ट इस सत्र में पेश की जानी थी उसका मीडिया में लीक हो जाना संसद की तौहीन है और जाहिर है कि इस तौहीन का इल्जाम सरकार पर ही आयद होता है। जस्टिस लिब्रहान के विषय में आम धाारण्ाा है कि वह बहुत ईमानदार हैं और रिपोर्ट लीक करने जैसा घटिया काम कतई नहीं कर सकते। अखबार ने भी 'गश्ह मंत्रालय के सूत्रों' का उल्लेख किया है। इसलिए संदेह के घेरे में तो चिदंबरम का मंत्रालय ही है।






फिर सवाल यह है कि इस रिपोर्ट के समय से पहले लीक होने से फायदा किसे है? जाहिर है कि जबर्दस्त अंदरूनी कलह से जूझ रही भाजपा इस रिपोर्ट का कुछ भी फायदा लेने की स्थिति में नहीं है। ऐसा नहीं है कि वह इसका फायदा लेना नहीं चाहती लेकिन ऐसा अवसर फिलहाल तो उसके पास नहीं है। हालांकि अडवाणी जी इसका व्यक्तिगत फायदा उठाना चाहते हैं जैसा उनके लोकसभा में भाषण से स्पष्ट भी हो गया लेकिन क्या भाजपा इसका फायदा उन्हें उठाने देगी? हालांकि उदार दिखने की चाहत में अडवाणी जी आयोग के सामने जो बयान दे बैठे थे वह उन्हें इसका लाभ लेने से रोकेगा, जिसमें उन्होंने कहा था कि बाबरी मस्जिद तोड़े जाने का दिन उनकी जिंदगी का सबसे दुखदाई दिन था। उन्होंने इस ञ्टना की तुलना 1984 के सिख विरोधी दंगों से करते हुए आयोग से कहा था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के दंगे में सिखों के खिलाफ भड़की हिंसा 6 दिसंबर से ज्यादा शर्मनाक थी। अब किस मुंह से अडवाणी इसका लाभ उठा पाएंगे?






वैसे यह रिपोर्ट भाजपा के लिए एक सुनहरा अवसर साबित हो सकती थी लेकिन सत्ताा के लालच में वह यह अवसर स्वयं गंवा चुकी है। उसकी राम मंदिर की काठ की हांडी एक नहीं तीन तीन बार आग पर चढ़ चुकी है और अब चढ़ने से रही। भाजपा अपनी असल सूरत छिपाने के चक्कर में लगातार ऊहापोह की शिकार रही है। एक तरफ अटल अडवाणी की मंडली लगातार 6 दिसंबर 1992 के लिए माफी भी माँगती रही है और दूसरी तरफ भाजपा 6 दिसंबर को शौर्य दिवस भी मनाती रही है। आखिर बाबरी मस्जिद शहीद किए जाने की जिम्मेदारी स्वीकार करने से भाजपा शरमाती क्यों रही है? और अगर यह काम उसने नहीं किया था तो हर 6 दिसंबर को शौर्य किस बात का?






भाजपा को इस प्रकरण का कोई लाभ न मिल पाने का एक महत्वपूर्ण कारण है। भाजपा अभी तक इसी उधोड़बुन में है कि अडवाणी जी को अपना नेता माने या न माने। पिछले एक वर्ष में जिस तरह से अडवाणी जी के ऊपर संघ परिवार ने हमले किए हैं वह भाजपा की अंदरूनी कलह को उजागर करते हैं। भाजपा को इस रिपोर्ट का फायदा मिल भी सकता था अगर उसके सेनापति अडवाणी जी बने रहें। लेकिन अडवाणी जी से तख्त-औ-ताज और उनका चैन-औ-करार छीनने को बेताब राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरूण जेटली वैंकेया नायडू और गडकरी की कंपनी क्या ऐसा होने देगी? भाजपा की सैकेण्ड लाइन लीडरशिप बहुत जल्दी में है। अगर अडवाणी जी दो चार साल ही और टिक गए तो उसके तो सारे अरमानों पर पानी फिर जाएगा। इसलिए यह मंडली कभी नहीं चाहेगी कि अडवाणी जी को इसका कोई फायदा व्यक्तिगत रूप से मिले और जब तक अडवाणी जी को इसका लाभ नहीं मिलेगा तब तक भाजपा को भी इसका कोई लाभ मिलने से रहा।






फिर भाजपा अटल और अडवाणी के बाद कोई भी गंभीर और हद दर्जे का चतुर नेता पैदा नहीं कर पाई है जो कारगिल में हुई अपनी थुक्का फजीहत को भी 'विजय' के रूप में कैश कर सके और खूंखार आतंकवादियों की दामाद की तरह खातिरदारी कर कंधाार छोड़ आने के बाद भी अडवाणी जी को 'लौह पुरूष' की तरह प्रोजेक्ट कर सके।






इसके अलावा भी भाजपा की समस्याएं कम नहीं है। हर सांप्रदायिक और कट्टर आंदोलन का उभार एक निश्चित समय के लिए होता है उसके बाद उसका पराभव होता है। राम मंदिर आंदोलन के बहाने भाजपा ने जिस सांप्रदायिक और फासीवादी उभार को पाला पोसा था उसका गुब्बारा 6 दिसंबर 1992 के साथ ही फूटा और उसकी सारी हवा उस दिन निकल गई जब भाजपा ने सत्ता में आने के लिए राम मंदिर, धाारा 370 और यूनिफॉर्म सिविल कोड जैसे मुद्दों को छोड़ा। उग्र हिंदू तबके में उसकी विश्वसनीयता उसके इस कृत्य से घट गई। अब अगर लिब्रहान के बहाने भाजपा ऊंगली कटाकर शहीद होने का नाटक करती भी है तो भी यह उग्र हिंदू तबका उसके हाथ आने से रहा।






दूसरे इन सत्रह सालों में गंगा में बहुत पानी बह चुका है। सबसे बड़ी बात यह है कि पिछले डेढ़ दशक में भारत का आर्थिक परिदृश्य बड़ी तेजी से बदला है। उदारीकरण और वैश्वीकरण के आने के बाद वह मधय वर्ग जो भाजपा का हिमायती समझा जाता है उसकी एक नई पीढ़ी तैयार हो चुकी है। यह नई पीढ़ी सांप्रदायिक तो है पर है शुध्द व्यावसायिक और पेशेवर। पेप्सी, कोला, पिज्जा बर्गर और मिनरल वाटर पर पलने वाली यह पीढ़ी दंगों से अपने आर्थिक हितों पर होने वाली चोट को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। जबकि भाजपा समेत हर फासीवादी सांप्रदायिक उभार के लिए दंगे अनिवार्य शर्त हैं। इसका गंभीर पहलू यह भी है कि इस आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण को भाजपा ने भी कांग्रेस के साथ साथ पाला पोसा है।






हालांकि भाजपा ने इस रिपोर्ट का लाभ उठाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। राज्यसभा में जिस तरह से एसएस अहलूवालिया और भाजपा के परम मित्र और कल तक कल्याण सिंह के परम सखा रहे और कल्याण सिंह की तुलना जनाब-ए- हुर से करने वाले अमर सिंह में जिस तरह नूरा कुश्ती हुई उससे संकेत मिल गया है कि भाजपा अब मुलायम सिंह की मदद से इस मुद्दे पर देश के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने का प्रयास करेगी। ताज्जुब इस बात का है कि मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी जो लगातार बाबरी मस्जिद की कमाई खाती रही है, इस मुद्दे पर चुप लगा गई थी क्यों कि तब कल्याण सिंह उसके साझीदार हो गए थे और मुलायम सिंह ने तो यहां तक कह दिया था कि बाबरी मस्जिद का मुद्दा अब पुराना पड़ गया है। लेकिन अब फिर सपा को भी इस रिपोर्ट के बहाने बाबरी मस्जिद याद आने लगी है।






कुल मिलाकर कांग्रेस ने इस रिपोर्ट को सही वक्त पर लीक कराकर एक बार फिर बाजी मार ली दिखती है। क्योंकि हाल फिलहाल में कहीं चुनाव भी नहीं होना है और लोकसभा चुनाव भी दूर हैं। और अगर यह रिपोर्ट ऐसे समय लीक होती जब संसद सत्र नहीं चल रहा होता तो जो हंगामा भाजपा अपनी मित्र समाजवादी पार्टी के साथ सदन में कर रही है तब सड़कों पर कर रही होती। साथ ही अभी भाजपा इसी उलझन में फंसी हुई है कि अडवाण्ाी जी को अपना नेता माने या न माने और अगर इसका कुछ फायदा अडवाणी जी के खाते में जाता भी है तो उससे भाजपा को कोई लाभ नहीं होना है। दूसरी तरफ उत्तार प्रदेश जहां कांग्रेस इस समय चौतरफा लड़ाई लड़ रही है वहां उसे फायदा होगा क्योंकि वह मुलायम सिंह जो कल तक कह रहे थे कि बाबरी मस्जिद विधवंस मामले में कल्याण सिंह दोषी नहीं हैं वह अब किस मुंह से लिब्राहन की रिपोर्ट पर हाय तौबा मचाएंगे? अब कांग्रेस के पास उन्हें उत्तार प्रदेश में घेरने का आधाार होगा। वैसे भी अब मुलायम सिंह के सारे पुराने साथी साथ छोडत्र चुके हैं और दलालों को जनता जानती है।






उधार कल्याण सिंह भी जो अभी कुछ दिन पहले ही छह दिसंबर 1992 के लिए मुसलमानों से माफी मांग रहे थे तुरंत हिन्दू हो गए हैं और जोर शोर से अपने शहीद होने का बखान कर रहे हैं॥ बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के समय कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। हालांकि वे लिब्राहन कमीशन के सामने पेश होने से ग्यारह साल तक बचते रहे। उन्होंने इसके खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर करके कहा था कि आयोग के सामने पेश होने पर सीबीआई कोर्ट में उनके खिलाफ चल रहे मुकदमे पर प्रभाव पड़ेगा। पर कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी तो उन्हें गवाही देने पेश होना पड़ा। तब उन्होंने दावा किया था कि उनकी सरकार ने बाबरी मस्जिद को बचाने के पूरे इंतजाम किए थे लेकिन केंद्र की कांग्रेस सरकार ने ऐसी परिस्थिति तैयार की जिससे मस्जिद टूटी।






हालांकि दिक्कतें कांग्रेस के सामने भी हैं। ऐसे में लगता नहीं कि कांग्रेस ईमानदारी से इस रिपोर्ट पर कार्रवाई करेगी? क्योंकि सवाल तो कांग्रेस से भी होंगे ही। सरकार ने जो एटीआर प्रस्तुत की है उससे उसकी मंशा जाहिर हो गई है। नरसिंहा राव ने आयोग को दिए अपने बयान में कहा था कि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार के हाथ बंधक बन गई थी। अयोध्या में कारसेवकों की भीड़ बढ़ने के साथ-साथ हालात खराब होते गए। उन्होंने सफाई दी थी कि केंद्र सरकार के हाथ बंधे हुए थे। राव ने कहा था कि इतिहास उनके साथ न्याय करेगा। लेकिन सवाल यह है कि यह न्याय कैसा होगा जब उनकी पार्टी ही अब उनका नाम लेने से कतराती है?






मानना पड़ेगा चिदंबरम भाजपा के नेताओं के मुकाबले कहीं अधिाक चतुर सुजान हैं जिन्होंने एक छोटी सी चाल चलकर भाजपा समेत अपने सारे विरोधिायों को चित्ता कर दिया है। आयोग की रिपोर्ट लीक होने से कांग्रेस को सीधा राजनीतिक फायदा मिलेगा वहीं भाजपा को इस रिपोर्ट से अब कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि अब वह अपनी सारी ऊर्जा इस बात पर खर्च कर देगी कि रिपोर्ट लीक कैसे हुई?



शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

कोड़ा न पहले हैं और न आखिरी

कोड़ा न पहले हैं और न आखिरी
मध़ु कोड़ा के लगभग सौ ठिकानों पर आयकर विभाग के छापों के बाद राजनीतिज्ञों का भ्रष्टाचार एक बार फिर गर्म बहस का मुद्दा बन गया है। लेकिन जहां तक राजनीति में भ्रष्टाचार का सवाल है, कोड़ा न पहले हैं और न आखिरी। ऐसा भी नहीं है कि जिनके मामले सामने नहीं आए हैं उनके ईमानदार होने की कोई गारंटी दी जा सकती हो। क्या जरूरी है जिनके मामले आज नहीं खुले कल भी उनके मामले नहीं खुलेंगे या जिनके मामले नहीं खुलेंगे वह दूधा के धाुले ही होंगे। कोड़ा का मामला इस मामले में अद्भुत है कि इस मामले से यह राज उजागर हो गया है कि कुछ दिनों का मुख्यमंत्री किस तरह चुटकियों में अरबों रूपया बना सकता है।
मात्र डेढ़ दशक पहले एक ठेका मजदूर की हैसियत से अपने कैरियर की शुरूआत करने वाले कोड़ा शुरू में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े और उसके चरित्रवान कार्यकर्ता रहे। बाद में भाजपा के टिकट पर विधाायक चुन लिए गए। जब राज्यसभा चुनाव में उन्होंने क्रॉस वोटिंग की तो भाजपा ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। लेकिन तब तक चतुर सुजान कोड़ा भारतीय राजनीति की कमजोर नब्ज को पहचान चुके थे। वह निर्दलीय चुनाव लड़ गए और चुनकर आए। उनके भाग्य ने पलटा खाया और भाजपा को उन्हीं कोड़ा की शरण में जाकर सरकार बनानी पड़ी जिन्हें उसने कुछ दिन पहले ही बाहर का रास्ता दिखाया था। कोड़ा ने अपनी पूरी कीमत भाजपा से वसूली और समय आने पर अपने पुराने अपमान का बदला अर्जुन मुंडा की सरकार गिराकर ले लिया। कांग्रेस ने उनका सहयोग किया और कोड़ा ने निर्दलीय विधाायक की हैसियत से मुख्यमंत्री बनने का कीर्तिमान स्थापित किया। कोड़ा जिस दिन मुख्यमंत्री बने थे उसी दिन यह तय हो गया था कि झाारखंड पतन के रास्ते चल पड़ा है।
ऐसा भी नहीं है कि कोड़ा के यह कारनामे एकदम सामने आए हों। बल्कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को इनकी जानकारी रही ही होगी। जिस साधाारण से आदमी दुर्गा उरांव की शिकायत पर कोड़ा के खिलाफ जांच की गई उसने यह शिकायत काफी पहले की थी। लेकिन कोड़ा के खिलाफ आयकर विभाग ने कार्रवाई तब की जब झारखण्ड में चुनाव का बिगुल फुंक चुका है और कोड़ा की जरूरत यूपीए को न केन्द्र में है और न इस वक्त झाारखण्ड में। ऐसे में कोड़ा पर कानून का कोड़ा कई शंकाओं को भी जन्म देता है। पूर्व प्रधाानमंत्री वीपी सिंह की पुस्तक 'मंजिल से ज्यादा सफर' में उन्होंने याद दिलाया है कि कैसे एक समय ऐसा भी आया था जब प्रणव मुखर्जी कांग्रेस से बाहर चले गए थे और उस समय उनके भी ठिकानों पर छापे पड़े थे।
कहा जाता है कि राजनीति देश की अर्थव्यवस्था की दिशा तय करती है और राजनीति इतना सरल विषय नहीं है जितना इसका मजाक उड़ाया जाता है। लेकिन हमारे राजनीतिज्ञों ने राजनीति की धाारा ही बदल दी है अब 'अर्थ' राजनीति की दिशा तय कर रहा है। अगर संसद में मुलायम सिंह यादव, अनिल अंबानी के समर्थन में दलीलें दे रहे हैं तो एस्सार समूह के हितों की रक्षा सुषमा स्वराज कर रही हैं। नाथवानी, मुकेश अंबानी के पैरोकार हैं तो बुध्ददेव भट्टाचार्य टाटा के दोस्त बने हुए हैं। इस मामले में किसी को भी बेदाग नहीं कहा जा सकता। 'डिफरेन्ट विद अदर्स' का राग अलापने वाली भाजपा की पोल तो काफी पहले ही खुल चुकी है और कांग्रेस में तो कृष्णा मेनन के समय से ही ऐसे लोगों की कमी नहीं है। हां वामपंथी दल अभी तक इस बीमारी से अछूते थे लेकिन अब वहां भी पी विजयन पैदा होने लगे हैं। समाजवादियों की तो बात ही छोड़ दीजिए। उनका समाजवाद ही पूंजीपतियों का पिछलग्गू है।
धोटालों ओर राजनीति का चोली दामन का साथ स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही रहा है। सबसे पहले घोटाले का पर्दाफाश तत्कालीन प्रधाानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू के दामाद फिरोज गांधाी ने किया था और हरिदास मूंदड़ा के खिलाफ संसद में आवाज उठाई थी। इस घटना से पं नेहरू की सरकार को असहज स्िथिति का सामना करना पड़ा था और तत्कालीन वित्ता मंत्री को त्यागपत्र देना पड़ा था। 1957 में हुए इस घोटाले को धोटाला युग का सूत्रधाार कहा जा सकता है। इससे पहले आजादी के तुरन्त बाद जीप घोटाला भी हुआ था और उस समय ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त कृष्णा मेनन के ऊपर इस घोटाले को लेकर उंगलियां उठी थीं। तब से चला सिलसिला 1980 में तेल कुंआ घोटाला, 1982 में अंतुले प्रकरण, फिर चुरहट लाटरी कांड जिसमें कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह पर भी उंगलियां उठी थीं, नब्बे के दशक में शेयर घोटाला, चारा घोटाला, हवाला कांड, नरसिंहाराव का सांसद रिश्वत कांड, अब्दुल करीम तेलगी का स्टाम्प घोटाला, तहलका का रक्षा सौदा भंडाफोड़ से होता हुआ मधाु कोड़ा तक जा पहुंचा है।
पूर्व केन्द्रीय मंत्री सुखराम को आय से अधिाक संपत्तिा के मामले में दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने तीन साल की सजा सुनाई व दो लाख रूपये का जुर्माना भी सुनाया। लेकिन उन्हें सजा भुगतने के लिए जेल नहीं जाना पड़ा क्योंकि अदालत ने पचास हजार रूपये के निजी मुचलके पर उन्हें जमानत दे दी। बारह साल तक चले इस केस में अदालत में यह साबित हो गया था कि नरसिम्हाराव सरकार में संचार मंत्री रहते हुए सुखराम ने ठेके देते वक्त भ्रष्टाचार किया था। सीबीआई ने उनके घर छापा मारकर 3 करोड़ 61 लाख रूपये पकड़े थे। तब सुखराम ने इन रूपयों को पार्टी का चंदा बताया था लेकिन कांग्रेस द्वारा इस धान से पल्ला झाड़ लेने के कारण सुखराम मुसीबत में पड़ गए थे। बाद में पं. सुखराम हिमाचल में कांग्रेस से बदला लेने के लिए भाजपा के साथ हो गए थे और भाजपा की सरकार उनके आशीर्वाद से ही चली। बताया जाता है कि सुखराम राजनीति में कदम रखने से पहले मंडी के स्कूल में क्लर्क थे।
हाल ही में सबसे ज्यादा गम्भीर मामला संचार मंत्री ए राजा का सामने आया। बीती 21 अक्टूबर को एक प्राथमिकी दर्ज की गई जिसमें दूर संचार विभाग के अज्ञात अधिाकारियों व्यक्तियों/ कंपनियों पर सरकार को धाोखा देने का आरोप लगाया गया और कहा गया कि स्पेक्ट्रम को बिना नीलामी किए सस्ती दर पर बेचा गया। अगले ही दिन सीबीआई ने दूर संचार विभाग के अधिाकारियों के ठिकानों पर छापे मारे। जब विपक्ष ने संचार मंत्री ए राजा के इस्तीफे की मांग की तो प्रधाानमंत्री ने कह दिया कि कोई घोटाला हुआ ही नहीं है। दरअसल कांग्रेस राजा के खिलाफ कुछ भी करने से इसलिए डर गई क्योंकि राजा ने कह दिया था कि जो कुछ हुआ वह मंत्रिमंडलीय समिति की जानकरी में था और '' लाइसेंस मुद्दे की प्रक्रिया की पूरी जानकारी प्रधाानमंत्री को दे दी गई थी।''
बोफोर्स तोप घोटाले का जिन्न भी दो दशक से भारतीय राजनीति का पीछा करता आ रहा है। हालांकि इसमेें स्व. राजीव गांधाी के दामन पर जो दाग पड़े थे अब वह धाुल चुके हैं और इस मुद्दे को उठाने वाले स्व. वीपी सिंह भी अपने जीवन के अंतिम क्षणों में ऐसा आरोप लगाने के लिए एक तरह से अपराधाबोधा का इजहार करने लगे थे। लेकिन क्वात्रोची को बचाने की कोशिशें करने पर कांग्रेस बार बार सवालों के घेरे में आ जाती है। पूर्व विदेश मंत्री कुंवर नटवर सिंह भी वोल्कर समिति की रिपोर्ट आने के बाद इराक को तेल के बदले अनाज के घोटालें में घिर चुके हैं।
इनेलो नेता ओमप्रकाश चौटाला भी सीबीआई की नजर में लगभग 2000 करोड़ की संपत्तिा के मालिक हैं और इनकी सरकार में शिक्षक भर्ती घोटाले के आरोप लग चुके हैं। इसी तरह पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल भी भ्रष्टाचार के मामलों में फंस चुके हैं। उन पर भी कई स्थानोें पर होटल और अवैधा संपत्तिा जमा करने के आरोप हैं। जबकि उनके प्रतिद्वन्दी पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह भी ऐसे ही आरोपों का सामना कर रहे हैं।
राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव का चारा घोटाला तो काफी चर्चा में रहा। इस केस में कई लोगों को सजाएं हो चुकी हैं और लालू को कब सजा होती है देखना पड़ेगा। इसी तरह राममनोहर लोहिया के समाजवाद के थोक विक्रेता मुलायम सिंह यादव भी आय से अधिाक संपत्तिा के मामलों का सामना कर रहे हैं। उनके मामले में भी कई दिलचस्प मोड़ आए। वही सीबीआई जिसने उन पर मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी थी यूपीए सरकार को सपा के समर्थन के बाद कहने लगी कि अब मुकदमा चलाने की कोई जरूरत नहीं है। इतना ही नहीं वह विश्वमोहन चतुर्वेदी जिन्होंने अदालत में मुलायम सिंह को घसीटा था अब स्वयं अदालत से गैर हाजिर चल रहे हैं। इसी तरह मुलायम सिंह की धाुर विरोधाी मायावती भी ताज कोरीडोर मामले और आय से अधिाक संपत्तिा के मामलों का सामना कर रही हैं। इसी तरह अनुसूचित जाति आयोग के अधयक्ष सरदार बूटा सिंह के सुपुत्र स्वीटी सिंह एक ठेकेदार से तीन करोड़ रूपये की रिश्वत मांगने पर पकड़े गए।
तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता भी अकूत संपत्तिा की मालकिन हैं। वह तांसी भूमि घोटाले में फंसी। लेकिन एक तकनीकी फॉल्ट के कारण सुप्रीम कोर्ट से बरी हो गईं। बताया जाता है कि जब उनकी मां की मृत्यु हुई थी तब उनके पास अपनी मां का अन्तिम संस्कार करने के लिए पैसे नहीं थे लेकिन जब उनके दत्ताक पुत्र का विवाह हुआ और उनके धर पर छापे में उनके गहने और कपड़े पकड़े गए तो सारी दुनिया ने आश्चर्य से अपनी अंगुली दांतो तले दबा ली।
उत्तार प्रदेश के परिवहन मंत्री रामअचल राजभर भी आरोपों के घेरे में हैं। बताया जाता है कि अम्बेडकरनगर बार एसोसिएशन ने राजभर की संपत्तिायों की सीबीआई जांच कराने का अनुरोधा करते हुए एक याचिका दायर करके कहा है कि राजभर किसी समय साइकिल पर घूम-घूमकर चूहा मार दवा बेचा करते थे ऐसे में उनके पास अकूत संपत्तिा कहां से आ गई?
एनडीए सरकार में एक वेबसाइट तहलका डॉट कॉम ने रक्षा सौदों में दलाली का भंडाफोड़ किया था। जिसमें तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज, उनकी सखी और समता पार्टी अधयक्षा जया जेटली व भाजपा अधयक्ष बंगारू लक्ष्मण्ा फंसे थे। लेकिन एनडीए सरकार ने बहुत निर्लज्जता के साथ सीबीआई को यह जांच करने का आदेश दे दिया कि तहलका की यह स्टिंग आपरेशन करने की मंशा क्या थी? इतना ही नहीं सीबीआई ने तहलका के पत्रकारों के खिलाफ उत्तार प्रदेश में वन्य जीवों का अवैधा शिकार करने का मुकदमा कायम कर दिया था। बाद में कारगिल शहीदों के लिए ताबूत खरीदने में घोटाले के आरोप भी एनडीए सरकार पर लगे थे।
इस कड़ी मे एक और चौंकाने वाला नाम माकपा की केरल इकाई के सचिव पी विजयन का है। अभी तक यह धाारणा थी कि वामपंथी दलों के नेताओं में नैतिकता है और वह ऐसे कारनामों में लिप्त नहीं रहते हैं। लेकिन विजयन ने इस मिथक को तोड़ा है। इसी तरह माकपा सांसद नीलोत्पल बसु का एनजीओ भी सवालों के घेरे में है।
विगत लोकसभा में सांसदों का कैश फॉर क्वैरी कांड की गूंज भी काफी तेज रही। एक निजी टीवी चैनल के स्टिंग ऑपरेशन में कई सांसद पैसा लेकर संसद में सवाल पूछते पकड़े गए। लेकिन तत्कालीन लोकसभा अधयक्ष सोमनाथ चटर्जी के कड़े रुख के बाद संसद ने इन सांसदों का सदस्यता रद्द कर दी। इसमें भी एक दिलचस्प पहलू यह है कि बसपा के एक सांसद राजाराम पाल जो इस कांड में अपनी सदस्यता गंवा बैठे थे वर्तमान सदन में कांग्रेस के माननीय सदस्य हैं। इसलिए भ्रष्टाचार की इस गंगा में डुबकी लगाने वाले हर दल के सदस्य हैं। यह सत्ताा का चरित्र है।
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं।)

‘डेली न्यूज’ जयपुर में प्रकाशित

पत्रकारिता के शिखर पुरुष प्रभाष जोशी

पत्रकारिता के शिखर पुरुष प्रभाष जोशी

हिन्दी पत्रकारिता के भीष्म पितामह प्रभाष जोशी हमेशा के लिए इस दुनिया को छोड़ गए हैं। उनके साथ ही 'मिशन पत्रकारिता' के एक पूरे युग का अंत हो गया है। प्रभाषजी पत्रकारिता के भीष्म पितामह जरूर थे लेकिन जब-जब पत्रकारिता की द्रोपदी की लाज लुटी वह द्रोपदी की रक्षा के लिए आगे बढ़कर आए। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी वह अखबारों में कम होती संपादक की भूमिका और अखबार मालिकों के पैसे लेकर खबरें बेचने के कारनामों के खिलाफ लड़ते रहे

अमलेन्दु उपाध्याय
अब नहीं रहे। यह खबर सुनने में अटपटी लगती है पर है सच। प्रभाषजी के साथ पत्रकारिता के एक पूरे युग का अन्त हो गया और उनका यूं अचानक चले जाना उन लोगों के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं है जो पत्रकारिता को एक मिशन मानकर और आम आदमी का सच्चा प्रतिनिधिा मानकर काम करते हैं।
प्रभाषजी, राजेन्द्र माथुर के बाद उस मायने में सच्चे पत्रकार थे जो पत्रकारिता के जरिए सार्थक दिशा में समाज बदलने की चाहत रखते थे और कुल मिलाकर खांटी पत्रकार थे। ऐसा भी नहीं है कि राजेन्द्र माथुर या प्रभाषजी के अलावा समकालीन दौर में पत्रकारिता के क्षेत्र में बड़े नाम वालों की कोई कमी हो। अज्ञेय, धार्मवीर भारती, कमलेश्वर, रघुवीर सहाय कुछ ऐसे लोग रहे जिन्होंने पत्रकारिता के नए मानदण्ड स्थापित किए। लेकिन प्रभाषजी को एक बात जो बाकियों से अलग कर उन्हें राजेन्द्र माथुर की श्रेणी में रखती है, वो यह है कि प्रभाषजी सौ फीसदी पत्रकार थे। वह न तो साहित्य में नाम कमाने के बाद पत्रकारिता में आए थे और न ही साहित्य में विफल होने के बाद। जिस तरह रघुवीर सहाय की कविता को आम आदमी का रोजनामा तथा 'राजनीति और विरोधा' की कविता कहा जाता है ठीक उसी तरह प्रभाषजी की पत्रकारिता आम आदमी के दुख दर्द के लिए थी। प्रभाषजी ने अपने लगभग चार दशक की पत्रकारिता के दौर में पत्रकारों की जो एक पौधा लगाई वह भी सौ फीसदी सच्चे पत्रकारों की थी। यह प्रभाषजी का ही कौशल था कि उनकी टीम में अगर राम बहादुर राय, बनवारी थे तो अभय कुमार दुबे, अंबरीश कुमार जैसे लोग भी थे। आलोक तोमर, प्रदीप सिंह, सुशील कुमार सिंह, निरंजन परिहार, उमेश जोशी, ओम थानवी प्रभातरंजन दीन जैसे लोग प्रभाषजी की ही देन हैं।
मेरा प्रभाषजी से सीधाा कभी कोई वास्ता तो नहीं रहा लेकिन एक खुशी है कि उनके जीवन की आखिरी मुहिम, जिसमें उन पर काफी हमले भी हुए, में मैं भी शामिल रहा। विगत लोकसभा चुनाव में हिन्दी पट्टी में कई बड़े अखबारों ने पैसे लेकर खबरें छापीं। प्रभाषजी ने बाकायदा अखबारों के इस कारनामे के खिलाफ आंदोलन चलाया। उस वक्त मैं रामबहादुर राय जी द्वारा संपादित पत्रिका 'प्रथम प्रवक्ता' में था। राय साहब ने इस मुद्दे पर देश भर से जानकारी इकट्ठा करने और आई हुई खबरों को संपादित करने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर ही डाली। इस दौरान एक घटना हुई जो प्रभाषजी के साथ साथ राय साहब की पत्रकारिता की भी पहचान कराती है। हमारे झारखंड के संवाददाता की खबर आई कि 'प्रभात खबर' में भी खबरें विज्ञापन के रूप में छपीं लेकिन उनके नीचे और ऊपर पीके मीडिया इनीशिएटिव लिखकर यह बताने का प्रयास किया गया कि यह खबर नहीं है।
ऐसे समय संकट इस बात का था कि 'प्रभात खबर' के संपादक हरिवंशजी, राय साहब के भी मित्र हैं और प्रभाषजी से भी उनका नजदीकी संबंधा था। मैंने राय साहब से कहा कि झारखंड से ऐसी खबर आई है क्या देना उचित रहेगा? राय साहब ने कहा कि जरूर दिया जाएगा। अगर खबर आई है तो वह किसी ने भी किया हो दिया जाएगा। इसके बाद सारी खबरें प्रभाषजी के भी पास गईं, जिनके आधाार पर उन्होंने अपना लेख लिखा। तभी अचानक 24 जून को मैंने प्रथम प्रवक्ता छोड़ दिया। लेकिन जब जुलाई के पहले हफ्ते में 'प्रथम प्रवक्ता' का अंक आया तो सारी खबरें ज्यों की त्यों अक्षरश: वैसी ही प्रकाशित हुईं जैसी मैंने संपादित की थीं। यह था प्रभाषजी का एक पत्रकार का रूप। अगर प्रभाषजी चाहते तो झारखंड की रिपोर्ट पर सवाल कर सकते थे, राय साहब से उसे न देने के लिए भी कह सकते थे। पर मिशन में मित्रता आड़े नहीं आई।
इसी तरह एक पूरी की पूरी पीढ़ी प्रभाषजी को पढ़ सुनकर ही पत्रकारिता में जवान हुई है और उसे पत्रकारिता के यह संस्कार कि जिस समय तुम पत्रकार हो उस समय तुम्हारा पहला और आखिरी धार्म पत्रकारिता ही है, प्रभाषजी ने ही दिए। इसलिए आज पत्रकारिता का जो वीभत्स कारपोरेटीक(त स्वरूप सामने आ रहा है उसमें प्रभाषजी हम जैसे उन पत्रकारों के रक्षा कवच थे जो पत्रकारिता को मिशन मानते हैं कमीशन नहीं। जाहिर है उनके जाने के बाद पत्रकारिता का स्वरूप और बदलेगा और नई चुनौतियां भी होंगी लेकिन प्रभाषजी सच्चे पत्रकारों के लिए प्रकाश स्तम्भ का काम करते रहेंगे।
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[ Published in “The Sunday Post” 22nd November issue]

सोमवार, 9 नवंबर 2009

चिदंबरम के पीआर मीडिया धुरंधर

चिदंबरम के पीआर मीडिया धुरंधर
अमलेन्दु उपाधयाय
मानना पड़ेगा कि गृह मंत्री पी चिदंबरम का मीडिया प्रबंधन बहुत कमाल का है। कोई महीना भर भी तो नहीं हुआ होगा जब देश के चुनिन्दा संपादकों के साथ उनकी भेंटवार्ता हुई थी और नक्सलवाद को समूल नष्ट करने का इरादा गृह मंत्री ने इस भेंटवार्ता में जताया था। लेकिन इस भेंटवार्ता का अच्छा परिणाम लगभग दो हफ्ते बाद ही सामने आने लगा जब इन बड़े संपादकों में से कई चिदंबरम की नक्सलियों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई करने के विचार के समर्थन में बहुत निर्लज्जता के साथ उतर आए और तथाकथित विकास के नाम पर निरीह आदिवासियों पर प्राणघातक हमले और देश में एक युध्द की वकालत करने लगे।
एक संपादक महोदय जो गुजरात दंगों के दौरान अपनी निष्पक्ष रिपोर्टिंग के लिए सुर्खियों में आए थे और बाद में मनमोहन सरकार के विश्वासमत के दौरान सांसदों की खरीद फरोख्त का स्टिंग ऑपरेशन का प्रसारणा अपने चैनल पर न करने के लिए सवालों के घेरे में आए थे, ने तो चाटुकारिता की सारी हदें पार करते हुए चिदंबरम की तुलना सरदार वल्लभ भाई पटेल से ही कर डाली। जबकि एक अन्य दूसरे बड़े संपादक महोदय, जिनके अखबार के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले कई संस्करण प्रारम्भ हुए और अब बन्द होने वाले हैं तथा जो बहुत जल्दी मनमोहन सिंह- चिदंबरम के आशीर्वाद से राज्यसभा सदस्य बनने वाले हैं, ने भी बाकायदा लेख लिखकर सवाल खड़ा कर दिया कि पड़ोसी देश श्रीलंका की सरकार जब बड़ी सैनिक कार्रवाई करते हुए लिट्टे आतंकवादियों की पूरी जमीन साफ कर सकती है तो क्या भारत सरकार और सेना कुछ हजार नक्सलियों को हथियार डालने के लिए बाध्य नहीं कर सकती है?
इस प्रश्न का सम्यक उत्तर सिर्फ इतना हो सकता है कि श्रीलंका ने तो आज लिट्टे का सफाया किया है लेकिन हमारे देश ने ऐसी सैन्य कार्रवाई का खमियाजा डेढ़ दशक पहले ही राजीव गांधी की शहादत देकर और ऑपरेशन ब्लू स्टार का खमियाजा इंदिरा जी की शहादत देकर उठाया था। पता नहीं हमारे यह तथाकथित बुध्दिजीवी अब क्या चाहते हैं? शायद हमारे बंधुआ बुर्जुआवादी बुध्दिजीवियों ने इतिहास और दुनिया से सबक लेना सीखा नहीं है या जान-बूझ कर सीखना नहीं चाहते हैं। हमारे बगल में पाकिस्तान है, जहां पिछले साठ सालों से फौज अपने ही लोगों के खिलाफ इस्तेमाल की जाती रही है। नतीजा सामने है। आज पाकिस्तान जबर्दस्त टूट के मुहाने पर बैठा है।
यह इत्तेफाक है या चिदम्बरम का मीडिया मैनेजमेन्ट, पता नहीं! पीसीपीए नेता छत्रधर महतो की रिहाई की मांग करते हुए आदिवासियों ने राजधानी एक्सप्रेस रोक ली। सारे समाचार चैनल शोर मचाने लगे कि नक्सलवादियों ने राजधानी एक्सप्रेस अगुवा कर ली। लेकिन पूरे दिन भर किसी भी हमारे पत्रकार साथी ने यह खुलासा नहीं किया कि ट्रेन रोकने वाले उस पीसीपीए के समर्थक थे, जो कांग्रेस की बगलबच्चा तृणमूल कांग्रेस का सहयोगी संगठन है और छत्रधर महतो भी नक्सलवादी नहीं बल्कि तृणमूल नेता हैं। बहुत बाद में धीरे से यह सूचना दी गई कि ट्रेन रोकने वाले आदिवासी थे जो तीर कमान लिए हुए थे और लूट के नाम पर उन्होंने या तो कम्बल लूटे या खाने के पैकेट। इससे पहले भी हमारे मीडिया के साथी अपनी सोच का नमूना दे चुके हैं जब 6 दिसम्बर 1992 को अयोधया में बाबरी मस्जिद गिराने वाले गुण्डों को 'कारसेवक' कहकर महिमामंडित किया गया था।
सवाल उठाया गया है कि छत्तीसगढ़, आंध्र, उड़ीसा जैसे राज्यों के कुछ जिलों में नागरिक प्रशासन की बात तो दूर रही, सरकारी सेवा का कोई शिक्षक, डॉक्टर, कंपाउंडर, नर्स इंजीनियर और पटवारी तक नहीं घुस पा रहे हैं, ऐसी स्थिति में इन क्षेत्रों में आर्थिक विकास न होने का रोना रोना अपने आप को धोखा देना है। ऐसे तर्क देने वाले बुध्दिजीवियों से बहुत विनम्रता से एक सवाल किया जा सकता है कि ठीक है जहां नक्सलवादी हैं वहां यह सरकारी अमला नहीं जा पा रहा लेकिन जहां नक्सलवादी नहीं हैं वहां यह सरकारी तंत्र नजर क्यों नहीं आता? देश भर के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की क्या हालत है, पटवारी और इंजीनियर का मतलब देहात में क्या होता है? दिल्ली में मिनरल वाटर और कोला पीने वाले बुध्दिजीवी नहीं समझ सकते हैं।
आरोप लगाए जा रहे हैं कि नक्सलवादी, ठेकेदारों और इंजीनियरों से लेवी वसूलते हैं और मारने की धमकी देते हैं। लेकिन अभी तक यह बताने वाला कोई भद्र पुरूष नहीं मिला जो बताए कि एस मंजुनाथ और सत्येन्द्र दुबे को मारने वाले भी क्या नक्सलवादी थे? हमारे संपादक महोदय जब राज्य सभा सदस्य बन जाएंगे और उनकी सांसद निधि का पैसा जब विकास कार्य में लगेगा तब शायद उनका कोई चहेता ठेकेदार हुआ तो उन्हें बताएगा कि काम शुरू होने से पहले ही चालीस प्रतिशत की रकम तो इंजीनियर साहब की भेंट चढ़ जाती है।
अगर निष्पक्ष जांच करवाई जाए कि जिन पुलों और स्कूलों को उड़ाने का आरोप नक्सलियों के सिर पर है, उनमें से कितने ऐसे थे जो दो या चार माह पुराने ही थे। नतीजा सामने आ जाएगा कि अधिकांशत: नए बने हुए थे और उनके बिलों का भी भुगतान ठेकेदारों को हो चुका था। खगड़िया में सामूहिक नरसंहार हुआ। तुरन्त आरोप लगाया गया कि नक्सलियों ने किया। लेकिन मालूम पड़ा कि यह काम तो जातीय गिरोहों का था।
बात विकास की की जा रही है लेकिन यह विकास किसका हो रहा है? किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है, आदिवासियों से जंगल छीने जा रहे हैं और उन जमीनों पर बड़े बड़े पूंजीपतियों के संयंत्र लग रहे हैं। तमाशा यह है कि जिस किसान की जमीन छीनकर छह और आठ लेन का हाईवे बनाया जा रहा है उस हाईवे पर वह किसान अपनी बैलगाड़ी या साइकिल लेकर नहीं चल सकता और अगर उस सड़क पर वह चलना चाहेगा तो उसे टोल टैक्स देना होगा चूंकि उसके चलने के लिए पैरेलल सड़क समाप्त की जा चुकी है। उत्तर प्रदेश में जेपी समूह ताज एक्सप्रेस वे बना रहा है। जिन किसानों की जमीनें छीनी गई हैं वह प्रतिवाद करते हैं तो किसानों पर गुण्डा एक्ट लगा दिया जाता है। लेकिन हमारे तथाकथित बड़े संपादकों की नजर में यह विकास है। यह विकास का ही रूप है कि झारखण्ड में जिन आदिवासियों को खदेड़कर सरकार पूंजीपतियों से एमओयू साइन करती है उनका थोड़े से दिन का मुख्यमंत्री कई हजार करोड़ रूपये की खदानें विदेशों में खरीद लेता है। लेकिन हमारे वरिष्ठ पत्रकार सैन्य कार्रवाई की आवश्यकता नक्सलियों के खिलाफ महसूस करते है?
फ्रांसिस इंदवार नाम का एक पुलिस इंस्पैक्टर बेरहमी के साथ मारा गया। इस तरह के कामों की कड़ी भर्त्सना होनी चाहिए और हुई भी। लेकिन जो हमारे बुध्दिजीवी इंदवार की हत्या पर क्रोधित हो रहे हैं और इसके लिए नक्सलियों पर सैन्य हमले की वकालत कर रहे हैं, वह यह बताना भूल जाते हैं कि इंदवार को पिछले छह माह से तनख्वाह नहीं मिली थी और उसकी तनख्वाह रोकने वाले नक्सली नहीं थे बल्कि देश के गृह मंत्री पी चिदंबरम के कारकुन ही थे। शायद मालूम हो कि झारखण्ड में पिछले लगभग नौ माह से राष्ट्रपति शासन है और सारा प्रशासन गृह मंत्री के ही अधीन है।
गृह मंत्री ने एक जोरदार तर्क दिया और उसकी हिमायत बड़े संपादकों ने की। कहा गया कि अगर नक्सली व्यवस्था बदलना चाहते हैं तो चुनाव लड़कर क्यों नहीं आते? तर्क है तो जानदार लेकिन है बेहद बेहूदा। पहली बात तो चुनाव, व्यवस्था नहीं सरकारें बदलने का माधयम है। चिदंबरम साहब स्वयं गवाह हैं कि इस देश में चार प्रतिशत मत पाकर सरकारें बन जाया करती हैं। क्या यह सरकारें जनभावनाओं की सही प्रतिनिधि होती हैं।
एक तरफ कहा जा रहा है कि कुछ हजार नक्सली हैं। दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि सारे जंगलों पर एक साथ हमला करो। अगर नक्सली कुछ हजार ही हैं तो सारे जंगलों पर एक साथ हमला करने की क्या जरूरत है? अगर ऐसा हमला हुआ तो सबसे ज्यादा जानें किसकी जाएंगी? निरीह आदिवासियों की ही? तमाशा यह है कि लोंगोवाल से बात की जा सकती है, लालडेंगा से बात की जा सकती है, परेश बरूआ से बात की जा सकती है, एनएससीएन से बात की जा सकती है, संघ- विहिप और हुर्रियत कांफ्रेंस से भी बात की जा सकती है लेकिन नक्सलियों से बात नहीं की जानी चाहिए उनके खिलाफ तो सिर्फ और सिर्फ सैन्य कार्रवाई ही एकमात्र विकल्प है। और यह सैन्य कार्रवाई इसलिए भी जरूरी हो जाती है क्योंकि खनन कंपनियों का लॉ अफसर रहा एक व्यक्ति अब इस देश का गृह मंत्री है।

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

न्याय प्रणाली की विष्वसनीयता संकट

अमलेन्दु उपाधयाय
गाजियाबाद के पीएफ धोटाले के मुख्य अभियुक्त आशुतोष अस्थाना की मौत पर दो पंक्तियों में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है-'अंधोरों ने हमारे अंजुमन की आबरू रख ली/ न जाने कितने चेहरे रोशनी में आ गए होते।' दीपावली वाले दिन अस्थाना की गाजियाबाद की जिला जेल में रहस्यमय मौत हो गई थी। इससे पहले भी गाजियाबाद की जिला जेल में कई अन्य हाई प्रोफाइल केस के अभियुक्तों की रहस्यमय मौतें हो चुकी हैं। लेकिन आशुतोष अस्थाना की मौत समूची न्यायिक प्रणाली की विष्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है।

आशुतोष अस्थाना पीएफ घोटाले का मुख्य अभियुक्त था और अपने इकबालिया बयान में वह छत्ताीस न्यायाधीशों के नाम उगल चुका था कि इन न्यायाधीशों के सहयोग और आदेष से उसने इस घोटाले को अंजाम दिया था। बताया तो यह भी जा रहा है कि अस्थाना अदालत में कोई और इकबालिया बयान देने जा रहा था और सीबीआई भी फाइनल चार्जषीट लगाने जा रही थी लेकिन वह समय आता उससे पहले ही अस्थाना सीने में बहुत से राज छिपाए हुए इस दुनिया से रूखसत हो गया।

समाचार पत्रों में यह खबर प्रमुखता से प्रकाशित हुई है कि अस्थाना के परिवारवालों ने कहा है कि उन्होंने पुलिस को कम से कम दो बार ये सूचना दी थी कि अस्थाना को जान का खतरा है। परिवार वालों ने इस मामले की सीबीआई जांच करवाने की मांग भी की है। हालांकि गाजियाबाद के पुलिस अधाीक्षक का बयान भी सभी समाचार पत्रों में प्रमुखता से प्रकाषित हुआ है जिसमें उन्होंने इस बात से इंकार किया है कि अस्थाना ने अपनी जान को खतरा बताया था। यहां सवाल यह है कि अगर अस्थाना ने पुलिस से सुरक्षा की गुहार नहीं भी की थी तो क्या यह पुलिस का काम नहीं था कि इतने महत्वपूर्ण हाई प्रोफाइल केस के मुख्य अभियुक्त की सुरक्षा के इंतजामात किए जाते? आईजी जेल सुलखान सिंह ने एक निजी टीवी चैनल के सामने स्वीकार भी किया है कि पहले भी कोर्ट में पेशी के दौरान अस्थाना के साथ मारपीट की गई थी।

बताया जा रहा है कि आशुतोष अस्थाना से एक दिन पहले ही सीबीआई ने कई घंटे तक पूछताछ की थी और इसके एक दिन बाद उसकी मौत होना सवाल खड़े करती है। क्या इस पूछताछ में भी कुछ रहस्य छिपा हुआ है? यह भी कहा जा रहा है कि पिछले कई रोज से सीबीआई अधिकारी जेल में उससे पूछताछ कर रहे थे और अस्थाना अदालत में अपने बयान देने वाला था जिसमें कई बड़े नाम लपेटे में आने वाले थे। इससे पहले भी अपने बयान में वह तीन न्यायाधाीषों को लपेट चुका था। बताया जाता है कि अनुच्छेद 164 के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष दिए बयान में अस्थाना ने खुलासा किया था कि उसे पुलिस से छिपने में तीन न्यायाधीशों ने मदद की थी। अस्थाना को हाईकोर्ट के तीन न्यायधीशों ने भरोसा दिया था कि जांच पूरी होने के बाद वे मामले को देख लेगें। तीनों न्यायधीशों का नाम घोटाले से लाभ कमाने वालों की सूची में भी बताया जाता है।

यह केस कितना गम्भीर था इसी बात से समझा जा सकता है कि जाँच करने में सीबीआई के भी पसीने छूट गए। समझा जा सकता है कि जाँच टीम भी किस मानसिक दबाव से गुजर रही होगी कि उसे सर्वोच्च न्यायालयसे अपील करनी पड़ी कि घोटाले से संबंधित मामले की जांच दिल्ली में कराई जाए ताकि जांच एजेंसी को अपने मुख्यालय से जांच कराना सुविधाजनक हो। इतना ही नहीं उत्तार प्रदेष सरकार भी इस केस की सीबीआई जांच कराने से कन्नी काटती रही लेकिन जब गाजियाबाद बार एसोसिएशन के पूर्व अधयक्ष नाहर सिंह यादव ने मोर्चा खोला और अधिवक्ता एकजुट हुए तब सीबीआई जाँच बैठाई गई। स्वयं सर्वोच्च न्यायालयकी तीन बेंच में यह मुकदमा स्थानान्तरित हुआ और सुनवाई करने वाले विद्वान न्यायाधीशों पर पक्षपात करने के आरोप भी लगे।

अस्थाना का फ्रॉड का केस भी बहुत नाटकीय अंदाज में खुला। यह आम चर्चा है कि अस्थाना का गाजियाबाद की जिला कोर्ट में इतना रुतबा था कि सीजेएम और एडीजे स्तर के अधिाकारी भी उससे अनुमति लेकर उसके कमरे में दाखिल होते थे। और तुतीय व चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी तो उसके कमरे में जूते बाहर उतारकर दाखिल होते थे। गाजियाबाद में किस जिला न्यायाधीश की नियुक्ति हो रही है यह अस्थाना को पहले से मालूम रहता था। जाहिर है एक क्लर्क का यह रूतबा बिना ऊपर के आशीर्वाद के नहीं बना होगा। उसका यह घोटाला पकड़ा भी नहीं जाता अगर वह एक ईमानदार महिला न्यायाधीश से न उलझा होता। चर्चा है कि अस्थाना सीबीआई की स्पेशल न्यायाधीश रमा जैन, जो उस समय नजारत की इंचार्ज भी थी से एक फर्जी बिल पास कराने पहुँचा। बतातें हैं कि रमा जैन ने वह बिल पास करने से मना कर दिया। इस पर अस्थाना ने उन्हें घुड़़की दी कि यह बिल तो पास होंगे ही लेकिन इंचार्ज बदल जाएगा और अगले दिन ही रमा जैन से वह चार्ज छिन गया। इस पर महिला न्यायाधीश ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से शिकायत की कि गाजियाबाद की अदालतों में कुछ ऐसा है जो गलत है। इस पर जैन को जाँच का जिम्मा मिला और उन्होंने आते ही एकाउन्ट्स और नजारत को सील किया फिर जब जाँच की तो अस्थाना का फर्जीवाड़ा सामने आया। तब रमा जैन ने स्वयं गाजियाबाद के थाना कविनगर में एफआईआर दर्ज कराई। यह वही रमा जैन हैं, जिन्होंने निठारी केस में पंधोर और कोली को फाँसी की सजा सुनाई थी।

अपनी गर्दन फँसती देखकर अस्थाना ने अदालत में सेक्शन 164 के तहत इकबालिया बयान दर्ज कराकर पोल खोल दी कि यह फर्जीवाड़ा तो वह न्यायाधीशों के सहयोग से कर रहा था और यह राशि भी न्यायाधीशों के ऊपर ही खर्च होती थी। उसने बाकायदा कई बिल भी उपलब्ध कराए जो उसके बयान की पुश्टि करते हैं।

भले ही आशुतोष अस्थाना की मौत स्वाभाविक रूप से हुई हो लेकिन अगर निश्पक्ष जांच न हुई, ऐसी जाँच जिसमें कोई न्यायिक अधिाकारी षामिल न हो, बल्कि कई संवैधनिक संस्थाओं के लोग शामिल हों, तो लोग भरोसा नहीं करेंगे। केस की गम्भीरता को देखकर लगता है कि अस्थाना की मौत एक रहस्य ही बनी रहेगी। इसीलिए पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी मौत का कारण अभी तक सामने नहीं आया है। जिस केस में 36 बड़े न्यायाधीश फँस रहे हों, जिनमें से एक सर्वोच्च न्यायालयऔर ग्यारह हाई कोर्ट के न्यायाधीश हों, उस केस के मुख्य अभियुक्त की मौत से रहस्य से पर्दा इतनी आसानी से उठ भी कैसे सकता है? उप्र सरकार अस्थाना की मौत की जाँच की घोषणा कर चुकी है। लेकिन जाँच कौन करेगा? वही पुलिस, जिसके कप्तान साहब अस्थाना के इकबालिया बयान पर सर्वोच्च न्यायालयके मुख्य न्यायाधीश से न्यायाधीशों से पूछताछ करने की अनुमति मांग रहे थे!

यह अभी भी रहस्य बना हुआ है कि अस्थाना की मौत कैसे हुई। बताया जाता है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं है। जैसा कि संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि उसकी मौत जहर खाने से हुई तो सवाल ये है कि तो उसे जेल में जहर कहां से मिला। दूसरा बड़ा सवाल ये कि उसने ये जहर खुद खाया या फिर किसी ने उसे जबरन जहर खिलाया। अगर उसने खुद जहर खाया तो खुदकुशी की वजह क्या थी और उसने जहर खाने के बाद किसी से इसका जिक्र क्यों नहीं किया। इसलिए अगर यह संदेह सही है कि मौत जहर खाने से ही हुई तो निश्चित रूप से यह हत्या का मामला ही नजर आता है।
इस बीच सर्वोच्च न्यायालयने न्यायिक जाँच के आदेश दिए हैं। लेकिन संभवत: यह पहला अवसर है कि न्यायिक जाँच के निष्पक्ष होने पर ही संदेह व्यक्त किया जा रहा है। सवाल सिर्फ अस्थाना की मौत की निश्पक्ष जांच का नहीं है बल्कि पूरी की पूरी न्याय प्रणाली की विष्वसनीयता संकट में है। इसलिए जांच किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी से ही होनी चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी हो जाता है क्योंकि जब पुलिस ने आरोपित न्यायाधीशों से पूछताछ करने की अनुमति मांगी तब मुख्य न्यायाधीश ने पुलिस से संभावित सवालों की सूची माँगी। इससे जनमानस में यह संदेष गया कि क्या मुल्क में दो कानून हैं? न्यायाधीशों के लिए एक और आम आदमी के लिए अलग?

अक्सर न्यायपालिका पर उंगलिया उठती रही हैं। मसलन सूचना के अधिकार की परिधि में न्यायाधीश साहब क्यों नहीं आते हैं? सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की क्या प्रक्रिया है? न्यायाधीश साहब की जवाबदेही किसके प्रति है इस देष के संविधान के प्रति, सरकार के प्रति या जनता के प्रति या किसी के प्रति नहीं?

एक टीवी चैनल के स्टिंग ऑप्रेशन में कुछ सांसद रंगे हाथ रिश्वत लेते हुए पकड़े गए थे। लेकिन संसद ने एक स्वर से उन दागी सांसदों की सदस्यता रद्द करके बाहर का रास्ता दिखाया और अपनी विश्वसनीयता बचाकर एक नजीर पेश की। लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि अस्थाना ने जिन न्यायाधीशों के नाम अपने इकबालिया बयान में लिए वह अभी तक बदस्तूर न्यायिक काम निपटा रहे हैं और जो काम नहीं भी कर रहे हैं वह महज इसलिए क्योंकि वे सेवानिवृत्त हो चुके हैं। इतना ही नहीं जिन तीन न्यायाधीशों के नाम अस्थाना ने अपने इकबालिया बयान में लिए थे कि किस तरह इन न्यायाधीशों ने उसे गिरफ्तारी से बचने में मदद की और छिपाया उन न्यायाधीशों के खिलाफ भी अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है।

भले ही कानून मंत्री वीरप्पा मोइली कह रहे हों कि अस्थाना की मौत से इस केस की जांच पर कोई असर नहीं पड़ेगा लेकिन इतिहास बताता है कि अंजाम क्या होगा?

जिस तरह से न्यायाधीशों की संपत्तिा के मामले पर सर्वोच्च न्यायालयके मुख्य न्यायाधाीष की पहल पर न्यायाधीशों ने स्वयं अपनी संपत्तिा सार्वजनिक करने का साहसिक निर्णय लिया था उसी तरह की नजीर पीएफ घोटाले में भी पेष की जानी चाहिए और उन न्यायाधीशों से सारा न्यायिक काम छीन लिया जाना चाहिए जिनके नाम अस्थाना ने अपने इकबालिया बयान में लिए थे। अस्थाना की मौत के बाद ऐसी निश्पक्षता का प्रदर्षन और जरूरी हो जाता है ताकि न्याय केवल हो ही नहीं बल्कि होता हुआ दिखाई भी दे। क्या ऐसा साहस दिखा पाएंगे मी लॉर्ड!!!!!!!!!!!

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

कोबाड़ का रास्ता!

कोबाड़ का रास्ता!
अमलेन्दु उपाध्याय
पिछले महीने गिरफ्तार किए गए नकसली नेता कोबाड़ गांधी की दिल्ली में गिरफ्तारी से देष में एक बहस छिड़ गई है। पहले जब नक्सल समस्या पर बहस होती थी तब इसे कुंठित युवाओं की सत्ता लालसा या भटके हुए वामपंथी अतिवादी बताकर इसे कानून व्यवस्था का प्रष्न बता दिया जाता था और राजकाज चलता रहता था। लेकिन इस बार बहस कुछ नए किस्म की है।
कोबाड़ गांधी इसके लिए बधाई के पात्र हैं कि उनके बहाने ही सही नक्सलवाद एक बार फिर चर्चा में है और उनकी गिरफ्तारी के बहाने ही सही, माओवादी आन्दोलन को फिर से समझने की जरूरत महसूस की जाने लगी है। भले ही गृह मंत्री पी. चिदंबरम नक्सलवाद को सबसे बड़ा खतरा बता रहे हों लेकिन उनकी सरकार में ही लोग उनके इस विचार से पूर्णतया सहमत नहीं दिखते हैं। स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यह कहने को मजबूर हो गए हैं कि नक्सलवाद सिर्फ कानून व्यवस्था का मामला नहीं है। और यह बात सही भी है। कानून व्यवस्था के मसले दषकों तक नहीं चला करते हैं। नक्सलवाद इस देष में लगभग तीन दषक से भी ज्यादा समय से पनप रहा है और इसका प्रभाव कम होने के बजाए लगातार बढ़ता ही गया है। किसी भी आतंकवादी आन्दोलन के पूरे दौर में जितने आतंकवादी मारे जाते होंगे उससे कहीं ज्यादा नक्सली हर साल पुलिस के हाथों मारे जाते हैं। अकेले छत्तीसगढ़ में एक वर्श में चार सौ के आसपास कथित नक्सली मारे गए हैं। लेकिन कोई तो बात है जो नक्सलवाद का जुनून बढ़ता ही जाता है।
दिल्ली की गद्दी पर बैठे हुक्मरानों और पूॅंजीवादी रुझान के बुद्धिजीवियों के माथे पर इस प्रष्न को लेकर चिंता की लकीरें गहरी हो गई हैं कि आखिर क्या बात है कि कोबाड़ गांधी जैसे लोग अपने कैरियर, घरबार और व्यापार को छोड़कर इस तरह के आन्दोलन से न केवल जुड़ जाते हैं बल्कि अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। ताज्जुब इसलिए भी होता है कि अतिवामपंथी आंदोलन से जुड़ने वाले लोग न तो धर्म के पहरूए हैं, न जेहादी हैं, न जातिवादी आन्दोलन से निकलकर आए हैं। फिर उन्हें यह जुनून कहाॅं से मिलता है?
यहाॅं यह याद रखना चाहिए कि कोबाड़ गांधी इस तरह का पहला उदाहरण नहीं हैं, जिन्होंने माक्र्सवाद के सिद्धान्तों के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया हो। इससे पहले भी ईएमएस नंबूदरीपाद जैसे लोग भी हुए हैं जिनका राजघराने से ताल्लुक रहा और उनकी जमींदारी देष में सर्वाधिक मालगुजारी वसूलने वाली रियासत समझी जाती थी। लेकिन नम्बूदरीपाद अपनी सारी संपत्ति कम्युनिस्ट पार्टी को सौंपकर पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए थे। कोबाड़ गांधी के जुनून को एक और तरीके से समझा जा सकता है। गौतम बुद्ध भी अपना सारा राजपाट छोड़कर दुख के निदान की तलाष में ही भिक्षु बन गए थे। लेकिन बुद्ध का रास्ता अध्यात्म का था, पलायन का था और कोबाड़ ने जो रास्ता चुना, वह है तो बुद्ध के समानान्तर ही लेकिन वह विचार का रास्ता है, संघर्श का रास्ता है, पलायन का नहीं।
यह भी बात गौेर करने लायक है कि नक्सलवाद से प्रभावित क्षेत्र वही ज्यादा हैं जहाॅं जंगल और आदिवासी ज्यादा हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि जंगल नक्सलवादियों की मदद करते हैं। बल्कि समस्या की तह तक जाना होगा। नब्बे के दषक में जब इस मुल्क में नरसिंहाराव और मनमोहन सिंह मार्का उदारीकरण आया जिसे चिदंबरम जैसे हार्वर्ड उत्पादित अर्थषास्त्रियों ने और धार दी तो देष में नए किस्म का पूॅंजीवाद आया और सरकारों की भूमिका भी बदलने लगी। नब्बे के दषक से पहले सरकार की भूमिका कल्याणकारी राज्य की मानी जाती थी। दिखावे के लिए ही सही ‘गरीबी हटाओ’ के नारे लगते थे। लेकिन नरसिंहाराव-वाजपेयी-मनमोहन की तिकड़ी ने सरकारों की भूमिका एक एनजीआंे की बना दी और सरकारें बड़े पूॅंजीपतियों और घोटालेबाजों की जेब की गुलाम बनकर रह गईं और अब तो प्रधानमंत्री जनता को नसीहत भी देने लगे हैं कि वह और महॅंगाई के लिए तैयार रहे।
उदारीकरण की आंधी में औद्योगिकीकरण और तथाकथित विकास के नाम पर किसानों की जमीनें हथियाए जाने लगीं और जंगल से आदिवासियों को बेदखल करके कारखाने लगने लगे। क्या संयोग है कि सारी बड़ी कंपनियों के काॅरपोरेट दफ्तर तो मुंबई और कोलकाता में हैं लेकिन कई कई हजार एकड़ में लगने वाले उनके प्लांट छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के जंगलों में लग रहे हैं। बाॅंध बन तो रहे हैं विकास के नाम पर लेकिन यह बाॅंध बलि ले रहे हैं हजारों गांवों के लोगों की। इस विकास और औद्योगिकीकरण से एक आम आदमी को लाभ होने के बजाए नुकसान ही हुआ है।
काफी पहले दो छोटी सी खबरें अलग अलग अखबारों में पढ़ी थीं। एक हाल ही की घटना राजस्थान की थी। उस खबर के मुताबिक कुछ आदिवासियों को पुलिस ने पकड़ा था जिन से लगभग बारह हजार रूपए मूल्य का आंवला पकड़ा गया था। सरकार का तर्क था कि इस आंवले पर अधिकार उस ठेकेदार का है जिसे वन उपज का ठेका दिया गया है। दूसरी खबर के मुताबिक मुकेष अंबानी के जामनगर रिफाइनरी प्लांट में कई सैकड़ा एकड़ में बेहतरीन आम के पेड़ लगे हुए हैं और उन आमों का निर्यात विदेषों को किया जाता है।
अगर आपके पास दृश्टि है तो नक्सलवाद के बढ़ते प्रभाव को समझने और समझाने के लिए यह छोटी सी दो खबरें काफी हैं। राजस्थान की घटना बताती है कि जंगल से आदिवासियों का अधिकार खत्म कर दिया गया है। और अंबानी की खबर बताती है कि जामनगर का प्लांट हजारों लोगों को विस्थापित करके ही स्थापित हुआ होगा और किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करके मुकेष अंबानी अब आम की खेती भी कर रहे हैं। इन्हीं विस्थापित लोगों के समर्थन से नक्सलवाद का विस्तार हो रहा है। यह कटु सत्य है और इसे चिदंबरम चाहे स्वीकार करें या न करें - इस विस्थापित आम आदमी के समर्थन से ही नक्सलवाद को षह मिल रही है। खुद सरकारी आंकडें बताते हैं कि वर्श 2006 में 1,509 नक्सली वारदातें हुई। जबकि वर्श 2007 में 1,565 वारदातें हुई। इन वारदातों में वर्श 2006 में 157 सुरक्षा बलों के जवान और 521 नागरिक मारे गए जबकि वर्श 2007 में 236 सुरक्षा बलों के जवान और 460 नागरिक मारे गए।
मीडिया में जो खबरें आ रही हैं, उनके मुताबिक नक्सलवाद प्रभावित राज्यों में पुलिस बल के आधुनिकीकरण के नाम पर कई हजार करोड़ रूपए सरकार खर्च करेगी। जाहिर है इसमें से अधिकांष रूपया अत्याधुनिक हथियारों की खरीद पर खर्च किया जाएगा और एक बड़ी रकम खुफिया नेटवर्क बनाने के नाम पर खर्च होगी, जिसका कोई हिसाब किताब पुलिस अफसरों को नहीं देना होता है। जाहिर है जब तक इस नेटवर्क के नाम पर और हथियारों की खरीद के नाम पर सरकार यह धन मुहैया कराती रहेगी तब तक नक्सलियों के नाम पर आम गरीब आदिवासी पुलिस मुठभेड़ों में मरता रहेगा और प्रतिषोध में इन गरीबों का समर्थन नक्सलियों को ही मिलता रहेगा। सवाल यह भी है कि आतंकवाद नक्सलवाद प्रभावित राज्यों में विकास के नाम पर जो धन राज्यों को दिया जाता है उस धन का क्या प्रयोग होता है? अगर यह धन विकास पर ही खर्च हो रहा है तो वह विकास कहाॅं हो रहा है? अक्सर समाचारपत्रों में रिपोटर््स प्रकाषित होती हैं कि नक्सली अपने क्षेत्रों में ठेकेदारों से लेवी वसूल करते हैं। खबरें सही होती भी हैं। लेकिन यही खबरें प्रष्न भी छोड़ती हैं कि नक्सली यह लेवी किन लोगों से वसूलते हैं? आम गरीब आदमी तो लेवी देता नहीं हैं। लेवी देता है भ्रश्ट ठेकेदार और इंजीनियर। जाहिर है कि अगर यह नक्सलियों को लेवी नहीं भी देगा तो उस पैसे को विकास में नहीं लगाएगा बल्कि अपनी जेब भरेगा।
इसलिए चिदंबरम जी को समझना होगा कि नक्सलवाद विचार है और विचार बन्दूकों से कुचले नहीं जाते। इसके लिए खुद चिदंबरम जी को इस व्यवस्था में सुधार करना होगा और खुद भी एक वैचारिक व्यक्ति बनना होगा। सरकार को एनजीओ की भूमिका छोड़ कर कल्याणकारी राज्य की भूमिका निभानी होगी और विकास का पैमाना बदलना होगा विस्थापन की बुनियाद पर विकास नहीं चलेगा। वरना आप एक कोबाड़ को पकड़ेंगे दस नए कोबाड़ पैदा हो जाएंगे। अभी तक का इतिहास तो यही बताता है कि नक्सली पैदा होता नहीं है बल्कि यह व्यवस्था( जिसके पैरोकार चिदंबरम और मनमोहन हैं) बनाती है। नक्सलियों का हिंसा का रास्ता एकदम गलत है , लेकिन उनका उद्देष्य गलत कहा जाए? कोबाड़ की गिरफ्तारी या छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के नाम पर आदिवासियों का सामूहिक नरसंहार समस्या का हल कभी नहीं बन सकेगा।

शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

सादगी पर सियासत

सादगी पर सियासत
अमलेन्दु उपाध्याय
पिछले दिनों षताब्दी में आम आदमी बनकर या़त्रा करने के बाद राहुल बाबा अचानक लखनऊ के पास बाराबंकी जिले के रामनगर के पास एक दलित गाॅंव में जा पहुॅंचे और लोकसभा चुनाव से पहले जिस तरह उन्होंने एडिसन के बल्ब की तरह ‘कलावती’ का आविश्कार किया था उसी तरह बाराबंकी में उन्होंने ‘जलवर्शा’ की सफल खोज की। कांग्रेसी युवराज राहुल बाबा का अगला टारगेट उत्तर प्रदेष है। इसलिए उनके मीडिया मैनेजर कायदे से मीडिया प्रबंधन कर रहे हैं और उनकी छवि निर्माण में व्यस्त हैं। लिहाजा उनकी सादगी के चर्चे कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं और सोने पर सुहागा यह है कि राहुल बाबा बिना बताए दलितों के घर भी पहुॅंच रहे हैं और उनके घर पर भोजन भी कर रहे हैं।
राहुल बाबा के इस महान कार्य की तारीफ होनी चाहिए थी, सो हुई भी और बहन जी को धक्का लगना था सो लगा ही। जाहिर है यह सारी नौटंकी उत्तर प्रदेष में होने के कारण दलित की बेटी बहन मायावती का क्रोधित होना स्वाभाविक है। लेकिन इस तू-तू- मैं-मैं में असल सवाल पीछे छूटता जा रहा है कि राहुल बाबा के इस कलावती-जलवर्शा नाटक से आम दलितों का क्या भला हो रहा है? क्या इस नौटंकी से दलितों की रोजी रोटी के अवसर बढ़ गए? या दलितों को बराबरी का हक मिल गया? अगर ऐसा है या हमारे कांग्रेसी विद्वजन ऐसा मानते हैं कि राहुल बाबा के तूफानी दौरों ने दलितों का जीवन बदल दिया है और अब आम दलित की रोजाना मजदूरी पचास रूपये प्रतिदिन से बढ़कर इक्यावन रूपये प्रतिदिन हो गई है, तब तो मानना पड़ेगा कि राहुल बाबा कांग्रेस के सपूत हैं और जिस काम को इंदिरा और राजीव नहीं कर पाए उसे राहुल बाबा करके अपनी सात पुष्तों के गुनाहों का प्रायष्चित कर रहे हैं।
जहां तक राहुल बाबा की सादगी का सवाल है तो यह सादगी की मुहिम तब षुरू हुई जब विदेषमंत्री एसएम कृश्णा और विदेष राज्य मंत्री षषि थरूर की विलासिता की पोल देष के सामने खुली कि किस तरह से ‘कांग्रेस का हाथ/ आम आदमी के साथ’ का नारा देने वाले कांग्रेसी भद्रजन जनता की मेहनत की कमाई पर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। उसके बाद राहुल बाबा ने षताब्दी में यात्रा की। उनकी षताब्दी यात्रा को मीडिया में प्रचारित किया गया कि राहुल ने आम आदमी की तरह षताब्दी में सफर किया। मुबारक हो! अब भद्र कांग्रेसजनों और उनके मीडियाई पिछलग्गुओं ने आम आदमी की परिभाशा भी बदल दी। अब आम आदमी षताब्दी में यात्रा करता है और विमान की इकाॅनाॅमी क्लास में मवेषी यात्रा करते हैं। इस हिसाब से पैसेंजर ट्रेन में या रेलगाड़ी के जनरल डिब्बे में कीड़े मकोड़े यात्रा करते हैं। यह एक शडयन्त्र है। राहुल की षताब्दी यात्रा के बहाने आम आदमी की परिभाशा बदली जा रही है। राहुल को अगर साधारण आदमी बनने का इतना ही षौक है तो जरा किसी रेल की जनरल बोगी में सफर कर लें आम आदमी बनने का सारा नषा काफूर हो जाएगा।
इससे पहले राहुल बाबा को भी सादगी याद नहीं आई थी अचानक सारे कांग्रेसियों के सिर पर सादगी का भूत सवार हांे गया। राहुल बाबा ने बाराबंकी में ‘दलित ग्राम प्रधान’ के घर पर भोजन तो किया लेकिन वहां से 250 किमी दूर उस गोरखपुर जाने की जहमत नहीं उठा पाए जहां जापानी बुखार से तीन सौ से ज्यादा दलितों के बच्च्ेा पिछले दो माह में ही मारे गए हैं। वैसे राहुल बाबा समझदार हैं इसीलिए वह दलितों के घर जाकर तो खाना खा रहे हैं, लेकिन किसी दलित को दस जनपथ लाकर खाना नहीं खिला रहे हैं यह बात दीगर है कि दस जनपथ पर एक इफ्तार पार्टी पर ही लगभग एक करोड़ रूपया खर्च हो जाता है। क्या राहुल बाबा अपने इस दलित अभियान के तहत अगली यात्रा बिहार की करना पसंद करेंगे जहां वह दलित जाति ‘मुसहरों के टोले में रात गुजारें और उनके साथ भोजन करके यह जानने का प्रयास करेंगे कि यह लोग जिस भोजन (चूहे) को खाने की वजह से मुसहर नाम से जाने जाते हैं उसे और लोग क्यों नहीे खाते?
यह राहुल गांधी का दुर्भाग्य है कि जब वह गांव में गए तो उन्हें लोगों ने पहचाना ही नहीं और उन्हें बताना पड़ा कि वह राजीव गांधी के बेटे हैं। केवल यही एक घटना राहुल की सादगी की पोल पट्टी खोलने के लिए काफी है। क्या राजीव गांधी को कभी बताने की जरूरत पड़ी थी कि वह इंदिरा गांधी के बेटे हैं? या इंदिरा गांधी को कभी बताने की जरूरत पड़ी थी कि वह जवाहर लाल नेहरू की बेटी हैं? लेकिन राहुल गांधी को बताना पड़ रहा है कि वह राजीव गांधी के बेटे हैं।
राहुल अपने नाटक से कांग्रेस के लिए ही मुसीबतें खड़ी कर रहे हैं। अब अगर राहुल दलित इलाकों का विकास न होने के लिए कोस रहे हैं, तो किसको? इस देष पर पांच दषक तक कांग्रेस का षासन रहा। लिहाजा विकास न होने का दोश तो सबसे अधिक कांग्रेस के ही सिर पर है। फिर राहुल सवाल किससे कर रहे हैं?
रहा सवाल राहुल की सादगी का, अगर आज इंदिरा गांधी जीवित होतीं तो क्या कीतीं? मनोहर ष्याम जोषी ने इंदिरा गांधी का एक बार साक्षात्कार लिया था जब इंदिरा जी प्रधानमंत्री थीं। जोषी जी ने कांग्रेसी नेताओं की सादगी पर उनसे सवाल पूछा तो इंदिरा जी ने जबाव दिया-”यह सही है कि कांग्रेस को सादगी और जनसेवा की दिषा में नेतृत्व देना चाहिए लेकिन जो लोग यह समझते हैं कि बॅंगला छोड़कर झोपड़ी में जा बसना चाहिए नेताओं को, वह बात एक दिखावटी षगल सी मालूम होती है। कुछ सहूलियतें जरूरी होती हैं सरकारी कामकाज के लिए, सुरक्षा और गोपनीयता के भी कुछ तकाजे होते हैं। उनके पूरे किए जाने का मतलब षानो-षौकत नहीं है। हाॅं उससे अधिक कुछ होता तो वह ठीक नहीं।“ कुछ समझे राहुल बाबा! आपकी दादी स्व. इंदिरा जी आपकी सादगी को एक दिखावटी षगल बता रही हैं। इसलिए युवराज अब तो आम आदमी बनने का नाटक करके गरीबों की गरीबी का मजाक उड़ाना बन्द करो!!!
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और ‘दि संडे पोस्ट’ में सह संपादक हैं।)

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

लोकतंत्र की हत्या की पटकथा जगनमोहन के बहाने

लोकतंत्र की हत्या की पटकथा
जगनमोहन के बहाने


अमलेन्दु उपाध्याय
आंधा्र प्रदेष के मुख्यमंत्री वाईएस राजषेखर रेड्डी की असमय मृत्यु के बाद जिस तरह से उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग उठी और इसके लिए बाकायदा लॉबिंग की गई उससे कांग्रेस का हाई कमान बहुत चिंतित है। होना भी चाहिए। चिंता कांग्रेस आला कमान को इस बात की है कि अभी तक कांग्रेस में युवराजों को राजतिलक का विषेशाधिकार सिर्फ गांधी-नेहरू खानदान को ही हासिल था। अगर जगनमोहन को आंधा्र की कुर्सी थमा दी गई तब तो राज्यों में राजतिलक की परंपरा चल निकलेगी और ऐसी स्थिति में कांग्रेस को बांधे रखने वाली ताकत गांधी परिवार का रुतबा कम हो जाएगा क्योंकि तब राज्यों के क्षत्रप भी अपने बेटों को सत्ताा सौंपने की मांग करने लगेंगे।
वीरप्पा मोइली ने अभी कहा कि सोनिया गांधी आंधा्र प्रदेष के विशय में फैसला लेंगी। याद होगा कि लोकसभा चुनाव के समय भाजपा ने आरोप जगाया था कि मनमोहन सिंह कठपुतली प्रधानमंत्री हैं और सोनिया सुपर प्रधानमंत्री। उस समय कांग्रेस ने इस आरोप को बहुत बुरा माना था। ठीक इसी तरह मध्य प्रदेष में चुनाव के समय जब भाजपा ने सवाल किया कि कांग्रेस का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है तब कांग्रेस ने कहा था कि मुख्यमंत्री चुनना विधायकों का अधिकार है और चुनाव बाद नवनिर्वाचित विधायक अपना उम्मीदवार चुनेंगे। अब सवाल यह हो सकता है कि जब मध्य प्रदेष के लिए मुख्यमंत्री चुनना विधायकों ाक विषेशाधिकार है तो आंधा्र प्रदेष के लिए सोनिया का फैसला अंतिम क्यों होगा? और अगर सोनिया ही मुख्यमंत्रियों के भाग्य का फैसला करती हैं तब तो भाजपा का आरोप सही है कि मनमोहन सिंह कठपुतली प्रधाानमंत्री हैं।
लेकिन कांग्रेस आलाकमान की चिंताओं से इतर हमारी चिंता इस प्रकरण पर और सवाल को लेकर है। हमारी चिंता यह है कि इस लॉबिंग के बीच आम कार्यकर्ता कहां खड़ा है और क्या अब कार्यकर्ता का रोल किसी राजनीतिक दल में बचा है और अगर बचा है तो वह रोल क्या है। क्या राजनीति अब कुछ परिवाारों का जन्मसिध्द अधिकार है? क्यों कार्यकर्ता आज निचले पदों पर ही काबिज हैं? हर दल और उसके शिखर नेता चुनाव के मौके पर जिस तरह से अपने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करके टिकट बांटने लगे हैं और जगनमोहन प्रकरण के तरीके से नेतृत्व निर्माण के लिए कार्यकर्ताओं को दरकिनार किया जा रहा है क्या यह लोकतंत्र के लिए षुभ समाचार है? जगनमोहन प्रकरण के बाद यह स्वाभाविक प्रश्न पैदा हो रहा है कि राजनैतिक कार्यकर्ता के लिए भारतीय लोकतंत्र में आखिर कोई जगह बची है या नहीं?
एक समय था जब पार्टियों के मूल्य और आदर्श हुआ करते थे। दल के नेता और नीतियों को देखकर लोग उससे जुड़ते थे। पार्टी भी किसी आदमी को उसके गुण, स्वभाव और चाल चलन के आधार पर पद दिया करती थी। इसलिए परिवारवाद कम हावी था। यह एक कटु सत्य है कि आज केवल उन वामपंथी दलों में परिवारवाद ने जड़े नहीं जमाई हैं जिन वामपंथी दलों के ऊपर आरोप लगते रहे हैं कि उनका सिध्दान्त तो 'सत्ताा बन्दूक की नाल से निकलती है' रहा है। पहले पार्टियां आंदोलन करती थीं और उसके बाद सदस्यता अभियान चलाती थीं। उस समय कॉलेजों से ऐसे विद्यार्थियों को जो पार्टी में आंदोलनों के अगुवा हुआ करते थे, पार्टियां अपना प्रत्याषी बनाया करती थीं। सभी दल युवा, मजदूर, किसान और विभिन्न तबकों से संबन्धित लोगों के संगठन बनाते थे। वरिष्ठ पदों पर बैठे लोगों के बच्चे दल के आदर्शों, नीतियों और मूल्यों से अगर अपरिचित होते थे तो उन्हें पार्टी में पीछे की सीट मिलती थी। मगर अब लोकतंत्र की परंपरा खत्म हो रही है। जिसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब पार्टियों के पास मुद्दे नहीं हैं। जनता में जो ज्यादा लोग जागरूक होते थे, पहले जो समाज के लिए कुछ करना चाहते थे, जिनके मन में जोश होता था, जिनका समाज से कुछ सरोकार होता था, और जो मुद्दों को समझना चाहते थे, वही लोग राजनीतिक कार्यकर्ता बनते थे और बाद में नेतृत्व भी संभालते थे। आज पार्टी में शामिल होने वालों का स्वार्थ होता है और पहले कार्यकर्ता को एक ख्याति की आवश्यकता होती थी। अब क्योंकि जातिवाद हावी है तो विद्यार्थी से लेकर आम नागरिक कार्यकर्ता बनने से बचने लगा है। जो नेता जिस समुदाय का होता है वह उसी समुदाय के लोगों को खोजकर कार्यकर्ता के रूप में पार्टी से जोड़ लेता है। अभी तक राजनीतिक कार्यकर्ता की जगह राजनीति में बची हुई थी क्योंकि अभी तक केवल पार्टी के ऊंचे पदों पर ही परिवारवाद हावी था। यह तमाषा है कि जिला और ब्लॉक स्तर पर तो अभी भी छोटे राजनीतिक कार्यकर्ता को ही पदासीन किया जाता है।
पहले कार्यकर्ता नेता चुनते थे। मगर अब नेता जो चाहता है वही होता है। इसलिए आम कार्यकर्ता कमजोर हुआ है। इसके अलावा जिसके पास पैसा नहीं है उसे कोई पद नहीं दिया जाता। क्योंकि पहले देहात और गांव में वहां के विकास कार्यो को हल कराने के लिए पार्टियों से जुड़ते थे मगर अब दल वहां के लिए पैसे से कार्यकर्ता खरीद लेते हैं। अब असली राजनीतिक कार्यकर्ता पसोपेश में हैं कि वह क्या करे? ईमानदारों को या तो अब चाटुकारों की तरह पार्टी के बड़े नेताओं की बात मान कर चलना होता है या फिर वह राजनीति छोड़कर घर बैठ जाता है। एक समय में गांव का कार्यकर्ता भी बड़े से बड़े नेता को साफ-साफ मुद्दों और नीतियों पर घेर लिया करते थे। मगर अब स्थिति यह है कि समाजवादी पार्टी परमाणु करार पर यू टर्न लेते हुए रात ही रात में कांग्रेस का समर्थन करने का फैसला ले लेती है और उसके बड़े से बड़े नेताओं को यह मालूम ही नहीं पड़ पाता कि ऐसा फैसला कहां ले लिया गया। यही कारण है कि जब सपा उत्तार प्रदेष में मायावती के खिलाफ आंदोलन का बिगुल बजाती है तो उसे कार्यकर्ता नहीं मिल पाते।
आदमी अपने कर्मों से राजनीतिक कार्यकर्ता बनता है। क्योंकि उसे अपने लक्ष्य के बारे में ठीक से पता होता है और उसी दिशा में वह चलना भी चाहता है। उसे हर समय एक अच्छे मंच की की तलाश भी रहती है। तो उसे राजनीति में लाने के लिए लोग आगे आ जाते हैं। ग्रामीण अंचलों में जो गांव का बच्चा समझदार होता था, पढ़ने-लिखने के बाद वह वहां की समस्याओं के लिए कदम उठाता था तो गांव के लोग उसे प्रोत्साहन देते थे। गांव के सहारे ही वह आगे बढ़ने लगता था। जब बड़ी पार्टियों के नेताओं की नजर उस पर पड़ती थी तो उसे पार्टी में शामिल हो जाने के लिए आमंत्रित करते थे। गांव के लोग भी उसे प्रेरित करते थे कि वह उनके लिए कुछ करेगा तो वह बिना किसी हिचक के उसका समर्थन करते थे। यही कारण था िकवह कांग्रेस जहां आज जगनमोहन पैदा हो रहे हैं उसी कांग्रेस में एक बैण्ड मास्टर सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष के पद तक पहुंचा। क्या आज कल्पना की जा सकती है कि कोई सीताराम केसरी कांग्रेस में पैदा होगा?
जो लोग देश की तस्वीर बदलने के लिए घर से गुड़ खाकर मीलों पैदल चलते थे वही असली राजनीतिक कार्यकर्ता होते थे। आज भी जो वंचितों, भौतिक साधनों, अवसरों को आम जनता को देने के लिए उसके दिल में दर्द होता है वही राजनीतिक कार्यकर्ता बनता है। आज भी ग्रामीण और विद्यार्थी वर्ग ही सबसे ज्यादा राजनीति में आता है और पहले भी आया करता था। पहले भी वे विधायक बनने के लिए नहीं आते थे और न ही कोई पदाधिकारी बनने के लिए। मगर अब समय बदल गया है अब दूसरी तरह का कार्यकर्ता भी बन रहा है। यह सबसे पहले किसी पद पर इसलिए बैठना चाहता है कि वहां से कुछ अर्जित कर सके। और उसे यह सिखाया है जगनमोहन जैसों ने।
आज राजनीति का संदर्भ और उद्देश्य दोनों बदल रहे हैं। इसका लोगों के राजनीतिक निर्माण प्रक्रिया में असर पड़ रहा है। 1990 के उदारीकरण के दौर आर्थिक व सामाजिक अन्यायों के खिलाफ आवाज को उभारना था। इसलिए राजनैतिक कार्यकर्ता बनने की जरूरत होती थी। लोग सामाजिक सरोकारों के लिए समर्पित थे। यह समर्पण दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी और वामपंथी सभीं के लिए ही बराबर लागू था। जो लोग इनके महत्व को समझते थे वे ही राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में जन्म लेते थे। पूंजीपति अपने दल की विचारधाराओं को अपनाकर ही राजनीति से जुड़ते थे। मगर 1990 के बाद से राजनैतिक मूल्यों में बदलाव आया है। आज उस तरह के राजनीतिक कार्यकर्ता बन भी नहीं रहे हैं और जो सही कार्यकर्ता हैं वह हाषिए पर धाकेल दिए गए हैं। बिल्डर, माफिया और पूंजीपति मिलकर राजनीतिक दलों का एजेन्डा तय कर रहे हैं। अगर अनिल अंबानी और मुकेष अंबानी के चहेते कांग्रेस में हें तो भाजपा में भी हैं। यही कारण है कि अगर जगनमोहन को मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए आंधा्र के बिल्डर्स लॉबिंग करते हैं तो समाजवादी पार्टी को फिरोजाबाद में लोकसभा चुनाव लड़ाने के लिए मुलायम के पुत्र अखिलेष की पत्नी ही उम्मीदवार मिलती हैं और सारे कार्यकर्ता दरकिनार कर दिए जाते हैं। वे अध्यापक, छात्र और पढ़े लिखे लोग जो व्यवस्था की कमियों से दुखी होते थे भ्रष्टाचार को खत्म करने के अरमान मन में पाले रहते थे वे अब हाषिए पर हैं और आने वाला समय या तो जगनमोहन, चौटाला, राबड़ी, डिम्पल यादव जैसों का होगा या फिर अनु टण्डन, निषिकांत और नाथवानी जैसे पूंजीपतियों के नुमाइन्दों का। जगनमोहन प्रकरण लोकतंत्र की हत्या की पटकथा लिखे जाने की गवाही दे रहा है।

( लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और 'दि संडे पोस्ट' में सह संपादक हैं।)


शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

भाजपा का भविष्य



भाजपा का भविष्य
प्रदीप सिंह

जिन्ना के बहाने भाजपा में इन दिनों जो द्घमासान मचा है, उससे भाजपा के भविष्य पर कई तरह के सवाल खड़े किए जाने लगे हैं। जसवंत सिंह को पार्टी ने यह सोच कर निकाला कि अनुशासन का डंडा देख बाकी बागी सहम जाएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अरुण शौरी ने भाजपा की ऐसी-तैसी कर दी। उत्तराखण्ड के भुवनचन्द्र खण्डूड़ी ने भी राष्ट्रीय अध्यक्ष को शिकायत-पत्र लिखा। अब सब कुछ जैसे संद्घ के हवाले है। वह बैक डोर से भाजपा को इस तूफान में कैसे संभालेगा और उसे क्या रूप देगा इसका सब लोगों को इंतजार है
जिन्ना पर जसवंत सिंह की किताब के बाद भाजपा और संद्घ में जो तूफान आया है वह थमने का नाम नहीं ले रहा। इस तूफान ने भाजपा के दरख्त की जड़ों को हिला दिया है। तूफान का वेग इतना तेज है कि वह संद्घ की फुलवारी में उगी तमाम झाड़ियों को उखाड़ फेंकने से पहले थमता नजर नहीं आता। संद्घ के नेता अभी ऐसे लोगों को चिन्हित करने में लगे हैं, जिन्होंने भाजपा के सत्ता में आने के बाद सत्ता सुख के लिए अपना चोला बदल लिया था। अब वह महत्वपूर्ण पदों पर संद्घ पृष्ठभूमि के व्यक्ति को ही बैठाना चाहते हैं। इसके लिए छानबीन जारी है।
सुलह-सफाई का फतवा संद्घ ने जारी कर दिया है। अनुशासन हीनता, वैचारिक विचलन को बर्दाश्त के बाहर बताया जा रहा है।जिन्ना विवाद के चलते संद्घ भाजपा को ओवरटेक करने पर आमादा है। अभी तक पर्दे के पीछे से राजनीतिक पार्टी भाजपा को संचालित करने वाला 'सांस्कृतिक संगठन' संद्घ अब खुलेआम राजनीति में हस्तक्षेप करता नजर आ रहा है। संद्घ के 'सांस्कृतिक विचारों' से दूरी बना कर रखने वाले नेताओं को राजनीति से दूर करने का एजेंडा संद्घ ने लागू करना शुरू कर दिया है। जसवंत सिंह द्वारा मोहम्मद अली जिन्ना का अपनी किताब में बखान करना न तो संद्घ परिवार को रास आया, और न ही भारतीय जनता पार्टी को। भाजपा जिस पार्टी कांग्रेस का विकल्प बनना चाहती है, उसके दो पूर्व दिग्गजों सरदार बल्लभ भाई पटेल और जवाहर लाल नेहरू को बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराने पर सबसे ज्यादा भाजपा ने ही तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की।
जिन्ना ग्रंथि संद्घ और भाजपा के लिए नई नहीं थी। भारतीय उपमहाद्वीप का ६२ वर्ष पहले हुआ बंटवरा कुछ वर्षों के बाद भूल जाने वाला नहीं था। अभी तक इस भयानक त्रासदी के लिए जिम्मेदार व्यक्ति राजनीतिक, सामाजिक और अकादमिक संस्थानों द्वारा चिंहित नहीं किया जा सका है, जिसको एक सिरे से सब मानने को तैयार हों। भारत में मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग को इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है, तो वहीं पाकिस्तान में नेहरू, पटेल और 'हिन्दू कांग्रेस' जिम्मेदार बताए जाते हैं।
हिन्दुस्तान के अकादमिक संस्थानों और राजनीतिक पार्टियों में बंटवारे के समय से ही यह बहस चलती रही है कि सावरकर, हिन्दू महासभा और कांग्रेस के कई हिन्दूवादी नेता भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। १७ अगस्त को नेहरू स्मारक सभागार में अपनी नई पुस्तक 'जिन्नाः भारत विभाजन के आइने में' के विमोचन के अवसर पर जसवंत सिंह के साथ उनकी ३० वर्ष पुरानी पार्टी का कोई मित्र नहीं था। वहां एक भी भाजपा नेता मौजूद नहीं था। उनके पूर्व कैबिनेट सहयोगी अरुण शौरी को पुस्तक विमोचन के दौरान चर्चा में शरीक होना था। लेकिन ऐन वक्त पर वह भी कन्नी काट गए।
भाजपा को वर्तमान स्थिति से उबारने के लिए शिमला में हुई चिंतन बैठक में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को बुलाया गया। इस बैठक में उन वरिष्ठों को जान बूझ कर दरकिनार किया गया जो असहज सवाल उठा सकते थे। जसवंत सिंह ने दिल्ली से शिमला तक का ३५० किमी का सफर तय किया। भाजपा कार्यकारिणी ने सदस्य के तौर पर उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध पाई, और अगले दिन १९ अगस्त को पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने जवसंत सिंह को फोन से सूचित किया कि पार्टी संसदीय बोर्ड ने उन्हें भाजपा से निष्कासित कर दिया है।
भाजपा के नेताओं का इतिहास और जिन्ना के साथ यह पहला विवाद नहीं है। इसके पहले २००५ में पाकिस्तान गए लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की मजार पर उन्हें, उनके एक भाषण का हवाला देते हुए सेकुलर बताया। आडवाणी के भारत आने से पहले ही संद्घ, भाजपा की त्यौरियां चढ़ गयीं। उन्हें पार्टी के अध्यक्ष पद से हटना पड़ा। इस द्घटना के बाद पार्टी और संद्घ में लालकृष्ण आडवाणी का वह आभा मंडल नहीं रहा जिसको लेकर संद्घ अपने इस स्वयंसेवक पर गर्व करता था। संद्घ और आडवाणी की आपसी रिश्तों की गर्माहट उसी एक बयान के बाद ठंडी पड़ गयी।जसवंत सिंह ने जिन्ना पर आई अपनी किताब की शुरुआत २००४ में ही कर दी थी। बाजार में आने में वक्त लगा। संद्घ के आंतरिक सूत्रों का कहना है कि जसवंत सिंह तो लालकृष्ण आडवाणी से पहले ही यह मान चुके थे कि भारत विभाजन के मोहम्मद अली जिन्ना नहीं, बल्कि सरदार वल्लभाई पटेल और जवाहर लाल नेहरू जिम्मेदार हैं। संद्घ सूत्रों का कहना है कि जिन्ना पर जसवंत सिंह की परिभाषा अक्षम्य है। जिस जिन्ना को पाकिस्तान के शासक, जनता और हिन्दुस्तान के मुसलमान तक भूलना चाहते हैं, आखिर क्या मजबूरी है कि भाजपा में कई नेता उसे नायक बनाने पर तुले हैं।
गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी ने जसवंत सिंह की किताब को, सरदार पटेल पर की गयी टिप्पणी के कारण प्रतिबंधित कर दिया। वे अपनी बात भाजपा और संद्घ को बताने के सफल रहे कि पटेल पर की गयी टिप्पणी के कारण गुजरात का धनाढ्य और सामाजिक, राजनीतिक रूप से सजग पटेल समुदाय नाराज हो जायेगा।लालकृष्ण आडवाणी के पाकिस्तान यात्रा के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना पर दिए गए बयान और जसवंत सिंह की किताब से पहले भी संद्घ में इस तरह के लोग मौजूद थे जिन्होंने जिन्ना को अपनी नजर से देखने का दुस्साहस किया। हो ़बि ़शेषाद्रि ने वर्षों पहले 'और देश बंट गया' नाम की किताब लिखी थी। वे संद्घ या भाजपा के मामूली कार्यकर्ता नहीं थे। संद्घ के दूसरे बड़े पद सह सरसंद्घ चालक के पद पर विराजमान थे। जिन्ना के बारे में उन्होंने भी वही लिखा जो जसवंत सिंह और लालकृष्ण आडवाणी लिख-बोल चुके हैं।
भाजपा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता और ऐसे तमाम पदों पर कर्त्तव्यनिष्ठ स्वयंसेवक की तलाश जारी है। तलाश में तराशा हुआ नेता ही चाहिए, जो भाजपा के साथ संद्घ के मंदिर में भी प्रतिष्ठा पाए। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का कार्यकाल दिसंबर में समाप्त हो रहा है। इसके पहले ही नए अध्यक्ष के लिए जिन नामों की चर्चा है उनमें शिवराज सिंह चोैहान और बाल आप्टे के नामों को प्रमुखता से लिया जा रहा है। जसवंत सिंह को ठिकाने लगाने के बाद संद्घ लालकृष्ण आडवाणी के पंख कतरने को तत्पर दिख रहा है। भाजपा और संद्घ दोनों के लिए यह काम आसान नहीं है। पूरे राजनीतिक जीवन में एक विवाद को छोड़कर आडवाणी का राजनीतिक और पारिवारिक जीवन निर्विवाद रहा है। लेकिन उम्र का तकाजा, पार्टी की हार और नए नेताओं को आगे करने के नाम पर संद्घ उनको सिर्फ सलाहकार की भूमिका तक सीमित करना चाहता है। राजनाथ सिंह को लेकर भी संद्घ में माथापच्ची जारी है। दिसंबर के बाद संद्घ राजनाथ सिंह का उपयोग कहां करे, इसको लेकर असमंजस की स्थिति में है। ऊपरी तौर पर तो सरसंद्घ चालक मोहन भागवत भाजपा को आपस में बैठकर सुलह करने की बात कहते हैं। लेकिन संद्घ ने अब मान लिया है कि पानी सिर से ऊपर निकल रहा है।
भारत ही नहीं भारतीय उपमहाद्वीप के लिए भारत का विभाजन इतिहास की सबसे अनसुलझी पहेली है। इस पहेली को हर बूझने वाला अपनी तरह से ही अर्थ लगाता है। जिन्ना, नेहरू और पटेल को लेकर सत्ता के गलियारे से सड़क तक विभाजन के तमाम तर्क और किस्से मौजूद हैं। एक पीए और एक टाइपराइटर के सहारे पाकिस्तान को फतह करने वाला जिन्ना बताना इतिहास का सरलीकरण होगा। इतिहासकारों की नजर में 'नेहरू मुसलमानों के दिलों में पनपे उस अमिट खौफ को पूरी तरह नहीं भांप सके जिसे जिन्ना ने आवाज प्रदान की। 'यह खौफ कि लोकतांत्रिक शासन में उन्हें अल्पसंख्यक के तौर पर रहना होगा।'
प्रसिद्ध इतिहासकार अनिल सील की छात्रा रहीं और पाकिस्तानी विद्वान एवं इतिहासकार आयशा जलाल का कहना है कि 'इतिहास में जिन्ना को गलत ढंग से पेश करने के चलन ने बड़ा आयाम हासिल कर लिया है। क्योंकि यह धर्मनिरपेक्ष भारत और इस्लामी पाकिस्तान के प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रवाद की पवित्र शब्दावली से जुड़ा है।' आयशा जलाल अपनी दलील में कहती हैं कि मोहम्मद अली जिन्ना संप्रभु राष्ट्र के तौर पर पाकिस्तान नहीं बनाना चाहते थे। जिन्ना का उद्देश्य प्रांतीय सरकारों, जिन पर मुसलमान अपना ज्यादा नियंत्रण पाने की उम्मीद करते थे के लिए ज्यादा स्वायत्तता हासिल करते हुए भारतीय मुसलमानों के हितों की रक्षा करना था। जिन्ना मजबूत केंद्रीय राष्ट्र बनाने की कांग्रेसी नेताओं की महत्वाकांक्षा से भयभाीत थे, जो उनके मुताबिक हिन्दू बहुसंख्यकों के हितों की नुमाइंदगी का दावा करने वाले लोगों के हाथों में जा सकता था।
इतिहासकार एमजीएस नारायणन कहते हैं कि 'जहां तक एक नेता की जिम्मेदारी है तो जिन्ना को विभाजन की जिम्मेदारी लेनी होगी, हालांकि वे पहले अभियुक्त नहीं हैं। पहली अभियुक्त तो निश्चित रूप से ब्रिटिश सरकार है और जिन्ना दूसरे नंबर के अभियुक्त। इतिहासकार मानेंगे कि बड़ी द्घटनाओं का श्रेय किसी एक कारक को नहीं दिया जा सकता। ऐसे मामलों में व्यक्तिगत पार्टी नेता और अनुयायियों के अलावा दूर दराज में और तात्कालिक कारण भी हो सकते हैं। लेकिन नेहरू को भी विभाजन की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया जा सकता। आखिर वे वह शख्स थे जिनके साथ भारी-भरकम कांग्रेस थी। उन्होंने विभाजन के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए और सत्ता शिखर पर जा बैठे। उन्हें चर्चिल और जिन्ना के बाद तीसरा अभियुक्त माना जाना चाहिए। हालांकि अपने देश और दुनिया के लिए उन्होंने जो किया उसके लिए वे सारी गलतियों से ऊपर उठ जाते हैं।'
संद्घ के सूत्रों से मिली खबरों के अनुसार भाजपा को संद्घ के सुझाव मानने होंगे। जो लोग वरिष्ठता और राजनीति में अनुभव का हवाला देकर संद्घ को नजरअंदाज करना चाहते हैं वे मुगालते में हैं। संद्घ के बिना भाजपा का कोई अस्तित्व नहीं है। भाजपा कार्यकर्ता संद्घ का भी कार्यकर्ता होता है। जब संद्घ ने भारतीय जनसंद्घ को भारतीय जनता पार्टी में विलय करने की बात कही तब बलराज मधोक ने इसका विरोध किया था। अपने साथ कुछ लोगों को रख कर जनसंद्घ को बनाए रखा। आज जनसंद्घ में बलराज मधोक का कोई नाम लेने वाला नहीं है। इसी तरह यदि भाजपा में कुछ लोग संद्घ को अनदेखा करते हैं, तब उन्हें परिणाम भुगतने को भी तैयार रहना होगा। सारे विवाद पर भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर का कहना है कि जसवंत सिंह को पार्टी से इसलिए निकाला गया क्योंकि वे पार्टी की बुनियादी विचारों से दूर चले गए थे। जहां तक पार्टी में उठापटक का सवाल है तो ऐसा कुछ हमारी जानकारी में नहीं है।
साभार ‘दि संडे पोस्ट’

शनिवार, 5 सितंबर 2009

पूरे देश में श्रम कानून का उल्लंद्घन'



पूरे देश में श्रम कानून का उल्लंद्घन'

दीपांकर मुखर्जी कीशुरुआती शिक्षा मथुरा में हुई। बनारस से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने देश के कई नामी गिरामी संस्थानों में काम किया। इसी दौरान वह ट्रेड यूनियन की राजनीति से जुड़ गए।



सीपीएम के मजदूर संगठन सीटू के वह सचिव हैं। मजदूरों के हक और हितों की लड़ाई के लिए नौकरी छोड़ कर वह सक्रिय राजनीति में आये। सीपीएम से वह राज्य सभा सदस्य भी रहे। मौजूदा दौर में देश भर में हो रही मजदूरों की मौतों से वह काफी विचलित हैं। किसान, मजदूर और युवाओं से जुड़े मुद्दों पर संद्घर्ष करने के साथ वह देश की अन्य समस्याओं पर भी अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए जाने जाते हैं। यहां प्रस्तुत है हमारे संवाददाता प्रदीप सिंह के साथ हुई उनकी बातचीत के प्रमुख अंश

इस समय पूरे देश में दुर्द्घटनाओं से मजदूरों की मौत हो रही है। सरकार कुछ मुआवजा राशि देकर मामले को रफा-दफा कर देती है।

बात मुआवजे और पैसे की नहीं है। पूरे देश में श्रम कानूनों का खुला उल्लंद्घन हो रहा है। डीएमआरसी से लेकर कॉमनवेल्थ गेम्स में काम करने वाले मजदूरों की संख्या की लिस्ट किसी के पास नहीं है। ये मजदूर कहां से आये हैं, कौन हैं, जब इसकी पहचान नहीं है तब आप किसको पैसा बांट रहे हैं? मजदूर अधिकतर अकेले रहता है। उसका परिवार उसके साथ नहीं रहता। दुर्द्घटना में मौत होने के बाद सरकार किसको मुआवजा दे रही है। यह बताना मुश्किल है। मेट्रो में लगातार हादसे हो रहे हैं। सरकार आंख मूंदे बैठी है। इस सारे प्रोजेक्ट में काम करने वाले मजदूरों को लेबर लॅा के मुताबिक सुविधाएं मिलनी चाहिए। संख्या और पहचान के लिए एक रजिस्टर होना चाहिए।

आप किस तरह की कार्रवाई चाहते हैं?

डीएमआरसी में अभी हादसा हुआ। कई मजदूरों की जानें गयी। इसके पहले मध्य प्रदेश के सिंगरौली में हादसा हुआ। जिसमें १८ मजदूर जिंदा जल गए। आज भी ४० से ज्यादा लापता हैं। ऐसे में इसके लिए जिम्मेदार कौन हैं? मालिकों के ऊपर क्रिमिनल केस चलाना चाहिए। पांच लाख या एक लाख देने से काम नहीं चलेगा। ऐसी द्घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं हो इसके लिए जरूरी है सुविधाओं का इंतजाम किया जाये।

आज लेबर यूनियनों की भूमिका समाप्त सी लगने लगी है।

उदारीकरण के बाद लगातार सरकारी उपक्रमों में छंटनी की जा रही है। संविदा पर नियुक्ति हो रही है। संगठित क्षेत्र के मजदूरों को असंगठित किया जा रहा है। इसके चलते मजदूरों की संगठन बनाने की क्षमता कम होती जा रही है। उदारीकरण और बाजारीकरण का दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा मजदूरों पर पड़ा है। एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जिसके कारण संगठित मजदूर अंसगठित हो रहा है।श्रमिक और मालिक के बीच का संबंध लगातार अमानवीय होता जा रहा है। पहले सरकार श्रमिकों के हित के लिए कदम उठाती थी। अब वह मालिकों के हितों का पोषण कर रही है।

मजदूर संगठन यह दावा करते हैं कि उनकी सदस्य संख्या बढ़ रही है।

संगठनों की सदस्य संख्या बढ़ रही है यह बात सही है। लेकिन यह संख्या संगठित क्षेत्र के मजदूरों की नहीं है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या मजदूर संगठनों में बढ़ती जा रही है। सीटू में २४ लाख असंगठित क्षेत्र के मजदूर सदस्य हैं।

आप मजदूरों के लिए क्या सुविधाएं चाहते हैं?

बहुत से संस्थानों में प्रोविडेंट फंड, ग्रेच्युटी आदि बंद हो चुकी है । डेली वेजेस पर काम हो रहा है। यह रुकना चाहिए। सबसे जरूरी है इंडस्ट्रियल डेमोक्रसी। लगातार कारखानों से स्वतंत्रता गायब हो रही है। मजदूर अपने हकों के पक्ष में आवाज नहीं उठा सकते। हर वर्ष सेफ्टी ऍाडिट होना चाहिए। संस्थान में कितनी सुरक्षा है औेर कितनी जरूरत है इसकी जांच हो। इसके लिए प्रशिक्षित लोगों की सेवाएं ली जाएं।

उद्योगधंधो से इंस्पेक्टर राज को भी समाप्त करने की बात की जा रही है। कहा जा रहा है कि इससे उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है।

लेबर इंस्पेक्टर और ऐसी जांच से मिल मालिक द्घबराते हैं। कांटे्रक्ट वर्क में जंगल राज चल रहा है। प्रधानमंत्री भी कहते हैं कि अब इंस्पेक्टर राज नहीं चलेगा। 'माइग्रेट वर्कर' यूनियन नहीं बना पा रहे हैं। औद्योगिक लोकतंत्र बहुत जरूरी है। औद्योगिक सामंतवाद ऐसे चलता रहा तो मजदूरों का आक्रोश एक दिन फट पड़ेगा। मनमोहन सिंह सरकार उसी रास्ते पर जा रही है जिससे मजदूरों का आक्रोश लावा बन कर फूटे।

अभी जो श्रम कानून है क्या वह पर्याप्त है?

मौजूदा समय में जो श्रम कानून हैं यदि उनका ईमानदारी से पालन हो तो मजदूरों का काफी हित-संरक्षण हो सकता है। बहुत कड़ा कानून बना दिए जाए और व्यवहारिक धरातल पर उसे लागू न किया जाये, तो क्या मतलब है।

उदारीकरण और बाजारीकरण का मजदूरों पर क्या प्रभाव पड़ा है।

पूंजी निवेश के लिए सरकार उद्योगपतियों की शर्तों पर काम कर रही है। देशी विदेशी कारपोरेट द्घराने न तो कोई श्रम कानून और न ही कोई यूनियन चाहते हैं। कारपोरेट द्घराने श्रम कानूनों का खुलेआम उल्लंद्घन करते हैं। अब सरकार इसे निष्प्रभावी कर रही है। यह सब विनिवेश के लालच में किया जा रहा है। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जिसमें कहा जा रहा है कि देश की प्रगति में श्रम कानून बाधक है। यूनियन और श्रम कानून मजदूर हितों में काम करते हैं। इसके न रहने का खामियाजा आप देख रहे हैं। अभी हम गुना की उर्वरक फैक्ट्री में गये थे। वहां के मजदूरों की दुर्दशा देखने लायक थी। वहां प्रबंधक की तरफ से मजदूरों को हाथ में लगाने के लिए न तो कोई ग्लब्स दिया गया है और न कोई सुरक्षा। हर जगह सेफ्टी, मिनिमम वेजेस और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है।

आप कहते हैं कि असंगठित क्षेत्र में मजदूरों को यूनियन नहीं बनाने दिया जाता है। जबकि संविआँाान के अनुसार संगठन बनाने पर कोई रोक नहीं लगा सकता है। यह कैसे संभव है?

यह बात तो सही है कि संगठन बनाना संवैधानिक अधिकार है। इसे समाप्त या इस पर रोक नहीं लगाई जा सकती। प्रबंधन और सरकार से लड़ झगड़कर यूनियन बनायी जाती है। आज जब रोजगार में अवसर की भारी कमी है, काम के घंटे बढ़ते जा रहे हैं, महंगाई चरम पर है। अप्रवासी मजदूर काम के दौरान ही एक दूसरे के सम्पर्क में रहते हैं। उसके बाद कौन क्या करता है, कैसे रहता है, दूसरे को नहीं पता। निजी कंपनियों में यूनियन बनाने पर नौकरी से निकाल दिया जाता है। ऐसे में यह संभव नहीं हो पा रहा।

सरकार यह दावा कर रही है कि विकास का लाभ मिल रहा है।

ये जो विकास का मॉडल है वह दिखावटी है। यह पूंजीपतियों और संपन्न लोगों को फायदा पहुंचा रहा है। सरकार आकड़ों के खेल में आम जनता को उलझाये रखना चाहती है। देश की अधिकार जनता का जीवन कष्टमय होता जा रहा है। यह कैसा विकास है?
साभार "दी सन्डे पोस्ट"

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

चिंतन से सजी चिता

चिंतन से सजी चिता
अमलेन्दु उपाध्याय
अपनी स्थापना के समय से ही 'डिफरेन्ट विद अदर्स' का राग अलापती रही भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव में करारी हार क्या मिली पार्टी में ही सिर फुटौवल षुरू हो गया। इस सिर फुटौव्वल को रोकने के लिए भाजपा ने तस किया कि चिंतन किया जाएगा लेकिन चिंतन की षुरूआत ही भाजपा की चिता सजाने हुई। इस चिता पर पहली आहुति दी गई किसी जमाने में अटल बिहारी वाजपेयी के हनुमान रहे जसवंत सिंह की।
पार्टी जिन लालकृश्ण अडवाणी को पीएम इन वेटिंग घोशित करके लोकसभा चुनाव में उतरी उन लालकृश्ण अडवाणी पर अब पार्टी को भरोसा नहीं रहा है। हालांकि अभी तक भाजपा, पार्टी के मामलों में राश्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के किसी भी सीधे हस्तक्षेप से इंकार करती रही है और संघ से अपना नाभि नाल का संबंध बताती रही है, लेकिन चिंतन बैठक ने साफ कर दिया कि अब खुले तौर पर संघ का पार्टी पर षिकंजा कसा जाएगा और गैर संघी पृश्ठभूमि के नेता भाजपा में एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पाएंगे। पार्टी में बढ़ती अनुषासनहीनता, लगातार घटता जनाधार और दूसरी व तीसरी लाइन के गंभीर और समर्पित नेताओं की तलाष कुछ ऐसे मुद्दे थे जिन पर भाजपा में चिंतन की मांग बढ़ रही थी। लोकसभा चुनाव में हार की जिम्मेदारी तय करने के लिए पार्टी के अंदर जोरदार मांग उठ रही थी और इस तरह की खबरें मीडिया के जरिए बाहर भी आ रही थीं। ऐसे में सारे मसलों पर चिंतन करने के लिए पार्टी के कोर ग्रुप ने 'चिंतन बैठक' करने का फैसला लिया।
हार के बाद संक्रमण से गुजर रही पार्टी को नई दिषा और नया लुक देने के लिए किसी सही मंत्र की तलाष में भाजपा की चिंतन बैठक बीती 19 अगस्त को षिमला में षुरू हुई। चिंतन बैठक में मैराथन चिंतन करने के लिए भाजपा कुल 25 धुरंधर चिंतकों का जुगाड़ करने में सफल रही।
बड़े नेताओं के बगावती तेवरों से पार्टी का निचले स्तर का कार्यकर्ता हताष और निराष है। इसमें ताजा प्रकरण में राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया के बगावती तेवर पर भी चर्चा हुई। पार्टी के इतिहास में संभवत: यह पहला अवसर था कि किसी राज्य स्तर के नेता ने पार्टी हाई कमान के फैसले को मानने से इंकार कर दिया हो और संकट के इस दौर में पार्टी की यह मजबूरी बन गई कि उसे वसुंधरा के सामने नतमस्तक होकर उनकी षर्तों पर ही पद छोड़ने के लिए कहना पड़ा। कहा जा रहा है कि वसुंधरा ने तर्क दिया था कि लालकृश्ण अडवाणी को पार्टी ने पीएम इन वेटिंग घोशित किया था और पार्टी लोकसभा में बुरी तरह हार गई इसके बावजूद अडवाण्ाी को लोकसभा में नेता विपक्ष बनाया गया। फिर उन्हें (वसुंधरा) क्यों राजस्थान विधानसभा में नेता विरोधी दल से हटने के लिए कहा जा रहा है? वसुंधरा के तर्क से पार्टी सकते में थी। क्योंकि अडवाणी को पार्टी ने एक समझौते के तहत नेता विपक्ष बनाया था और कहा जाता है कि संघ ने अडवाणी से स्पश्ट कह दिया था कि वह अस्थायी व्यवस्था हैं, जब उनके विकल्प पर सहमति बन जाएगी तब उन्हें यह पद छोड़ना होगा। चर्चा है कि वसुंधरा के सवाल के बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अडवाणी को बुलाकर समझा दिया था कि वह अपना उत्ताराधिकारी चुन लें, लेकिन अडवाणी खेमे ने घोशणा कर दी कि अडवाणी पूरे पांच साल नेता विपक्ष बने रहेंगे। संघ प्रमुख ने इसे अपनी तौहीन माना और चिंतन बैठक में अडवाणी से इस बावत सवाल भी किए गए।
भाजपा की चिंतन बैठक हालांकि बुलाई तो गई थी इसलिए ताकि हार के कारण तलाषे जाएं और उन पर सुधार की क्या गुंजाइष हो सकती है उन उपायों पर चर्चा की जाए। लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि बाल आप्टे समिति की रिपोर्ट को चिंतकों ने सिरे से खारिज कर दिया और बैठक का सारा ध्यान इस बात पर रहा कि किसके ऊपर हार का ठीकरा फोड़ा जाए? अडवाणी हार की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हैं और होना भी नहीं चाहिए। राजनाथ का हार से क्या मतलब? उनके नाम पर कहां पार्टी को वोट मिलता है? और मिलता होता तो क्या अब तक राजनाथ लोकसभा के सदस्य नहीं चुन लिए जाते और क्यों अपने घर में पांच बार हारते? वह तो भला हो गाजियाबाद का कि राजनाथ अपनी जिन्दगी में पहली बार लोकसभा सदस्य तो बन गए, क्या यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है?
असल में भाजपा का जो संकट है वह उसका अपना पैदा किया हुआ नहीं है। इस संकट के लिए भी संघ जिम्मेदार है जो भाजपा को एक संपूर्ण राजनीतिक दल नहीं बनने देता। संघ भाजपा को अपनी कठपुतली बना कर रखना चाहता है। इसीलिए भाजपा के पास अपना कैडर नहीं है। कैडर के नाम पर जो कार्यकर्ता भाजपा के पास हैं वह संघ के कार्यकर्ता हैं। असल चिंतन का विशय तो यह होना चाहिए था कि संघ की काली छाया से भाजपा कब मुक्त होगी और कब एक मुकम्मल राजनीतिक दल बनेगी? लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार, उसकी हार कम बल्कि संघ की हार ज्यादा है। लेकिन समस्या यह है कि न तो संघ इस तथ्य को स्वीकार करने का हौसला दिखाएगा और न भाजपा इस सच को उगलने को तैयार होगी। फिर चिंतन का क्या मतलब?
चिंतन की आवष्यकता भाजपा से ज्यादा संघ को है। उसका कारण साफ है। संघ में भी अब समर्पित कार्यकर्ता नहीं आ रहे हैं। जो लोग भी संघ में अब आ रहे हैं वह सत्ताा की लालसा में ही आ रहे हैं। हालांकि संघ स्वयं सत्ताा का भूखा है लेकिन वह तब तक सीधे सीधे राजनीति में नहीं आना चाहता जब तक कि उसे अपने बल पर सत्ताा पर कब्जा करने का अवसर नहीं मिल जाए और संघ की यह मुराद कभी पूरी नहीं होगी। उसका कारण साफ है। राजनीति सिर्फ सत्ताा पाने के लिए ही नहीं होती है। राजनीति का असल मकसद जनता की भलाई करना है और सत्ताा उसका एक जरिया है। यह बात दीगर है कि सत्ताा पाते ही हर राजनीतिक दल का चरित्र बदल जाता है और वह जनता पर ही जुल्म करने लगता है, लेकिन जाहिर तौर पर उसका उद्देष्य जनता की सेवा ही होता है। लेकिन भाजपा का या यूं कहिए संघ का उद्देष्य ही सत्ताा प्राप्त करना है जनता की भलाई नहीं। एक और कारण संघ और भाजपा के रिष्तों में खटास का है कि संघ के अधिकांष नए नेताओं की उम्र भाजपा नेताओं की तुलना में कम है इसलिए भाजपा नेता संघ नेताओं को कम भाव देते हैं।
समझा जाता है कि बैठक में अडवाणी के विकल्प के रूप में युवा नेतृत्व को तैयार करने के प्रष्न पर भी चर्चा हुई। चूंकि बैठक से पहले ही संघ प्रमुख मोहनराव भागवत का साक्षात्कार एक समाचार चैनल पर प्रसाारित हुआ जिसमें उन्होंने कहा कि भाजपा को युवा नेतृत्व को बागडोर सौंपने पर विचार करना होगा। हालांकि भागवत ने यह मानने से इंकार कर दिया था कि उन्होंने या संघ ने अडवाणी को पद छोड़ने के लिए कहा था। लेकिन संघ के सामने भी संकट यह है कि अडवाणी के बाद किसे बागडोर सौंपे, क्योंकि चाहे राजनाथ हों या अरूण जेटली या फिर वैंकेया नायडू अथवा सुशमा स्वराज, किसी की भी स्वीकार्यता न तो पार्टी के अंदर है और न जनता में है। इसलिए संघ की मजबूरी अडवाणी को तब तक ढोने की है जब तक उनका कोई मजबूत विकल्प तैयार नहीं हो जाए। हालांकि संघ ने अपने प्रतिनिधि के तौर पर किसी बड़े पदाधिकारी को चिंतन बैठक में नहीं भेजा, लेकिन भाजपा के संगठन मंत्री रामलाल, सह संगठन मंत्री सौदान सिंह और बी. सतीष की उपस्थिति यह साबित करने के लिए काफी थी कि भाजपा के बड़े नेता संघ का आदेष समझ लें कि जब तक अडवाणी का मजबूत विकल्प नहीं है तब तक उछल-कूद न मचाएं और अडवाणी भी समझ लें कि उन्हें हटना तो है इसलिए ज्यादा पैर न फैलाएं।
तमाषा यह है कि जो लोग चिंतन कर रहे थे उन में से अधिकांष का जनता की राजनीति से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है। वह या तो संघ के चंपू हैं या राज्यसभा की राजनीति करने वाले बड़े जुगाड़ू। ऐसे में जनता ने क्यों भाजपा को नकार दिया इस प्रष्न पर स्वस्थ और ईमानदार चर्चा कैसे हो सकती है?
जसवंत सिंह प्रकरण और यषवंत सिन्हा का चिट्ठी प्रकरण भी चिंतन बैठक का एक और प्रष्न रहा। पार्टी में सवाल उठ रहा है कि क्या पार्टी की कार्य षैली में कोई खोट है? क्योंकि भाजपा अकेले संघ के निर्देष और विचारधारा के बल पर कांग्रेस का विकल्प नहीं बन सकती और पार्टी को एक राश्ट्रीय विकल्प बनाने में बहुत बड़ी भूमिका उन नेताओं की है जो संघ की पृश्ठभूमि से नहीं आए हैं। लेकिन यह नेता जो बाहर से आते हैं या तो पार्टी में लम्बे समय तक रह नहीं पाते और पार्टी के कल्चर कोे आत्मसात नहीं कर पाते और जो टिक भी जाते हैं, तो वह अपनी कामयाबी को ज्यादा पचा नहीं पाते या उनमें अपने राजनीतिक भविश्य के प्रति हमेषा एक भय बना रहता है। चिंतन का विशय यह भी था कि एक संपूर्ण विकल्प बनने के लिए पार्टी को दक्षिणी राज्यों में भी अपना आधार बढ़ाना होगा जो कि एक बड़ी चुनौती है। क्योंकि पष्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेष, तमिलनाडु, और केरल में तो पार्टी का सूपड़ा ही साफ है। इन प्रदेषों की लगभग 150 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां पार्टी का कोई नामलेवा भी नहीं हैं। ऐसे में किस आधार पर पार्टी अपने दम पर कांग्रेस का विकल्प बन पाएगी?
चिंतन बैठक में पार्टी की हार के बाद सवाल खड़ा करने वाले यषवंत सिंहा, अरूण षौरी, को तो बुलाया ही नहीं गया और जसवंत सिंह को बुलाया भी गया तो चिंतन षुरू होने से पहले ही उन्हें पार्टी से बेदखल कर दिया गया। अब षौरी ने खुद बगावत का रास्ता अख्तयार कर लिया है। इसलिए हार के कारणों पर कोई सार्थक चर्चा ही नहीं हुई। अडवाणी भी इस बात का संकेत पहले ही दे चुके थे कि चिंतन इस बात पर नहीं होगा कि पार्टी क्यों हारी बल्कि चिंता इस बात पर है कि पार्टी आगे कैसे बढ़े? समझा जाता है कि इस विशय पर चिंतन हुआ कि पार्टी में नए सिरे से कैसे जान फूंकी जाए और जहां पार्टी बिखर रही है वहां बिखराव कैसे रोका जाए।
उत्तार प्रदेष जहां से पार्टी ऊर्जा प्राप्त करती रही है, वहीं उसका आधार खिसक रहा है। जबकि पार्टी अघ्यक्ष राजनाथ सिंह स्वयं उत्तार प्रदेष से आते हैं। वहां वरूण गांधी का अचानक उदय भी क्या भाजपा की हार का कारण्ा रहा? इस प्रष्न पर भी चिंतन होना स्वाभाविक है। एक तरफ संघ हिन्दुत्व की राह पर चलने के लिए दबाव बना रहा है तो दूसरी तरफ वरूण के बयानों को लेकर पार्टी के वरिश्ठ नेता आपस में उलझते रहे हैं। चुनाव में हार के लिए पार्टी के एक तबके ने मुस्लिम वोटों का कांग्रेस की तरफ रूझान को बताया और इसके लिए वरूण के भाशण को जिम्मेदार ठहराया। इस तरह के सवाल भाजपा के राश्ट्रवादी कहे जाने वाले मुस्लिम नेताओं मुख्तार अब्बास नकवी, षहनवाज हुसैन ने उठाए थे। मध्य प्रदेष के मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चौहान भी चुनाव में हार के लिए मुसलमानों की भूमिका को जिम्मेदार ठहरा चुके हैं। अब भाजपा के सामने धर्मसंकट यह है कि वह अगर यह स्वीकार करती है कि वरूण प्रकरण हार का एक बड़ा कारण रहा तो फिर संघ की हिन्दुत्व लाइन का क्या होगा? क्या भाजपा यह स्वीकार कर ले कि हिन्दुत्व के मुद्दे के कारण हार हुई? लेकिन मजेदार बात यह रही कि सार्वजनिक तौर पर स्वयं को हिन्दुओं की पार्टी मानने से इंकार करने वाली भाजपा की चिंतन बैठक में बड़े मुस्लिम नेता षहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी और नजमा हेपतुल्ला जैसे लोग चिंतन बैठक में घुस ही नहीं पाए। समझा जा सकता है कि भला उनके सवालों पर क्या चिंतन हुआ होगा जब पूरे चिंतन में एक भी मुस्लिम नेता मौजूद नहीं था।
कुल मिलाकर यह चिंतन बैठक भाजपा के
अनुषासन का मुद्दा भी चिंतन का बड़ा विशय है। यह पहला अवसर नहीं है कि वसुंधरा राजे ने हाईकमान के आदेष को मानने से इंकार कर दिया। इससे पहले भी उत्ताराखण्ड के मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खण्डूड़ी ने पहले तो खुद ही हाईकमान को अपने इस्तीफे की पेषकष की थी और बाद में जब उनसे इस्तीफा देने के लिए कहा गया तो उन्होंने ना नुकुर करना षुरू कर दिया। इसीलिए चिंतन बैठक से पहले भाजपा ने जसवंत सिंह की राजनीतिक चिता सजाने से बैठक का आगाज करके एक तीर से कई निषाने साधे। पहला संदेष तो वसुधरा राजे को ही दिया गया कि पार्टी जब जसवंत सिंह जैसे कद्दावर नेता को बाहर का रास्ता दिखा सकती है तो महारानी भी जरा पार्टी की मर्यादा में रहें अन्यथा उनके लिए भी बाहर का रास्ता कभी भी खुल सकता है। दूसरा संदेष उन नेताओं के लिए था जो संघ की पृश्ठभूमि से नहीं आए हैं। उनके लिए साफ संदेष दिया गया कि उन्हें संघ के बताए रास्ते पर ही चलना होगा और भाजपा को कांग्रेस बनाने का प्रयास किया तो हश्र जसवंत सिंह जैसा होगा। तीसरा संदेष षहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी और नजमा हेपतुल्ला जैसों के लिए दिया गया कि भाजपा का अंतिम पड़ाव संघ का बताया हुआ उग्र हिन्दुत्व ही है, इसलिए भाजपा में यदि रहना होगा तो संघ को सहना ही होगा।
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं।)